10-11-2012, 02:10 PM | #1 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
आधे-अधूरे - मोहन राकेश
स्त्री। उम्र चालीस को छूती। चेहरे पर यौवन की चमक और चाह फिर भी शेष। ब्लाउज और साड़ी साधारण होते हुए भी सुरुचिपूर्ण। दूसरी साड़ी विशेष अवसर की। बड़ी लड़की। उम्र बीस से ऊपर नहीं। भाव में परिस्थितियों से संघर्ष का अवसाद और उतावलापन। कभी-कभी उम्र से बढ़ कर बड़प्पन। साड़ी : माँ से साधारण। पूरे व्यक्तित्व में एक बिखराव। छोटी लड़की। उम्र बारह और तेरह के बीच। भाव, स्वर, चाल-हर चीज में विद्रोह। फ्रॉक चुस्त, पर एक मोजे में सूराख। लड़का। उम्र इक्कीस के आसपास। पतलून के अंदर दबी भड़कीली बुश्शर्ट धुल-धुल कर घिसी हुई। चेहरे से, यहाँ तक कि हँसी से भी, झलकती खास तरह की कड़वाहट। |
10-11-2012, 02:11 PM | #2 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
स्थान : मध्य-वित्तीय स्तर से ढह कर निम्न-मध्य-वित्तीय स्तर पर आया एक घर।
सब रूपों में इस्तेमाल होनेवाला वह कमरा जिसमें उस घर के व्यतीत स्तर के कई एक टूटते अवशेष - सोफा-सेट , डाइनिंग टेबल, कबर्ड और ड्रेसिंग टेबल आदि -किसी-न-किसी तरह अपने लिए जगह बनाए हैं। जो कुछ भी है, वह अपनी अपेक्षाओं के अनुसार न हो कर कमरे की सीमाओं के अनुसार एक और ही अनुपात से है। एक चीज का दूसरी चीज से रिश्ता तात्कालिक सुविधा की माँग के कारण लगभग टूट चुका है। फिर भी लगता है कि वह सुविधा कई तरह की असुविधाओं से समझौता करके की गई है - बल्कि कुछ असुविधाओं में ही सुविधा खोजने की कोशिश की गई है। सामान में कहीं एक तिपाई , कहीं दो-एक मोढ़े, कहीं फटी-पुरानी किताबों का एक शेल्फ और कहीं पढ़ने की एक मेज-कुरसी भी है। गद्दे,परदे, मेजपोश और पलंगपोश अगर हैं, तो इस तरह घिसे, फटे या सिले हुए की समझ में नहीं आता कि उनका न होना क्या होने से बेहतर नहीं था ? तीन दरवाजे तीन तरफ से कमरे में झाँकते हैं। एक दरवाजा कमरे को पिछले अहाते से जोड़ता है , एक अंदर के कमरे से और एक बाहर की दुनिया से। बाहर का एक रास्ता अहाते से हो कर भी है। रसोई में भी अहाते से हो कर जाना होता है। परदा उठने पर सबसे पहले चाय पीने के बाद डाइनिंग टेबल पर छोड़ा गया अधटूटा टी-सेट आलोकित होता है। फिर फटी किताबों और टूटी कुर्सियों आदि में से एक-एक। कुछ सेकंड बाद प्रकाश सोफे के उस भाग पर केंद्रित हो जाता है जहाँ बैठा काले सूट वाला आदमी सिगार के कश खींच रहा है। उसके सामने रहते प्रकाश उसी तरह सीमित रहता है , पर बीच-बीच में कभी यह कोना और कभी वह कोना साथ आलोकित हो उठता है। |
10-11-2012, 02:13 PM | #3 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
का.सू.वा. : (कुछ अंतर्मुख भाव से सिगार की राख झाड़ता) फिर एक बार, फिर से वही शुरुआत...।
जैसे कोशिश से अपने को एक दायित्व के लिए तैयार करके सोफे से उठ पड़ता है। मैं नहीं जानता आप क्या समझ रहे हैं मैं कौन हूँ और क्या आशा कर रहे हैं मैं क्या कहने जा रहा हूँ। आप शायद सोचते हों कि मैं इस नाटक में कोई एक निश्चित इकाई हूँ - अभिनेता, प्रस्तुतकर्ता, व्यवस्थापक या कुछ और; परंतु मैं अपने संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकता - उसी तरह जैसे इस नाटक के संबंध में नहीं कह सकता। क्योंकि यह नाटक भी अपने में मेरी ही तरह अनिश्चित है। अनिश्चित होने का कारण यह है कि...परंतु कारण की बात करना बेकार है। कारण हर चीज का कुछ-न-कुछ होता है, हालाँकि यह आवश्यक नहीं कि जो कारण दिया जाए, वास्तविक कारण वही हो। और जब मैं अपने ही संबंध में निश्चित नहीं हूँ, तो और किसी चीज के कारण-अकारण के संबंध में निश्चित कैसे हो सकता हूँ ? सिगार के कश खींचता पल-भर सोचता-सा खड़ा रहता है। मैं वास्तव में कौन हूँ ? - यह एक ऐसा सवाल है जिसका सामना करना इधर आ कर मैंने छोड़ दिया है जो मैं इस मंच पर हूँ, वह यहाँ से बाहर नहीं हूँ और जो बाहर हूँ...ख़ैर, इसमें आपकी क्या दिलचस्पी हो सकती है कि मैं यहाँ से बाहर क्या हूँ ? शायद अपने बारे में इतना कह देना ही काफी है कि सड़क के फुटपाथ पर चलते आप अचानक जिस आदमी से टकरा जाते हैं, वह आदमी मैं हूँ। आप सिर्फ घूर कर मुझे देख लेते हैं - इसके अलावा मुझसे कोई मतलब नहीं रखते कि मैं कहाँ रहता हूँ, क्या काम करता हूँ, किस-किससे मिलता हूँ और किन-किन परिस्थितियों में जीता हूँ। आप मतलब नहीं रखते क्योंकि मैं भी आपसे मतलब नहीं रखता, और टकराने के क्षण में आप मेरे लिए वही होते हैं जो मैं आपके लिए होता हूँ। इसलिए जहाँ इस समय मैं खड़ा हूँ, वहाँ मेरी जगह आप भी हो सकते थे। दो टकरानेवाले व्यक्ति होने के नाते आपमें और मुझमें, बहुत बड़ी समानता है। यही समानता आपमें और उसमें, उसमें और उस दूसरे में, उस दूसरे में और मुझमें...बहरहाल इस गणित की पहेली में कुछ नहीं रखा है। बात इतनी है कि विभाजित हो कर मैं किसी-न-किसी अंश में आपमें से हर-एक व्यक्ति हूँ और यही कारण है कि नाटक के बाहर हो या अंदर, मेरी कोई भी एक निश्चित भूमिका नहीं है। कमरे के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में टहलने लगता है। मैंने कहा था, यह नाटक भी मेरी ही तरह अनिश्चित है। उसका कारण भी यही है कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही सब कुछ इसमें निर्धारित या अनिर्धारित है। एक विशेष परिवार, उसकी विशेष परिस्थितियाँ ! परिवार दूसरा होने से परिस्थितियाँ बदल जातीं, मैं वही रहता। इसी तरह सब कुछ निर्धारित करता। इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी तरह से मुझे झेलते - या वह स्त्री मेरी भूमिका ले लेती और मैं उसकी भूमिका ले कर उसे झेलता। नाटक अंत तक फिर भी इतना ही अनिश्चित बना रहता और यह निर्णय करना इतना ही कठिन होता कि इसमें मुख्य भूमिका किसकी थी - मेरी, उस स्त्री की, परिस्थितियों की, या तीनों के बीच से उठते कुछ सवालों की। फिर दर्शकों के सामने आ कर खड़ा हो जाता है। सिगार मुँह में लिए पल-भर ऊपर की तरफ देखता रहता है। फिर ' हँह ' के स्वर के साथ सिगार मुँह से निकाल कर उसकी राख झाड़ता है। पर हो सकता है, मैं एक अनिश्चित नाटक में एक अनिश्चित पात्र होने की सफाई-भर पेश कर रहा हूँ। हो सकता है, यह नाटक एक निश्चित रूप ले सकता हो - किन्हीं पात्रों को निकाल देने से, दो-एक पात्र और जोड़ देने से, कुछ भूमिकाएँ बदल देने से, या परिस्थितियों में थोड़ा हेर-फेर कर देने से। हो सकता है, आप पूरा देखने के बाद, या उससे पहले ही, कुछ सुझाव दे सकें इस संबंध में। इस अनिश्चित पात्र से आपकी भेंट इस बीच कई बार होगी...। हलके अभिवादन के रूप में सिर हिलाता है जिसके साथ ही उसकी आकृति धीरे-धीरे धुँधला कर अँधेरे में गुम हो जाती है। उसके बाद कमरे के अलग-अलग कोने एक-एक करके आलोकित होते हैं और एक आलोक व्यवस्था में मिल जाते हैं। कमरा खाली है। तिपाई पर खुला हुआ हाई स्कूल का बैग पड़ा है जिसमें आधी कापियाँ और किताबें बाहर बिखरी हैं। सोफे पर दो-एक पुराने मैगजीन ,एक कैंची और कुछ कटी-अधकटी तस्वीरें रखी हैं। एक कुरसी की पीठ पर उतरा हुआ पाजामा झूल रहा है। स्त्री कई-कुछ सँभाले बाहर से आती हैं। कई-कुछ में कुछ घर का है , कुछ दफ्तर का , कुछ अपना। चेहरे पर दिन-भर के काम की थकान है और इतनी चीजों के साथ चल कर आने की उलझन। आ कर सामान कुरसी पर रखती हुई वह पूरे कमरे पर एक नजर डाल लेती है। |
10-11-2012, 02:14 PM | #4 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
स्त्री: (थकान निकालनेवाले स्वर में) ओह् होह् होह् होह् ! (कुछ हताश भाव से) फिर घर में कोई नहीं।(अंदर के दरवाज़े की तरफ देख कर) किन्नी !...होगी ही नहीं, जवाब कहाँ से दे ? (तिपाई पर पड़े बैग को देख कर) यह हाल है इसका! (बैग की एक किताब उठा कर) फिर फाड़ लाई एक और किताब ! जरा शरम नहीं कि रोज-रोज कहाँ से पैसे आ सकते हैं नयी किताबों के लिए ! (सोफे के पास आ कर) और अशोक बाबू यह कमाई करते रहे हैं दिन-भर ! (तस्वीर उठा कर देखती) एलिजाबेथ टेलर...आड्रेबर्न...शर्ले मैक्लेन !
तस्वीरें वापस रख कर बैठने लगती है कि नजर झूलते पाजामे पर जा पड़ती है। (उस तरफ जाती) बड़े साहब वहाँ अपनी कारगुजारी कर गए हैं। पाजामे को मरे जानवर की तरह उठा कर देखती है और कोने में फेंकने को हो कर फिर एक झटके के साथ उसे तहाने लगती है। दिन-भर घर पर रह कर आदमी और कुछ नहीं, तो अपने कपड़े तो ठिकाने पर रख ही सकता है। पाजामे कबर्ड में रखने से पहले डाइनिंग टेबल पर पड़े चाय के सामान को देख कर और खीज जाती है , पाजामे को कुरसी पर पटक देती है और प्यालियाँ वैगरह ट्रे में रखने लगती है। इतना तक नहीं कि चाय पी है, तो बरतन रसोईघर में छोड़ आएँ। मैं ही आ कर उठाऊँ, तो उठाऊँ...। ट्रे उठा कर अहाते के दरवाजे की तरफ बढ़ती ही है कि पुरुष एक उधर से आ जाता है। स्त्री ठिठक कर सीधे उसकी आँखों में देखती है , पर वह उससे आँखें बचाता पास से निकल कर थोड़ा आगे आ जाता है। पुरुष एक : आ गईं दफ्तर से ? लगता है, आज बस जल्दी मिल गई। स्त्री : (ट्रे वापस मेज पर रखती) यह अच्छा है कि दफ्तर से आओ, तो कोई घर पर दिखे ही नहीं। कहाँ चले गए थे तुम ? पुरुष एक : कहीं नहीं। यहीं बाहर था - मार्केट में। स्त्री : (उसका पाजामा हाथ में ले कर) पता नहीं यह क्या तरीका है इस घर का ? रोज आने पर पचास चीजें यहाँ-वहाँ बिखरी मिलती हैं। पुरुष एक : (हाथ बढ़ा कर) लाओ, मुझे दे दो। स्त्री : (दूसरे पाजामे को झाड़ कर फिर से तहाती हुई) अब क्या देदूँ ! पहले खुद भी तो देख सकते थे। गुस्से में कबर्ड खोल कर पाजामे को जैसे उसमें कैद कर देती है। पुरुष एक फालतू-सा इधर-उधर देखता है , फिर एक कुरसी की पीठ पर हाथ रख लेता है। (कबर्ड के पास आ कर ट्रे उठाती) चाय किस-किसने पी थी? पुरुष एक : (अपराधी स्वर में) अकेले मैंने। स्त्री : तो अकेले के लिए क्या जरूरी था कि पूरी ट्रे की ट्रे ... किन्नी को दूध दे दिया था ? पुरुष एक : वह मुझे दिखी ही नहीं अब तक। स्त्री : (ट्रे ले कर चलती है) दिखे तब न जो घर पर रहे कोई। अहाते के दरवाजे से हो कर पीछे रसोईघर में चली जाती है। पुरुष एक लंबी 'हूँ' के साथ कुरसी को झुलाने लगता है। स्त्री पल्ले से हाथ पोंछती रसोईघर से वापस आती है। पुरुष एक : मैं बस थोड़ी देर के लिए निकला था बाहर। स्त्री : (और चीजों को समेटने में व्यस्त) मुझे क्या पता कितनी देर के लिए निकले थे।...वह आज फिर आएगा अभी थोड़ी देर में। तब तो घर पर रहोगे तुम ? पुरुष एक : (हाथ रोक कर) कौन आएगा ? सिंघानिया ? स्त्री : उसे किसी के यहाँ के खाना खाने आना है इधर। पाँच मिनट के लिए यहाँ भी आएगा। पुरुष एक फिर उसी तरह 'हूँ' के साथ कुरसी को झुलाने लगता है। : मुझे यह आदत अच्छी नहीं लगती तुम्हारी। कितनी बार कह चुकी हूँ। पुरुष एक कुरसी से हाथ हटा लेता है। पुरुष एक : तुम्हीं ने कहा होगा आने के लिए। स्त्री : कहना फर्ज नहीं बनता मेरा ? आखिर बॉस है मेरा। पुरुष एक : बॉस का मतलब यह थोड़े ही है न कि...? स्त्री : तुम ज्यादा जानते हो ? काम तो मैं ही करती हूँ उसके मातहत। पुरुष एक फिर से कुरसी को झुलाने को हो कर एकाएक हाथ हटा लेता है। पुरुष एक : किस वक्त आएगा ? स्त्री : पता नहीं जब गुजरेगा इधर से। पुरुष एक : (छिले हुए स्वर में) यह अच्छा है...। स्त्री : लोगों को ईर्ष्या है मुझसे, कि दो बार मेरे यहाँ आ चुका है। आज तीसरी बार आएगा। |
10-11-2012, 02:14 PM | #5 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
कैंची , मैगजीन और तस्वीरें समेट कर पढ़ने की मेज की दराज में रख देती है। किताबें बैग में बंद करके उसे एक तरफ सीधा खड़ा कर देती है।
पुरुष एक : तो लोगों को भी पता है वह आता है यहाँ ? स्त्री : (एक तीखी नजर डाल कर) क्यों, बुरी बात है ? पुरुष एक : मैंने कहा है बुरी बात है ? मैं तो बल्कि कहता हूँ, अच्छी बात है। स्त्री : तुम जो कहते हो, उसका सब मतलब समझ में आता है मेरी। पुरुष एक : तो अच्छा यही है कि मैं कुछ न कह कर चुप रहा करूँ। अगर चुप रहता हूँ, तो...। स्त्री : तुम चुप रहते हो। और न कोई। अपनी चीजें कुरसी से उठा कर उन्हें यथास्थान रखने लगती है। पुरुष एक : पहले जब-जब आया है वह, मैंने कुछ कहा है तुमसे ? स्त्री : अपनी शरम के मारे ! कि दोनों बार तुम घर पर नहीं रहे। पुरुष एक : उसमें क्या है ! आदमी को काम नहीं हो सकता बाहर ? स्त्री : (व्यस्त) वह तो आज भी हो जाएगा तुम्हें। पुरुष एक : (ओछा पड़कर) जाना तो है आज भी मुझे...पर तुम जरूरी समझो मेरा यहाँ रहना, तो...। स्त्री : मेरे लिए रुकने की जरूरत नहीं। (यह देखती कि कमरे में और कुछ तो करने को शेष नहीं) तुम्हें और प्याली चाहिए चाय की ? मैं बना रही हूँ अपने लिए। पुरुष एक : बना रही हो तो बना लेना एक मेरे लिए भी। स्त्री अहाते के दरवाजे की तरफ जाने लगती है। : सुनो। स्त्री रुक कर उसकी तरफ देखती है। : उसका क्या हुआ...वह जो हड़ताल होनेवाली थी तुम्हारे दफ्तर में ? स्त्री : जब होगी पता चल ही जाएगा तुम्हें। पुरुष एक : पर होगी भी ? स्त्री : तुम उसी के इंतजार में हो क्या ? चली जाती है। पुरुष एक सिर हिला कर इधर-उधर देखता है कि अब वह अपने को कैसे व्यस्तरख सकता है। फिर जैसे याद हो आने से शाम का अखबार जेब से निकाल कर खोल लेता है। हर सुर्खी पढ़ने के साथ उसके चेहरे का भाव और तरह का हो जाता है- उत्साहपूर्ण , व्यंग्यपूर्ण,तनाव-भरा या पस्त। साथ मुँह से 'बहुत अच्छे! 'मार दिया, 'लो' और 'अब'? जैसे शब्द निकल पड़ते हैं। स्त्री रसोईघर से लौट कर आती है। |
10-11-2012, 02:15 PM | #6 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
पुरुष एक : (अखबार हटा कर स्त्री को देखता) हड़तालें तो आजकल सभी जगह हो रही हैं। इसमें देखो...।
स्त्री : (उस ओर से विरक्त) तुम्हें सचमुच कहीं जाना है क्या? कहाँ जाने की बात कर रहे थे तुम? पुरुष एक : सोच रहा था, जुनेजा के यहाँ हो आता। स्त्री : ओऽऽ जुनेजा के यहाँ !...हो आओ। पुरुष एक : फिलहाल उसे देने के लिए पैसा नहीं है, तो कम-से-कम मुँह तो उसे दिखाते रहना चाहिए। स्त्री : हाँऽऽ, दिख आओ मुँह जा कर। पुरुष एक : वह छह महीने बाहर रह कर आया है। हो सकता है, कोईनया कारोबार चलाने की सोच रहा हो जिसमें मेरे लिए... स्त्री : तुम्हारे लिए तो पता नहीं क्या-क्या करेगा वह जिंदगी में! पहले ही कुछ कम नहीं किया है। झाड़न ले कर कुरसियों वगैरह को झड़ना शुरू कर देती है। : इतनी गर्द भरी रहती है हर वक्त इस घर में ! पता नहीं कहाँ से चली आती है ! पुरुष एक : तुम नाहक कोसती रहती हो उस आदमी को। उसने तो अपनी तरफ से हमेशा मेरी मदद ही की है ! स्त्री : न करता मदद, तो उतना नुकसान तो न होता जितना उसके मदद करने से हुआ है। पुरुष एक : (कुढ़ कर सोफे पर बैठता) तो नहीं जाता मै ! अपने अकेले के लिए जाना है मुझे! अब तक तकदीर ने साथ नहीं दिया तो इसका यह मतलब तो नहीं कि... स्त्री : यहाँ से उठ जाओ। मुझे झाड़ लेने दो जरा। पुरुष एक उठ कर फिर बैठने की प्रतीक्षा में खड़ा रहता है। : उस कुरसी पर चले जाओ। वह साफ हो गई है। पुरुष एक गाली देती नजर से उसे देख कर उस कुरसी पर जा बैठता है। : (बड़बड़ाती) पहली बार प्रेस में जो हुआ सो हुआ। दूसरी बार फिर क्या हो गया ? वही पैसा जुनेजा ने लगाया, वही तुमने गाया। एक ही फैक्टरी लगी, एक ही जगह जमा-खर्च हुआ। फिर भी तकदीर ने उसका साथ दे दिया, तुम्हारा नहीं दिया। पुरुष एक : (गुस्से से उठता है) तुम तो ऐसी बात करती हो जैसे... स्त्री : खड़े क्यों हो गए ? पुरुष एक : क्यों, मैं खड़ा नहीं हो सकता ? स्त्री : (हलका वक्फा ले कर तिरस्कारपूर्ण स्वर में) हो तो सकते हो,पर घर के अंदर ही। पुरुष एक : (किसी तरह गुस्सा निगलता) मेरी जगह तुम हिस्सेदार होती न फैक्टरी की, तो तुम्हें पता चल जाता कि... स्त्री : पता तो मुझे तब भी चल ही रहा है। नहीं चल रहा ? पुरुष एक : (बड़बड़ाता) उन दिनों पैसा लिया था फैक्टरी से ! जो कुछ लगाया था, यह सारा तो शुरू में ही निकाल-निकाल कर खा लिया और.... स्त्री : किसने खा लिया ? मैंने ? पुरुष एक : नहीं, मैंने ! पता है कितना खर्च था उन दिनों इस घर का, चार सौ रुपए महीने का मकान था। टैक्सियों में आना-जाना होता था। किस्तों पर फ्रिज खरीदा गया था। लड़के-लड़की की कान्वेंट की फीसें जाती थीं... । स्त्री : शराब आती थी। दावतें उड़ती थीं। उन सब पर पैसा तो खर्च होता ही था। पुरुष एक : तुम लड़ना चाहती हो ? स्त्री : तुम लड़ भी सकते हो इस वक्त, ताकि उसी बहाने चले जाओ घर से।....वह आदमी आएगा, तो जाने क्या सोचेगा कि क्यों हर बार इसके आदमी को कोई-न-कोई काम हो जाता है बाहर। शायद समझे कि मैं ही जान-बूझ कर भेज देती हूँ। |
10-11-2012, 02:16 PM | #7 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
पुरुष एक : वह मुझसे तय करके आता नहीं कि मैं उसके लिए मौजूद रहा करूँ घर पर।
स्त्री : कह दूँगी, आगे से तय करके आया करे तुमसे। तुम इतने बिजी आदमी जो हो। पता नहीं कब किस बोर्ड की मीटिंग में जाना पड़ जाए। पुरुष एक : (कुछ धीमा पड़ कर , पराजित भाव से) तुम तो बस आमादा ही रहती हो हर वक्त। स्त्री : अब जुनेजा आ गया है न लौट कर, तो रहा करना फिर तीन-तीन दिन घर से गायब। पुरुष एक : (पूरी शक्ति समेट कर सामना करता) तुम फिर वही बात उठाना चाहती हो ? अगर रहा भी हूँ कभी तीन दिन घर से बाहर, तो आखिर किस वजह से ? स्त्री : वजह का पता तो तुम्हें पता होगा या तुम्हारे लड़के को। वह भी तीन-तीन दिन दिखाई नहीं देता घर पर। पुरुष एक : तुम मेरा मुकाबला उससे करती हो ? स्त्री : नहीं, उसका मुकाबला तुमसे करती हूँ। जिस तरह तुमने ख्वार की अपनी जिंदगी, उसी तरह वह भी... पुरुष एक : और लड़की तुम्हारी? उसने अपनी जिंदगी ख्वार करने की सीख किससे ली है ? (अपने जाने भारी पड़ता) मैंने तो कभी किसी के साथ घर से भागने की बात नहीं सोची थी। स्त्री : (एकटक उसकी आँखों में देखती) तुम कहना क्या चाहते हो? पुरुष एक : कहना क्या है...जा कर चाय बना लो, पानी हो गया होगा। सोफे पर पर बैठ कर फिर अखबार खोल लेता है , पर ध्यान पढ़ने में लगा नही पाता । स्त्री : मुझे भी पता है, पानी हो गया होगा । मैं जब भी किसी को बुलाती हूँ यहाँ, मुझे पता होता है तुम यही सब बातें करोगे। पुरुष एक : (जैसे अखबार में कुछ पढ़ता हुआ) हूँ-हूँ-हूँ-हूँ । स्त्री : वैसे हजार बार कहोगे लड़के की नौकरी के लिए किसी से बात क्यों नही करती। और जब मैं मौका निकलती हूँ उसके लिए तो... पुरुष-एक : हाँ, सिंघानिया तो लगवा ही देगा जरूर। इसीलिए बेचारा आता है यहाँ चल कर । स्त्री : शुक्र नहीं मानते कि इतना बड़ा आदमी, सिर्फ एक बार कहने-भर से... पुरुष-एक : मैं नहीं शुक्र मनाता ? जब-जब किसी नए आदमी का आना- जाना शुरू होता है यहाँ, मैं हमेशा शुक्र मानता हूँ। पहले जगमोहन आया करता था। फिर मनोज आने लगा था...। स्त्री : (स्थिर दृष्टि से उसे देखती) और क्या-क्या बात रह गई है कहने को बाकी ? वह भी कह डालो जल्दी से। पुरुष एक : क्यों...जगमोहन का नाम मेरी जबान पर आया नहीं कि तुम्हारे हवास गुम होने शुरू हुए ? स्त्री : (गहरी वितृष्णा के साथ) जितने नाशुक्रे आदमी तुम हो, उससे तो मन करता है कि आज ही मैं... कहती हुई अहाते के दरवाजे की तरफ मुड़ती ही है कि बाहर से बड़ी लड़की की आवाज सुनाई देती है। |
10-11-2012, 02:16 PM | #8 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
बड़ी लड़की : ममा !
स्त्री रुक कर उस तरफ देखती है। चेहरा कुछ फीका पड़ जाता है। स्त्री : बिन्नी आई है बाहर । पुरुष एक न चाहते मन से अखबार लपेट कर उठ खड़ा होता है। पुरुष एक : फिर उसी तरह आई होगी। स्त्री : जा कर देख लोगे क्या चाहिए उसे ? बड़ी लड़की की आवाज फिर सुनाई देती है। बड़ी लड़की : ममा, टूटे पचास पैसे देना जरा। पुरुष एक किसी अनचाही स्थिति का सामना करने की तरह बाहर के दरवाजे की तरफ बढ़ता है। स्त्री : पचास पैसे है न तुम्हारी जेब में ? होगे तो सही दूध के पैसों से बचेहुए। पुरुष एक : मैंने सिर्फ पाँच पैसे खर्च किए हैं अपने पर... इस अखबार के। बाहर निकल जाता है। स्त्री पल-भर उधर देखती रह कर अहाते के दरवाजे से रसोईघर में चली जाती है। बड़ी लड़की बाहर से आती है। पुरुष एक उसके पीछे-पीछे आ कर इस तरह कमरे में नजर दौड़ाता है जैसे स्त्री के उस कमरे में न होने से अपने को गलत जगह पर अकेला पा रहा हो। पुरुष एक : (अपने अटपनेपन को ढँक पाने में असमर्थ , बड़ी लड़की से) बैठ तू। बड़ी लड़की : ममा कहाँ हैं ? पुरुष एक : उधर होगी रसोई में। बड़ी लड़की : (पुकार कर) ममा ! स्त्री दोनों हाथों में चाय की प्यालियाँ लिए अहाते के दरवाजे से आती है। स्त्री : क्या हाल हैं तेरे ? बड़ी लड़की : ठीक हैं । पुरुष एक स्त्री को हाथों के इशारे से बतलाने की कोशिश करता है कि वह अपने साथ सामान कुछ भी नहीं लाई। स्त्री : चाय लेगी? बड़ी लड़की : अभी नहीं, पहले हाथ-मुँह धो लूँ गुसलखाने में जा कर। सारा जिस्म इस तरह चिपचिपा रहा है कि बस.... स्त्री : तेरी आँखें ऐसी क्यों हो रही है ? बड़ी लड़की : कैसी हो रही हैं ? स्त्री : पता नहीं कैसी हो रही हैं ! बड़ी लड़की : तुम्हें ऐसे ही लग रहा। मैं अभी आती हूँ हाथ-मुँह धो कर। अहाते के दरवाजे से चली जाती है। पुरुष एक अर्थपूर्ण दृष्टि से स्त्री को देखता उसके पास जाता है। पुरुष एक : मुझे तो यह उसी तरह आई लगती है। स्त्री चाय की प्याली उसकी तरफ बढ़ा देती है। स्त्री : चाय ले लो। पुरुष एक : (चाय ले कर) इस बार कुछ समान भी नहीं है साथ में। स्त्री : हो सकता है। थोड़ी देर के लिए आई हो। पुरुष एक : पर्स में केवल एक ही रुपया था। स्कूटर-रिक्शा का पूरा किराया भी नहीं । स्त्री : क्या पता कहीं और से आ रही हो ! पुरुष एक : तुम हमेशा बात को ढँकने की कोशिश क्यों करती हो ? एक बार इससे पूछती क्यों नहीं खुल कर ? स्त्री : क्या पूछूँ ? पुरुष एक : यह मैं बताऊँगा तुम्हें ? स्त्री चाय के घूँट भरती एक कुरसी पर बैठ जाती है। |
10-11-2012, 02:16 PM | #9 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
(पल भर उत्तर की प्रतीक्षा करने के बाद) मेरी उस आदमी के बारे में कभी अच्छी राय नहीं थी। तुम्हीं ने हवा बाँध रखी थी कि मनोज यह है, वह है - जाने क्या है ! तुम्हारी शह से उसका घर में आना-जाना न होता, तो क्या यह नौबत आती कि लड़की उसके साथ जा कर बाद में इस तरह...?
स्त्री : (तंग पड़ कर) तो खुद ही क्यों नहीं पूछ लेते उससे जो पूछना चाहते हो ? पुरुष एक : मैं कैसे पूछ सकता हूँ ? स्त्री : क्यों नहीं पूछ सकते ? पुरुष एक : मेरा पूछना इसलिए गलत है कि... स्त्री : तुम्हारा कुछ भी करना किसी-न-किसी वजह से गलत होता है। मुझे पता नहीं है ? बड़े-बड़े घूँट भर कर चाय की प्याली खाली कर देती है। पुरुष एक : तुम्हें सब पता है ! अगर सब कुछ मेरे कहने से होता इस घर में... स्त्री : (उठती हुई) तो पता नहीं और क्या बर्बादी हुई होती। जो दो रोटी आज मिल जाती है मेरी नौकरी से, वह भी नहीं मिल पाती। लड़की भी घर में रह कर ही बुढ़ा जाती, पर यह न सोचा होता किसी ने कि.... पुरुष एक : (अहाते के दरवाजे की तरफ संकेत करके) वह आ रहीहै। जल्दी-जल्दी अपनी प्याली खाली करके स्त्री को दे देती है। बड़ी लड़की पहले से काफी सँभली हुई वापस आती है। बड़ी लड़की : (आती हुई) ठंडे पानी के छींटे मुँह पर मारे, तो कुछ होश आया। आजकल के दिनों में तो बस.... (उन दोनों को स्थिर दृष्टि से अपनी ओर देखते पा कर) क्या बात है, ममा? आप लोग इस तरह क्यों देख रहे हैं मुझे ? स्त्री : मैं प्यालियाँ रख कर आ रही हूँ अंदर से। अहाते के दरवाजे से चली जाती है। पुरुष एक भी आँखें हटा कर व्यस्त होने का बहाना खोजता है। बड़ी लड़की : क्या बात है, डैडी ? पुरुष एक : बात ?...बात कुछ भी नहीं। बड़ी लड़की : (कमजोर पड़ती) है तो सही कुछ-न-कुछ बात। पुरुष एक : ऐसे ही तेरी ममा कुछ कह रही थी... बड़ी लड़की : क्या कह रही थीं। पुरुष एक : मतलब वह नहीं, मैं कह रहा था उससे...। बड़ी लड़की : क्या कह रहे थे ? पुरुष एक : तेरे बारे में बात कर रहा था बड़ी लड़की : क्या बात कर रहे थे ? स्त्री लौट कर आ जाती है। |
10-11-2012, 02:17 PM | #10 |
Diligent Member
Join Date: Nov 2010
Location: जालंधर
Posts: 1,239
Rep Power: 22 |
Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
पुरुष एक : वह आ गई है, खुद ही बता देगी तुझे । जैसे अपने को स्थिति से बाहर रखने के लिए थोड़ा परे चला जाता है।बड़ी लड़की : (स्त्री से) डैडी मेरे में क्या बात कर रहे थे, ममा ? स्त्री : उन्हीं से क्यों नहीं पूछती ? बड़ी लड़की : वे कहते है कि तुम बतलाओगी और तुम कहती हो उन्हीं से क्यों नहीं पूछती ! स्त्री : तेरे डैडी तुमसे यह जानना चाहते हैं कि... पुरुष एक : (बीच में ही) अगर तुम अपनी तरफ से नहीं जानना चाहतीं तो रहने दो। बड़ी लड़की : पर बात ऐसी है क्या जानने की ? स्त्री : बात सिर्फ इतनी है कि जिस तरह से तू आजकल आती है वहाँ से, उससे इन्हें कहीं लगता है कि... पुरुष एक : तुम्हें जैसे नहीं लगता। बड़ी लड़की : (जैसे कठघरे में खड़ी) क्या लगता है ? स्त्री : कि कुछ है जो तू अपने मन में छिपाए रखती है, हमें नहीं बतलाती। बड़ी लड़की : मेरी किस बात से लगता है ऐसा ? स्त्री : (पुरुष एक से) अब कहो न इसके सामने वह सब, जो मुझसे कह रहे थे । पुरुष एक : तुमने शुरू की है बात, तुम्हीं पूरा कर डालो अब । स्त्री : (बड़ी लड़की से) मैं तुमसे एक सीधा सवाल पूछ सकती हूँ ? बड़ी लड़की : जरूर पूछ सकती हो । स्त्री : तू खुश है वहाँ पर ? बड़ी लड़की : (बचते स्वर में) हाँ, बहुत खुश हूँ । स्त्री : सचमुच खुश है ? बड़ी लड़की : और क्या ऐसे ही कह रही हूँ ? पुरुष एक : (बिलकुल दूसरी तरफ मुँह किए) यह तो कोई जवाब नहीं है। बड़ी लड़की : (तुनक कर) तो जवाब क्या तभी होता है अगर मैं कहती कि मैं खुश नहीं हूँ, बहुत दुखी हूँ? पुरुष एक : आदमी जो जवाब दे, उसके चेहरे से भी तो झलकना चाहिए। बड़ी लड़की : मेरे चेहरे से क्या झलकता है ? कि मुझे तपेदिक हो गया है? मैं घुल-घुल कर मरी जा रही हूँ ? पुरुष एक : एक तपेदिक ही होता है बस आदमी को ? बड़ी लड़की : तो और क्या-क्या होता है ? आँख से दिखाई देना बंद हो जाता है? नाक-कान तिरछे हो जाते हैं ? होंठ झाड़ कर गिर जाते हैं ? मेरे चेहरे से ऐसा क्या नजर आता है आपको ? पुरुष एक : (कुढ़कर लौटता) तेरी माँ ने तुझसे पूछा है, तू उसी से बात कर। मैं इस मारे कभी पड़ता ही नहीं इन चीजों में। सोफे पर जा कर अखबार खोल लेता है। पर पल-भर बाद ध्यान हो आने से कि वह उसने उलटा पकड़ रखा है , सीधा कर लेता है। स्त्री : (बड़ी लड़की से) अच्छा, छोड़ अब इस बात को। आगे से यह सवाल मैं नहीं पूछूँगी तुझसे। बड़ी लड़की की आँखें छलछला आती हैं । बड़ी लड़की : पूछने में रखा भी क्या है, ममा ! जिंदगी किसी तरह कटती ही चलती है हर आदमी की। पुरुष एक : (अखबार का पन्ना उलटता) यह हुआ कुछ जवाब ! स्त्री : (पुरुष एक से) तुम चुप नहीं रह सकते थोड़ी देर ? |
Bookmarks |
|
|