17-11-2011, 10:24 AM | #31 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
कानपुर में 1935 में जन्मे बशीर बद्र का ग़ज़लगोई में अपना अलग और विशिष्ठ स्थान है ! वे उन इने-गिने शोअरा में शुमार हैं, जिनके अशआर जन्मते ही मुहावरों और उक्तियों की तरह लोगों की ज़ुबान पर कब्ज़ा जमा लेते हैं ! ग़ज़ल को हिंदी-उर्दू के खानों में बांटने के घोर विरोधी डॉ. बद्र की ग़ज़लों की अपनी भाषा है, खालिस ग़ज़ल की भाषा ! उन्हें ग़ज़ल कहते हुए अंग्रेजी शब्दों से भी कोई परहेज़ नहीं है, अगर वह भावाभिव्यक्ति की जरूरत हो - वो जाफरानी पुलोवर उसी का हिस्सा है कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे दरअसल उनकी ग़ज़लों को 'कल की ग़ज़ल के पैगम्बर' कहना ही उचित है ! लुत्फ़ उठाएं ऐसी ही एक सादा अल्फ़ाज़ में बहुत गहरे ख़यालात पेश करने वाली ग़ज़ल का- न जी भर के देखा, न कुछ बात की बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की उजालों की परियां नहाने लगीं नदी गुनगुनाई ख़यालात की मैं चुप था तो चलती नदी रुक गई ज़ुबां सब समझते हैं जज़्बात की मुक़द्दर मिरी चश्मे-पुरआब का बरसती हुई रात, बरसात की कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं कहां दिन गुज़ारा, कहां रात की __________________________ आरज़ू : इच्छा, तमन्ना; मुलाक़ात : भेंट, ख़यालात : विचार, ज़ुबां : भाषा, यहां आशय बोली से है; जज़्बात : मनोभाव, चश्म : नेत्र, आंख; पुरआब : जलपूर्ण, ख़बर : समाचार, यहां आशय सूचना से है
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
17-11-2011, 10:32 PM | #32 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
Sutr ko bade hi sundar dhang se pesh kiya gaya hai .... gazlon or samandhit rachkaron ke saath....! En logon me se kuch ki gazlen ghulam ali aur jagjit singh ki awazon me maujud hain...jinhe mai aksar suna karta hun......vistar se in logon ke bare me jankari dene ke liye alaick ji ka dhnywad...
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17-11-2011, 10:59 PM | #33 | |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
Quote:
आपने सही कहा, बन्धु ! उदाहरण के लिए आपकी प्रविष्ठि के ठीक ऊपर विराजमान बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल को चन्दन दासजी की आवाज़ मिली है ! प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया !
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22-11-2011, 10:38 PM | #34 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
बशर नवाज़
औरंगाबाद में 1935 में पैदा हुए बशारत नवाज़ खां उर्दू काव्य जगत में 'बशर नवाज़' तखल्लुस से एक बड़ी पहचान रखते हैं ! 'बशर' की शायरी एक ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें ज़ाहिराना तौर पर रंग-बिरंगे फूल हैं, तो कटु यथार्थ रुपी कांटों से भी नहीं बचा गया है ! वस्तुतः 'बशर' की तमाम शायरी अपने समय से काफी आगे जाकर भविष्य की नब्ज़ पर हाथ रख कर उसे संवारने का सन्देश देती है ! दरअसल 'बशर' का सोच और कलाम का फलक इतना विस्तृत है कि आप उनकी ग़ज़लों में आने वाले समय की धड़कनों को साफ़ सुन सकते हैं ! आइए पढ़ें उनकी एक ऐसी ही ग़ज़ल - पत्थर का मेरी सम्त तो आना जरूर था मैं ही गुनाहगारों में इक बेक़सूर था सचाई आग ठहरी तो लब जल के रह गए हक़गोई पर हमें भी कभी क्या ग़रूर था शबनम पहन के निकले थे शोलों के क़ाफिले देखे तहे-लिबास ये किसको शऊर था बैठा हुआ था कोई सरे - राहे - आरज़ू इक उम्र की थकन से बदन चूर-चूर था ठहरा हुआ है एक ही मंज़र निगाह में इक नीम-बा दरीचा था, सैलाबे-नूर था बन कर ज़बान बोल रहा था बदन तमाम समझे न हम तो फ़हम का अपनी क़सूर था देखा क़रीब से तो वो मौज़े - सराब थी जिस आब-जू का चर्चा 'बशर' दूर-दूर था ______________________________ सम्त : ओर, दिशा; मैं ही गुनाहगारों में इक बेक़सूर था : संकेत अरब देशों में प्रचलित संगशारी की प्रथा की तरफ है, जिसमें अपराधी को पत्थर मार-मार कर मृत्यु दंड दिया जाता है, हक़गोई : सच बोलना, शबनम : ओस, तहे-लिबास : पोशाक के नीचे, शऊर : बोध, सरे-राहे-आरज़ू : इच्छा रुपी मार्ग में, मंज़र : दृश्य (प्रसंगवश - मंज़र का बहुवचन 'मनाज़िर' होता है ), नीम-बा : आधा खुला (अर्थात नीम - आधा, बा - खुला), दरीचा : खिड़की, सैलाबे-नूर : प्रकाश की बाढ़, फ़हम : बुद्धि, मौज़े-सराब : मरीचिका की लहर, आब-जू : नदी
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04-12-2011, 11:30 AM | #35 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
शहरयार
ग़ज़ल और नज़्म दोनों ही समान रूचि और वैशिष्ठ्य से कहने वाले प्रो. अखलाक मोहम्मद खां को 'शहरयार' के रूप में उर्दू अदब में शायर और फिल्म जगत में गीतकार के रूप एक बहुत ऊंचा दर्ज़ा हासिल है ! 1936 में जन्मे 'शहरयार' ने उर्दू अदब को 'इस्मे-आज़म', 'सातवां दर', 'हिज्र के मौसम' और 'काफिले यादों के' जैसे कई अनुपम काव्य संकलन भेंट किए ! 'ख्वाब का दर बंद है' काव्य संग्रह पर उन्हें 1987 में साहित्य अकादमी ने अपने सर्वोच्च सम्मान से नवाज़ा ! पढ़ें उनके इसी दीवान से एक बेहतरीन ग़ज़ल - ज़ख्मों को रफू कर लें, दिल शाद करें फिर से ख़्वाबों की कोई दुनिया, आबाद करें फिर से मुद्दत हुई, जीने का, एहसास नहीं होता दिल उनसे तकाज़ा कर, बेदाद करें फिर से मुजरिम के कटहरे में, फिर हमको खड़ा कर दो हो रस्मे - कुहन ताज़ा, फ़रयाद करें फिर से ऐ अहल -ए - जुनूं देखो, जंजीर हुए साये हम कैसे उन्हें, सोचो, आज़ाद करें फिर से अब जी के बहलने की, है एक यही सूरत बीती हुई कुछ बातें, हम याद करें फिर से ______________________________ शाद : प्रसन्न, बेदाद : जाग्रत, यहां आशय 'अत्याचार' से है; रस्मे-कुहन : प्राचीन परम्परा, फ़रयाद : फ़रियाद, प्रार्थना; अहल-ए-जुनूं : उन्मादग्रस्त व्यक्ति
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04-12-2011, 11:33 AM | #36 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
'निदा' फ़ाज़ली
1938 में दिल्ली में जन्मे मुक़तदा हसन का बचपन ग्वालियर में बीता ! देश के बंटवारे के बाद परिवार-विभाजन का ज़ख्म खाया और 'निदा' फ़ाज़ली बन गए ! साठोत्तरी पीढ़ी के चर्चित कवि और सफल फ़िल्मी गीतकार हैं ! उनके 'लफ़्ज़ों का पुल', 'मोरनाच', 'खोया हुआ सा कुछ' आदि काव्य संकलन शाया (प्रकाशित) हुए ! 'निदा' की शायरी एक ऐसे कोलाज की तरह है, जिसके कई रूप हैं ! उनके अनेक अशआर और दोहे वर्तमान में ही बोलचाल के मुहावरे बन चुके हैं ! यह एक ऐसी विशेषता है, जो इने-गिने शोअरा का हिस्सा है ! नई-नई आंखें हों, तो हर मंज़र अच्छा लगता है कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है मिलने-जुलने वालों में तो सारे अपने जैसे हैं जिससे अब तक मिले नहीं, वो अक्सर अच्छा लगता है मेरे आंगन में आए या तेरे सर पर चोट लगे सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने सांचे हैं जो मूरत में ढल जाए, वो पैकर अच्छा लगता है हमने भी सोकर देखा है नए-पुराने शहरों में जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है _________________________________ मंज़र : दृश्य, पैकर : आकृति
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11-12-2011, 04:01 AM | #37 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
उबैदुल्ला 'अलीम'
भोपाल में 1939 में जन्मे उबैदुल्ला 'अलीम' आधुनिक उर्दू शायरी के प्रतिनिधि कवि हैं ! सादा लहज़े में बड़ी गहरी बात कह जाने का कमाल उनकी क़लम को हासिल है ! इसी वज़ह से उनका ज्यादातर रचना-कर्म सदा चर्चा का विषय बनता रहा है ! ग़ज़ल की कोई नई भाषा नहीं गढ़ते हुए भी 'अलीम' ने अपने लिए नए ज़मीन-ओ-आसमान तलाशे हैं और यही एक कारण उन्हें शायरों की भीड़ में भी अलग और अकेली शख्सियत का रूतबा अता करता है ! आइए, पढ़ें 'अलीम' की एक ऐसी ही सादा अल्फ़ाज़ से बुनी, लेकिन पुरअसर ग़ज़ल - जवानी क्या हुई, इक रात की कहानी हुई बदन पुराना हुआ, रूह भी पुरानी हुई कोई अज़ीज़ नहीं मासवा-ए-जात हमें अगर हुआ है, तो यूं जिंदगानी हुई न होगी खुश्क कि शायद वो लौट आए फिर ये किश्त गुज़ारे हुए अब्र की निशानी हुई तुम अपने रंग नहाओ मैं अपनी मौज उडूं वो बात भूल भी जाओ, जो आनी-जानी हुई मैं उसको भूल गया हूं, वो मुझको भूल गया तो फिर ये दिल पे क्यों दस्तक़ सी नागहानी हुई कहां तक और भला जां का हम ज़ियां करते बिछड़ गया है तो, ये उसकी मेहरबानी हुई _______________________ अज़ीज़ : प्रिय, मासवा-ए-जात : निज के सिवा, किश्त : खेती, अब्र : बादल, नागहानी : अकस्मात, अचानक; ज़ियां : हानि, नुकसान !
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11-12-2011, 05:21 PM | #38 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
अलैक जी, बेहद खुबसूरत । ज्ञानवर्धक सूत्र । धन्यवाद ।
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15-12-2011, 07:26 AM | #39 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
'होश' तिर्मज़ी
अम्बाला के साढोहरा में 1941 में जन्मे सैयद सिब्ते हसन उर्दू काव्य संसार में 'होश' तिर्मज़ी के नाम से मशहूर हैं ! 'होश' की शायरी एक ओर जहां ठेठ रिवायती ख़ाके में ढली नज़र आती है, वहीं दूसरी ओर वे उर्दू अदब की ताज़ा मौज़ों पर सवार भी दिखाई देते हैं ! यही वज़ह है कि वे शायरी में परम्परागत अल्फ़ाज़, बिंब और प्रतीकों का प्रयोग बहुतायत से करते हैं, लेकिन इसके बावजूद अपने क़लाम को कठिन चीज़ों से बड़े कौशल से बरी भी रखते हैं यानी उनके क़लाम में आमफहम बनाए रखने के मंसूबे साफ़ देखे जा सकते हैं ! कहा जा सकता है कि 'होश' की शायरी में, विशेषकर ग़ज़लों में एक पूरी रिवायत सांस लेती महसूस की जा सकती है ! आइए, महसूस करें ऐसी ही एक खूबसूरत और सादालफ्ज़ ग़ज़ल की पुरअसर खुशबू - देखे हैं जो ग़म दिल से भुलाए नहीं जाते इक उम्र हुई याद के साए नहीं जाते अश्कों से खबरदार कि आंखों से न निकलें गिर जाएं ये मोती तो उठाए नहीं जाते हर जुम्बिशे-दामाने-जुनूं जाने-अदब है इस राह में आदाब सिखाए नहीं जाते हम भी शबे - गेसू के उजालों में रहे हैं क्या कीजिए दिन फेर के लाए नहीं जाते शिकवा नहीं, समझाए कोई चारागरों को कुछ ज़ख्म हैं ऐसे कि दिखाए नहीं जाते ऐ 'होश', ग़मे-दिल के चिराग़ों की है क्या बात इक बार जला दो, तो बुझाए नहीं जाते _____________________________________ रिवायत : परम्परा, किसी के मुंह से सुनी बात ज्यों की त्यों किसी से कहना, इस्लामी परिभाषा में हज़रत पैग़म्बर (हज़रत मोहम्मद सल.) के मुख से सुनी हुई बात अन्य को उन्हीं के अल्फ़ाज़ में सुनाना, हदीस बयान करना; सादालफ्ज़ : सरल शब्दों में, जुम्बिशे-दामाने-जुनूं : उन्मादग्रस्त के दामन का हिलना, जाने-अदब : शिष्टाचार की जान, आदाब : शिष्टाचार, शबे-गेसू : बालों की रात, यहां संकेत प्रेयसी की जुल्फों के सान्निध्य में रात गुज़ारने से है; चारागर : चिकित्सक, ग़मे-दिल : हृदय की पीड़ा !
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31-12-2011, 02:16 PM | #40 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गझल,शेर,शायरी से पहले से ही लगाव कम था इस लिये यहाँ जिन महानुभावो के लिये जानकारी दी है उनमे बहुत सारे नामो से भी परिचित नहीं हूँ...लेकिन आज आपकी वजह से वो अनजाना पण भी कुछ हद तक कम हुआ और आगे भी कम होता रहेगा...आपका कार्य सराहनीय है.
धन्यवाद. |
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