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Old 17-04-2012, 09:01 AM   #1
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Post उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ

प्यारे दोस्तों , सलाम क़ुबूल कीजिये
आपकी खिदमत में मैं उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ पेश कर रहा हूँ
जिनका अनुवाद हिंदी मैं किया गया है |
उम्मीद करता हूँ आप सभी को पसंद आएँगी |
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 17-04-2012, 09:03 AM   #2
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Default Re: उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ

अपने आँगन से दूर
ख़दीजा मस्तूर
(उर्दू कहानी : अनुवाद : शम्भु यादव)
लाहौर आकर तीन-चार दिन मामू के साथ उनकी सरकारी कोठे में गुजारने पडे . वह भी इस तरह कि आलिया सारा दिन एक छोटे-से कमरे में बन्द पड़ी रहती। वह हर वंक्त यह सोचती रहती कि इस उदास माहौल में किस तरह जिन्दगी गुजारेगी। हाँ, अम्मा बहुत खुश थी। भाई और अँग्रेंज भावज के साथ रहने की बड़ी पुरानी इच्छा अब पूरी हुई थी। उन्होंने जिन्दगी भर साथ रहने के प्रोग्राम बना लिए थे, और आलिया से नारांज थीं कि वह सबसे अलग-अलग पड़ी रहती है। और कुछ नहीं तो अपनी भाभी से फर-फर अँग्रेंजी बोलने का अभ्यास ही कर ले मगर उसने तो इन चार दिनों में सिर्फ बड़ी चाची और बड़े चाचा को कई-कई संफों खत लिखे थे।

पाँचवें दिन मामू ने एक छोटी-सी कोठी का ताला तुड़वा कर अम्मा को उनके घर जाने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने अम्मा को चलते-चलते समझाया कि अँग्रेंज औरतें अपनी माँ के साथ भी रहना पसन्द नहीं करतीं।

अम्मा ने आलिया से ये बातें छुपानी चाहीं मगर जब वह अपने नए घर जा रही थी तो मामी ने टूटी-फूटी उर्दू में समझा ही दिया कि सबका अलग-अलग रहना ठीक होता है।
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Old 17-04-2012, 09:03 AM   #3
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Default Re: उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ

कोठी में एक-एक चीज अपनी जगह पर मौजूद थी। खाने की मेज पर बर्तन करीने से लगे हुए थे और बर्तनों की नक्काशी को धूल ने छुपा दिया था। ऐसा महसूस होता था कि बस अभी पर्दे के पीछे से निकलकर कोई आएगा और खाने के लिए बैठ जाएगा। बावर्चीखाने में पीतल के बर्तन अलमारी में लगे थे और कुछ बर्तन फर्श पर लुढक़े पड़े थे। और ड्राइंगरूम के कालीन और सोफे सब पर धूल विराजमान थी और गुलदान में लगे हुए फूल झड़कर मेंज पर बिखरे हुए थे। सिर्फ काली-काली सूखी शांखें अब तक गुलदान में ठुँसी हुई थीं। सोने के कमरे में बिस्तरों पर पलंगपोश बिछे हुए थे और सिरहाने तिपाई पर रखा हुआ लैम्प औंधा पड़ा था। इस कमरे के साथ छोटे-से कमरे में आतिशदान पर कृष्ण महाराज की मूर्ति रखी थी। माला के फूल झड़कर आसपास बिखरे पड़े थे और गले में सिर्फ पीला डोरा लटका रह गया था।
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Old 17-04-2012, 09:04 AM   #4
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Default Re: उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ

''भई, इसे तो यहाँ से हटाओ। बाहर बच्चों को दे दो, खेलेंगे।'' जब से अम्मा यहाँ आयी थीं, उन्होंने कई बार कहा था।

आलिया ने अम्मा को कोई जवाब नहीं दिया। मूर्ति कई दिन तक यों ही रखी रही। फिर जब इस कमरे को इस्तेमाल किये बगैर अम्मा का गुजारा नामुमकिन हो गया तो आलिया ने मूर्ति को अपने बकसे में छुपा दिया।

दिन बड़ी बोरियत से गुजर रहे थे। बैठे-बैठे उकता गयी थी। उसके खतों के जवाब भी न आते थे।

शामें बड़ी मुश्किल से कटतीं। सहायता-कमेटियाँ घर-घर चक्कर लगाती फिरतीं। अपने शरणार्थी भाइयों की मदद करो। काफिले आ रहे हैं, मदद करो और अम्मा बड़ी दीन बनकर बतातीं कि हम तो ख़ुद शरणार्थी हैं। लोग चले जाते मगर आलिया का जी चाहता अम्मा की आँखों में धूल झोंककर सब कुछ उन्हें दे दे।

मामू और उनकी बेगम कभी-कभी शाम को आ निकलते तो आलिया की समझ में न आता कि वह कौन-से चुहिया के बिल में जा छुपे। अम्मा बौखला जातीं और उनकी समझ में न आता कि अपनी भाभी को किसके सर-आँखों पर बिठा दें।
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Old 17-04-2012, 09:05 AM   #5
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Default Re: उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ

चन्द दिन तक खामोश बैठे रहने के बाद उसने एक हाई स्कूल में नौकरी की अर्जी दे दी, जो जल्दी ही मंजूर हो गयी और नौकरी ने उसे बहुत-सी परेशानियों और दुखों से बचा लिया।

एक दिन मामू अकेले आये तो उन्होंने बताया कि कोठी अम्मा के नाम एलाट करा दी है। अब उसे किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं। फिर उन्होंने फर्नीचर बगैरा की कुछ रसीदें दीं कि अगर कोई पूछे तो ये दिखा देना कि हमने यहाँ आकर सब कुछ खरीदा है।

अम्मा अपने भाई के कारनामों पर खुश होती रहीं, ''भाई हो तो ऐसा हो। मेरे आराम के लिए उसने क्या नहीं किया!''

आलिया चुपचाप सब कुछ सुनती रही। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है, किसी का हक कौन उड़ाए लिये जा रहा है, ये रसीदें कहाँ से आ गयीं? यह कोठी उसकी किस तरह हो गयी? मगर आलिया यह सब कुछ किससे पूछती? अम्मा सिर्फ अम्मा थीं, उसकी तनंख्वाह मिलने और कोठी की मालिक बनने के बाद पहले की ही तरह गर्वीली और आत्मतुष्ट।

वंक्त घिसट-खिसटकर गुजर रहा था। स्कूल से आकर वह परेशान फिरा करती। आसपास की कोठियों में भी किसी से मिलना-जुलना न था। जाने कहाँ से लोग आकर बस रहे थे।

अम्मा को इतनी फुर्सत ही न मिलती कि इसकी तरफ भी देख लेतीं। सारा दिन कोठी की देखभाल में गुंजर जाता। दस रुपये महीने पर रखी हुई बाई अगर किसी चींज को जरा जोर से रख देती तो अम्मा का कलेजा दुख जाता, ''ये इतनी-इतनी महँगी चींजें खरीदी हैं और तुम आपे में नहीं रहतीं। जरा होश से काम लिया करो!''
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Old 17-04-2012, 09:06 AM   #6
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बहुत दिन नहीं गुजरे थे कि मामू करांची तब्दील हो गये। जब वह विदा हो रहे थे तो अम्मा का रो-रोकर बुरा हाल हो गया। उनकी भाभी इस बेकरारी को देखकर मुसकराती हैं, ''हमारा टो बचा लोग बी बहोट डूर-डूर चला जाटा है मगर कोई नहीं रोटा।''

आलिया को उनके चले जाने का न सदमा हुआ, न खुशी। चले गये तो चले गये। उसका उन लोगों से वास्ता ही क्या था ? यहाँ आने के बाद मामू ने कई बार कहा भी था कि आलिया अपने बाप की तरह दिल से उन्हें नापसन्द करती है।

वह यह सब सुनकर हँस दी थी। उस वक्त उसे अब्बा कितनी शिद्दत से याद आते थे! मगर अब तो वह उनकी कब्र तक को दूसरे मुल्क में छोड़ आयी थी। वहाँ से नाता टूट गया था। किसी ने उसके खत का जवाब तक न दिया था।


समाप्त
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Old 17-04-2012, 09:14 AM   #7
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Default Re: उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ

आख़...थू

प्रेमनाथ 'दर'

(उर्दू कहानी : अनुवाद : शम्भु यादव)

फ्लेवर पैदा करना आसान खेल नहीं। एक महिला भी नहीं कर सकती। वही कर सकता है जिसने मछली का सही तौर पर विश्लेषण किया हो। जिसने रातों को बैठकर अनुभव किया हो। जिसकी नाक अनुभवी हो ताकि वो एक-एक भाप की माप को सूँघे और पहचाने। दुर्गन्ध से फ्लेवर तक कई मोड़ होते हैं कई मंजिलें।

और उस दिन जब मेघ बरस रहा था और छुट्टी का दिन था मछुआरा एक बड़ा सिंघाड़ा बंगालियों से छुपाता हुआ मेरे पास ले आया। मछली का शरीर अकड़ा हुआ तांजा था। कनपटियों के नीचे मछली का खून अभी तक लाल था। मछली को देखकर ही मेरे मुँह में पानी आ गया। वह माल किसी और को कैसे देता।

कड़ाही में तेल कड़कड़ाने लगा। तेल के भँवर से लहरें उठने लगीं। कभी आँखों पर कभी कनपटियों और कभी मुँह के भीतर स्वाद को जलाने लगीं।

फिर जब मछली उबलने लगी, तेल की मारी हुई बास लहरों की तरह फ्लेबर बनकर निकलने लगी। और ऐसा प्रतीत होने लगा कि यह गर्म-गर्म फ्लेबर बाहर पानी में नहीं जाएगा, घर के अन्दर की घूमता रहेगा, तो हमने जी भर के मछली खायी, वह मछली एक-एक साँस में बसी हुई थी जो हमने खायी। वही साँस, वही डकार वही गर्म-गर्म स्वाद। बैठक में एक मस्ती का वातावरण था, मुझे औरों का तो पता नहीं पर मैं स्वयं इस मस्ती के स्वागत में कहीं खोने लगा।

देखता क्या हँ कि हमारा दरवांजा मछली के मुँह की तरह खुल गया और उसी स्वाद की खोज में उसमें घुस गया। पर वहाँ मुँह नहीं एक दरवाजा था। मछली की खोपड़ी खुली थी। जीभ हिली और मैं दूसरी ओर जा निकला।

मुझे इस बात पर भी हैरानी नहीं हुई कि इस दरवांजे के पार एक अनदेखा बांजार गर्म था। वही अपने बांजारों की गहमा-गहमी और चमक, पर लूटमार नहीं थी। बांजार बड़ा सजा-सजाया था और लोगों के आवागमन में व्याकुलता नहीं थी। भीड़ थी लेकिन खलबली नहीं थी। जिसका चेहरा देखो, आध्यात्मिक चमक से ढँका हुआ था। भावनाओं में ठहराव और दृष्टि में एक तलाश थी। हर कदम एक निर्णय के साथ उठता। एक संगठित समाज का आवागमन था। जो जहाँ जी रहा है और पूरे विश्वास से जी रहा है।
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Old 17-04-2012, 09:15 AM   #8
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Default Re: उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ

देखा कि एक ऊँची दुकान के आगे एक लम्बी लाइन धीरज धरे खड़ी है। चूँकि मेरी आदत थी मैं भी उस लाइन की तरफ भागा, जाने क्या-क्या वस्तुएँ मिलती होंगी। ऊपर चीलें भी मँडरा रही थीं और उतर-उतर कर छीना-झपटी भी कर रही थीं। स्पष्टत: वहाँ मांस बिक रहा था। मांस की और भी कई दुकानें थीं मगर वहाँ चीलों का समूह क्यों नहीं था। वह दुकान साफ-सुथरी थी। इसके बीच में तीन बड़ी अलमारियाँ खड़ी थीं और शीशे के पीछे तीन लम्बे-लम्बे मांस के टुकड़े लटक रहे थे।

उस मांस की बनावट नई थी और इसका रंग न लाल था न सफेद, दोनों रंगों के बीच का था। सतह ऐसी समतल कि मुर्गे का हो, मोटा ऐसा कि जैसे बकरे का हो, मुलायम ऐसा कि जैसे मछली का हो। उसमें से छुरी जैसे हवा में से गुजरती थी।

'मंजे आएँगे आज, जवान है ये जवान' एक ग्राहक होठों पर जीभ फेरता हुआ दूसरे से कह रहा था।

शब्द 'जवान' मांस के लिए प्रयोग होते नहीं सुना था। मांस बड़े का हो, बूढ़े का हो, जवान का नहीं सुना था। केवल शब्द सुनकर ही मेरे मुँह में पानी आने लगा था। पर मांसाहारी कितना भी मांस का प्रेमी हो, नए मांस का नाम पहले सुनना चाहता है।

गर्दन लम्बी करके देखा कि पीछे सिर और पाये रखे पड़े थे। देखकर मेरा दिल धड़कने लगा। सिर और पाये थे तो ऍंधेरे में पर इनसान के किसी सम्बन्धी के दिखाई दे रहे थे। मेरे मुँह में आया हुआ पानी एक गन्दा स्वाद बन गया और पेट में चक्की-सी घूमने लगी। थूकना मैंने अच्छा नहीं समझा। समीप खड़े एक बूढ़े से मैंने पूछा—

''मियाँ ये कौन-सी नेमत है?''

''बड़ी नेमत भाई'', इतनी तेजी से बूढ़े ने कहा जैसे मेरे प्रश्न का पूरा जवाब दिया हो। मैंने फिर पूछा—

''कौन-सी नेमत मियाँ?''
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Default Re: उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ

''बड़ी नेमत भाई'', इतनी तेजी से बूढ़े ने कहा जैसे मेरे प्रश्न का पूरा जवाब दिया हो। मैंने फिर पूछा—

''कौन-सी नेमत मियाँ?''

''भाई बड़ी कह रहा हँ बड़ी'', उसके कथन में सूचना थी व्यंग्य नहीं, स्पष्ट था कि इस मांस का नाम बड़ी नेमत था जैसे हमारे यहाँ हलाल और महाप्रसाद के नाम थे। पर मैं तो इस मांस के जानवर का नाम पूछ रहा था। मैं इसी उलझन में खड़ा था कि एक बूढ़े भिक्षुक ने मेरे काँधे पर हाथ रखा और अलग ले जाकर कहा, ''क्या सोच रहे हो बेटा, आओ मैं बता दूँ। इस मांस का नाम है बड़ीर नेमत। प्रतिदिन बिकता है पर आज का मांस उत्तम है, जवान है, ये मांस कभी-कभी मिलता है क्योंकि जवानों का शिकार करना कठिन है। बूढ़े, बच्चे और मादा तो प्रतिदिन बिकते हैं। और सुनो, तुम भगवान का नाम खड़े होकर लेते हो या लेटकर?''

''हंजरत इस जानवर का नाम क्या है।''

''मैं सब कुछ बता दूँगा, तुम मेरे प्रश्न का उत्तर दो।''

''लेटने, खड़े होने का बन्धन नहीं है साहब।''

''बस! बस फिर ठीक है। तुम तीसरे प्रकार के मानव निकले, न इधर न उधर। सुनो अगर तुम लेटकर नाम लेनेवालों में से होते तो तुम फिर जवान थे।'' भिक्षुक ने मेरे कन्धों पर हाथ फेरते हुए कहा, ''फिर आज इसी दुकान पर तीन की जगह चार मांस लटकते।''

मैं धप से सड़क पर बैठ गया। एक आँधी-सी चली और मुझे इस भिक्षुक के बाल कभी ठुड्डी पर लटकते कभी सिर पर उछलते दिखाई दिये। और एक ऍंधेरे में मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि स्वयं मुझे ही उलटा टाँग दिया गया है और मेरी पीली-पीली खाल उतार दी गयी है...पर मैं तो तीसरे प्रकार का मानव था, मेरी खाल क्यूँ उतरती? इस बात का ढाढस बाँधते हुए भिक्षुक ने मेरा हाथ थाम लिया।

''तुम लोग मछली के उस पार रहने वाले बनते बहुत हो, बड़ी नेमत को खाते नहीं, मियाँ चख के देख लो एक बार। मन मार-मार के क्यूँ बर्बाद कर रहे हो।''

''बाबा-बाबा'' मेरी घिघ्घी बँध गयी और पैर जो दौड़ना चाहते थे केवल हिलते रहे। ''बाबा-बाबामुझे मछली के पार धकेलो। बाबा मछली के पार...''

''हँ-इनसान जैसे नेमत को खाते नहीं...''

''आख्ख़ थू, बाबा थू-थू-थू...''

''थूकना तो देखिए इनका।''

''थू-थू-थूआख्ख़ थू...''

''इनसान से बूँद-बूँद चूस लेते हैं। बोटियाँ उतारते हैं। बोटियों को भूनते हैं, खाते नहीं।''

''थू-थू-थू-बाबा-थू ।क्या कहा ? भूनते हैं? थू ,हम? इनसान की बोटी को? थू-थू-थू बाबा, बाबा इनसान। प्राणिवर्ग में सबसे उत्तम, संसार की प्रगति की आख़री मंजिल इंसान ! वही जिसके आगे फरिश्तों ने सजदा किया था। जिसके रूप में अवतार आये। इंसान...इंसान...''

''हाँ-हाँ। यह भूनना भी क्या हुआ? थोड़ा देखिए तो...''
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भिक्षुक ने हाथ लहराया और धरती की गाँठ खुल गयी और एक आत्मा भभक उठी, मैं अपना दामन मुँह और नाक में ठूँस कर कराहने लगा। भिक्षुक ने मेरी गर्दन पर अपना भारी हाथ रखा और मुझे आँखें खोलने पर मजबूर कर दिया। देखता क्या हँ कि गन्दा धुआँ उठ रहा है। धुएँ के नीचे एक नगर का आकार है, वही अपनी गलियाँ हैं। गली-गली में कूड़ा जल रहा है और कूड़े पर मांस के लोथड़े सड़ रहे हैं। धुआँ इनसे भी उठ रहा है। पर कूड़े में लोथड़े की तरह ये धुआँ भी अलग है। इसकी रंफ्तार भारी है। भभक में जो सड़े तीव्र नाखून हैं, धुएँ की यही अलग-अलग गहरी-गहरी लकीरें हैं।

''कूड़े में भून रहे हैं बड़ी नेमत को! देखो तो सही। खटोलों के परवाने और सड़े हुए बाण; गन्दी और गली हुई बोटियाँ, काली पूछें। इन्हीं की आग में भूनना चाहते हैं बड़ी नेमत को। और जब धुआँ उठता है, मुँह नाक में दामन ठूँसने लगते हैं। बदबू नहीं तो क्या ख़ुशबू उठती।''

आँखें फाड़-फाड़कर फिर देखा तो वही अपनी गलियाँ थीं, अपनी बस्तियाँ, मछली के उस पार की। वह लोथड़े नहीं अपने ही चेहरे थे। वही टाँगें, वही जाँघें।

भिक्षुक ने मेरी थूक मेरे ही अन्दर उतार दी। मेरे धड़कन दबा दी। और जब मैंने कुछ लाशों को बोरों, मेंजों, किताबों में जलते देखा जाने क्यूँ मैं उसका ध्यान इस अन्तर की ओर आकर्षित करवाना चाहता था। पर ऐसा न हुआ। मुझको उसने अनुभवहीन बना दिया। अब मैं या तो नीचे खाई में या इसकी आँखों में देख सकता था। भिक्षुक ने एक मोटा थूक निकाला और उसी खाई में फेंक कर कहा

''आख्ख़़ थू! इस अज्ञानता पर और इस गन्दगी पर। ये भभक कुछ और देर तक आती रही तो अपना वातावरण गन्दा हो जाएगा। जाने क्या-क्या बीमारियाँ फैलेंगी यहाँ'' उसने हाथ लहराया और वह खाई भर गयी।

उसने एक दरवाजा खोला और मुझे एक गर्म घर के अन्दर ले गया। उसके घर की दीवारों पर प्रकाश फिसल-सा रहा था और धरती ऐसी जैसे दूध से धोया गया हो। एक कोने में सुनहरी ईंटों की एक समाधि-सी थी। जिस पर कई दीये जल रहे थे। दीये की लौ एक जैसी थीं। लौ का रंग ंखून जैसा था जैसे कई छोटी-छोटी खून से लथपथ जीभें एक साथ निकल रही हों। दीयों के ऊपर चाँदी जैसे धातु के दायरे खड़े थे जिन पर इसी धातु के कई बड़े-बड़े हाँडे चढ़े हुए थे। हाँडियों में कुछ उबल रहा था। इनमें से भपकारे ऐसे निकलते थे जैसे इनके नीचे मनों ईंधन जल रहे हों। और हर भपकारे के साथ फ्लेबर की ऐसी लहर निकलती थी कि मेरे प्राण शरीर के शेष भाग को छोड़कर नाक से मस्तिष्क तक जो गली है उसमें आ बसे।
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