My Hindi Forum

Go Back   My Hindi Forum > Hindi Forum > Debates

Reply
 
Thread Tools Display Modes
Old 20-09-2014, 10:02 PM   #11
Pavitra
Moderator
 
Pavitra's Avatar
 
Join Date: Sep 2014
Location: UP
Posts: 623
Rep Power: 31
Pavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond reputePavitra has a reputation beyond repute
Default Re: प्रेम.. और... त्याग...

Quote:
Originally Posted by Rajat Vynar View Post
लावण्या जी, आपका मत महत्वपूर्ण है. वैसे तो आपके मत के प्रत्येक पंक्तियों पर चर्चा आवश्यक है किन्तु मैं कुछेक पंक्तियों को ही चर्चा के लिए यहाँ पर ले रहा हूँ. आप लिखती हैं कि ‘प्रेम एक व्यापक शब्द है , परन्तु आज जब भी प्रेम की बात होतो सिर्फ स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की ही चर्चा होती है , और वहीँ तकसीमित हो जाता है ये शब्द’. आप यहाँ पर आश्चर्य व्यक्त कर रही हैं कि ऐसा क्यों है? दूसरी ओर ‘सामाजिक-आर्थिक’ मामलों की विशेषज्ञ एक विख्यात लेखिका अपने बहुचर्चित स्तम्भ में लिखती हैं कि-

...मैं आश्चर्य करती हूँ कि लोग उस क्षण जब वे किसी का ‘पुरुषमित्र’ या ‘महिलामित्र’बनते हैं तो वे ‘मित्र’की भूमिका को क्यों भूल जाते हैं?आप अपने मित्रों से निरन्तर मुँह चढ़ाकर व्यवहार नहीं करते क्योंकि आप जानते हैं कि वे आपको एक क्षण में छोड़ देंगे. मात्र इसलिए कि आपका पुरुषमित्र ऐसा नहीं करेगा- इसका अर्थ यह नहीं होता कि आपने उस पर अपना आधिपत्य जमा लिया है।

वैसे तो लेखिका का कथन न्यायसंगत ही प्रतीत होता है किन्तु मुझे इस बात पर भी आश्चर्य है कि लेखिका इस विषय में प्रकाश क्यों नहीं डाल पा रही हैं?यहाँ पर प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों होता है?इसका कारण यह है कि निःसंदेह प्रेम-सम्बन्ध का दर्जा अन्य सम्बन्धों से बड़ा होता है.इसलिए जब दो लोगों के बीच में प्रेम-सम्बन्ध स्थापित होता है तो प्रेमी युगल एक-दूसरे पर अपना विशेष अधिकार समझते हैं। यदि इनके बारे में कोई दूसरा कुछ अनर्गल (absurd)बातें करता है तो ये उतना बुरा नहीं मानते और एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं किन्तु जब यही अनर्गल बात उनसे उनका प्रियजन (loved one) कहता है तो अपने इस विशेष अधिकार के कारण ही ये असहज (abnormal) होकर तनावग्रस्त (tension) हो जाते हैं और बहुत बुरा मान जाते हैं। यहाँ पर बस समझ का फेर है। इसलिए जो जितना अधिक तनावग्रस्त होता है,वह उतना ही अधिक अपने उस प्रियजन से प्रेम करता है। प्रेम की यह पराकाष्ठा (pinnacle)बहुत ही हानिकारक (dangerous)होती है। हिंदी कवि कबीरदास ने भी कहा है- ‘अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप। अति का भला न बरसना,अति की भली न धूप।।‘संक्षेप में- अति हर चीज़ की हानिकारक होती है। प्रेम के इस पराकाष्ठा को आधार बनाकर तमिल् फ़िल्मों के विख्यात निर्माता-निर्देशक के॰ बालचन्दर वर्ष 1989 में एक सफल तमिल् फ़िल्म ‘पुदु-पुदु अर्थङ्गल्’ (नए-नए अर्थ) भी बना चुके हैं।

निःसंदेह सभी प्रकार के सम्बन्धों (relationship) में प्रेम (love) की पवित्र (holy) भावना (spirit) विद्यमान (exist) रहती है। एक भाई का बहन के प्रति (towards)और सन्तान (offspring) का अपने माता-पिता (parents) के प्रति जो प्रेम विद्यमान रहता है उसकी तुलना (comparison) प्रेमी-युगल (couple) के मध्य विद्यमान प्रेम से नहीं की जा सकती,क्योंकि प्रेमी-युगल के बीच जो प्रेम की भावना विद्यमान रहती है उसका स्थान (degree) श्रेष्ठतम (precious) है। कुछ लोग प्रेमी-युगल के मध्य विद्यमान प्रेम की भावना को अन्य (Other) प्रकार (Kind) के सम्बन्धों में विद्यमान पे्रम की भावना के समतुल्य (equivalent) समझते हैं किन्तु यह धारणा (notion) सिरे से गलत है। क्या आपको वर्ष 1997 में लोकार्पित अंग्रेज़ी फ़ीचर फ़िल्म टाइटैनिक (Titanic) का वह मर्मस्पर्शी दृष्य याद है जब टाइटैनिक जहाज़ के डूबने के बाद कहानी का नायक नायिका की जान बचाने के लिए एक छोटे से लकड़ी के तख्ते पर नायिका को चढ़ा देता है और जब स्वयं उस पर चढ़ने का प्रयत्न करता है तो लकड़ी का तख़्ता पलट जाता है। यह देखकर नायक नायिका को तख़्ते पर चढ़ाकर स्वयं तख़्ते का सिरा पकड़कर बर्फ़ीले समुद्री पानी में तैरता हुआ खड़ा रहता है। बर्फ़ीले ठण्डे समुद्री पानी के कारण नायक का बदन अकड़ जाता है और शरीर का तापमान (temperature) कम होने से हाइपोथर्मिया (hypothermia) के कारण उसकी दर्दनाक (painful) मृत्यु हो जाती है। ’हाँ-हाँ,हमें वह दृष्य याद है किन्तु ऐसा प्रेम तो सिर्फ़ फ़िल्मों में दिखाया जाता है.’-कहने वालों के लिए उत्तर यह है कि समाचार-पत्रों (newspapers) में प्रेमी-युगल के धर छोड़कर भागने की घटनाओं और विश्वासघात (perfidy) की दशा (condition) में प्रेमी-युगल द्वारा अपनी जान देने या एक-दूसरे की जान लेने अथवा अन्य किसी प्रकार से एक-दूसरे से बदला (revenge) लेने की घटनाओं का प्रकाशित (publish) होना इस बात का अकाट्य (cogent) प्रमाण (proof) है कि प्रेमी-युगल के मध्य विद्यमान प्रेम की भावना श्रेष्ठतम (precious) है।

यह निर्विवाद कटु सत्य है कि आपके अच्छे दुश्मन दोस्तों से ही पैदा होते हैं. कैसे? आप अपने दोस्तों को अपना समझकर अपना हर राज़ उन्हें बता देते हैं. जब तक दोस्ती रही तो ठीक है, लेकिन दोस्ती का कोई भरोसा नहीं. पता नहीं किस बात पर मतभेद हो जाए और दोस्ती टूट जाए. दोस्ती टूटने के बाद ऐसे लोग आपके सभी राज़ और आपकी कमज़ोर नस के बारे में जानने के कारण आपको सबसे अधिक नुकसान पहुँचा सकते हैं. आपने वह मुहावरा तो सुना ही होगा- ‘घर का भेदी लंका ढाए’. आप मुझसे एक साल या दो साल तक बात करिये. आपके पास मुझसे सम्बन्धित किसी भी व्यक्तिगत जानकारी का स्तर शून्य ही रहेगा. जबकि मेरे पास आपसे सम्बन्धित व्यक्तिगत जानकारी का स्तर सौ प्रतिशत रहेगा. प्रायः लोगों की आदत होती है- अपने बारे में अपने दोस्तों को ‘ए टू जेड’ बिना रुके बताने की. अपनी इस प्रवृत्ति को बदलिए. यह प्रवृत्ति आपके लिए कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है. मित्रता में भी एक प्रकार की प्रेम की भावना ही निहित होती है और जहाँ पर प्रेम की भावना होती है वहाँ पर त्याग की भावना होती है. ऐसा कभी सम्भव नहीं कि आप किसी से प्रेम करें और उसके लिए त्याग करने से इन्कार कर दें. यदि आप त्याग करने से इन्कार करते हैं तो इसका सीधा सा अर्थ यह होता है कि आपने किसी स्वार्थवश प्रेम किया था. इसलिए प्रेम और त्याग एक दूसरे के पर्याय हैं. संक्षेप में, यदि आप किसी से प्रेम करते हैं तो उसके लिए त्याग करेंगे और यदि किसी के लिए त्याग करते हैं तो इसका अर्थ यह है कि आप उससे प्रेम करते हैं. यह त्याग किसी भी प्रकार का हो सकता है. मित्रता में निहित प्रेम की भावना यदि सत्य है तो आप मित्र के हित को सर्वोपरि मानेंगे. कौन किससे कितना प्रेम करता है, यह मापने के लिए आज तक कोई पैमाना नहीं बना किन्तु कौन आपकी कितनी गलतियों को खुले हृदय से क्षमा कर देता है- इस आधार पर प्रेम के परिमाण का आकलन किया जा सकता है. यही कारण है कि माता-पिता अपनी सन्तान की प्रत्येक गलतियों को बिना किसी शर्त के क्षमा कर देते हैं. यहाँ पर यह हमेशा याद रखें कि गलती करना इन्सान के गुणों में शुमार है और यह कदापि सम्भव नहीं कि कोई बिलकुल गलती न करे. इसलिए कम गलती करने वाले को ही श्रेष्ठ समझ लेना चाहिए. छोटी सी गलती होने पर भी यदि मित्रता में निहित प्रेम का परिमाण कम है तो ऐसी मित्रता सदैव दुश्मनी में परिवर्तित हो जाती है और यह कटु सत्य है कि बदला लेने की तीव्र भावना में लोग यह भूल जाते हैं कि जो जानकारी उनके पास है वह उन्हें कैसे मिली? निश्चित रूप से यह जानकारी उन्हें तब मिली जब वे ‘मित्रता’ जैसे उच्च पद पर विराजमान थे, क्योंकि अपने दुश्मनों से कोई अपना राज़ नहीं बताता, लेकिन अपने दोस्तों से बता देता है. यद्यपि बदला लेने की लालसा में भूतपूर्व मित्र के पद में निहित प्रेम की भावना को किनारे कर देना किसी हालत में न्यायसंगत नहीं है, किन्तु मेरे इस विचार पर कोई भी किसी भी हालत में अमल नहीं करेगा. इसलिए ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ के सिद्धान्त पर चलते हुए अपने दोस्तों को अनावश्यक रूप से जानकारी न बाँटना ही श्रेयस्कर होगा. मुझे तो आज तक एक अभूतपूर्व ‘वैज्ञानिक’ के अतिरिक्त कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो इस तरह अपने बारे में जानकारी न बाँटता हो. आज तक उस वैज्ञानिक ने मुझे कोई जानकारी नहीं दी, न मैंने उसे दी. ऐसे लोगों को मैं बहुत पसन्द करता हूँ जो ‘न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी’ के सिद्धान्त पर चलते चलते हुए ‘मौन-व्रत’ धारण किए रहते हैं… aww.. aww..


रजत जी आपके इस मत से मैं सहमत नहीं हूँ कि प्रेमी युगल के मध्य प्रेम की भावना श्रेष्ठतम है। आप भूल रहे हैं कि इस दुनिया में एक माँ का प्रेम अपने बच्चे के लिए श्रेष्ठतम होता है। क्यूंकि उसमें स्वार्थ नहीं होता , त्याग होता है। मुझे नहीं लगता कि एक माँ के प्रेम की तुलना किसी भी व्यक्ति द्वारा किये गए प्रेम से की जा सकती है।

अपने Titanic मूवी के जिस दृश्य का ज़िक्र किया वो वास्तव में बहुत ही भावुक दृश्य था। जिसे देखने के बाद शायद सभी वैसा ही प्रेम पाने की अभिलाषा करने लगे। पर क्या आपको नहीं लगता कि अगर वैसा ही दृश्य एक माँ और पुत्र के बीच में हो तो नज़ारा यही होगा ? अगर कभी किसी की माँ ऐसी स्थिति में हो तो क्या एक पुत्र अपनी माँ को नहीं बचाएगा ? हो सकता है दृश्य में थोड़ा परिवर्तन हो जाये , लकड़ी के तख्ते पर पुत्र हो और माँ अपने बच्चे को बचाने के लिए पानी में खड़ी हो।

तो ये कहना उचित नहीं है कि कौन सा प्रेम श्रेष्ठतम है , प्रेम की तुलना करना सही नहीं है। सभी रिश्ते अपनी जगह होते हैं। और सभी रिश्तों में मौजूद प्रेम श्रेष्ठतम होता है।

आपके एक कथन को समझने में मुझे थोड़ी दिक्कत महसूस हो रही है , तो इसे थोड़ा स्पष्ट करने का प्रयास कीजियेगा - प्रायः लोगों की आदत होती है- अपने बारे में अपने दोस्तों को ‘ए टू जेड’ बिना रुके बताने की. अपनी इस प्रवृत्ति को बदलिए. यह प्रवृत्ति आपके लिए कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है.
Pavitra is offline   Reply With Quote
Old 21-09-2014, 12:34 PM   #12
rajnish manga
Super Moderator
 
rajnish manga's Avatar
 
Join Date: Aug 2012
Location: Faridabad, Haryana, India
Posts: 13,293
Rep Power: 241
rajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond reputerajnish manga has a reputation beyond repute
Default Re: प्रेम.. और... त्याग...

मित्रो, मैं सोचता हूँ कि चर्चा का विषय 'प्रेम और त्याग' को जान-बूझ कर शब्द जाल में फंसा कर हमारे अवस्तरीय टीवी सीरियलों की तरह लम्बा खींचा जा रहा है. ऐसी चर्चा का कोई उद्देश्य नहीं जिसे आप सीधे सरल तरीके से किसी निष्कर्ष पर न पहुंचा सकें. यह जरूरी नहीं कि जहां-तहां (किताबों, फिल्मों आदि) से अनावश्यक उद्धरण दे कर चर्चा को बोझिल बना दिया जाये. कई स्थानों हमने यह देखा है कि गंभीर विमर्श के चलते उसको हंसी-मज़ाक का मंच बनाने और चर्चाको हाईजैक करने तथा उसे किसी ओर दिशा में ले जाने की कोशिश भी की गयी. वर्तमान चर्चा में प्रेम को स्त्री-पुरुष के प्रेम पर ही फोकस करने और प्रेम में ‘अति’ का औचित्य कहाँ से आ गया? इस प्रकार के दिशाहीन-विचार विमर्श से आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं? और इससे क्या हासिल होगा?
__________________
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
rajnish manga is offline   Reply With Quote
Old 21-09-2014, 02:18 PM   #13
Rajat Vynar
Diligent Member
 
Rajat Vynar's Avatar
 
Join Date: Sep 2014
Posts: 1,056
Rep Power: 29
Rajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant future
Talking Re: प्रेम.. और... त्याग...

Quote:
Originally Posted by Lavanya View Post
रजत जी आपके इस मत से मैं सहमत नहीं हूँ कि प्रेमी युगल के मध्य प्रेम की भावना श्रेष्ठतम है। आप भूल रहे हैं कि इस दुनिया में एक माँ का प्रेम अपने बच्चे के लिए श्रेष्ठतम होता है। क्यूंकि उसमें स्वार्थ नहीं होता , त्याग होता है। मुझे नहीं लगता कि एक माँ के प्रेम की तुलना किसी भी व्यक्ति द्वारा किये गए प्रेम से की जा सकती है।

अपने Titanic मूवी के जिस दृश्य का ज़िक्र किया वो वास्तव में बहुत ही भावुक दृश्य था। जिसे देखने के बाद शायद सभी वैसा ही प्रेम पाने की अभिलाषा करने लगे। पर क्या आपको नहीं लगता कि अगर वैसा ही दृश्य एक माँ और पुत्र के बीच में हो तो नज़ारा यही होगा ? अगर कभी किसी की माँ ऐसी स्थिति में हो तो क्या एक पुत्र अपनी माँ को नहीं बचाएगा ? हो सकता है दृश्य में थोड़ा परिवर्तन हो जाये , लकड़ी के तख्ते पर पुत्र हो और माँ अपने बच्चे को बचाने के लिए पानी में खड़ी हो।

तो ये कहना उचित नहीं है कि कौन सा प्रेम श्रेष्ठतम है , प्रेम की तुलना करना सही नहीं है। सभी रिश्ते अपनी जगह होते हैं। और सभी रिश्तों में मौजूद प्रेम श्रेष्ठतम होता है।

आपके एक कथन को समझने में मुझे थोड़ी दिक्कत महसूस हो रही है , तो इसे थोड़ा स्पष्ट करने का प्रयास कीजियेगा - प्रायः लोगों की आदत होती है- अपने बारे में अपने दोस्तों को ‘ए टू जेड’ बिना रुके बताने की. अपनी इस प्रवृत्ति को बदलिए. यह प्रवृत्ति आपके लिए कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है.
पका बहुत-बहुत धन्यवाद, लावण्या जी. आपने चर्चा में भाग लिया और अपने संदेह को दर्ज कराया. तो हम यहाँ पर आपको यह बता दें कि अभी तक आपने हमारी ‘निःशुल्क सेवा’ पढ़ने का आनन्द लिया. अब आपको अपने विशेष प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए हमारी ‘प्रीमियम सेवा’ लेनी होगी. मात्र 1000 पॉइंट के शुल्क पर आपकी शंका का समाधान कर दिया जायेगा. टिप्पणी- हमारे देश की ‘मोलभाव संस्कृति’ को बचाने के लिए यहाँ पर मोलभाव करने की पूरी छूट है. जितने पॉइंट पर सौदा तय हो जाये.
Rajat Vynar is offline   Reply With Quote
Old 21-09-2014, 02:43 PM   #14
Rajat Vynar
Diligent Member
 
Rajat Vynar's Avatar
 
Join Date: Sep 2014
Posts: 1,056
Rep Power: 29
Rajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant future
Talking Re: प्रेम.. और... त्याग...

Quote:
Originally Posted by rajnish manga View Post
मित्रो, मैं सोचता हूँ कि चर्चा का विषय 'प्रेम और त्याग' को जान-बूझ कर शब्द जाल में फंसा कर हमारे अवस्तरीय टीवी सीरियलों की तरह लम्बा खींचा जा रहा है. ऐसी चर्चा का कोई उद्देश्य नहीं जिसे आप सीधे सरल तरीके से किसी निष्कर्ष पर न पहुंचा सकें. यह जरूरी नहीं कि जहां-तहां (किताबों, फिल्मों आदि) से अनावश्यक उद्धरण दे कर चर्चा को बोझिल बना दिया जाये. कई स्थानों हमने यह देखा है कि गंभीर विमर्श के चलते उसको हंसी-मज़ाक का मंच बनाने और चर्चाको हाईजैक करने तथा उसे किसी ओर दिशा में ले जाने की कोशिश भी की गयी. वर्तमान चर्चा में प्रेम को स्त्री-पुरुष के प्रेम पर ही फोकस करने और प्रेम में ‘अति’ का औचित्य कहाँ से आ गया? इस प्रकार के दिशाहीन-विचार विमर्श से आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं? और इससे क्या हासिल होगा?
पकी बात से मैं पूर्णरूपेण सहमत हूँ, रजनीश जी किन्तु जब प्रेम की बात आती है तो इस बात का जानना आवश्यक हो जाता है कि किस प्रकार के प्रेम को वरीयता दी जाती है, क्योंकि बहुधा सभी लोग यही समझते हैं कि सभी प्रकार के संबंधों में एक समान प्रेम की भावना निहित होती है. अतः इस विषय पर विस्तार से चर्चा करना आवश्यक है. कृपया अनुमति प्रदान करें.
Rajat Vynar is offline   Reply With Quote
Old 21-09-2014, 03:08 PM   #15
soni pushpa
Diligent Member
 
Join Date: May 2014
Location: east africa
Posts: 1,288
Rep Power: 65
soni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond repute
Default Re: प्रेम.. और... त्याग...

Quote:
Originally Posted by rajat vynar View Post
पका बहुत-बहुत धन्यवाद, लावण्या जी. आपने चर्चा में भाग लिया और अपने संदेह को दर्ज कराया. तो हम यहाँ पर आपको यह बता दें कि अभी तक आपने हमारी ‘निःशुल्क सेवा’ पढ़ने का आनन्द लिया. अब आपको अपने विशेष प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए हमारी ‘प्रीमियम सेवा’ लेनी होगी. मात्र 1000 पॉइंट के शुल्क पर आपकी शंका का समाधान कर दिया जायेगा. टिप्पणी- हमारे देश की ‘मोलभाव संस्कृति’ को बचाने के लिए यहाँ पर मोलभाव करने की पूरी छूट है. जितने पॉइंट पर सौदा तय हो जाये.
रजत जी आपसे मेरा अनुरोध है, की आप इस विषय को दूसरी तरफ न ले जाएँ . मैंने इस लेख के आरंभ में ही पहली लाइन में लिखा है की प्रेम एक व्यापक शब्द है, किन्तु लोग आज इसका गलत अर्थ लेते हैं और अब ये भी कहूँगी की सिमित नही ये शब्द इतना , जितना साधारण जन समाज इसे लेता है क्यूंकि प्रेम के वश भगवन भी है, ये तो इतना व्यापक शब्द है और इतनी गहरी भावना है . आज सारे मानव समाज में सिर्फ प्रेम हो एक दूजे के लिए कोई कड़वाहट न हो दूजो की भलाई और दूजो के लिए त्याग की भावना यदिमानव मन में बस जय तो सोचिये आज ये दुनिया कितनी सुन्दर बन जाय. यदि प्रेम को सिर्फ एक परिवार या स्त्री पुरुष के संभंध तक सिमित कर दिया जय तो इसकी व्यापकता ही समाप्त हो जाएगी. फिल्मे देखकर या serials के प्रभाव में आकार हम इसको छोटा न बनाये और इसे बड़े पैमाने याने की विश्व व्यापी भावना बना दे ..तो सोचिये आज कही बम ब्लास्ट न होंगे, कोई युध्ध न होंगे सारी दुनिया सुख शांति से जीवन यापन करेगी . और मानव समाज का कितना विकास होगा सोचिये जरा आज जो धन युध्ध में लगाया जाता है , सुरक्षा के लिए लगाया जाता है, वो व्यर्थ खर्च न होते और वो ही धन सब देशों के विकास में लगता और हम मानव आज कहाँ से कहा पहुचे होते . ये व्यापकता है इस प्रेम की ,मेरा ये ही कहना है की ये बहना विश्व्यापी बने न की एक परिवार तक सिमित रहे ये .. जानती हूँ की आप कहेंगे अब की किसी भी चीज की शुरुवात परिवार सेही होती है पर हाँ शुरूवात परिवार से जरुर हो, किन्तु ये भावना सिरफ़ वही आकर न रुक जाय बल्कि आगे बढे प्रेम. और सबमें भाईचारे की भावना पनपे ये चाहूंगी और मेरे इस शीर्षक पर बहस करने का ये ही उद्देश्य था ..

धन्यवाद रजत जी पवित्रा जी और रजनीश जी इस विषय पर इतना प्रकाश डालने के लिए किन्तु मेरा आप लोगो से अब भी ये ही एक अनुरोध रहेगा की इस विषय की व्यापकता को समझकर छोटे या बड़े परदे की बातें न लायें न ही किसी ईयर बुक को ...

Last edited by soni pushpa; 21-09-2014 at 03:41 PM.
soni pushpa is offline   Reply With Quote
Old 21-09-2014, 03:50 PM   #16
Rajat Vynar
Diligent Member
 
Rajat Vynar's Avatar
 
Join Date: Sep 2014
Posts: 1,056
Rep Power: 29
Rajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant future
Talking Re: प्रेम.. और... त्याग...

Quote:
Originally Posted by soni pushpa View Post
रजत जी आपसे मेरा अनुरोध है, की आप इस विषय को दूसरी तरफ न ले जाएँ . मैंने इस लेख के आरंभ में ही पहली लाइन में लिखा है की प्रेम एक व्यापक शब्द है, किन्तु लोग आज इसका गलत अर्थ लेते हैं और अब ये भी कहूँगी की सिमित नही ये शब्द इतना , जितना साधारण जन समाज इसे लेता है क्यूंकि प्रेम के वश भगवन भी है, ये तो इतना व्यापक शब्द है और इतनी गहरी भावना है . आज सारे मानव समाज में सिर्फ प्रेम हो एक दूजे के लिए कोई कड़वाहट न हो दूजो की भलाई और दूजो के लिए त्याग की भावना यदिमानव मन में बस जय तो सोचिये आज ये दुनिया कितनी सुन्दर बन जाय. यदि प्रेम को सिर्फ एक परिवार या स्त्री पुरुष के संभंध तक सिमित कर दिया जय तो इसकी व्यापकता ही समाप्त हो जाएगी. फिल्मे देखकर या serials के प्रभाव में आकार हम इसको छोटा न बनाये और इसे बड़े पैमाने याने की विश्व व्यापी भावना बना दे ..तो सोचिये आज कही बम ब्लास्ट न होंगे, कोई युध्ध न होंगे सारी दुनिया सुख शांति से जीवन यापन करेगी . और मानव समाज का कितना विकास होगा सोचिये जरा आज जो धन युध्ध में लगाया जाता है , सुरक्षा के लिए लगाया जाता है, वो व्यर्थ खर्च न होते और वो ही धन सब देशों के विकास में लगता और हम मानव आज कहाँ से कहा पहुचे होते . ये व्यापकता है इस प्रेम की ,मेरा ये ही कहना है की ये बहना विश्व्यापी बने न की एक परिवार तक सिमित रहे ये .. जानती हूँ की आप कहेंगे अब की किसी भी चीज की शुरुवात परिवार सेही होती है पर हाँ शुरूवात परिवार से जरुर हो, किन्तु ये भावना सिरफ़ वही आकर न रुक जाय बल्कि आगे बढे प्रेम. और सबमें भाईचारे की भावना पनपे ये चाहूंगी और मेरे इस शीर्षक पर बहस करने का ये ही उद्देश्य था ..

धन्यवाद रजत जी पवित्रा जी और रजनीश जी इस विषय पर इतना प्रकाश डालने के लिए किन्तु मेरा आप लोगो से अब भी ये ही एक अनुरोध रहेगा की इस विषय की व्यापकता को समझकर छोटे या बड़े परदे की बातें न लायें न ही किसी ईयर बुक को ...
हाँ पर मौजूद सभी ‘बातों के बैज्ञानिकों’ को सादर नमस्कारके साथ सोनी पुष्पा जी मुझे आपसे यह कहना है कि यह सत्य है कि चर्चा यहाँ पर लम्बी हो गई है किन्तु जहाँ पर ‘बातों के वैज्ञानिक’ मौजूद होंगे वहाँ पर कई संदेह उठेंगे और चर्चा ज़रूर लम्बी ही खिंचेगी. मुझे आपसे यह बताते हुए बड़ी खुशी का अनुभव हो रहा है कि एक दर्जन साल जैसी भयानक अवधि तक अंग्रेजों की संगोष्ठियों में गपशप के वजनी अनुभव के साथ मैं यहाँ पर मौजूद हूँ. बहुधा मैंने यह पाया है कि लोग जब अपने सूत्र में एक समस्या लेकर आते हैं तो उसमें एक विचित्र सी अनोखी बात भी कहते हैं. लोग उस अनोखी बात को अनदेखा कर देते हैं और दूसरी बात पर चर्चा जारी रखते हैं और यह चर्चा निःसंदेह सूत्र-लेखक के लिए उपयोगी नहीं मानी जा सकती. इस सूत्र में ‘त्यागऔर प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं या फिरएकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ कहा गया है. सभी जानते हैं कि ‘त्यागऔर प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं’. अतः यहाँ पर ‘या फिरएकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ का अर्थ हुआ- ‘क्या त्याग के बिना प्रेम सम्भव है?’ अथवा ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’. इस विषय पर किसी की नज़र नहीं जा रही है. ‘बातों का बैज्ञानिक’ होने के कारण मेरी दृष्टि गयी. मेरा उत्तर है- ‘हाँ, सम्भव है.’ लोग हैरत में आकर पूछेंगे- ‘कैसे?’ क्योंकि सभी जानते हैं कि त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं. अतः सोनी पुष्पा जी, आपसे अनुरोध है कि पहले ‘त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं हैपर चर्चा चलने की अनुमति प्रदान करें. बाद में मैं बताऊँगा कि ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’ यहाँ पर मैं साफ़-साफ़ यह बता दूँ कि लेखन की हर पंक्ति ‘ईश्वरीय’ अथवा भगवान के लिए नहीं होती और जहाँ पर ऐसा भ्रम हो कि ईशनिंदा की गयी है उसे भ्रम ही माना जाए. आप अफ्रीका से हैं. आपको शायद पता नहीं कि हमारे देश में एक से एक बातों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक मौजूद हैं. उनसे मिलने के लिए आपको काफी रैंड खर्चा करके यहाँ आना होगा. वैसे आपकी यात्रा विफल नहीं होगी. कोचीन हार्बर पर मेरे दो पानी के जहाज़ हमेशा खड़े रहते हैं. एक आपको दे दूँगा. खुद चलाकर ले जाइये. आप भी क्या याद कीजियेगा कि किसी धनवान से पाला पड़ा था. आपके पास पानी का जहाज़ चलाने का लाइसेन्स तो है न?
Rajat Vynar is offline   Reply With Quote
Old 22-09-2014, 12:42 AM   #17
soni pushpa
Diligent Member
 
Join Date: May 2014
Location: east africa
Posts: 1,288
Rep Power: 65
soni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond repute
Default Re: प्रेम.. और... त्याग...

Quote:
Originally Posted by Rajat Vynar View Post
हाँ पर मौजूद सभी ‘बातों के बैज्ञानिकों’ को सादर नमस्कारके साथ सोनी पुष्पा जी मुझे आपसे यह कहना है कि यह सत्य है कि चर्चा यहाँ पर लम्बी हो गई है किन्तु जहाँ पर ‘बातों के वैज्ञानिक’ मौजूद होंगे वहाँ पर कई संदेह उठेंगे और चर्चा ज़रूर लम्बी ही खिंचेगी. मुझे आपसे यह बताते हुए बड़ी खुशी का अनुभव हो रहा है कि एक दर्जन साल जैसी भयानक अवधि तक अंग्रेजों की संगोष्ठियों में गपशप के वजनी अनुभव के साथ मैं यहाँ पर मौजूद हूँ. बहुधा मैंने यह पाया है कि लोग जब अपने सूत्र में एक समस्या लेकर आते हैं तो उसमें एक विचित्र सी अनोखी बात भी कहते हैं. लोग उस अनोखी बात को अनदेखा कर देते हैं और दूसरी बात पर चर्चा जारी रखते हैं और यह चर्चा निःसंदेह सूत्र-लेखक के लिए उपयोगी नहीं मानी जा सकती. इस सूत्र में ‘त्यागऔर प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं या फिरएकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ कहा गया है. सभी जानते हैं कि ‘त्यागऔर प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं’. अतः यहाँ पर ‘या फिरएकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ का अर्थ हुआ- ‘क्या त्याग के बिना प्रेम सम्भव है?’ अथवा ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’. इस विषय पर किसी की नज़र नहीं जा रही है. ‘बातों का बैज्ञानिक’ होने के कारण मेरी दृष्टि गयी. मेरा उत्तर है- ‘हाँ, सम्भव है.’ लोग हैरत में आकर पूछेंगे- ‘कैसे?’ क्योंकि सभी जानते हैं कि त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं. अतः सोनी पुष्पा जी, आपसे अनुरोध है कि पहले ‘त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं हैपर चर्चा चलने की अनुमति प्रदान करें. बाद में मैं बताऊँगा कि ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’ यहाँ पर मैं साफ़-साफ़ यह बता दूँ कि लेखन की हर पंक्ति ‘ईश्वरीय’ अथवा भगवान के लिए नहीं होती और जहाँ पर ऐसा भ्रम हो कि ईशनिंदा की गयी है उसे भ्रम ही माना जाए. आप अफ्रीका से हैं. आपको शायद पता नहीं कि हमारे देश में एक से एक बातों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक मौजूद हैं. उनसे मिलने के लिए आपको काफी रैंड खर्चा करके यहाँ आना होगा. वैसे आपकी यात्रा विफल नहीं होगी. कोचीन हार्बर पर मेरे दो पानी के जहाज़ हमेशा खड़े रहते हैं. एक आपको दे दूँगा. खुद चलाकर ले जाइये. आप भी क्या याद कीजियेगा कि किसी धनवान से पाला पड़ा था. आपके पास पानी का जहाज़ चलाने का लाइसेन्स तो है न?
Quote:
Originally Posted by Rajat Vynar View Post
हाँ पर मौजूद सभी ‘बातों के बैज्ञानिकों’ को सादर नमस्कारके साथ सोनी पुष्पा जी मुझे आपसे यह कहना है कि यह सत्य है कि चर्चा यहाँ पर लम्बी हो गई है किन्तु जहाँ पर ‘बातों के वैज्ञानिक’ मौजूद होंगे वहाँ पर कई संदेह उठेंगे और चर्चा ज़रूर लम्बी ही खिंचेगी. मुझे आपसे यह बताते हुए बड़ी खुशी का अनुभव हो रहा है कि एक दर्जन साल जैसी भयानक अवधि तक अंग्रेजों की संगोष्ठियों में गपशप के वजनी अनुभव के साथ मैं यहाँ पर मौजूद हूँ. बहुधा मैंने यह पाया है कि लोग जब अपने सूत्र में एक समस्या लेकर आते हैं तो उसमें एक विचित्र सी अनोखी बात भी कहते हैं. लोग उस अनोखी बात को अनदेखा कर देते हैं और दूसरी बात पर चर्चा जारी रखते हैं और यह चर्चा निःसंदेह सूत्र-लेखक के लिए उपयोगी नहीं मानी जा सकती. इस सूत्र में ‘त्यागऔर प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं या फिरएकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ कहा गया है. सभी जानते हैं कि ‘त्यागऔर प्रेम एक दूजे के पर्याय हैं’. अतः यहाँ पर ‘या फिरएकदूजे से अलग रखना चहिये इसे’ का अर्थ हुआ- ‘क्या त्याग के बिना प्रेम सम्भव है?’ अथवा ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’. इस विषय पर किसी की नज़र नहीं जा रही है. ‘बातों का बैज्ञानिक’ होने के कारण मेरी दृष्टि गयी. मेरा उत्तर है- ‘हाँ, सम्भव है.’ लोग हैरत में आकर पूछेंगे- ‘कैसे?’ क्योंकि सभी जानते हैं कि त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं. अतः सोनी पुष्पा जी, आपसे अनुरोध है कि पहले ‘त्याग के बिना प्रेम सम्भव नहीं हैपर चर्चा चलने की अनुमति प्रदान करें. बाद में मैं बताऊँगा कि ‘त्याग के बिना प्रेम कैसे करें?’ यहाँ पर मैं साफ़-साफ़ यह बता दूँ कि लेखन की हर पंक्ति ‘ईश्वरीय’ अथवा भगवान के लिए नहीं होती और जहाँ पर ऐसा भ्रम हो कि ईशनिंदा की गयी है उसे भ्रम ही माना जाए. आप अफ्रीका से हैं. आपको शायद पता नहीं कि हमारे देश में एक से एक बातों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक मौजूद हैं. उनसे मिलने के लिए आपको काफी रैंड खर्चा करके यहाँ आना होगा. वैसे आपकी यात्रा विफल नहीं होगी. कोचीन हार्बर पर मेरे दो पानी के जहाज़ हमेशा खड़े रहते हैं. एक आपको दे दूँगा. खुद चलाकर ले जाइये. आप भी क्या याद कीजियेगा कि किसी धनवान से पाला पड़ा था. आपके पास पानी का जहाज़ चलाने का लाइसेन्स तो है न?
आपके लेखन कला की पहचान आपके पहले सूत्र से हो चुकी है रजत जी . और आप बहुत बड़े आलोचक, समालोचक, और हास्य रचनाओ के रचयिता, व्याख्याता.. किसी भी विषय की बड़े रुचिपूर्ण ढंग से व्याख्या कर सकते हो ये सब हमे पता चल जाता है जब आप इतना कुछ लिखते हो .... पर सबसे पहले धन्यवाद देती हूँ की आप इतना इन्टरेस्ट ले रहे हो इस विषय में .और मेरी अनुमति न मांगिये, जरुर लिखिए बस इतना चाहूंगी कि,जो विषय है उससे न भटक जाएँ हम सब, क्यूंकि यदि हम दुसरी बातो पर ध्यान देने लगेंगे तो जो mein मुद्दा है वो एक तरफ रह जायेगा और हम फिल्मों,serialsकी और आगे निकल जायेंगे . और रही बात भगवान को इस लेख में लेने की, तो इस प्रेम शब्द की व्यापकता कितनी है वो बताने के लिए ये बात कहना यहाँ में बहुत जरुरी समझती हू क्यूंकि हम इंसान कभी भगवान से बढकर नही हैं.
soni pushpa is offline   Reply With Quote
Old 22-09-2014, 01:43 PM   #18
Rajat Vynar
Diligent Member
 
Rajat Vynar's Avatar
 
Join Date: Sep 2014
Posts: 1,056
Rep Power: 29
Rajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant future
Talking Re: प्रेम.. और... त्याग...

Quote:
Originally Posted by soni pushpa View Post
आपके लेखन कला की पहचान आपके पहले सूत्र से हो चुकी है रजत जी . और आप बहुत बड़े आलोचक, समालोचक, और हास्य रचनाओ के रचयिता, व्याख्याता.. किसी भी विषय की बड़े रुचिपूर्ण ढंग से व्याख्या कर सकते हो ये सब हमे पता चल जाता है जब आप इतना कुछ लिखते हो .... पर सबसे पहले धन्यवाद देती हूँ की आप इतना इन्टरेस्ट ले रहे हो इस विषय में .और मेरी अनुमति न मांगिये, जरुर लिखिए बस इतना चाहूंगी कि,जो विषय है उससे न भटक जाएँ हम सब, क्यूंकि यदि हम दुसरी बातो पर ध्यान देने लगेंगे तो जो mein मुद्दा है वो एक तरफ रह जायेगा और हम फिल्मों,serialsकी और आगे निकल जायेंगे . और रही बात भगवान को इस लेख में लेने की, तो इस प्रेम शब्द की व्यापकता कितनी है वो बताने के लिए ये बात कहना यहाँ में बहुत जरुरी समझती हू क्यूंकि हम इंसान कभी भगवान से बढकर नही हैं.
सोनी पुष्पा जी, आपकी बात सच है कि ‘सबसे बड़ा भगवान है’ किन्तु मुझे उस समय घोर आश्चर्य होता है जब असंबंधित बातों से ईश्वर अचानक अपना नाता जोड़कर बेवजह नाराज़ हो जाता है, जबकि उन बातों से ईश्वर का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता. ईश्वरीय भाषा मानी जाने वाली ‘संस्कृत’ कुछ ऐसी ही है जो अपने कठिन ‘व्याकरण’ (Grammer) के कारण अनावश्यक रूप से भक्तों और ईश्वर के मध्य संदेह उत्पन्न करती है. इसलिए व्याकरण के मूल सिद्धान्त को समझना चाहिए- ‘ईश्वर की इच्छा और ईश्वर के विरुद्ध कुछ भी नहीं है’. मैंने तो आज तक संस्कृत में कोई ऐसा श्लोक नहीं पढ़ा जिसमें ईश्वर के विरुद्ध कुछ कहा गया हो. आप लिखती हैं कि ‘आपकेलेखन कलाकी पहचान आपके पहले सूत्रसेहो चुकी है’. हमें लिखते समय यह तो पता ही रहता है कि हमारी कोई कृति कितनी अच्छी या घटिया है. वस्तुतः जिस कृति को दूसरे लोग अच्छा समझते हैं वह हमारी नज़रों में घटिया होती है और इस बात को कोई कला का पारखी ही पहचान सकता है. वैसे तो मैंने आपकी तीन कविताएँ ही पढ़ी हैं किन्तु मैं उन कृतियों द्वारा आपके अन्दर कला के ‘छुपे रुस्तम’ को पहचान गया और उस समय तो आपकी पारखी दृष्टि की और अधिक पुष्टि हो गयी जब आपने पहली बार मेरी कविता ‘चिराग’ पर अपनी पहली टिप्पणी में कहा कि- ‘चिरागों टले अँधेरारहे वो ही अच्छा...’ चर्चा पर अनुमति प्रदान करने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.
Rajat Vynar is offline   Reply With Quote
Old 22-09-2014, 02:03 PM   #19
soni pushpa
Diligent Member
 
Join Date: May 2014
Location: east africa
Posts: 1,288
Rep Power: 65
soni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond reputesoni pushpa has a reputation beyond repute
Default Re: प्रेम.. और... त्याग...

Quote:
Originally Posted by Rajat Vynar View Post
सोनी पुष्पा जी, आपकी बात सच है कि ‘सबसे बड़ा भगवान है’ किन्तु मुझे उस समय घोर आश्चर्य होता है जब असंबंधित बातों से ईश्वर अचानक अपना नाता जोड़कर बेवजह नाराज़ हो जाता है, जबकि उन बातों से ईश्वर का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता. ईश्वरीय भाषा मानी जाने वाली ‘संस्कृत’ कुछ ऐसी ही है जो अपने कठिन ‘व्याकरण’ (Grammer) के कारण अनावश्यक रूप से भक्तों और ईश्वर के मध्य संदेह उत्पन्न करती है. इसलिए व्याकरण के मूल सिद्धान्त को समझना चाहिए- ‘ईश्वर की इच्छा और ईश्वर के विरुद्ध कुछ भी नहीं है’. मैंने तो आज तक संस्कृत में कोई ऐसा श्लोक नहीं पढ़ा जिसमें ईश्वर के विरुद्ध कुछ कहा गया हो. आप लिखती हैं कि ‘आपकेलेखन कलाकी पहचान आपके पहले सूत्रसेहो चुकी है’. हमें लिखते समय यह तो पता ही रहता है कि हमारी कोई कृति कितनी अच्छी या घटिया है. वस्तुतः जिस कृति को दूसरे लोग अच्छा समझते हैं वह हमारी नज़रों में घटिया होती है और इस बात को कोई कला का पारखी ही पहचान सकता है. वैसे तो मैंने आपकी तीन कविताएँ ही पढ़ी हैं किन्तु मैं उन कृतियों द्वारा आपके अन्दर कला के ‘छुपे रुस्तम’ को पहचान गया और उस समय तो आपकी पारखी दृष्टि की और अधिक पुष्टि हो गयी जब आपने पहली बार मेरी कविता ‘चिराग’ पर अपनी पहली टिप्पणी में कहा कि- ‘चिरागों टले अँधेरारहे वो ही अच्छा...’ चर्चा पर अनुमति प्रदान करने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.
श्रीमान रजत जी फिर से आपने अनुमति की बात की , मेरा मानना है की आपकी लेखन कला से सभी वाचक अब तक परिचित हो ही गए हैं. और सब आपकी लिखी बात को पढना जरुर चाहेंगे ही तो आप लिखना जरुर . रही बात मेरी लिखी कविता में मेरे छुपे रुस्तम होने की तो वो मै कोई बड़ी कवयित्री नही हूँ बस कभीकभी मन भावुक हो जाता है और शब्द आपने आप चलते आते हैं जहन में , और कलम लिखते चली जाती है ... पर sorry यहाँ key बोर्ड है जहाँ typing होते चली जाती है ... आपकी लेखन शैली बहुत उच्च स्तररीय है .. .. आपने देखा न हम अब प्रेम और त्याग के विषय से हटकर दुसरे विषय पर बात करने लगे हैं इसलिए ही मेने कहा की हम एक ताल में ही रहे तो अच्छा होगा वर्ना विषय जो यहाँ रखा गया है, उससे हम भटक जायेंगे और दूसरी चर्चा में लग जायेंगे ..
soni pushpa is offline   Reply With Quote
Old 22-09-2014, 04:04 PM   #20
Rajat Vynar
Diligent Member
 
Rajat Vynar's Avatar
 
Join Date: Sep 2014
Posts: 1,056
Rep Power: 29
Rajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant futureRajat Vynar has a brilliant future
Talking Re: प्रेम.. और... त्याग...

Quote:
Originally Posted by soni pushpa View Post

श्रीमान रजत जी फिर से आपने अनुमति की बात की , मेरा मानना है की आपकी लेखन कला से सभी वाचक अब तक परिचित हो ही गए हैं. और सब आपकी लिखी बात को पढना जरुर चाहेंगे ही तो आप लिखना जरुर . रही बात मेरी लिखी कविता में मेरे छुपे रुस्तम होने की तो वो मै कोई बड़ी कवयित्री नही हूँ बस कभीकभी मन भावुक हो जाता है और शब्द आपने आप चलते आते हैं जहन में , और कलम लिखते चली जाती है ... पर sorry यहाँ key बोर्ड है जहाँ typing होते चली जाती है ... आपकी लेखन शैली बहुत उच्च स्तररीय है .. .. आपने देखा न हम अब प्रेम और त्याग के विषय से हटकर दुसरे विषय पर बात करने लगे हैं इसलिए ही मेने कहा की हम एक ताल में ही रहे तो अच्छा होगा वर्ना विषय जो यहाँ रखा गया है, उससे हम भटक जायेंगे और दूसरी चर्चा में लग जायेंगे ..
र्चा का थोड़ा बहुत इधर-उधर भटक जाना कोई बहुत बुरी बात नहीं है, सोनी पुष्पा जी. इससे कुछ नई बातें पता चलती हैं. चर्चा जब भटकती है तभी उसमें नया मोड़ आता है. लावण्या जी भी इसके समर्थन में अपने सूत्र ‘गुण और कला’ में कहती हैं कि- ‘रजनीश जी आपने इस चर्चा को एक नया ही मोड़ दिया और मेरी जिज्ञासा भी आपका उत्तर देख कर थोड़ी शांत हुई है।‘ http://myhindiforum.com/showthread.php?t=13756&page=3 जहाँ तक गुण और कला का सवाल है- कुछ भी इंसान माँ के पेट से सीखकर नहीं आता. अफ्रीका में होने के कारण आपने वर्ष 1968 में लोकार्पित फिल्म ‘दो कलियाँ’ का यह गीत जो साहिर लुधियानवी द्वारा लिखा गया है, नहीं सुना होगा. आपके लिए उद्घृत कर रहा हूँ-
बच्चे मन के सच्चे...
सारी जग के आँख के तारे..
ये वो नन्हे फूल हैं जो..
भगवान को लगते प्यारे..

खुद रूठे, खुद मन जाये, फिर हमजोली बन जाये
झगड़ा जिसके साथ करें, अगले ही पल फिर बात करें
इनकी किसी से बैर नहीं, इनके लिये कोई ग़ैर नहीं
इनका भोलापन मिलता है, सबको बाँह पसारे
बच्चे मन के सच्चे...

इन्सान जब तक बच्चा है, तब तक समझ का कच्चा है
ज्यों ज्यों उसकी उमर बढ़े, मन पर झूठ का मैल चढ़े
क्रोध बढ़े, नफ़रत घेरे, लालच की आदत घेरे
बचपन इन पापों से हटकर अपनी उमर गुज़ारे
बच्चे मन के सच्चे...

तन कोमल मन सुन्दर
हैं बच्चे बड़ों से बेहतर
इनमें छूत और छात नहीं, झूठी जात और पात नहीं
भाषा की तक़रार नहीं, मज़हब की दीवार नहीं
इनकी नज़रों में एक हैं, मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे
बच्चे मन के सच्चे...

अतः यह स्पष्ट है कि ‘एक कला को सीखने के लिए मनुष्य को स्वयं प्रयत्न कारण पड़ता है’ और ‘गुण सीखा नहीं जाता और न ही यह मनुष्य में पहले से विद्यमान कोई नैसर्गिक वस्तु है. एक मनुष्य का गुण उसके चारों और व्याप्त सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) पर आधारित होता है. इसलिए मनुष्य का गुण परिवर्तनशील है. इसका अर्थ यह है कि सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) के आधार पर मनुष्य का गुण बदल सकता है और किन गुणों को ग्रहण करना है, किन गुणों को नहीं ग्रहण करना है- यह पूर्णतः मनुष्य की मानसिकता पर निर्भर करता है. अतः यह स्पष्ट है कि जो लोग सामाजिक (social) परिवेश (surroundings) के अनुरूप अपने गुणों को नहीं बदलते और दृढतापूर्वक अच्छे गुणों को आत्मसात किये रहते हैं वे ही महान की श्रेणी में आते हैं.’
Rajat Vynar is offline   Reply With Quote
Reply

Bookmarks

Thread Tools
Display Modes

Posting Rules
You may not post new threads
You may not post replies
You may not post attachments
You may not edit your posts

BB code is On
Smilies are On
[IMG] code is On
HTML code is Off



All times are GMT +5. The time now is 04:37 PM.


Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.