15-01-2012, 06:02 PM | #1 |
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.....वही क्यों दिल लुभाता है
किसी का दिल बहलता है , किसी की जान जाती है . उतरता हूँ मैं अपनी छत से जितना मिलने को तुझसे ; अकड़ गर्दन की तेरी उतनी ही क्यों बढ़ती जाती है . तू है आईना , तुझमे अक्स मिटते बनते रहते हैं ; तेरी तस्वीर मेरे दिल से क्यों मिटने न पाती है . तुम्हारे प्यार का सावन कभी का थम चुका लेकिन ; हमारी आँख की बरखा कभी थमने न पाती है . मैं जब ये जानता हूँ , तू मुझे अब मिल नहीं सकती ; तेरे आने की आहट फिर भी क्यों कानों में आती है . उजालों में भले ही तू मुझे हासिल न हो लेकिन ; मेरी हर रात तेरे ख़्वाब का उत्सव मनाती है . जो हासिल हो नहीं सकता , वही क्यों दिल लुभाता है ; पहेली ऐसी है , जिसको न दुनिया बूझ पाती है . फ़िज़ा में ये महक और ये नशा छाया अचानक क्यों ; हवा , क्या बेवफ़ा महबूब की गलियों से आती है ! रचयिता ~~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव विनय खण्ड -2 , गोमती नगर , लखनऊ . (शब्दार्थ ~~ ज़फ़ा = बेवफाई / अन्याय , अक्स = परछाई / छाया , फ़िज़ा = atmosphere / वातावरण ) ------------------------------------------------------------------------------------------- |
16-01-2012, 12:17 AM | #2 |
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
बहुत खूब कविवर ! उर्दू की इश्किया रवायत की श्रेष्ठ ग़ज़ल पढ़ कर हृदय आनंदित हो गया !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
16-01-2012, 09:22 AM | #3 |
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
अति सुंदर रचना।
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16-01-2012, 09:47 PM | #4 | |
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
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16-01-2012, 10:04 PM | #5 |
Diligent Member
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
सुन्दर कविता है डॉक्टर साहब
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17-01-2012, 03:48 PM | #6 |
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
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17-01-2012, 03:50 PM | #7 |
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
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17-01-2012, 03:52 PM | #8 |
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
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17-01-2012, 03:56 PM | #9 |
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
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17-01-2012, 05:29 PM | #10 |
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Re: .....वही क्यों दिल लुभाता है
राकेश जी, आपकी इस कलाम ने दिल लुभा दिया... बहुत ही उम्दा है.
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