01-08-2013, 11:47 AM | #41 |
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Re: कथा संस्कृति
शरीर से मजबूत एक नौजवान को भूख ने कमजोर कर डाला। सड़क किनारे के फुटपाथ पर बैठा वह हर आने-जाने वाले के आगे हाथ फैला रहा था। वह सभी के सामने अपनी भुखमरी और बर्बादी का गीत गा रहा था। रात हुई। उसका गला सूख गया। जुबान ऐंठ गई। लेकिन आगे पसरे हुए उसके हाथ उसके पेट की तरह अभी भी खाली थे। वह किसी तरह उठा और शहर से बाहर चला गया। वहाँ एक पेड़ के नीचे बैठकर वह दहाड़ें मारकर रो पड़ा। भूख उसकी आँतों को चबा रही थी। उसने अपनी सूजी हुई आँखें आसमान की ओर उठाईं और बोला - "हे ईश्वर! मैंने अमीरों के पास जाकर काम माँगा। लेकिन मेरी बदहाली को देखकर उन्होंने मुझे बाहर धकेल दिया। मैंने स्कूलों के दरवाजे खटखटाए, लेकिन खाली हाथ देखकर उन्होंने भी मुझसे माफी माँग ली। पेट भरने के लिए मैंने अपना व्यवसाय शुरू किया, लेकिन कुछ नहीं कमा पाया। हताश होकर मैं अनाथालय जा पहुँचा। लेकिन मुझे देखते ही तेरे पुजारी बोले, 'यह मोटा कामचोर है। इसे भीख मत देना।' "हे ईश्वर! तेरी ही इच्छा से माँ ने मुझे जन्म दिया। और तेरी ही इच्छा से यह धरती खत्म होने से पहले मुझे तुझे सौंप देना चाहती है।" एकाएक वह चुप हो गया। वह उठा। उसकी आँखें दृढ़ निश्चय से दमक उठीं। एक पेड़ से उसने एक मोटी शाख तोड़ी और शहर की ओर चल पड़ा। वह चीखा - "मैंने अपनी पूरी ताकत से रोटी माँगी लेकिन दुत्कार दिया गया। अब मैं इसे अपने बाजुओं की ताकत से छीनूँगा। मैंने दया और प्रेम के नाम पर रोटी माँगी, लेकिन मानवता ने सिर नहीं उठाया। अब मैं से जबरन छीनूँगा।" आने वाले वर्षों ने उस नौजवान को लुटेरा और हत्यारा बना दिया। उसकी आत्मा मर गई। जो भी सामने आया, उसने क्रूरतापूर्वक उसे कुचल दिया। उसने अकूत संपत्ति इकट्ठी की और अपने समय के धन्ना-सेठों पर राज करने लगा। उसके साथी उसकी प्रशंसा करते न थकते। चोर उससे ईर्ष्या करते और लोग उसे देखकर डरते। उसकी संपत्ति और झूठी शान से प्रभावित हो राज्य के अमीर ने उसे शहर का डिप्टी बना दिया। यह एक मूर्ख शासक का बेहूदा कदम था। उसके बाद तो चोरियों को वैधानिक मान्यता मिल गई। प्रशासक लोग जनता की गुलामी का समर्थन करने लगे। कमजोरों पर जुल्म करना आम बात हो गई। जनता जिनसे पिसती थी, उन्हीं का गुणगान करने को मजबूर थी। मनुष्यों की स्वार्थपरता का पहला ही स्पर्श इस तरह सीधे-सादे इंसान को अपराधी बना डालता है। उसे शान्ति के पुजारियों का हत्यारा बना देता है। बड़ा बनने के छोटे-छोटे स्वार्थपरक लालच पनप जाते हैं और हजार गुनी ताकत से मानवता की पीठ पर वार करते हैं।
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01-08-2013, 12:11 PM | #42 |
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Re: कथा संस्कृति
अफ़सोस / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
एक दार्शनिक सफाईकर्मी से बोला - "तुम्हारा पेशा वाकई बहुत घिनौना और गंदा है। मुझे दया आती है तुम-जैसे लोगों पर।" "दया दिखाने का शुक्रिया श्रीमान जी।" सफाईकर्मी बोला - "आपका पेशा क्या है?" "मैं लोगों के कर्तव्यों, कामनाओं और लालसाओं का अध्ययन करता हूँ।" दार्शनिक सीना फुलाकर बोला। उसकी इस बात पर वह गरीब हल्के-से मुस्कराया और बोला - "आप भी रहम के काबिल हैं महाशय। सच।"
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01-08-2013, 12:12 PM | #43 |
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Re: कथा संस्कृति
अभागी का स्वर्ग (कहानी) / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
सात दिनों तक ज्वरग्रस्त रहने के बाद ठाकुरदास मुखर्जी की वृद्धा पत्नी की मृत्यु हो गई। मुखोपाध्याय महाशय अपने धान के व्यापार से काफी समृद्ध थे। उन्हें चार पुत्र, चार पुत्रियां और पुत्र-पुत्रियों के भी बच्चे, दामाद, पड़ोसियों का समूह, नौकर-चाकर थे-मानो यहां कोई उत्सव हो रहा हो। धूमधाम से निकलने वाली शव-यात्रा को देखने के लिए गांव वालों की काफी भीड़ इकट्ठी हो गई। लड़कियों ने रोते-रोते माता के दोनों पांवों में गहरा आलता और मस्तक पर बहुत-सा सिन्दूर लगा दिया। बहुओं ने ललाट पर चन्दन लगाकर बहुमूल्य वस्त्रों से सास की देह को ढंक दिया, और अपने आंचल के कोने से उनकी पद-धूलि झाड़ दी। पत्र, पुष्प, गन्ध, माला और कलरव से मन को यह लगा ही नहीं कि यहां कोई शोक की घटना हुई है-ऐसा लगा जैसे बड़े घर की गृहिणी, पचास वर्षों बाद पुन: एक बार, नयी तरह से अपने पति के घर जा रही हो। शान्त मुख से वृद्ध मुखोपाध्याय अपनी चिर-संगिनी को अन्तिम विदा देकर, छिपे-छिपे दोनों आंखों के आंसू पोंछकर, शोकार्त कन्या और बहुओं को सान्त्वना देने लगे। प्रबल हरि-ध्वनि (राम नाम सत्य है) से प्रात:कालीन आकाश को गुंजित कर सारा गांव साथ-साथ चल दिया। एक दूसरा प्राणी भी थोड़ी दूर से इस दल का साथी बन गया-वह थी कंगाली की मां। वह अपनी झोंपड़ी के आंगन में पैदा हुए बैंगन तोड़कर, इस रास्ते से हाट जा रही थी। इस दृश्य को देखकर उसके पग हाट की ओर नहीं बढ़े। उसका हाट जाना रुक गया, और उसके आंचल में बैंगन बंधे रह गए। आंखों से आंसू बहाती हुई-वह सबसे पीछे श्मशान में आ उपस्थित हुई। श्मशान गांव के एकान्त कोने में गरुड़ नदी के तट पर था। वहां पहले से ही लकड़ियों का ढेर, चन्दन के टुकड़े, घी, धूप, धूनी आदि उपकरण एकत्र कर दिए गए थे। कंगाली की मां को निकट जाने का साहस नहीं हुआ। अत: वह एक ऊंचे टीले पर खड़ी होकर शुरू से अन्त तक सारी अन्त्येष्टि क्रिया को उत्सुक नेत्रों से देखने लगी। चौड़ी और बड़ी चिता पर जब शव रखा गया, उस समय शव के दोनों रंगे हुए पांव देखकर उसके दोनों नेत्र शीतल हो गए। उसकी इच्छा होने लगी कि दौड़कर मृतक के पांवों से एक बूंद आलता लेकर वह अपने मस्तक पर लगा ले। अनेक कण्ठों की हरिध्वनि के साथ पुत्र के हाथों में जब मन्त्रपूत अग्नि जलाई गई, उस समय उसके नेत्रों से झर-झर पानी बरसने लगा। वह मन-ही-मन बारम्बार कहने लगी- ‘सौभाग्यवती मां, तुम स्वर्ग जा रही हो-मुझे भी आशीर्वाद देती जाओ कि मैं भी इसी तरह कंगाली के हाथों अग्नि प्राप्त करूं।’ लड़के के हाथ की अग्नि ! यह कोई साधारण बात नहीं। पति, पुत्र, कन्या, नाती, नातिन, दास, दासी, परिजन-सम्पूर्ण गृहस्थी को उज्जवल करते हुए यह स्वर्गारोहण देखकर उसकी छाती फूलने लगी- जैसे इस सौभाग्य की वह फिर गणना ही नहीं कर सकी। सद्य प्रज्वलित चिता का अजस्र धुआं नीले रंग की छाया फेंकता हुआ घूम-घूमकर आकाश में उठ रहा था। कंगाली की मां को उसके बीच एक छोटे-से रथ की आकृति जैसे स्पष्ट दिखाई दे गई। उस रथ के चारों ओर कितने ही चित्र अंकित थे। उसके शिखर पर बहुत से लता-पत्र जड़े हुए थे। भीतर जैसे कोई बैठा हुआ था-उसका मुँह पहचान में नहीं आता, परन्तु उसकी मांग में सिंदूर की रेखा थी और दोनों पदतल आलता (महावर) से रंगे हुए थे। ऊपर देखती हुई कंगाली की मां की दोनों आंखों से आंसुओं की धारा वह रही थी। इसी बीच एक पन्द्रह-सोलह वर्ष की उम्र के बालक ने उसके आंचल को खींचते हुए कहा- ‘तू यहां आकर खडी है, मां, भात नहीं रांधेगी ?’ चौंकते हुए पीछे मुड़कर मां ने कहा- ‘राधूंगी रे ! अचानक ऊपर की ओर अंगुली उठाकर व्यग्र स्वर में कहा- ‘देख-देख बेटा ब्राह्मणी मां उस रथ पर चढ़कर स्वर्ग जा रही हैं !’ लड़के ने आश्चर्य से मुंह उठाकर कहा- ‘कहां ?’ फिर क्षणभर निरीक्षण करने के बाद बोला- ‘तू पागल हो गई है मां ! वह तो धुआं है।’ फिर गुस्सा होकर बोला- ‘दोपहर का समय हो गया, मुझे भूख नहीं लगती है क्या ?’ पर मां की आंखों में आंसू देखकर बोला- ‘ब्राह्मणों की बहू मर गई है, तो तू क्यों रो रही है, मां ?’ कंगाली की मां को अब होश आया। दूसरे के लिए-श्मशान में खड़े होकर इस प्रकार आंसू बहाने पर वह मन-ही-मन लज्जित हो उठी। यही नहीं, बालक के अकल्याण की आशंका से तुरन्त ही आंखें पोंछकर तनिक सावधान-संयत होकर बोली- ‘रोऊंगी किसके लिए रे-आंखों में धुआं लग गया; यही तो ! ‘हां, धुआं तो लग ही गया था ! तू रो रही थी।’ मां ने और प्रतिवाद नहीं किया। लड़के का हाथ पकड़कर घाट पर पहुंची; स्वयं भी स्नान किया और कंगाली को भी स्नान कराकर घर लौट आई-श्मशान पर होने वाले संस्कार के अन्तिम भाग को देखना उसके भाग्य में नहीं बदा था।
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01-08-2013, 12:12 PM | #44 |
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Re: कथा संस्कृति
अभाव से अति / संतोष भाऊवाला
एक लकडहारा नित्य जंगल से लकड़ी काट कर व् उसे बेच कर, किसी तरह कष्ट सह कर, अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा था। किसी दिन भर पेट खाना मिलता तो किसी दिन फांके करने पड़ते। उसकी पत्नी हर रोज उसे ताना मारती थी “क्यों रोज रोज पतली पतली लकड़ियाँ काट कर लाते हो? उनको बेच कर इतना कम पैसा मिलता है कि निर्वाह बहुत मुश्किल से हो पाता है” लेकिन लकडहारा ध्यान न देता था। एक दिन उसकी पत्नी ने कहा कि वह भी जाएगी उसके साथ, जंगल में। दोनों जन लकड़ी काट ही रहे थे कि अचानक पत्नी को थोड़ी दूर पर मोटी मोटी लकड़ियों का पेड़ दिखाई दिया। उसने उस ओर इशारा किया और आगे बढ़ गयी। लगे काटने दोनों जन, खूब मोटी मोटी लकडियाँ। जब उन्हें बेचा बाजार में, ढेर सारा पैसा मिला, जिससे पूरे परिवार का गुजारा आराम से होने लगा। अब यह नित्य का क्रम बन गया। "जो अपनी सहायता करते है भगवान् भी उनकी सहायता करते है" अब प्रतिदिन लकडहारा मोटी-मोटी लकडियाँ लाने लगा और उनके हालात सुधरने लगे। धीरे धीरे लकडहारे का लालच दिन पर दिन बढ़ने लगा। जंगल में मोटी-मोटी लकड़ियों के लालच में थोड़ी दूर और थोड़ी दूर, करते करते, वो बहुत आगे जाने लगा। अबकी बार उसे चन्दन की लकड़ी मिली, ख़ुशी से फुला न समाया। घर सम्पति से भरने लगा। लेकिन इधर पत्नी की रातों की नींद उड़ने लगी और वो दिन पर दिन दुबली होने लगी और दुखी भी रहने लगी। लकडहारे ने पूछा “अब तो हमारे दिन फिर गये है, फिर तुम्हे किस बात की चिंता है? पहले कम कमाता था तो तुम दुखी थी, अब ज्यादा कमाता हूँ तो दुखी हो” तब पत्नी ने कहा कि न तो अति अच्छी है और न ही अभाव। अगर आप ज्यादा और ज्यादा के चक्कर में और आगे जाते जायेंगे तो, किसी दिन जंगली जानवर आपको अपना शिकार न बना ले। यही चिंता मुझे दिन रात खाए जाती है। भगवान् का दिया, अब हमारे पास सब कुछ है। आप ज्यादा आगे ना जाएँ। ये सुन कर लकडहारा हंस दिया और कहा कि बेवकूफ हो तुम, ऐसा कुछ भी नहीं होगा और उसने पत्नी की बात न मानी, हंसी में उड़ा दी। और फिर एक दिन....... वही हुआ जिसका पत्नी को डर था।
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01-08-2013, 12:12 PM | #45 |
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Re: कथा संस्कृति
अरेखित त्रिकोण / उदय प्रकाश
-कुत्ते, कमीने… बाप से मुँह बड़ाता है! इसी दिन के लिए क्या तुझे पाल-पोस कर बड़ा किया था? -चुप रह तू, बाप होने का हक जताता है, पर बाप की जिम्मेदारियाँ निभानी आती हैं तुझे? जितना तूने मुझ पर खर्च किया है, उससे दुगुना तुझे कमा-कमा कर खिला चुका हूँ मैं, समझा! -क्यों बे बूढ़े, मौत आयी है क्या तेरी, जो अपने बेटे से जबान लड़ा रहा है।--–पुत्र का एक हितैषी बोला। -स्साले, कमीने, हमको उपदेश देता है! हरामी की औलाद!!---कहते हुए अगले ही क्षण पिता-पुत्र दोनों उसकी छाती पर सवार थे।
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01-08-2013, 12:13 PM | #46 |
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Re: कथा संस्कृति
अलमस्त / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
रेगिस्तान से एक गरीब आदमी एक बार शेरिया नगर में आया। वह स्वप्नद्रष्टा था। उसके तन पर पूरे कपड़े नहीं थे और हाथ में सिर्फ एक लाठी थामे था। शेरिया नगर असीम सुन्दर था। वह जिस गली से भी गुजरता - मन्दिरों, मीनारों और महलों को आँखें फाड़कर देखता रह जाता। बगल से गुजरने वालों से वह अक्सर कुछ बोलता, शहर के बारे में उनसे सवाल करता - लेकिन वे उसकी भाषा नहीं समझते थे और न वह ही उनकी भाषा समझता था। दोपहर के समय वह पीले संगमरमर की बनी एक विशाल सराय के सामने जा खड़ा हुआ। लोग बेरोक-टोक उसमें जा-आ रहे थे। "यह कोई तीर्थस्थल होना चाहिए।" उसने सोचा और अन्दर दाखिल हो गया। जब वह हॉल में पहुँचा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसने बहुत-से स्त्री-पुरुषों को एक मेज के चारों ओर बैठे देखा। वे खा-पी रहे थे और संगीत सुन रहे थे। "नहीं," गरीब आदमी ने मन में कहा, "यह कोई पूजास्थल नहीं है। यह तो खुशी के मौके पर राजा की ओर से जनता को दिया जाने वाला भोज है।" उसी समय एक आदमी, जिसे उसने राजा का गुलाम समझा था, उसके पास आया। उसने उससे बैठ जाने का अनुरोध किया। बैठ जाने पर माँस, शराब और कीमती मिठाइयाँ उसके सामने रख दी गईं। खा-पीकर वह गरीब जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। दरवाजे पर उसे शानदार तरीके से सजे-धजे एक कद्दावर आदमी द्वारा रोक लिया गया। "निश्चय ही यह राजकुमार है।" उसने अपने-आप से कहा। इसलिए उसने झुककर उसका अभिवादन किया और मेहमाननवाजी का शुक्रिया अदा किया। तब कद्दावर आदमी ने अपने शहर की भाषा में उससे कहा, "सर, आपने अपने खाने का भुगतान नहीं किया।" गरीब आदमी की समझ में कुछ न आ सका और उसने पुन: उसे धन्यवाद दिया। तब कद्दावर कुछ सोचने लगा। उसने ध्यान से उसको देखा और पाया कि यह तो अजनबी है! उसके कपड़े गंदे हैं और निश्चय ही उसके पास खाने का भुगतान करने को कुछ नहीं होगा। उसने ताली बजाकर किसी को पुकारा। शहर के चार पहरेदार वहाँ चले आए। उन्होंने कद्दावर की बात सुनी। फिर दो आदमियों ने आगे और दो ने पीछे खड़े होकर गरीब को घेर लिया। उनकी बेहतरीन पोशाक और शिष्टाचार के मद्देनजर गरीब ने उन्हें सभ्य समझा और मुस्कराकर उनकी ओर देखा। "ये," वह खुद से बोला, "महाराज के आदमी हैं।" न्यायालय में पहुँचने तक वे सब साथ-साथ चलते रहे। वहाँ गरीब ने लहराती दाढ़ी वाले एक सौम्य पुरुष को सिंहासन पर बैठे देखा। उसने सोचा कि यह महाराज हैं। खुद को उनके सामने पेश किये जाने पर वह आत्माभिमान और आनन्द से भर उठा। फिर, न्यायाधीश, जो कि वह सौम्य पुरुष था, से सम्बन्धित दरबान ने गरीब पर आरोप सुनाया। न्यायाधीश ने दो अधिवक्ता नियुक्त किए - एक आरोप पुष्ट करने के लिए और दूसरा अजनबी के बचाव के लिए। अधिवक्ता उठे। एक के बाद एक, दोनों ने तर्क-वितर्क किया। गरीब इस सबको अपने आगमन के स्वागत की कार्यवाही समझता रहा। उसका हृदय महाराज और राजकुमार, जिन्होंने उसके लिए इतना सब किया, के प्रति आभार से भर उठा। फिर उस गरीब के खिलाफ निर्णय सुना दिया गया। यह कि एक तख्ती पर उसका अपराध लिखकर उसके गले में लटका दी जाय। उसे एक घोड़े की नंगी पीठ पर बैठाकर पूरे शहर में घुमाया जाय। एक तुरही वाला और एक ढोल वाला उसके आगे-आगे चलें। निर्णय का पालन किया गया। गरीब को घोड़े की नंगी पीठ पर बैठाया गया। तुरही वाला और ढोल वाला उसके आगे-आगे चले। उनकी आवाज सुनकर शहर के लोग उनकी ओर भागे। वे उसे देखते और हँसते। बच्चे तो झुंड-के-झुंड इस गली से उस गली तक उसके पीछे-पीछे घूमते रहे। गरीब का हृदय आनन्दातिरेक से भर उठा। उसकी आँखों में उनके लिए चमक उमड़ आई। वह समझता रहा कि स्लेट पर लिखी इबारत महाराज द्वारा लिखी गयी प्रशस्ति है तथा यह जलसा उसके सम्मान में चल रहा है। चलते-चलते उसे एक आदमी दिखाई दिया जो उसी के समान रेगिस्तान का निवासी था। उसका हृदय खुशी से भर उठा। वह जोर से चीखकर उसे पुकार उठा : "दोस्त! दोस्त!! हम कहाँ हैं? हमारी तमन्नाओं का यह कैसा शहर है? मेजबानी का कितना सुन्दर तरीका है कि यहाँ के लोग मेहमानों को अपने घरों में खाने पर बुलाते हैं। स्वयं राजकुमार स्वागत करता है। राजा प्रशस्ति गले में लटकाता है; और सारे शहर में उसे ऐसे घुमाया जाता है जैसे वह स्वर्ग से उतरकर आया हो।" रेगिस्तान के दूसरे निवासी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने केवल मुस्कराकर अपना सिर हिला दिया। तुरही वाला, ढोल वाला और नाचते-गाते बच्चे आगे बढ़ते गए। गरीब स्वप्नद्रष्टा की गरदन तनी हुई थी। उसकी आँखों की चमक देखने लायक थी।
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01-08-2013, 12:13 PM | #47 |
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Re: कथा संस्कृति
अलाव के इर्द-गिर्द / बलराम अग्रवाल
टखनों तक खेत में धँसे मिसरी ने सीधे खड़े होकर पानी से भरे अपने पूरे खेत पर निगाह डाली। नलकूप की नाली में बहते पानी में उसने हाथ-पाँव और फावड़े को धोया और श्यामा के बाद अपना खेत सींचने के इन्तजार में अलाव ताप रहे बदरू के पास जा बैठा। “बोल भाई मिसरी, के रह्या थारे मामले में?” बदरू ने पूछा। “सब ससुर धोखा।” अलाव के पास ही रखी बीड़ियों में से एक को सुलगाकर खेत भर जाने के प्रति कश-ब-कश आश्वस्त होता मिसरी बोला,“ई ससुर सुराज तो फिस्स हुई गया रे बदरू।” “कउन सुराज…इस स्यामा का छोरा?” “स्यामा का नहीं, गाँधी का छोरा…पिर्जातन्त!” “मैंने तो पहले ही कह दिया था थारे को। ई कोर्ट-कचहरी का न्याय तो भैया पैसे वालों के हाथों में जा पहुँचा। सब बेकार।” “गलती हुई रे बदरू। थारी जमीन हारने के बाद मैं कित्ता रोया था उसमें बैठकर।… और यही बात मैंने कही थी उस बखत, कि एका नहीं होगा तो थोड़ा-थोड़ा करके हर किसान का खेत चबा जाएगा चौधरी।” अलाव की आग को पतली-सी एक डण्डी से कुरेदते हुए बदरू बोला,“और आज ही बताए देता हूँ, थारे से निबटते ही इस स्यामा की जमीन पर गड़ेंगे उसके दाँत!” बदरू की बात के साथ ही मिसरी की नजरें खेत सींचने में मस्त श्यामा पर जा पड़ीं। बित्ता-बित्ता भर जमीन अपनी होने के अहसास ने उन्हें आजाद-हैसियत का गर्व दे रखा है। इस गर्व को कायम रखने की ललक ने मिसरी के अन्दर से भय की सिहरन को बाहर निकाल फेंका। “मुझे दे!” चिंगारी कुरेद रहे बदरू के हाथ से डण्डी को लेकर मिसरी ने जगह बनाई और फेफड़ों में पूरी हवा भरकर चार-छ: लम्बी फूँक अलाव की जड़ में झोंकीं। झरी हुई राख के सैंकड़ों चिन्दे हवा में उड़े और दूर जा गिरे। अलाव ने आग पकड़ ली। कुहासे-भरी उस सर्द रात के तीसरे पहर लपटों के तीव्र प्रकाश में बदरू ने श्यामवर्ण मिसरी के ताँबई पड़ गए चेहरे को देखा और इर्द-गिर्द बिखरी पड़ी डंडियों-तीलियों को बीन-बीन कर अलाव में झोंकने लगा।
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01-08-2013, 12:14 PM | #48 |
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Re: कथा संस्कृति
अवसाद / आलोक कुमार सातपुते
“और क्या कर रहे हो भई आजकल...?” प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया ‘जी बेरोज़गार हूँ अंकल अभी तो...।’ उसने सर झुकाये अपनी टूटी चप्पलों की ओर देखते हुए अपराधबोध से कहा। “मेरा लड़का तो अपने धंधे से लग गया है...अच्छा कमा खा रहा है...।” प्रश्नकर्ता ने बताया। ‘तो...? तो मैं क्या करूं...? आप जानबूझकर मेरे जख़्मों पर नमक़ छिड़कते हंै...।’ उसने अवसाद भरे स्वरों में कहा। “मेरा ऐसा तो उद्देश्य नहीं था। “ कहते हुए प्रश्नकर्ता के अधरों पर कुटिल मुस्कुराहट आ गयी।
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01-08-2013, 12:14 PM | #49 |
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Re: कथा संस्कृति
अश्लीलता / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
रामलाल की अगुआई में नग्न मूर्ति को तोड़ने के लिए जुड़ आई भीड़ पुलिस ने किसी तरह खदेड़ दी थी, देवमणि की दुश्चिन्ता व खिन्नता कम न हो सकी थी। क्या करे वह? क्या पार्क से इस खूबसूरत मूर्ति को हटवा दे? रात–रात भर जागकर उसने अपनी आत्मा का सारा सौन्दर्य, अपनी कल्पनाओं की एक–एक तराश इस मूर्ति के गढ़ने में लगा दिए। चाँद कब का निकल आया था। चाँदनी में नहाई मूर्ति को वह मुग्ध भाव से निहार रहा था। एक–एक करके सभी लोग जा चुके थे। उसका मन उठने को न हुआ। आज का सन्नाटा उसे और दिनों की तरह नहीं खल रहा था। वह अपने हाथों को अविश्वास से देखने लगा–क्या इन्हीं हाथों ने इतनी मोहक मूर्ति गढ़ी है। उसे लगा जैसे मूर्ति उसकी ओर देखकर आत्मीय भाव से मुस्करा रही है। सामने वाली सड़क भी सुनसान हो चुकी थी। वह भारी मन से उठने को हुआ कि सामने से एक व्यक्ति आता दिखाई दिया। देवमणि वहाँ से हटकर एक पेड़ की ओट में बैठ गया। निकट आने पर पता चला–वह व्यक्ति रामलाल था। देवमणि आशंकित हो उठा–लगता है यह इस समय मूर्ति तोड़ने आया है, लेकिन....यह तो खाली हाथ है! वह मूर्ति के पास आ चुका था। देवमणि के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। रामलाल मूर्ति से पूरी तरह गुँथ चुका था और उसके हाथ....मूर्ति के सुडौल अंगों पर केंचुए की तरह रेंगने लगे थे।
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Re: कथा संस्कृति
असहमति / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
प्रत्येक सौ साल में एक बार नजारथ का जीसस और क्रिश्चियनों का जीसस लेबनान की पहाड़ियों के बीच एक चमन में मिलते हैं। वहाँ वे लम्बे समय तक बातें करते हैं। और नजारथ का जीसस क्रिश्चियनों के जीसस से हर बार यह कहते हुए विदा लेता है - "मेरे दोस्त! मुझे लगता है कि हममें कभी भी, कभी भी सहमति नहीं बनेगी।"
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