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Old 17-05-2014, 08:00 AM   #41
bindujain
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त्रिलोचन शास्त्री, चेयरमैन, एडीआर तथा प्रोफेसर आईआईएम, बेंगलुरू

सत्तारूढ़ दल बदला है, लोकसभा में बैठने वाले सांसद नहीं

हम ऐतिहासिक चुनाव के साक्षी बने हैं। 1984 के बाद से पहली बार एक अकेली पार्टी जीतकर सत्ता में आई है। लोगों ने भाजपा के पक्ष में निर्णायक फैसला दिया है और कांग्रेस को खारिज कर दिया है। मतदान का प्रतिशत 1984 के बाद से सर्वाधिक रहा था। अगले पांच साल बहुत रोचक होंगे। इस जीत के प्रभावों के बारे में काफी कुछ लिखा जाएगा। आइए इस चुनाव व जीत के एक पहलू की ओर देखें : हमने किस तरह के लोगों को चुना है? इस चुनाव के 8150 प्रत्याशियों का ब्योरा देखें, जिसमें 3182 प्रत्याशी निर्दलीय थे, तो हमें कई रोचक ट्रेंड देखने को मिलते हैं।
इस बार सर्वाधिक प्रत्याशी चुनावी मैदान में थे-प्रति चुनाव क्षेत्र 15। 2009 की तुलना में 14 फीसदी ज्यादा। करीब 480 दलों ने चुनाव लड़ा। पिछले बार 350 दल मैदान में थे। दुनिया के किसी देश में इतने दल चुनाव नहीं लड़ते। मौजूदा प्रणाली में विजेता को 50 फीसदी वोट हासिल करने की अनिवार्यता नहीं होती। 30 फीसदी वोट भी मिल जाए तो कोई पार्टी बहुमत हासिल कर सकती है। मतलब 50 फीसदी से ज्यादा सीटें। क्या इसका मतलब यह है कि शेष 70 फीसदी लोग प्रतिनिधित्व के बिना ही रह जाते हैं?

इन 8150 प्लस प्रत्याशियों में से 17 फीसदी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। यह 2009 से 15 फीसदी ज्यादा है। गंभीर मामलों वाले प्रत्याशी 8 फीसदी से बढ़कर 11 फीसदी हो गए हैं। लेकिन जब हम प्रमुख दलों को देखते हैं तो हालत और भी खराब नजर आती है। भाजपा में 33 और कांग्रेस में 28 फीसदी प्रत्याशियों पर मामले दर्ज हैं। गंभीर मामलों के प्रत्याशी भाजपा में 21 तो कांग्रेस में 13 फीसदी रहे।
पैसे का दखल भी बढ़ा है। इस चुनाव में प्रत्याशी की औसत संपत्ति भाजपा के लिए 10.32 करोड़ रुपए तो कांग्रेस के लिए13.27 करोड़ रही। 2009 की तुलना में यह ज्यादा है। निजी स्तर पर कई प्रत्याशी स्वीकार करते हैं कि उन्होंने प्रचार पर 10 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च किए। सवाल यह है कि यदि घोषित संपत्ति इससे कम है तो प्रचार में पैसा कौन लगा रहा है? फिर यह 75 लाख की सीमा का 15 फीसदी से उल्लंघन भी है। कानूनी रूप से यह गलत है। क्या इस चुनाव में काले धन भूमिका निभाई है?

अपराध और धन का गठजोड़ भी रोचक है। भाजपा में 7.7 फीसदी ऐसे प्रत्याशी हैं जिन पर गंभीर मामले दर्ज हैं और उनके पास 5 करोड़ रुपए से ज्यादा की संपत्ति है। कांग्रेस में ऐसे 5.4 फीसदी प्रत्याशी हैं। 2009 में जहां 30 फीसदी सांसदों पर आपराधिक मामले और 14 फीसदी पर गंभीर मामले दर्ज थे। 2014 के आंकड़ों का गंभीर अध्ययन जरूरी है पर स्थिति इससे अलग नहीं होगी।

क्या संसद का मूलभूत चरित्र बदलेगा? यदि हम दोनों प्रमुख दलों के साथ जुड़ी मेगा कंपनियों को देखें तो अनुमान लगाया जा सकता है कि दोनों ने कई हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं। क्या संसद में बैठकर कानून बनाने वाले कानून तोड़ने वाले हो सकते हैं? कमजोर नैतिक मनोबल वाली लोकसभा को निहित स्वार्थी तत्व आसानी से अपने पक्ष में भुना सकते हैं। यह यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुआ है और इसका कोई कारण नहीं है ऐसा नई सरकार में नहीं होगा। सत्तारूढ़ दल तो बदला है, लेकिन लोकसभा में बैठने वाले नहीं बदले हैं।

हर दल के नीति-निर्धारक कहते हैं कि हम जब तक जीतते नहीं है, शासन में सुधार नहीं ला सकते। ये तो ‘छोटे’ समझौते हैं जो ‘जमीनी राजनीति’ में करने पड़ते हैं। पर यदि जिन लोगों ने चुनाव में पैसा लगाया है, वे इसका फायदा उठाने के लिए आतुर हों तो क्या बदलाव लोगों के पक्ष में हो सकता है?

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Old 17-05-2014, 08:01 AM   #42
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Old 17-05-2014, 08:01 AM   #43
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संजय कुमार, प्रोफेसर एंड डायरेक्टर, सेंटर फॉर द स्टडीज़ ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़

युवाओं व दलितों के वोट ने दिलाई जीत

2014 लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ है कि भाजपा न केवल सबसे आगे रही, बल्कि इस पार्टी ने भारत के चुनावी इतिहास में सबसे बड़ी जीत हासिल की है। भाजपा ने सबसे ज्यादा सीटें हासिल करके नया इतिहास रचा। 2009 के लोकसभा चुनावों से तुलना की जाए तो इस बार बीजेपी170 सीटें आगे रही। अलाइज (सहयोगी पार्टियों) के बदौलत पार्टी ने करीब 300 सीटें अपने नाम की और एनडीए को 334 सीटें मिलीं।

ये कांग्रेस की सबसे शर्मकार हार है। उन्हें केवल 62 सीटें मिली। मात्र 20 फीसदी लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया। नतीजों को देखें तो पता चलता है कि कुछ क्षेत्रीय पार्टियों जैसे तृणमूल कांग्रेस, एआईएडीएमके, बीजेडी की पकड़ अपनी सीटों पर मजबूत रही। लेकिन कुछ क्षेत्रीय पार्टियों जैसे जेडी (यू) या समाजवादी पार्टी या बीएसपी को अपने राज्य में खास सहयोग या वोट नहीं मिले। ये पार्टियां ज्यादा सीटें हासिल करने में विफल रही।

भाजपा की जीत इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पहली बार है कि किसी नॉन कांग्रेस पार्टी को बहुमत प्राप्त हुई है। भाजपा ने न केवल गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा सीटें हासिल की। लेकिन उन राज्यों में भी भाजपा आगे रही जहां उनकी पकड़ या उपस्थिति कमज़ोर थी जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, असम। आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, प. बंगाल में भाजपा ने कुछ सीटें या वोट अपने नाम किए। ये जीत सिर्फ इसलिए जरूरी नहीं कि भाजपा केंद्र सरकार बनाएगी, लेकिन इससे पता चलता है कि भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी है।

इस जीत से ये डिबेट भी खत्म हो जाएगी कि भारत में मोदी की लहर (मोदी वेव) थी भी या नहीं। अब भी कुछ विश्लेषक होंगे जो भाजपा की इस जीत को आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। इसे मोदी लहर ही कहेंगे कि किसी पार्टी ने खुद बहुमत हासिल की है। 1998 के लोक सभा चुनाव में भाजपा का शेयर सिर्फ 25.6 फीसदी था। अगर कोई प्रधानमंत्री उम्मीदवार चुनावी कैप्टन की सारी जिम्मेदारी खुद उठाएं, 540 से ज्यादा रैली करे, देशभर में पांच हजार मीटिंग करे, तो ये कहना गलत नहीं कि मोदी ने अपने पूरे चुनावी कैप्टन से मोदी लहर बनाई।

भाजपा की जीत का एक कारण और भी है। पहले इसे अर्बन अपर क्लास की पार्टी माना जाता है, लेकिन अब की बार भाजपा ने उन वर्गो को भी अपने साथ जोड़ा जो सिर्फ कांग्रेस या क्षेत्रीय पार्टियों को ही वोट डालते थे। नतीजों से स्पष्ट है कि जितनी पॉपुलर भाजपा शहरी इलाकों में है, उतनी ही ग्रामीण चुनावी क्षेत्रों में।

पहले के नतीजों में नजर डालें तो भाजपा को शहरों में ज्यादा वोट मिलते थे और ग्रामीण क्षेत्रों से कम वोट आते थे। इस बार के चुनाव में भाजपा ने शहरों और ग्रामीण इलाकों में लगभग एक जितने वोट मिले हैं। पहले भाजपा ग्रामीण इलाकों के ओबीसी या दलित में ज्यादा पॉपुलर नहीं थी, लेकिन इस बार भाजपा ने उन्हें भी साथ जोड़ा। कुछ ओबीसी वोटरों ने अपने राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों को वोट दिया जैसे बिहार में यादवों ने आरजेडी को और यूपी में समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी वोट भाजपा को मिले। इसमें भी 45 फीसदी लोअर ओबीसी और 33 फीसदी अपर ओबीसी ने भाजपा को वोट डाले।

पहले भाजपा को कभी दलित वोट नहीं मिलते थे, लेकिन इस बार ऐसे नहीं हुआ। दलितों ने भी भाजपा को वोट दिए। ये भी कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा एक मात्र पार्टी है जिसे दलितों का वोट मिला।

इसे के साथ 18 से 22 साल के युवाओं का वोट भी भाजपा को मिला। इसका कारण भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी हैं। पहले युवा वोटर कांग्रेस और भाजपा में बंट जाते थे, लेकिन अब की बार यूपी, एमपी, महाराष्ट्रा में युवाओं का वोट भाजपा को मिला।

इस बार चुनाव में लगभग 60 फीसदी अपर क्लास ने भाजपा को वोट दिया। 1998 और 1999 के लोक सभा चुनाव में 50 फीसदी से कम अपर क्लास का वोट भाजपा को मिला था। इस बार भाजपा को वोट देने वालों में शिक्षित वोटर्स का आंकड़ा ज्यादा है।

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Old 17-05-2014, 08:02 AM   #44
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रोज के जीवन में महसूस होने वाले लोकतंत्र का उदय

देश में शायद यह पहला ऐसा आम चुनाव था, जिसके केंद्र में विकास, सुशासन और आर्थिक वृद्धि केंद्र में रहे। पर इन तीन शब्दों का अर्थ क्या है? लेखक हिंडोल सेनगुप्ता ने अपनी किताब, 100 थिंग्स टू नो एंड डिबेट बिफोर यू वोट’ में इसका अर्थ बताया है, जिसे पढ़कर देश की दयनीय दशा का पता चलता है। किताब की पृष्ठभूमि में हमने उनसे जाना जनादेश का अर्थ....

- जनादेश बदलाव की इच्छा दर्शाता है, क्या बदलने की उम्मीद है? युवाओं की उम्मीद का क्या मतलब है?

यह कई तरीके से ऐतिहासिक जनादेश है। यह उस लोकतंत्र का उदय है जिसे मैं एक्सपीरियंस डेमोक्रेसी यानी अनुभव की जाने वाला लोकतंत्र कहता हूं। जहां वोट डालने से सरकार ही नहीं बदलती, रोज के जीवन में लोग लोकतंत्र को महसूस करते हैं। राजनेताओं की पुरानी पीढ़ी यह समझ नहीं पाती थी। अंग्रेजी बोलने वाला शहरी तबका व्यवस्था का हिस्सा होने के कारण जो चाहता है उसे मिल जाता है। इसलिए वह असली लोकतंत्र नहीं मांगता। गांव में राजनेता खैरात बांटकर वोट बंटोरते रहे हैं। मोदी ने इसे समझा कि पुरानी वफादारियां टूट रही है। लोगों में आजीविका की सुरक्षा, भारतीय होने के गौरव, सफलता, प्रगति और राष्ट्रीयता जैसी बातें जगह बना रही हैं। अब वे वह भारत बना सकते हैं। यह ऐतिहासिक मौका है। यदि वे इसमें हमें निराश करते हैं तो इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा
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Old 17-05-2014, 08:02 AM   #46
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- हिंदी पट्टी में बड़ा बदलाव दिखा है? क्या यह सिर्फ मोदी लहर का नतीजा है या गहराई में और भी बातें हैं?

पुरानी राजनीति में मुस्लिम, दलितों, पिछड़ी जातियों को उम्मीदों-अपेक्षाओं वाले सामान्य तबके नहीं वोटबैंक समझा जाता था। अब हिंदी प्रदेश में इन तबकों ने बिल्कुल सामान्य लोगों की तरह वोट दिया है। बेहतर जिंदगी, सड़क, पानी, बिजली जैसी मूलभूत जरूरतों के लिए मत दिया है। उत्तर-प्रदेश में सपा सरकार इसमें बुरी तरह नाकाम रही। लोगों को लगा कि मोदी वास्तविक बदलाव की पेशकश कर रहे हैं। फिर पिछले कुछ वर्षो में संघ के अलावा वाराणसी के आईआईटी ग्रेजुएट लाहिड़ी गुरुजी के नेतृत्व में हिंदुत्व अभियान ने बड़ा काम किया है। यह अंग्रेजी मीडिया के समझ में नहीं आया, जो अंग्रेजी न बोलने वाले या विदेशी डिग्री न होने वाले को कुछ समझता ही नहीं। आज का हिंदुत्व दस-पंद्रह साल पहले वाला हिंदुत्व नहीं है। इसके केंद्र में इकोनॉमिक्स है। आरएसएस ने बदलते राष्ट्र की नब्ज़ पहचानी है।

- नई सरकार ऐसा क्या करे कि देश में छह माह में ही बदलाव का अहसास होने लगे?

दो चीजें हैं कीमतें और बिजली। यदि मोदी देश को दिखा सके कि वे इन दो चीजों पर आगे बढ़ रहे हैं। यदि कीमतें कम होनी लगे और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक बिजली पहुंचे तो यह बहुत बड़ी सफलता होगी। मतदाता समझदार है। उसे पता है कि अचानक कोई जादू नहीं हो सकता। पर यदि मोदी इन दो मोर्चो पर संकल्प दिखाते हैं तो वे बहुत बड़ा फर्क ला सकेंगे।

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Old 17-05-2014, 08:03 AM   #47
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- आपने अपनी किताबों में जो 100 चीजें गिनाई हैं, जिन पर वाकई काम होना चाहिए। उनमें से कई चीजें आसानी से की जा सकती है जैसे घरों में टॉयलेट। नई सरकार को कैसे आगे बढ़ना चाहिए?

इसमें राज्य सरकारों का सहयोग लगेगा, जो एक नाजुक मामला है। सौभाग्य से मोदी ने बार-बार मुयमंत्रियों को विश्वास में लेने की बात कही है और कहा है कि वे उन्हें पार्टनर बनाकर काम करेंगे। अच्छी बात है कि मोदी के पास पर्याप्त संख्या में सांसद हैं और सिर्फ सांसद निधि पर ही सुनियोजित तरीके से काम किया तो टायलेट जैसे मुद्दे पर काफी काम हो सकता है। इससे लोगों को जमीन पर काम होता दिखेगा।

- अर्थव्यवस्था पर कांग्रेस और भाजपा का अलग-अलग नजरिया है? सही मिश्रण क्या होगा? यानी नई सरकार को कौन-सी चीजें टालनी चाहिए?

मोदी व्यावहारिक व्यक्ति हैं। वे वाम या दक्षिणपंथ की अति पर नहीं जाते। वे हर मामले के अनुरूप फैसला लेते हैं। कॉरपोरेट सेक्टर को लगता है कि वे जादू की तरह प्रोजेक्ट मंजूर कर देंगे। पर मोदी को सावधानी बरतनी चाहिए। खासतौर पर पर्यावरण के मामले में। भारत में पर्यावरण का संकट गहरा रहा है। हरियाणा में अरावली में आदवासी आबादी खतरे में है।

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- अर्थव्यवस्था पर कांग्रेस और भाजपा का अलग-अलग नजरिया है? सही मिश्रण क्या होगा? यानी नई सरकार को कौन-सी चीजें टालनी चाहिए?

मोदी व्यावहारिक व्यक्ति हैं। वे वाम या दक्षिणपंथ की अति पर नहीं जाते। वे हर मामले के अनुरूप फैसला लेते हैं। कॉरपोरेट सेक्टर को लगता है कि वे जादू की तरह प्रोजेक्ट मंजूर कर देंगे। पर मोदी को सावधानी बरतनी चाहिए। खासतौर पर पर्यावरण के मामले में। भारत में पर्यावरण का संकट गहरा रहा है। हरियाणा में अरावली में आदवासी आबादी खतरे में है।

अपनी किताब में आपने देश की अर्थव्यवस्था को कर्ज के गंभीर खतरे से आगाह किया है। नई सरकार अपने बजट में इसके लिए क्या कदम उठा सकती है?

सरकारी खर्च पर कड़ा नियंत्रण स्थापित करे। यूपीए के कई कार्यक्रम अच्छे थे पर इसका पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। यदि इसे रोककर बेहतर कार्यक्रम, टारगेटेड कार्यक्रम लाने चाहिए। यूपीए के आधार कार्ड कार्यक्रम को लेकर विवाद है। पर सब्सिडी बेहतर ढंग से पहुंचाने के लिए पहचान तय होना जरूरी है।


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