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Old 18-06-2011, 10:12 PM   #11
naman.a
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द्वारिकापुरी धाम


हिन्दुओं के चार धामों में से एक गुजरात की द्वारिकापुरी मोक्ष तीर्थ के रूप में जानी जाती है। पूर्णावतार श्रीकृष्ण के आदेश पर विश्वकर्मा ने इस नगरी का निर्माण किया था। यहाँ का द्वारिकाधीश मंदिर, रणछोड़ जी मंदिर व त्रैलोक्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक शारदा पीठ यहीं है।

कंसवध के बाद उसकी पत्नी अस्ति व प्राप्ति ने अपने पिता, मगध के राजा जरासंध को श्रीकृष्ण से बदला लेने के लिए उकसाया। जरासंध ने श्रीकृष्ण के साथ-साथ समस्त यदुवंशियों से पृथ्वी को विहीन करने का संकल्प ले लिया और यदु-राजाओं की राजधानी मथुरा पर आक्रमण किया। श्रीकृष्ण और बलराम ने युद्ध करते हुए जरासंध की सेना का वध कर डाला। हार से पीड़ित जरासंध अपनी नगरी को लौट गया।

जरासंध ने कुल सत्रह बार मथुरा पर आक्रमण किया और प्रत्येक बार श्रीकृष्ण के हाथों पराजित हुआ। जब वह अट्ठारवीं आक्रमण की तैयारी कर रहा था, उसी समय काल्पवन नामक यवन राजा को स्वयं नारद ने मथुरा पर आक्रमण करने की प्रेरणा दी। जरासंध और काल्पवन के क्रोध से यदुवंशियों की रक्षा करने के लिए श्रीकृष्ण ने सागर के बीच में द्वारिका नामक अजेय दुर्ग के निर्माण की योजना बनायी। द्वारिका नगरी का निर्माण होने पर श्रीकृष्ण ने मथुरा के सभी नागरिकों को वहाँ भेज दिया और बलराम को नगर प्रमुख बनाकर उनकी रक्षा का दायित्व सौंप दिया था।

सागर के मध्य द्वारिका का निर्माण कराने की बात कोई कल्पना नहीं है बल्कि बड़ौदरा मंडल के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीक्षण पुरातत्वविद की तरफ से द्वारिकाधीश मंदिर के गेट पर लगाये गये बोर्ड पर साफ लिखा है कि बेट द्वारिका के पास अरब सागर के गर्भ में छिपे प्राचीन द्वारिका का अस्तित्व हाल के शोधों से ज्ञात हुआ है। द्वारिकाधीश या रणछोड़ जी का मंदिर आठवीं व दसवीं शताब्दी के बीच निर्मित हुआ माना जा रहा है। एक मान्यता यह भी है कि मंदिर का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र ब्रजनाथ ने किया था। कालांतर में इसके स्वरूप में परिवर्तन होते रहे। मंदिर के मौजूदा स्वरूप का निर्माण गुजरात के चालुक्य राजवंश की कलाशैली को दर्शाता है। इस कला शैली में गर्भगृह, अंतराल, रामामंडप व मुखमंडप का निर्माण प्रमुख है। मंदिर का शिखर 52 मीटर ऊँचा है और मंदिर में 72 अलंकृत स्तंभ हैं। यह मंदिर पांच तलों का है और प्रत्येक तल में आगे की ओर निकले विभिन्न आकृतियों के झरोखे बने हुए हैं।

मंदिर की एक बड़ी विशेषता यह है कि यह गोमती नदी के सागर में संगम के स्थल के निकट है। यहां रंगम नारायण, वसुदेव, गऊ, पार्वती, ब्रह्म, मुरधन, गंगा हनुमान व निष्पाप नाम के बारह घाट बने हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि गोमती में स्नान किए बिना मंदिर के दर्शन करने पर आधा ही पुण्य मिलता है। नदी से 56 सीढ़ियां चढ़कर रणछोड़जी के मंदिर में पहुंचा जाता है। मंदिर में द्वारिकाधीश या रणछोड़ महाराज चांदी के सिंहासन पर सोने के मुकुट व मालाओं के साथ विराजमान हैं। एक मीटर ऊँची यह प्रतिमा काले आरज पहाड़ के पत्थर से बनाई गई है। इसमें भगवान कृष्ण का चतुर्भुजीय स्वरूप देखने को मिलता है। प्रतिमा और उसका श्रृंगार इतना सुंदर है कि भक्त बस देखते ही रह जाते हैं।

द्वारिकाधीश के दर्शन लगभग दस फुट की दूरी से किए जाते हैं। मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि द्वारिकाधीश के विभिन्न तरह के श्रृंगार निश्चित समय पर खुले रूप से किये जाते हैं। प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु अपनी आंखों से दिव्य-श्रं=गार होते देखते हैं। मुख्य मंदिर के चारों तरफ परिक्रमा करने के लिए खुला स्थान है। मंदिर परिसर में ही वेणी माधव पुरुषोत्तम जी, देवकी आदि के मंदिर हैं और आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदापीठ भी मंदिर परिसर में ही है। स्कंदपुराण में श्री द्वारिका महात्म्य का वर्णन है। उसके अनुसार द्वारिका को कुशस्थली नगरी भी कहा जाता है। इसमें सबको मोक्ष देने वाले भगवान् श्रीकृष्ण सोलह कलाओं से परिपूर्ण होकर विराजमान हैं। द्वारिका की यात्रा करने पर सभी पाप नष्ट होते हैं और पितृगणों को भी मुक्ति मिलती है।
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Old 19-06-2011, 06:54 AM   #12
Nitikesh
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Old 19-06-2011, 07:07 AM   #13
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नमन जी बहुत ही बढियाँ जानकारी दी है आपने/
लेकिन मुझे एक जगह संसय है/
संभव है की पूर्वकाल में मंदिर तक जाने के लिए ५६ सीढ़ियों का इस्तेमाल होता होगा/
लेकिन हल फ़िलहाल में मंदिर के मुख्य द्वार पर एक या दो सीढ़ी है और नदी तरफ से ज्यादा सीढीयां अवश्य है/
लेकिन उनकी भी संख्या ५६ नहीं है/
समय के साथ द्वारकाधीश मंदिर में बहुत कुछ बदल गया है/
वहाँ पर पंडो की बहुत भीड़ होती है/जाए तो थोड़ा सावधान रहे नहीं तो आपको भरी भरकम दक्षिणा देना पड़ सकता है/जिसका मंदिर के दर्शन से कोई संबंध नहीं है/
मैं पिछले साल ही द्वारिका,भेट द्वारिका और सोमनाथ के दर्शन कर के आया हूँ/
द्वारारिका से भेट द्वारिका जाने के बीच में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के भी दर्शन होते हैं/
यदि आप द्वारिका,नागेश्वर ज्योतिर्लिंग और भेट द्वारिका एक दिन में करना चाहते हैं तो आपको सुबह ५ बजे तक में पहुँचाना होगा/वहाँ पर बहुत सारे ट्रावेल्स वाले है जो यात्रा की सुविधा प्रदान करते है/यदि आप पहली खेप चूक जाते हैं तो फिर दोपहर २ बजे नंबर लगेगा/
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Old 19-06-2011, 11:47 AM   #14
naman.a
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नमन भाई यह चित्र कहाँ का है?
ये चित्र बद्रीनाथ मे सूर्यास्त के समय का है ।
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Old 19-06-2011, 09:25 PM   #15
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द्वारिका का सागर तट



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Old 21-06-2011, 12:46 PM   #16
The ROYAL "JAAT''
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द्वारिकापुरी धाम


द्वारिकाधीश



बोल द्वारिकाधीश की जय


वाकई ये तो कलाकारी का बेजोड़ नमूना है महान है वो कलाकार जो इन बेजान पत्थरों में भी जान डाल देते थे बहुत ही अच्छा और ज्ञानवर्धक सूत्र हैं धन्यवाद नयन....
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आपका दोस्त पंकज










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Old 24-06-2011, 08:56 PM   #17
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श्री जगन्नाथ पुरी धाम





श्री जगन्नाथ पुरी भारत के चार धामों में से एक धाम है। ऐसी मानयता है कि सतयुग के बद्रीनाथधाम त्रेता युग के रामेश्वर धाम द्वापर युग के द्वारिका धाम एवं इस कलियुग का पावनकारी जगन्नाथपुरी धाम है। पौराणिक कथा के अनुसार द्वारका में श्रीकृष्ण चन्द्र पटरानियों ने एक बाद माता रोहिणी जी के भवन में जाकर उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें श्याम सुन्दर की ब्रज लीला, गोपी, प्रेम प्रसंगों का वर्णन सुनाये। माता ने टालने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु पटरानियों के आग्रह के कारण उन्हें वर्णन सुनाने को प्रस्तुत होना पड़ा। तब सुभद्रा को भवन के द्वार पर खड़ा रहने को कहा और आदेश दिया कि किसी को भी अन्दर न आने दे। संयोगवश उसी समय श्री कृष्ण बलराम वहां पधारे सुभद्रा जी ने दोनों भाईयों के मध्य खड़े होकर दोनों को अंदर जाने से रोक लिया। उन्होंने द्वार पर खड़े रहकर ब्रज प्रेम का वर्णन जो अन्दर माता सुना रही थी सुनो उसे सुनकर तीनों के शरीर द्रविड होने लगे। उसी समय देवर्षि नारद जी ने आकर तीनों का प्रेम द्रवित रूप देखा तो प्रार्थना की कि आप तीनों इसी रूप में विराजमान हो। श्री कृष्ण चन्द्र ने स्वीकार किया कि कलियुग में दारू विग्रह में इसी रूप में हम तीनों स्थित होंगे।
प्राचीन काल में मालव देश के नरेस इन्द्रधुम्न को पता लगा कि उत्कल प्रदेश में कहीं नीलांचल पर भगवान नीलमाधव का देव पूजित श्री विक्रह है वे परम विष्णु भक्त उस पर श्री विग्रह का दर्शन करने के प्रयत्न करने लगे। उन्हें स्थान का लगा और वहां पहुंते इसके पूर्व ही देवता उस विग्रह को लेकर अपने लोक को चले गये थे। उसी समय आकाशवाणी हुई कि दारू ब्रह्म रूप में तुम्हें अब श्री जगन्नाथ जी के दर्शन होंगे।
महाराज इन्द्र धुम्न सपरिवार आये थे। वे नीलांचल के पास ही बस गये। एक दिन समुन्द्र में एक बहुत बड़ा काष्ट (महादारू) बहकर आया राजा ने उसे निकलवा लिया और उससे विष्णु मूर्ति बनाने का निश्चय किया उसी समय वृद्ध बढ़ाई के रूप में विश्वकर्मा जी उपस्थित हुए। उन्होंने मूर्ति बनाना स्वीकार किया किन्तु उन्होंने यह भी निश्चित करा लिया कि जिस कक्ष में वे मूर्ति बनायेंगे उस कक्ष को जब खोला जाये। जब तक वह स्वयं नहीं कहे। महादारू को लेकर वे वृद्ध बढ़ई गुंडीचा मंदिर के स्थान पर भवन में बन्द हो गये अनेक दिन व्यतीत हो गये तब महारानी ने आग्रह आरम्भ किया इतने दिनों में वह वृद्ध बढ़ई (मूर्तिकार) अवश्य भूख प्यास से मर गया होगा या मरनासन्न हो गया होगा। भवन का द्वार खोलकर देख लेना चाहिए। तब महाराज ने द्वार खुलवाया बढ़ाई तो अदृश्य हो चुके थे। वहां श्री जगन्नाथ जी, सुभद्रा जी तथा बलराम जी की अपूर्ण प्रतिमायें मिली राजा को बड़ा दुख हुआ किन्तु उसी समय आकाशवाणी हुई कि चिन्ता मत करो इसी रूप में रहने की हमारी इच्छा है। मूर्तियों पर पवित्र द्रव, रंग आदि चढ़ाकर विधि पूर्वक प्रतिष्ठित कर दो इस आकाशवाणी के अनुसार वे ही मूर्तिया प्रतिष्ठा की गई। गुंडीचा मंदिर के पास मूर्ति निर्माण बुआ था अत: गुंडीचा मंदिर को ब्रम्ह लोक या जनकपुर कहते है।
सवत्सर में जब कभी दो आषाढ़ होते जो कि प्राय: 12 वर्ष के व्यवधान में दो आषाढ़ पड़ते है तब जगन्नाथ जी की ‘‘नवकलेवर’’ यात्रा होती है तीनों ठाकुर के दारू विग्रह का विर्सजन किया जाता है और नव काष्ठ महानीम लाकर नवीन दारू विग्रहों का निर्माण कर उसमें ब्रह्म प्रतिष्ठा की जाती है. इस वर्ष का महोत्सव नवकलेवर कहलाता है। पुराने विगद्रहों को मंदिर के पास स्थित कोइली वैकुण्ठ में विसर्जित कर दिया जाता है । जगत के नाथ जगन्नाथ जी को पूरी में निवास होने के कारण श्रद्धा विश्वास एवं आदर का केन्द्र है। दारू विग्रह के दर्शन से मानव पवित्र होकर अपने को धन्य मानता है।
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Last edited by naman.a; 24-06-2011 at 09:02 PM.
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Old 29-01-2012, 06:09 PM   #18
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बहुत ही उम्दा सूत्र है नमन जी..
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