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Old 17-05-2014, 07:52 AM   #31
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Old 17-05-2014, 07:52 AM   #32
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क्या सोचकर दिया वोट? महिलाओं को मोदी लगे ज्यादा भरोसेमंद
डॉ. अनिता सिंह, प्रोफेसर, जेएनयू

इस बार का चुनाव कई मामलों में ऐतिहासिक है। संकुचित जाति और धर्म के आधार पर वोट के बंटवारे से उठकर राष्ट्र की एक बड़ी छवि इस बार उभरी है। इस सबसे बढ़कर महिला वोटरों और महिला प्रत्याशियों ने चुनावों में जिस एजेंडे के साथ भाग लिया वह खुद उनका था। ये पहले से साफ था कि 2012 में हुए निर्भया केस के बाद महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा प्रमुख बनेगा। शहरी महिलाओं ने बलात्कार और शारीरिक शोषण से सुरक्षा के लिए कठोर कानून बनाने की बात को जहन में रखकर वोट दिया। जबकि ग्रामीण महिलाओं के वोट डालने के अपने अलग एजेंडे थे। उत्तर पश्चिमी इलाके जैसे सहारनपुर से दिल्ली और हरियाणा में महिलाएं घरेलू हिंसा और शराब की दुकानों को लेकर चिंतित थी। उन्होंने प्रत्याशियों का चुनाव इस आधार पर किया कि वह इन मसलों को सुलझाने पर किस हद तक सक्षम है। कई जगहों पर दिमाग में ये भी रहा कि माताएं अपनी बेटियों को स्कूल भेज पाए इसलिए कॉलेज जाने को साधन जुटें और गांव में स्कूल खुले। गंगा बेल्ट से बाहर महिलाओं ने उन्हें भी वोट दिया जो उन्हें घर तक पीने का पानी सप्लाय कर सके। जाति के आधार पर कोई वोट नहीं पड़ा। महिलाएं जो मायावती की पारंपरिक वोटर थी उन्होंने भी अपनी बहनजी का साथ छोड़ यू-टर्न लिया। उन्हें चुना जो रोजगार दे सके। नरेगा और एनएचआरएम पर कांग्रेस को समर्थन की अपेक्षा थी। लेकिन महिलाओं ने उन्हें इन प्रोजेक्ट्स में घूसखोरी के लिए कोसा। रसोई गैस और राशन के सामान से बढ़े परिवार के बजट ने उन्हें कांग्रेस के प्रत्याशियोंं के खिलाफ वोटिंग को मजबूर किया। महिलाओं ने आम आदमी पार्टी को भगोड़ा कहते हुए दूरी बना ली। उन्हें लगा आप पार्टी गैरअनुभवी और गैरभरोसेमंद युवाओं की फौज है। यही कारण था कि महिलाओं की वोटिंग परंपरा के विरुद्ध लेकिन भाजपा के पक्ष में हुई।

'मोदी के जमीनी होने से महिलाओं का उनपर भरोसा बढ़ा, यही कारण था कि महिलाएं उन्हें अपने जैसा समझने लगीं।'


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Old 17-05-2014, 07:55 AM   #33
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Old 17-05-2014, 07:57 AM   #34
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मोदी ने युवा पीढ़ी और इनोवेशन के जादू से रचा इतिहास, जानिए कैसे बनाई रणनीति

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Old 17-05-2014, 07:58 AM   #35
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नई दिल्*ली. लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा को ऐतिहासिक जीत मिली है। पार्टी ने दिल्*ली, राजस्*थान सहित कई राज्*यों की सभी सीटें अपने नाम कर ली हैं तो कई राज्*यों में दिग्*गज क्षेत्रीय पार्टियों का सूपड़ा साफ कर दिया है। भाजपा और मोदी की इस जीत पर नरेंद्र मोदी के बॉयोग्राफर नीलांजन मुखोपाध्याय की राय:

सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव हम सब के लिए चौंकाने वाले हो सकते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी के लिए यह परिणाम अपेक्षित ही था, क्योंकि 2011 के बाद से ही उन्होंने सुनियोजित रणनीति के तहत इसके लिए आगे बढ़ना शुरू कर दिया था। तब उन्होंने सद्भावना यात्रा शुरू की थी।

अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान वे जरूर कुछ हाशिये पर आ गए थे। मगर 2004 के आम चुनाव में जब भाजपा की हार हुई तो उन्हें लगा कि अब वे केंद्र में प्रमुख भूमिका निभा सकते हैं। उसी दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने पाकिस्तान में मोहम्*मद अली जिन्ना की कब्र पर जाकर उनके लिए सराहना के शब्द बोल दिए। वे संघ के निशाने पर आ गए। अब मोदी के लिए मैदान खाली था।

मोदी में हमें अति आत्मविश्वास नजर आता था पर वह सुविचारित रणनीति का नतीजा था। चुनाव में वोट शेयर देखिए। गुजरात में 59 फीसदी, मध्यप्रदेश में 54 फीसदी, महाराष्ट्र, राजस्थान उन्हें एकतरफा समर्थन मिला है। उन्हें पता था कि हिंदी का पट्टा महत्वपूर्ण तो है पर जादुई अंक के लिए पर्याप्त नहीं। इसलिए ऐसी सीटों पर फोकस किया, जिन्हें आमतौर पर उपेक्षित किया जाता है, गोवा, दमन-दीव, अंडमान। छोटी-छोटी सीटें।

फिर पारंपरिक प्रचार अभियान के साथ नए तौर-तरीके भी अपनाए। इसके अलावा उन्होंने एक नया फोर्स लाया। ये बाहर से आए टेक्नोक्रेट थे। ऐसे आयोजन किए जिसने मोदी को एक कमोडिटी बना दिया। याद कीजिए अगस्त में हैदराबाद में हुआ उनका वह भाषण जिसे सुनने के लिए पांच रुपए का टिकट खरीदना पड़ता था। इस सभा के लिए मोदी ने किसी सहयोगी दल की मदद नहीं ली।

थ्री डी होलोग्राम, चाय पार्टी, जैसे तरीके 18-23 साल के युवाओं को बहुत पसंद आए। जीवन में नई चीजों की तलाश करने वाली पीढ़ी को लगा कि यह आदमी इनोवेशन कर सकता है। नई चीजें ला सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के अभियान की बड़ी चर्चा होती है मगर आने वाले दिनों में मोदी का अभियान केस स्टडी होना चाहिए। सितंबर 2013 से अब तक मोदी ने 450 भाषण दिए हैं, इसके जरिये वे बहुत बड़े इलाके तक पहुंचे।

भाषणों और दौरों के जरिये उन्होंने पहले जनता में स्वीकार्यता बढ़ाई और फिर मीडिया के पास पहुंचे। प्रचार के दौरान वे लगातार नए आइडिया फेंकते रहें फिर चाहे वह 100 मेगा सिटी बनाने की बात हो या बुलेट ट्रेनें चलाने की योजना। कांग्रेस ने मनरेगा जैसी योजनाओं से घर बैठे काम व दाम की बात की। मोदी ने कहा आप आइए हम मदद करेंगे और आप अपने सपने साकार करें।

दिसंबर में दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ की जीत के बाद वे थोड़े विचलित नजर आए पर उन्होंने कोई गलती नहीं की। वे अरविंद केजरीवाल की ओर से गलती होने का इंतजार करते रहें। केजरीवाल की चमक फीकी पड़ते ही उन्होंने 2002 के विकास के हिंदू मॉडल को आधुनिक रूप दिया और फिर जोरदार अभियान छेड़ दिया। नतीजा सबके सामने हैं।

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Old 17-05-2014, 07:58 AM   #36
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Old 17-05-2014, 07:59 AM   #37
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आरती रामचंद्रन, राहुल गांधी की बॉयोग्राफर...

ज्यादा बड़ा सवाल, अब कांग्रेस का क्या होगा...


कांग्रेस की यह ऐतिहासिक हार है। हम इसे हिस्टॉरिकल डिमाइस ऑफ कांग्रेस (कांग्रेस का ऐतिहासिक पतन) कह सकते हैं। राहुल गांधी का इन चुनाव के बाद क्या होगा यह सवाल नंबर दो पर पहुंच गया है। सबसे अहम और पहला सवाल अब यह है कि कांग्रेस का भविष्य क्या होगा।

नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस पूरी तरह गायब हो चुकी है। राजनीति के सारे नियम-कायदे इस पार्टी को फिर से लिखने पड़ेंगे। अपने आप को नए सिरे से खंगालना होगा। हार या जीत का सीधा संबंध नेतृत्व से होता है।

इसलिए कांग्रेस की लीडरशिप पर भी सवाल उठेंगे, लेकिन यह तुरंत नहीं होगा। जहां तक राहुल गांधी के नेतृत्व की बात है वे लीडर के तौर पर आज तक खुद को साबित नहीं कर पाए हैं यह एक सचाई है। ऐसे में अब कांग्रेस को सोचना होगा कि वह कहां खड़ी है और उसे अब किस तरह से आगे बढ़ना है।

कांग्रेस के इतिहास को खंगालिए तो स्पष्ट है कि चुनाव नतीजों का बहुत असर गांधी परिवार पर नहीं होता। इसलिए राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस को इतनी कम सीटें मिलने के बाद गांधी परिवार का क्या होगा यह सवाल मुझे उतना अहम नहीं लगता। दरअसल यह नतीजे देश की राजनीति में बहुत बड़ा बदलाव है। इसका सीधा असर देश की पूरी राजनीति पर होगा।

कांग्रेस को जब भी आम चुनाव में भारी पराजय मिली है, वह समय देश के लिए बदलाव का प्रतीक होता है। चाहे वह 1977 का वक्त हो या फिर अटलबिहारी वाजपेयी की अगुवाई में केंद्र में भाजपा सरकार का बनना। इसलिए सबकी निगाह देश के सभी क्षेत्रों में होने वाले बदलाव पर होगी। अब देश की सबसे पुरानी पार्टी के तौर पर कांग्रेस खुद को सम्मानजनक स्थिति में कैसे वापस लाएगी यह बड़ा सवाल होगा।

एक लीडर ही पार्टी को आगे ले जाता है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी या उनकी पार्टी सामूहिक नेतृत्व की बात भले ही करते रहे हों, लेकिन यह विरोधाभासी बात है। सच यह है कि देश में कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जहां सामूहिक नेतृत्व जैसा कुछ नहीं है। सारे फैसले हाईकमान करता है। हाईकमान यानी पार्टी अध्यक्ष सोनिया या उपाध्यक्ष राहुल फैसले करते हैं।

इस चुनाव के नतीजों को केवल सत्ता विरोधी वोट के तौर पर नहीं देखना चाहिए बल्कि यह पूरे देश में मोदी समर्थक मूड को दिखाता है। यह मोदी के समर्थन में दिया गया वोट है। इस मोदी लहर ने हर फैक्टर को छोटा कर दिया है। भ्रष्टाचार, कुशासन और कांग्रेस सरकार ने दस साल में जो भी गलतियां की उसके खिलाफ गुस्से का प्रतीक बनकर मोदी उभरे। और मोदी लहर बन गई। इसलिए किसी की हार से ज्यादा यह स्पष्ट रुप से मोदी की जीत है। (जैसा उन्होंने पंकज कुमार पांडेय को बताया।)


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Old 17-05-2014, 07:59 AM   #38
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Old 17-05-2014, 08:00 AM   #39
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डॉ. वेदप्रताप वैदिक...

जनता के गुस्से ने नहीं, ठंडी समझ ने राजनीति बदल दी

यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की अपूर्व विजय है। 1971 में इंदिरा गांधी को 352 सीटें मिली थीं और 1984 में राजीव गांधी को 410 सीटें मिली थीं। भाजपा और मोदी को तो अभी 300 सीटें भी नहीं मिलीं हैं और आप इस जीत को अपूर्व कैसे कहेंगे?

जरा याद करें कि 1971 में क्या हुआ था? इंदिराजी पांच साल तक भारत की प्रधानमंत्री रह चुकी थीं। नेहरू की बेटी थीं। कांग्रेस अध्यक्ष होने का भी उनका अनुभव था। इसके अलावा उन्होंने कांग्रेस के सारे खुर्राट नेताओं को पटकनी मारकर इंदिरा कांग्रेस खड़ी कर दी थी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और उसके बाद गरीबी हटाओ के नारे ने देश का ध्यान खींचा था। 1971 के चुनाव में क्या हुआ? वे कम सत्ता से ज्यादा सत्ता में आ गईं लेकिन मोदी मात्र मुख्यमंत्री थे। वे किसी प्रधानमंत्री के बेटे भी नहीं थे। वे पार्टी अध्यक्ष भी नहीं रहे। उनका अखिल भारतीय अनुभव भी अत्यंत सीमित था।

वे एक ऐसी पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे, जो दस साल से सत्ता से बाहर थी और जिसका नेतृत्व भी एकजुट नहीं था। लेकिन 2014 के चुनाव में क्या हुआ? पहली बार एक प्रांतीय नेता ने देश का दौरा किया। कोई प्रांत नहीं छोड़ा। करोड़ों लोगों को साक्षात् संबोधित किया। लाखों किलोमीटर की यात्राएं कीं। दस साल प्रधानमंत्री रहने पर भी जितना देश को मनमोहन सिंह ने देखा, उससे भी ज्यादा देश को साल भर में जाना और पहचाना मोदी ने।

मोदी की वजह से मतदान का जो प्रतिशत बढ़ा, वह अपूर्व था। मोदी की सभाओं में जैसा उत्साह का ज्वार उमड़ता था, वैसे मैंने 1952 से अब तक के किसी चुनाव में नहीं देखा। इसीलिए पिछले दो माह से मैं कहता रहा कि भाजपा-गठबंधन को 300 से ज्यादा सीटें मिलेंगी। सारे लोकमत और लगभग सभी मतदानों के अंदाजी घोड़े गलत साबित हुए। विपक्ष पहले भी हारा है लेकिन कांग्रेस जैसी महान पार्टी का आकार हाथी से सिकुड़कर बकरी का रह जाए, क्या यह अपूर्व नहीं है?

जहां तक 1984 की विजय का प्रश्न है, वह राजीव की नहीं, शहीद इंदिरा गांधी की विजय थी। वह एक महान शहीद को राष्ट्र की श्रद्धांजलि थी। 2014 के वोट ने फिरोज गांधी-परिवार को राजनीतिक श्रद्धांजलि दे दी है। 2014 के चुनाव में लोगों को 1984 की तरह गुस्सा नहीं था। निराशा थी। देश को लगा कि वह ठगा गया है। उसने अपना देश अ-नेताओं को थमा दिया है। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे सज्जन में प्रधानमंत्री की क्षमता नहीं है। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का श्रेय सबसे ज्यादा मैं किसी को देता हूं तो वह सोनिया और मनमोहन को देता हूं। मोदी प्रधानमंत्री बन रहे हैं तो वे अपने पुरुषार्थ से बन रहे हैं।

कांग्रेस को अपने किए और अनकिए का फल भुगतना ही था। उसे तो हारना ही था। मोदी की खूबी यह है कि उन्होंने इस हार को अपूर्व और ऐतिहासिक बना दिया। कहा भी है कि ‘आशिक का जनाजा है, जरा धूम से निकले’।

इस चुनाव की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें 1971 की तरह कोई नाटकीयता नहीं थी और इसमें 1984 की तरह खौलता हुआ गुस्सा नहीं था। एक ठंडी समझ थी। इस गंभीर समझ के कारण भारत के लोगों ने भारतीय राजनीति के जातिवादी और सांप्रदायिक चरित्र को बदल दिया। प्रांतों के जातिवादी दिग्गजों ने जैसी पटकनी इस चुनाव में खाई, क्या इससे पहले किसी चुनाव में खाई? लालू, नीतीश, मुलायम, मायावती, देवेगौड़ा आदि कहां हैं?

क्या हुआ, उनके जातीय वोट-बैंकों का? भारत के नागरिकों को मवेशियों की तरह थोकबंद वोट डालने से इस बार मुक्ति मिली हैं जहां तक वोटों के सांप्रदायिक बंटवारे का सवाल है, वह अपरिहार्य था। उसे टाला नहीं जा सकता था। लेकिन उसे ठीक से समझा जाना चाहिए। अल्पसंख्यकों ने मोदी को जिस वजह से वोट नहीं दिए, वह समझ में आती है लेकिन देश के अन्य सभी लोगों ने मोदी को जो वोट दिए, उसकी वजह अल्पसंख्यक नहीं थे।


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