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Old 01-05-2013, 08:52 PM   #51
jai_bhardwaj
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लंदन। वह उस घटना को भूल गया था लेकिन 35 साल बाद अचानक एक दिन पुलिस ने उसके घर पहुंचकर चौंका दिया।

वह दरअसल 1978 में चोरी हुए उसके पर्स को लौटाने आई थी। वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने पर्स खोलकर देखा तो उसमें मौजूद 15 पौंड को छोड़कर ड्राइविंग लाइसेंस और तब खरीदा गया सिनेमा एवं बस का टिकट अब भी सुरक्षित था। रकम चोर ने निकाल ली थी। दरअसल कुछ दिन पहले शहर की एक बिल्डिंग का जीर्णोद्धार किया जा रहा था तो एक दीवार के भीतर छिपाया गया वह पर्स मिला। पुलिस को सूचना दी गई। लाइसेंस में दिए गए पते पर पहुंचकर पुलिस ने पर्स मालिक को वापस कर दिया। उस व्यक्ति का जब पर्स खोया था तब वह 23 वर्ष का युवा था। अब वह 58 साल का अधेड़ व्यक्ति है।
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Old 04-05-2013, 07:38 PM   #52
jai_bhardwaj
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चरण स्पर्श (लघु कथा) - विनीता शुक्ल

रमिता रंगनाथन, मिसेज़ शास्त्री की खातिर में यूँ जुटी थीं- मानों कोई भक्त, भगवान की सेवा में हो। क्यों न हो- एक तो बॉस की बीबी, दूसरे फॉरेन रिटर्न। अहोभाग्य- जो खुद उनसे मिलने, उनके घर तक आयीं! पहले वडा और कॉफ़ी का दौर चला फिर थोड़ी देर के बाद चाय पीना तय हुआ। इस बीच ‘मैडम जी’, सिंगापुर के स्तुतिगान में लगीं थीं- “यू नो- उधर क्या बिल्डिंग्स हैं! इत्ती बड़ी बड़ी…’एंड’ तक देख लो तो सर घूम जाता है…और क्या ग्लैमर!! आई शुड से- ‘इट्स ए हेवेन फॉर शॉपर्स’…” रमिता ने महाराजिन को, चाय रखकर जाने का इशारा किया. गायित्री शास्त्री ने चाय का प्याला उठाया भी, पर एक ही घूँट के बाद मुंह सिकोड़ लिया- “इट्स वैरी स्ट्रोंग! हम लोग तो फॉरेन- ट्रिप में बहुत लाईट ‘टी’ पीते थे…एंड फ्लेवर वाज़ सो सूदिंग!! ” रमिता कुढ़ गयी. श्रीमती जी को ‘शीशे में उतारना’ इतना सहज न था. तभी उसे कुछ सूझा और तब जाकर- दिमाग की तनी हुई नसें, थोडी ढीली पड़ीं.

“विनायक” उसने बेटे को आवाज़ दी,” जरा देखो तो कौन आया है.” विनायक का प्रवेश हुआ; उसने रट्टू तोते की भांति आंटी को ‘गुड -मॉर्निंग’ विश किया तो रमिता बोली, “ऐसे नहीं, आज ‘विशु’( एक तमिल त्यौहार) है. आज के दिन बड़ों का पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं” विनायक ने झुककर गायित्री के चरण छुए तो उन्हें बेस्वाद चाय को भूलकर, ‘गार्डेन गार्डेन’ होना ही पडा. इम्पोर्टेड चौकलेट का डिब्बा बेटे को थमाते हुए, रमिता ने कहा, “ये स्वीट्स आंटी सिंगापुर से लायी हैं- इट्स लाइक ए विशु गिफ्ट फॉर यू ” फिर गर्व से ‘मैडम’ को देखकर कहा, “अवर इंडियन कलचर यू नो!” न चाहते हुए भी ‘श्रीमतीजी’ चारों खाने चित्त हो गयीं थीं- अपने पति की ‘जूनियर’ के आगे!

यह तो अच्छा ही हुआ कि विनायक का गिटार- टीचर थोडा लेट आया. नहीं तो वो भी यहीं सोफे में बैठ जाता और रंग में भंग पड जाता. विनायक को रमिता ने ताकीद भी कर रखी थी- “इस आदमी को लिविंग रूम में मत बैठाया करो…यह हमारी बराबरी का नहीं.” पर बेटा प्रतिवाद करने की कोशिश करता, “अम्मा, मुकुन्दन मेरे गुरु हैं और मैं उनकी इज्ज़त करता हूँ” लेकिन माँ की जलती हुई आँखों के आगे, उस बेचारे की गुरु भक्ति धरी रह जाती.मुकुन्दन को आते देख रमिता, वर्तमान में लौट आई. परन्तु यह वो क्या देख रही थी! विनायक ने लपककर, अपने उस ‘तथाकथित’ गुरु के पैर छू लिए!! माँ के आपत्ति से भरे हाव- भाव भी, बेटे को विचलित न कर सके. मुस्कुराकर बोला, ” इट्स विशु अम्मा” और मुकुन्दन को लेकर भीतर चला गया. रमिता चुपचाप, उन्हें जाते हुए देखती रही -बिलकुल असहाय सी!!!
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Old 06-05-2013, 06:55 PM   #53
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एक बार मेरे एक हमउम्र मित्र मेरे कार्यस्थल पर आये ! हम अक्सर मिलते थे, बातें करते थे, और पुराने दोस्त थे । मुझसे उन्होने एक सामान का रेट पूछा, वो चीज उनको चाहिये थी । मित्र होने के नाते, मेनें उनको एक दम वाजिब से वाजिब भाव बताया उस वस्तु का ! मित्र ने कहाः में यह ले तो जाता हुं, पर पैसे अभी नहीं है बाद में दुंगा । मेनें कहा भाई नहीं चल सकता है एसा, कम मार्जिन और उधारी ! अव्वल तो हम उधारी में सामान ना तो खरीदते हैं ना ही बेचते हैं ! फिर भी व्यवसाय है तो छोटा मोटा देखना ही पडता है । और उधारी का काम ए॓सा है ना कि दे ओर फिर देख ।

अपन आदमी हैं साफ कहने और सुखी रहने वाले टाईप के ! मुझे पता था कि ये अगर ले गया तो पैसे वापस आने में महीनों लग सकते हैं, मेनें मित्र को साफ मना कर दिया कि नहीं पैसे बाकी रखो तो में नहीं दे सकता हूं । दोस्त नाराज … उनके चेहरे से ही पता चल गया था मुझे ! अगले ही पल मित्र नें चेहरे की झेंप को मिटाते हुए कहाः अरे क्या यार में तो परीक्षा ले रहा था कि दोस्त कुछ पेसे बाकी रख सकता है भी कि नहीं ।

वाह ……………वाह ……….. ! क्या बात है, उस टाईप के शख्स से और आशा भी क्या कि जा सकती थी । में जानता था कि खिसियानी बिल्ली खंभे को नोच रही है । में चुप रह गया फिर भी ! आखिर क्यों लोग मुझसे उम्मीदें लगा बैठते हैं .. जो कि में पुरी नहीं कर सकता ।

आज तक जीवन में मेनें भी काफी उतार चढ़ाव देखे हैं और जब में आज तक किसी से उधार मांगने नहीं गया तो में किसी को क्यूं एसा करुं । कभी परिस्थिती वश ए॓सा कुछ गिनती की बार हुआ भी है, तो भी पन्द्रह मिनट या आधे घंटे में पैसे वापस लौटाने जाने पर मुझे लोगों ने यही कहा क्या पैसे कहीं भाग कर जा रहे थे क्या ! पर नहीं लोग कैसे भी हों कुछ भी करे पर में अपने हिस्से की ईमानदारी रखता हूं। पता नही लोग रुपये पैसे के मामले में इतने कमीनेपन पर कैसे उतर जाते है ।
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Old 06-05-2013, 06:59 PM   #54
jai_bhardwaj
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एक बार की बात हैं, बहुत सालों पहले एक साधारण सा नौकरी पेशा आदमी ने अपनी हैसियत से थोडा उपर की सोच रखते हुए अपने मकान को थोडा व्यवस्थित करने के लिये मकान का काम चालू करवाया ! पता नहीं किस बुरे मुहु्र्त में ये सब शुरु हुआ था कि काम छः महिने से उपर होने पर भी खतम होने का नाम नहीं ले रहा था । कुछ ना कुछ काम बढ़ ही जाता था । वेसे राजस्थानी मेवाडी भाषा में एक कहावत है कि “ब्याह कहे कि मुझे मांड के देख, और मकान कहे कि काम छेड कर देख” सो बस मकान मालिक यह सोचता था कि अब औखली में सर तो दे ही दिया है, हो जाने दो जैसे भी हो, थोडा बहुत उधार भी हो गया तो मेहनत करके चुका देंगे ।

कुछ वक्त बाद बस सीमेंट पिल्लर, पलास्तर, घूटाई आदि के कामों से निबटे तो बारी आई, बाथरुम में टाईल्स लगाने की, तो मकान मालिक नें पहले से ही अच्छी क्वालिटी की टाईल्सों के डब्बे व व्हाईट सीमेंट का एक कट्टा कारीगर से पुछ कर उचित मात्रा में मगंवा दिये थे ! अब ढ़ु्ढ़ां गया टाईल्स लगाने वाला कारीगर को ! बडी मुश्किल से वो मिला । मकान मालिक नें कारीगर को देखाः पतला दुबला सा साधारण कपडे पहने एक सीधा सा दिखने वाला व्यक्ती था वो, शहर के पास के किसी गांव का ही रहने वाला था । सो रेट तय की गई और कारीगर ने कहा कि इतने रुपये में यह कार्य में नियत अवधि में यानी पन्द्रह रोज में कर दुंगा । रुपये आधे अभी व आधे रुपये काम पुरा हो जाने के बाद आप दे देना बाबूजी ।

बात पक्की हो गई, काली सीमेंट, व्हाईट सीमेंट का एक कट्टा और टाईल्सों के डब्बे उसको दे दिये गये । उसने दुसरे दिन से ही काम चालू कर दिया । हाथ में उसके सफाई थी, पर काम चालू करते ही उसने व्हाईट सीमेंट को लगाकर टाईल्से चिपकाई जिससे पुरा कट्टा खत्म हो गया, जो कि लगभग पुरे बाथ में लग सकती थी, आम तौर पर व्हाईट सीमेंट को टाईल्सों के बीच की दरजों में भरने के लिये ही काम में लेते हैं, और टाईल्सों के पीछे काली सीमेंट को लगाया जाता है । अब व्हाईट सीमेंट आती बहुत महंगी है और काली सीमेंट सस्ती ।

कारीगर नें कहाः बापू व्हाईट सीमेंट खत्म हो गई, तो मकान मालिक नें जाकर बाथरुम में देखा तो हतप्रत रह गया, मुर्ख कारीगर नें महंगी व्हाईट सीमेंट को लगाकर टाईल्से चिपकाई जिससे पुरा कट्टा खत्म हो गया । खैर नुकसान तो होना था सो हो गया । बाद में फिर से कारीगर को कारीगरी सिखाई गयी कि व्हाईट सीमेंट को टाईल्सों के बीच की दरजों में भरने के लिये ही काम में लेते हैं, और टाईल्सों के पीछे काली सीमेंट को लगाया जाता है ! कारीगर नें शर्मिंदा होते हुए माफी मांगी और फिर से काम शुरु किया ! तीन दिन बराबर काम करने के बाद अचानक वह गायब हो गया व वापस नहीं आया ।

मकान मालिक को लगा कि हाथ खुला रखने का नहीं है इस दुनिया में हर आदमी की चाबी अपने पास रखो तो वह दोडा चला आता है, अब उसको कहां ढ़ुढ़ें ? एक तो काम लेट हो रहा है मेरा, उपर से आधे पैसे उसको एडवांस दे रखे हैं वो तो अब गये समझों ! खेर मकान मालिक को पता ही था कि ए॓से तो हमेशा ही होता रहा है की काम में देरी, व कारीगरो के कारण नुकसान सब से ज्यादा टेंशन ।

दस दिन बाद अचानक वह टाईल्स लगाने वाला कारीगर मकान पर आया, वह चेहरे से बडा ही मायूस सा दिख रहा था और उसके कपडे, बाल आदि अस्त व्यस्त थे । वह पहले ही मकान मालिक का नुकसान कर चुका था और अब काम लेट और करने के कारण गमजदा व शर्मिंदा भी था । नजरे निचें किये वह काम पर आया और उसनें फिर से अधुरा पडा कार्य प्रारंभ किया ? थोडी देर में मकान मालिक बाबूजी आये । उसने नमस्ते किया, मकान मालिक नें कहा कि देखो भाई मेनें तुमसे पहले हौ बात कि थी कि काम मझे इस समय के अन्दर अन्दर चाहिये और तुमने भी हामी भरी थी, अब पहले ही मेरा इतना नुकसान कर चुके हो अब तुम और क्या चाहते हो ? क्या मुझसे कुछ गलती हो गई है क्या मिस्त्री साहब ?

वह नजरे नींचे किये खडा रहा व सुनता रहा, अचानक उसका गला रुंध गया व उसने बताया कि चंद रोज पहले एक दुर्घटना में मेरे बेटे की मौत हो गई थी, बस इसलिये में नहीं आ पाया, बाबुजी नें कारीगर के चेहरे में अजीब सी सच्चाई को देखा और उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ कि में गुस्से में इस भले आदमी को जाने क्या क्या कह गया ।

अब मकान मालिक निरत्तर थे उन्होनें कारीगर के कंधे पर हाथ रखा, प्यार भरा स्पर्श पाकर वह गदगद हो गया । कारीगर को पराये आदमी से कभी इतना स्नेह नहीं मिला था। मकान मालिक ने कहा भगवान के आगे कोई नहीं चल सकता है, जो होना था वो हो गया, अभी मुझे बताओ क्या में कुछ और तुम्हारी मदद कर सकता हु् ?

कारीगर निर्विकार भाव से खडा बाबुजी को देखता रहा । कुछ देर निःशब्द खडा रहा ।

दो चार दिन में ही उसने काम सफाई के साथ पुरा किया बाकी का पैसा लिया व चला गया ! जाते समय बाबुजी ने उसके चेहरे को देखा, उसमें एक अलग ही तरह का प्रेम था, निर्विकार, निस्वार्थ प्रेम|
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Old 08-05-2013, 07:26 PM   #55
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एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं। उनको श्रीकृष्ण ने समझ लिया। एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए।

रास्ते में उनकी मुलाकात एक गरीब ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर से तलवार लटक रही थी।

अर्जुन ने उससे पूछा, ‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’

ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं।’

‘ आपके शत्रु कौन हैं?’ अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की।

ब्राह्मण ने कहा, ‘मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं।

सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं।

फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया।’

‘ आपका तीसरा शत्रु कौन है?’ अर्जुन ने पूछा। ‘

वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया।

और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को।’ यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए।

यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।’
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बहुत पुरानी बात है. मिस्र देश में एक सूफी संत रहते थे जिनका नाम ज़ुन्नुन था. एक नौजवान ने उनके पास आकर पूछा, “मुझे समझ में नहीं आता कि आप जैसे लोग सिर्फ एक चोगा ही क्यों पहने रहते हैं!? बदलते वक़्त के साथ यह ज़रूरी है कि लोग ऐसे लिबास पहनें जिनसे उनकी शख्सियत सबसे अलहदा दिखे और देखनेवाले वाहवाही करें”.
ज़ुन्नुन मुस्कुराये और अपनी उंगली से एक अंगूठी निकालकर बोले, “बेटे, मैं तुम्हारे सवाल का जवाब ज़रूर दूंगा लेकिन पहले तुम मेरा एक काम करो. इस अंगूठी को सामने बाज़ार में एक अशर्फी में बेचकर दिखाओ”.
नौजवान ने ज़ुन्नुन की सीधी-सादी सी दिखनेवाली अंगूठी को देखकर मन ही मन कहा, “इस अंगूठी के लिए सोने की एक अशर्फी!? इसे तो कोई चांदी के एक दीनार में भी नहीं खरीदेगा!”
“कोशिश करके देखो, शायद तुम्हें वाकई कोई खरीददार मिल जाए”, ज़ुन्नुन ने कहा.
नौजवान तुरत ही बाज़ार को रवाना हो गया. उसने वह अंगूठी बहुत से सौदागरों, परचूनियों, साहूकारों, यहाँ तक कि हज्जाम और कसाई को भी दिखाई पर उनमें से कोई भी उस अंगूठी के लिए एक अशर्फी देने को तैयार नहीं हुआ. हारकर उसने ज़ुन्नुन को जा कहा, “कोई भी इसके लिए चांदी के एक दीनार से ज्यादा रकम देने के लिए तैयार नहीं है”.
ज़ुन्नुन ने मुस्कुराते हुए कहा, “अब तुम इस सड़क के पीछे सुनार की दुकान पर जाकर उसे यह अंगूठी दिखाओ. लेकिन तुम उसे अपना मोल मत बताया, बस यही देखना कि वह इसकी क्या कीमत लगाता है”.
नौजवान बताई गयी दुकान तक गया और वहां से लौटते वक़्त उसके चेहरे पर कुछ और ही बयाँ हो रहा था. उसने ज़ुन्नुन से कहा, “आप सही थे. बाज़ार में किसी को भी इस अंगूठी की सही कीमत का अंदाजा नहीं है. सुनार ने इस अंगूठी के लिए सोने की एक हज़ार अशर्फियों की पेशकश की है. यह तो आपकी माँगी कीमत से भी हज़ार गुना है!”
ज़ुन्नुन ने मुस्कुराते हुए कहा, “और वही तुम्हारे सवाल का जवाब है. किसी भी इन्सान की कीमत उसके लिबास से नहीं आंको, नहीं तो तुम बाज़ार के उन सौदागरों की मानिंद बेशकीमती नगीनों से हाथ धो बैठोगे. अगर तुम उस सुनार की आँखों से चीज़ों को परखने लगोगे तो तुम्हें मिट्टी और पत्थरों में सोना और जवाहरात दिखाई देंगे. इसके लिए तुम्हें दुनियावी नज़र पर पर्दा डालना होगा और दिल की निगाह से देखने की कोशिश करनी होगी. बाहरी दिखावे और बयानबाजी के परे देखो, तुम्हें हर तरफ हीरे-मोती ही दिखेंगे”.
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विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
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परिभ्रमसि किं व्यर्थं क्वचन चित्त विश्राम्यतां
स्वयं भवति यद्यथा तत्तथा नान्यथा।
अतीतमपि न स्मरन्नपि च भाव्यसङ्कल्पय-
न्नतर्कितगमनाननुभवस्व भोगानिह॥ - भर्तृहरि

"Why do you wander, 'O' mind, rest somewhere. The natural course of thing to happen cannot be altered. It is bound to happen. Therefore enjoy the pleasures, whose arrival and departure cannot be ascertained, without remembering the past and without expecting the future" - Bhartrihari

- Bhartrihari is a 5th century Sanskrit poet

"हे (चंचल) चित्त, तो क्यों (व्यर्थ में) इधर उधर भटक रहा है, तू कहीं तो ठहर। (संसार में) मात्र प्रकृति निर्धारित घटनाएं ही संभव हैं, इन्हें बदला नहीं जा सकता है। इसलिए भूतकाल में क्या हुआ था अथवा भविष्य में क्या होगा, इसकी चिंता किये बिना (वर्तमान की) स्थितियों का खुशी से उपभोग करो क्यों कि गमन और आगमन को रोका नहीं जा सकता है।"
-भर्तृहरि
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