20-11-2010, 12:25 PM | #21 |
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Re: "हिन्दू काल गणना"
ऐसा लगता है कि इस्लामी हमलों की तीव्रता के बाद, जब महाविद्यालयों और विश्व विद्यालयों का स्थान मदरसों ने ले लिया तब गणित के अध्ययन की गति मंद पड़ गई। लेकिन यही समय था जब भारतीय गणित की पुस्तकें भारी संख्या में अरबी और फारसी भाषाओं में अनूदित हुईं। यद्यपि अरब विद्वान बेबीलोनीय, सीरियाई, ग्रीक और कुछ चीनी पुस्तकों सहित विविध स्त्रोतों पर निर्भर करते थे परंतु भारतीय गणित की पुस्तकों का योगदान विशेषरूप से महत्वपूर्ण था। 8 वीं सदी में बगदाद के इब्न तारिक और अल फजरी, 9 वीं सदी में बसरा के अल किंदी, 9 वीं सदी में ही खीवा के अल ख्वारिज्.मी, 9 वीं सदी में मगरिब के अल कायारवानी जो ’’किताबफी अल हिसाब अल हिंदी’’ के लेखक थे, 10 वीं सदी में दमिश्क के अल उक्लिदिसी जिन्होंने ’’भारतीय गणित के अध्याय’’ लिखी, इब्न सिना, 11 वीं सदी में ग्रेनेडा, स्पेन के इब्न अल सम्ह, 11 वीं सदी में खुरासान, फारस के अल नसावी, 11 वीं सदी में खीवा में जन्मे अल बरूनी जिनका देहांत अफगानिस्तान में हुआ, तेहरान के अल राजी, 11 वीं सदी में कोर्डोवा के इब्न अल सफ्फर ये कुछ नाम हैं जिनकी वैज्ञानिक पुस्तकों का आधार अनूदित भारतीय ग्रंथ थे। कई प्रमाणों, अवधारणाओं और सूत्रों के भारतीय स्त्रोत् के होने के अभिलेख परवर्ती सदियों में धूमिल पड़ गए लेकिन भारतीय गणित की शानदार अतिशय देन को कई मशहूर अरबी और फारसी विद्वानों ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया है, विशेष रूप से स्पेन में। अब्बासी विद्वान अल गहेथ ने लिखाः ’’भारत ज्ञान, विचार और अनुभूतियों का स्त्रोत है।’’ 956 ई में अल मौदूदी ने जिसने पश्चिमी भारत का भ्रमण किया था, भारतीय विज्ञान की महत्ता के बारे में लिखा था। सईद अल अंदलूसी, 11 वीं सदी का स्पेन का विद्वान और दरबारी इतिहासकार, भारतीय सभ्यता की जमकर तारीफ करने वालों में से एक था और उसने विज्ञान और गणित में भारत की उपलब्धियों पर विशेष टिप्पणी की थी। अंततः भारतीय बीजगणित और त्रिकोणमिति अनुवाद के एक चक्र से गुजरकर अरब दुनिया से स्पेन और सिसली पहुंची और वहां से सारे यूरोप में प्रविष्ट हुई। उसी समय ग्रीस और मिश्र की वैज्ञानिक कृतियों के अरबी और फारसी अनुवाद भारत में सुगमता से उपलब्ध हो गये। |
20-11-2010, 12:29 PM | #22 |
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Re: "हिन्दू काल गणना"
केरल के गणित सम्प्रदाय (स्कूल)
टिप्पणियाँ गणित और संगीत : पिंगल ने 300 सदी में चंदसूत्र नामक गं्रथ की रचना की थी। उनने काम्बीनेटरीज और संगीत सिद्धांत के परस्पर संबंध की परीक्षा की जो मर्सिन, 1588-1648, द्वारा संगीत सिद्धांत पर रचित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ का अग्रदूत है। गणित और वास्तुशिल्प : अंकगणितीय और ज्यामितीय श्रेणियों में रुचि उत्पन्न होने का कारण भारतीय वास्तु के डिजाइन जैसे मंदिर शिखर, गोपुरम और मंदिरों की भीतरी छत की टेक हैं। वास्तव में ज्यामिति और वास्तु साजसज्जा का परस्पर संबंध उच्चतम स्तर पर विकसित हुआ था मुस्लिम शासकों द्वारा पोषित विभिन्न स्मारकों के निर्माण में जो मध्य एशिया, फारस, तुर्की, अरब और भारत के वास्तुशिल्पियों द्वारा निर्मित किये गए थे। भारतीय अंक प्रणाली का प्रसार : भारतीय अंक प्रणाली के पश्चिम में प्रसार के प्रमाण ’’क्रेस्ट आफ पीकॉक’’ के लेखक जोसेफ द्वारा इस प्रकार दिये गए हैं : सेबेरस सिबोख्त, 662 ई. ने एक सीरियाई पुस्तक में भारतीय ज्योतिर्विदों के ’’गूढ़ अनुसंधानों’’ का वर्णन करते हुए उन्हें ’’यूनानी और बेबीलानियन ज्योतिर्विदों की अपेक्षा अधिक प्रवीण’’ और ’’संगणना के उनके बहुमूल्य तरीकों को वर्णनातीत’’ बताया है और उसके बाद उसने उनकी नौ अंकों की प्रणाली के प्रयोग की चर्चा की है। फिबोनाक्सी, 1170-1250, की पुस्तक ’’लिबर एबासी’’, एबाकस की पुस्तक, से उद्धतः नौ भारतीय अंक ..... हैं। इन नौ अंकों तथा 0 जिसे अरबी में सिफर कहते हैं से कोई भी अभीष्ट संख्या लिखी जा सकती है। /फिबोनाक्सी ने भारतीय अंकों के बारे में ज्ञान, उत्तरी अफ्रीका के अपने अरब अध्यापकों से प्राप्त किया था। भारतीय गणित : विद्वानों के उद्गार भारत और वैज्ञानिक क्रांति में डेविड ग्रे लिखते हैं : ’’पश्चिम में गणित का अध्ययन लम्बे समय से कुछ हद तक राष्ट्र् केंद्रित पूर्वाग्रह से प्रभावित रहा है, एक ऐसा पूर्वाग्रह जो प्रायः बड़बोले जातिवाद के रूप में नहीं बल्कि गैरपश्चिमी सभ्यताओं के वास्तविक योगदान को नकारने या मिटाने के प्रयास के रूप में परिलक्षित होता है। पश्चिम अन्य सभ्यताओं विशेषकर भारत का ऋणी रहा है। और यह ऋण ’’पश्चिमी’’ वैज्ञानिक परंपरा के प्राचीनतम काल - ग्रीक सम्यता के युग से प्रारंभ होकर आधुनिक काल के प्रारंभ, पुनरुत्थान काल तक जारी रहा है - जब यूरोप अपने अंध युग से जाग रहा था।’’ इसके बाद डा. ग्रे भारत में घटित गणित के सर्वाधिक महत्वपूर्ण विकसित उपलब्धियों की सूची बनाते हुए भारतीय गणित के चमकते सितारों जैसे आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, महावीर, भास्कर और माधव के योगदानों का संक्षेप में वर्णन करते हैं। अंत में वे जोर देकर कहते हैं‘ ’’यूरोप में वैज्ञानिक क्रांति के विकास में भारत का योगदान केवल हासिये पर लिखी जाने वाली टिप्पणी नहीं है जिसे आसानी से और अतार्किक तौर पर यूरोप केंद्रित पूर्वाग्रह के आडम्बर में छिपा दिया गया है। ऐसा करना इतिहास को विकृत करना है और वैश्विक सभ्यता में भारत के महानतम योगदान को नकारना है।’’ |
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