08-04-2012, 09:55 PM | #21 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
करती हूँ कोशिश
निकाल सकूँ मन से तुम्हें न जाने कब यादें बन जाती हैं तुम्हारी ख़ुशी के गीत। घोर निराशा के क्षण में रीते मन के साथ संघर्ष की पगडंडियों पर चुभता है असफलता का कोई काँटा अचानक उसी क्षण जान नहीं पाती कैसे यादें बन जाती हैं तुम्हारी धैर्य के पल। डबडबाई आँखों को रखती हूँ खुला उस पल यादें बन जाती हैं तुम्हारी दुख में गाई जाने वाली प्रार्थना।
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..." click me
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09-12-2012, 07:22 PM | #22 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
जो चुभती हैं तुम्हें
वो निगाहें नहीं हैं लोगों की वो सलवटें हैं मेरे बिस्तर की जो बन जाती हैं अकसर रात भर करवटें बदलते हुए।
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