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Old 04-02-2011, 08:24 AM   #1
Sikandar_Khan
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‘‘बिन ब्याही माँ’’ - नीरज तोमर की कहानी
उसका सारा सामान मुश्किल से एक ठेले भर था। शायद वो सामान उस छोटे से कमरे में भरने के पश्चात् भी उस कमरे में एक बड़े सन्दूक की जगह बची रह जाये। पर आश्चर्य यह था कि उस अनजान मोहल्ले में उस घुटन भरी कोठरी में रहना उसने कैसे और क्यों स्वीकारा जिसमें न तो कोई बिजली की सुविधा थी और न ही पानी की। अब से पहले भी न जाने कितने लोग उस कमरे को बाहर से ही देखकर छोड़ गये। वह अन्धेरा व गुमनाम सा कमरा प्रतीक मात्र था।
वह पतली, छोटे से कद की साँवली परन्तु सुन्दर नाक-नक्श वाली 22-23 साल की लड़की थी। जिसके साथ गैस का छोटा सिलंेन्डर, गिनकर आठ बर्तन, एक चटाई, झाडू, एक सूटकेस जिसमें शायद उसके कपड़े हों और हाथों में कपडों मेें लिपटी एक अजीब सी चीज थी। वह लड़की उस चीज को अपने सीने से इस तरह चिपकाये हुए थी कि मानो अपने सारे सामान में वह उसे सर्वाधिक प्रिय हो। एक हाथ से उस चीज को संभाले और दूसरे हाथ से अपना वह थोड़ा सा सामान उठाकर उस छोटी सी कोठरी में ले जा रही थी। सामान रखने में ठेले वाले ने भी उसकी मदद की। आस-पास वाले सभी उत्सुकता भरी नजरों से जड़ हुए वो सब देख रहे थे। चारों तरफ छाये उस सन्नाटे में मात्र यही प्रश्न गूँज रहे थे- यह कौन है? कहाँ से आई है? अकेली है? कैसे रहेगी यहाँ? क्या करती है? इस कमरे का मालिक जो इस कमरे से कहीं दूर किसी अन्य स्थान पर रहता था, कैसे एक लड़की को उसने कमरा दे दिया? कहीं यह उसी की परिचित तो नहीं?
तभी एक आवाज उस सन्नाटे को चीरती हुई हम सभी के कानों में पहुँची। इस आवाज को सुनकर सभी हतप्रभ रह गये। यह आवाज बच्चे के रोने की थी, जो उस अजीब सी कपड़ों में लिपटी चीज से आ रही थी, जो वह लड़की अपने एक हाथ में संभाले हुए थी।
बच्चा................. बच्चा.................., बच्चा भी है इसके साथ? इसका है? ये तो कुवाँरी लगती है! इसकी शादी हो गई क्या? इसका पति भी है? कहाँ है वह? ना जाने एक ही क्षण में कितने सवाल चारों और गूँजने लगे। मूक दर्शक की भाँति खड़े लोगों में अब चेतना आ गई और उत्सुकता भरी चर्चा चारों ओर होने लगी।
परन्तु वो लड़की चुपचाप उस बच्चे को दुलारती हुई अपने कमरे में चली गई। मौहल्ले में प्रवेश करने से लेकर कमरे में प्रवेश तक वह अपने चेहरे की गम्भीरता के पीछे बहुत से प्रश्न उस कमरे के बंद दरवाजों के बाहर छोड़ गई।
वो दरवाजा शाम तक बंद रहा और लोगों की चौपाल उस दरवाजे के बाहर चटपटी चर्चाओं के साथ सजी रही। मोहल्ले के एक भी आदमी या औरत ने उस मोहल्ले के नये सदस्य के दरवाजे पर कोई भी दस्तक न दी। किसी ने भी किसी भी प्रकार की सहायता की कोई पेशकश नहीं की। और करते भी तो क्यों? एक कम उम्र की अकेली लड़की बच्चे के साथ वो भी बिना पति के, मतलब साफ था-‘‘एक बिन ब्याही माँ’’।
दिन भर भिन्न-भिन्न लांछन लगते रहे। नई-नई कहानियाँ बनती रही। सामाजिक मान-मर्यादाओं पर भाषण चलते रहे और अन्ततः उसे चरित्रहीन घोषित करते हुए उसके सामाजिक बहिष्कार की सर्व सम्मति बन जाने से उससे कोई मतलब न रखने का निर्णय लिया गया।
शाम को 5 बजे अचानक दरवाजा खुला और वो लड़की चुपचाप बच्चे को संभाले मोहल्ले से बाहर चली गई। मोहल्ले के सभी लोगों ने वही पुराना काम पूर्ण दक्षता के साथ किया। उसे घूरते रहे, चर्चाएँ चलती रही और उसके लौटने का इंतजार बेसब्री के साथ नज़रे गड़ाये जारी रहा।
लगभग एक घण्टे बाद वह कुछ खाने का सामान और दूध लेकर लौटी। शायद दूध उस नन्हे बच्चे के लिए था। लोग पुनः उसका दरवाजा बंद होने तक उसे घूरते रहे। और वो अपने बच्चे में लीन अपनी कोठरी में चली गई।
अगली सुबह वह पता नहीं कब चली गई। सुबह-सुबह उसके कमरे पर ताला लगा था। मैंने बाहर झाँककर देखा तो इक्का-दुक्का लोग नज़र आये। सबकी नज़र बचाती हुई मैं उसके कमरे की तरफ बढ़ी और उसकी टूटी खिडकी से उसके कमरे में झाँकने की कोशिश की। उस कमरे को देखकर उसके बदले हुए रूप की कल्पना भी न कर सकी। कमरे के अन्दर व बाहर आस-पास सफाई थी। हालाँकि बदबू-उमस थी परन्तु उतनी नहीं रही थी। और उस सफाई को देखकर यकीन है मुझे धीरे-धीरे वो सब भी समाप्त हो जायेगी। कमरे का सारा सामान व्यवस्थित था। उसके कमरे को देखकर मैं वापस आकर अपने घर की सफाई में लग गई। और साथ-साथ सोच रही थी कि उसने वो उमस भरी रात बिना बिजली के उस बच्चे के साथ उस बंद कमरे में कैसे गुजारी होगी? रात को न तो बच्चे के रोने की आवाज आई और न ही पंखे की कोई व्यवस्था ही कमरे में नज़र आई। मैं अपने घर की हर एक सुविधा की तुलना उसके कमरे की असुविधा से कर रही थी। मैं कभी पंखा बंद करती तो कभी लाइट तो कभी पानी और खुद को उस स्थिति में रखने की कोशिश करती। पर वाकई बहुत मुश्किल था। बहुत मुश्किल..............................
दोपहर को वो उसी गम्भीर मुद्रा में उस बच्चे के साथ कहीं से लौट आई और पहले की ही भाँति उस कमरे में बंद। शाम को पहले दिन की ही तरह वो फिर खाने पीने का सामान लेने बाहर गई और फिर वैसे ही दूध और कुछ खाने को लेकर लौट आई।
एक महीने तक हम सभी उसका यह रूटीन देखते रहे। उसके घर से सिर्फ उस बच्चे को खिलाने-दुलारने की आवाजें आती। उन आवाजों को सुनकर लगता कि वह और उसका बच्चा एक-दूसरे के साथ बहुत खुश थे और उनकी उस छोटी सी दुनिया में किसी और की कोई जगह नहीं थी। उस एक महीने मंे कोई भी उसके पास नहीं आया। मैं आश्चर्यचकित थी कैसे कोई उसकी सुध लेने नहीं आया? अकेली लड़की को ऐसे कैसे उसके परिवार ने छोड़ दिया? खैर! इन प्रश्नों के जवाब तो बस उन बंद होठों में ही छिपे थे और इन्हें खुलवाने के लिए कोई उस तक पहुँचा ही नहीं।
एक दिन सुबह-सुबह मेरे दरवाजे की घण्टी बजने से मेरी नींद खुल गई। दरवाजा खोला तो सामने वो खड़ी थी। उसे देखकर मेरी आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे मैं कभी सोई ही नहीं हूँ। मैं स्तब्ध खड़ी उसे देखती रही। मेरी आवाक् मुद्रा तब खण्डित हुई जब उसने कहा- गुड मार्निंग दीदी। दीदी मैं आपकी नई पड़ौसी हूँ। माफ कीजिएगा मैंने आपको इतनी सुबह-सुबह जगा दिया। परन्तु ये मेरी मजबूरी थी। गर्मी के कारण रात मेरा दूध फट गया। और मेरी बच्ची भूखी है। इसे दूध चाहिए। इतनी सुबह-सुबह मार्केट भी बंद है। क्या मुझे बच्ची के लिए एक कटोरी दूध मिल जाएगा। मैैं शाम को ही इसे वापस कर दूँगी।
उसके शालीनता भरे शब्द सुनकर मैं उसे ना तो कह ही नहीं सकती थी। परन्तु जब मैंने उस बच्ची को उसकी गोद में रोते देखा तो मैं तुरन्त दूध की खाली बोतल जिसे बच्ची के मुँह से लगाकर वह उसे बहकाने की कोशिश कर रही थी, उसके हाथ से छीनकर उस मासूम के लिए दूध तैयार करने चली गई।
वापस लौटी तो वो बच्ची को चुप कराने की असफल कोशिश कर रही थी। दूध की बोतल देते हुए उसके धन्यवाद से पहले मेरे जिज्ञाषा भरे शब्द उस तक पहुँच गये- ‘‘तुम कौन हो?’’
वो जैसे इस प्रश्न के लिए पहले से ही तैयार थी। उसके उस गम्भीर चेहरे पर पहली बार मैंने वो मुस्कुराहट देखी। मैंने बाहर झाँकते हुए उसे अन्दर बैठने के लिए कहा और पुनः अपना प्रश्न दूसरे रूप में दोहराया। कुछ अपने बारे में बताओ।
वो बोली- दीदी मेरा नाम शिवानी है। मैं एक स्कूल शिक्षिका हूँ। यहाँ अपनी दो महीने की बच्ची के साथ रहने आयी हूँ। ये कहकर वो चुुप हो गई।
उसके सुबह जाकर दोपहर को आने की बात तो समझ में आ रही थी। परन्तु मुझे असली उत्सुकता उसकी बच्ची को लेकर थी जो दूध पीती हुई इतनी प्यारी लग रही थी कि मेरा मन कर रहा था कि उसे शिवानी से छीन लूँ। परन्तु मन में स्थित उन्हीं बातों ने मुझे रोक लिया जिनकी वजह से मोहल्ले वालों ने शिवानी का बहिष्कार किया था। पता नहीं किसका पाप है? मैं जल्द से जल्द उसे अपने घर से भगाना भी चाहती थी लेकिन उसके बारे में और अधिक जानना भी चाहती थी। दुविधा भरी स्थिति से जूझते हुए मैंने उसके विषय में जानने का निर्णय लिया और तिरस्कृत वाणी में पूछा- ‘तुम्हारी उम्र तो 22-23 के आस-पास लगती है और इतनी कम उम्र में तुम दो महीने की बच्ची के साथ अकेली यहाँ रहती हो। ऐसा क्यों?
मेरी बात सुनकर वो हँसने लगी। और फिर धीरे से बोली- हमारे समाज की सोच का दायरा कितना सीमित है ना दीदी? जहाँ एक लड़की और बच्चा बिना किसी पुरूष के देखा वो सोच बस एक ही दिशा में सीमित हो जाती है। दीदी यह एक कुण्ठित समाज है जो मर्यादाओं, नियमों, कायदों, कानूनों का झूठा आवरण ओढ़े है। वो आवरण जो मात्र औरत की ओढ़नी है।
यह बोलकर वो एक मिनट के लिए चुप हो गई और मैं उसके तिलमिलाते चेहरे को घबराई नज़रों से देखती रही। पर एक मिनट के बाद वो शान्त हुई और बोली-दीदी यह बच्ची मेरी अपनी बच्ची नहीं है। हमारे गाँव की रिश्तेदारी में एक दुर्घटना में इस बच्ची के परिवारजनों की मृत्यु हो गई थी। कोई अन्य सहारा न होने के कारण मेरा परिवार इसे अपने घर ले आया। मैं हमेशा से चाहती थी कि मैं एक ‘बच्ची’ गोद लूँं। जिसकी सारी जिम्मेदारी मैं उठाऊँ। जिसे मैं एक परिवार दूँ, माँ-बाप का प्यार दूँ। जिसका भला मैं कर सकूँ। न जाने कितने बच्चे विभिन्न प्रकार की दुर्घटना में अनाथ हो जाते है। उनमें से कुछ का बचपन सड़कों पर और कुछ का अनाथालयों में बीतता है। यदि आप अनाथालय में जायें तो वहाँ इस बच्ची जैसे और भी न जाने कितने बच्चे अनाथालय के बाहर की दुनिया से आने वाले हर व्यक्ति को तरसायी आँखों से देखते हैे कि मानो कह रहे हों कि ‘‘हमें यहाँ से अपने साथ ले जाओ। हमें भी एक परिवार दे दो। एक नया संसार, जहाँ हमारे माँ-पिता, भाई-बहन हो। जहाँ हमें खुली हवा मिले सांस लेने के लिए। प्यार मिले जीने के लिए।’’ मैं इस बच्ची को अनाथ होने के अहसास से दूर करना चाहती थी। इसीलिए मैंने इस बच्ची की माँ बनने का निर्णय अपने घरवालों को सुनाया।
परन्तु मेरे घरवालों ने मेरे इस फैसले का घोर विरोध किया। उनके अनुसार इसके साथ मुझे समाज स्वीकार नहीं करेगा। मेरी कहीं शादी नहीं होगी। लड़का होता हो तो शायद लोगों को स्वीकार्य भी होता परन्तु लड़की के साथ कौन मुझे अपनायेगा। मुझ पर विभिन्न प्रकार के लांछन लगाये जायेगें। इसलिए मुझे यह ख्याल छोड़ देना चाहिए।
लेकिन मैं अपने फैसले पर दृढ़ रही। लड़के को तो कोई भी गोद लेने के लिए तैयार हो जाता है परन्तु क्या इन बच्चियों को माँ-बाप के प्यार नहीं चाहिये होता? क्या इन्हें अच्छी शिक्षा लेने का हक नहीं है? मैं इस बच्ची को वो सब देना चाहती थी जो एक सामान्य परिवार में दिया जाता है। मैं इसे इसका सम्मान दिलवाना चाहती हूँं।
मेरा यह संकल्प मेरे परिवार को रास नहीं आया और उन्होंने मुझे अपने परिवार का हिस्सा न रहने दिया। इसी कारण मैं ‘अकेली माँ’ अपनी बच्ची के साथ अपने इस छोटे से घर में रहती हूँ। पता नहीं क्यों लोग ये क्यों नहीं सोचते कि यदि हर परिवार एक बच्चे को मेरी तरह गोद ले ले तो कोई भी अनाथ बच्चा चोर, डाकू नहीं बल्कि एक आदर्श नागरिक बन जायेगा।
अच्छा दीदी अब मेरे स्कूल का समय हो रहा है। मैं चलती हूँ। कहकर वो चली गई। और मैं सन्न खड़ी उसके चंद शब्दों की विशाल गहराई में डूबी रह गई................................
__________________
Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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मोहन राकेश की कहानी - उसकी रोटी

बालो को पता था कि अभी बस के आने में बहुत देर है, फिर भी पल्ले से पसीना पोंछते हुए उसकी आँखें बार-बार सडक़ की तरफ़ उठ जाती थीं। नकोदर रोड के उस हिस्से में आसपास कोई छायादार पेड़ भी नहीं था। वहाँ की ज़मीन भी बंजर और ऊबड़-खाबड़ थी—खेत वहाँ से तीस-चालीस गज़ के फ़ासले से शुरू होते थे। और खेतों में भी उन दिनों कुछ नहीं था। फ़सल कटने के बाद सिर्फ़ ज़मीन की गोड़ाई ही की गयी थी, इसलिए चारों तरफ़ बस मटियालापन ही नज़र आता था। गरमी से पिघली हुई नकोदर रोड का हल्का सुरमई रंग ही उस मटियालेपन से ज़रा अलग था। जहाँ बालो खड़ी थी वहाँ से थोड़े फासले पर एक लकड़ी का खोखा था। उसमें पानी के दो बड़े-बड़े मटकों के पास बैठा एक अधेड़-सा व्यक्ति ऊँघ रहा था। ऊँघ में वह आगे को गिरने को होता तो सहसा झटका खाकर सँभल जाता। फिर आसपास के वातावरण पर एक उदासी-सी नज़र डालकर, और अंगोछे से गले का पसीना पोंछकर, वैसे ही ऊँघने लगता। एक तरफ़ अढ़ाई-तीन फुट में खोखे की छाया फैली थी और एक भिखमंगा, जिसकी दाढ़ी काफ़ी बढ़ी हुई थी, खोखे से टेक लगाये ललचाई आँखों से बालो के हाथों की तरफ़ देख रहा था। उसके पास ही एक कुत्ता दुबककर बैठा था, और उसकी नज़र भी बालो के हाथों की तरफ़ थी।
बालो ने हाथ की रोटी को मैले आँचल में लपेट रखा था। वह उसे बद नज़र से बचाये रखना चाहती थी। रोटी वह अपने पति सुच्चासिंह ड्राइवर के लिए लायी थी, मगर देर हो जाने से सुच्चासिंह की बस निकल गयी थी और वह अब इस इन्तज़ार में खड़ी थी कि बस नकोदर से होकर लौट आये, तो वह उसे रोटी दे दे। वह जानती थी कि उसके वक़्त पर न पहुँचने से सुच्चासिंह को बहुत गुस्सा आया होगा। वैसे ही उसकी बस जालन्धर से चलकर दो बजे वहाँ आती थी, और उसे नकोदर पहुँचकर रोटी खाने में तीन-साढ़े तीन बज जाते थे। वह उसकी रात की रोटी भी उसे साथ ही देती थी जो वह आख़िरी फेरे में नकोदर पहुँचकर खाता था। सात दिन में छ: दिन सुच्चासिंह की ड्ïयूटी रहती थी, और छहों दिन वही सिलसिला चलता था। बालो एक-सवा एक बजे रोटी लेकर गाँव से चलती थी, और धूप में आधा कोस तय करके दो बजे से पहले सडक़ के किनारे पहुँच जाती थी। अगर कभी उसे दो-चार मिनट की देर हो जाती तो सुच्चासिंह किसी न किसी बहाने बस को वहाँ रोके रखता, मगर, उसके आते ही उसे डाँटने लगता कि वह सरकारी नौकर है, उसके बाप का नौकर नहीं कि उसके इन्तज़ार में बस खड़ी रखा करे। वह चुपचाप उसकी डाँट सुन लेती और उसे रोटी दे देती।
मगर आज वह दो-चार मिनट की नहीं, दो-अढ़ाई घंटे की देर से आयी थी। यह जानते हुए भी कि उस समय वहाँ पहुँचने का कोई मतलब नहीं, वह अपनी बेचैनी में घर से चल दी थी—उसे जैसे लग रहा था कि वह जितना वक़्त सडक़ के किनारे इन्तज़ार करने में बिताएगी, सुच्चासिंह की नाराज़गी उतनी ही कम हो जाएगी। यह तो निश्चित ही था कि सुच्चासिंह ने दिन की रोटी नकोदर के किसी तन्दूर में खा ली होगी। मगर उसे रात की रोटी देना ज़रूरी था और साथ ही वह सारी बात बताना भी जिसकी वजह से उसे देर हुई थी। वह पूरी घटना को मन ही मन दोहरा रही थी, और सोच रही थी कि सुच्चासिंह से बात किस तरह कही जाए कि उसे सब कुछ पता भी चल जाए और वह ख़ामख़ाह तैश में भी न आये। वह जानती थी कि सुच्चासिंह का गुस्सा बहुत ख़राब है और साथ ही यह भी कि जंगी से उलटा-सीधा कुछ कहा जाए तो वह बग़ैर गंड़ासे के बात नहीं करता।
जंगी के बारे में बहुत-सी बातें सुनी जाती थीं। पिछले साल वह साथ के गाँव की एक मेहरी को भगाकर ले गया था और न जाने कहाँ ले जाकर बेच आया था। फिर नकोदर के पंडित जीवाराम के साथ उसका झगड़ा हुआ, तो उसे उसने कत्ल करवा दिया। गाँव के लोग उससे दूर-दूर रहते थे, मगर उससे बिगाड़ नहीं रखते थे। मगर उस आदमी की लाख बुराइयाँ सुनकर भी उसने यह कभी नहीं सोचा था कि वह इतनी गिरी हुई हरकत भी कर सकता है कि चौदह साल की जिन्दां को अकेली देखकर उसे छेडऩे की कोशिश करे। वह यूँ भी ज़िन्दां से तिगुनी उम्र का था और अभी साल-भर पहले तक उसे बेटी-बेटी कहकर बुलाया करता था। मगर आज उसकी इतनी हिम्मत पड़ गयी कि उसने खेत में से आती जिन्दां का हाथ पकड़ लिया?
उसने जिन्दां को नन्ती के यहाँ से उपले माँग लाने को भेजा था। इनका घर खेतों के एक सिरे पर था और गाँव के बाकी घर दूसरे सिरे पर थे। वह आटा गूँधकर इन्तज़ार कर रही थी कि जिन्दां उपले लेकर आये, तो वह जल्दी से रोटियाँ सेंक ले जिससे बस के वक़्त से पहले सडक़ पर पहुँच जाए। मगर जिन्दां आयी, तो उसके हाथ ख़ाली थे और उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा था। जब तक जिन्दां नहीं आयी थी, उसे उस पर गुस्सा आ रहा था। मगर उसे देखते ही उसका दिल एक अज्ञात आशंका से काँप गया।
“क्या हुआ है जिन्दो, ऐसे क्यों हो रही है?” उसने ध्यान से उसे देखते हुए पूछा।
जिन्दां चुपचाप उसके पास आकर बैठ गयी और बाँहों में सिर डालकर रोने लगी।
“ख़सम खानी, कुछ बताएगी भी, क्या बात हुई है?”
जिन्दां कुछ नहीं बोली। सिर्फ़ उसके रोने की आवाज़ तेज़ हो गयी।
“किसी ने कुछ कहा है तुझसे?” उसने अब उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
“तू मुझे उपले-वुपले लेने मत भेजा कर,” जिन्दां रोने के बीच उखड़ी-उखड़ी आवाज़ में बोली, “मैं आज से घर से बाहर नहीं जाऊँगी। मुआ जंगी आज मुझसे कहता था...” और गला रुँध जाने से वह आगे कुछ नहीं कह सकी।
“क्या कहता था जंगी तुझसे...बता...बाल...” वह जैसे एक बोझ के नीचे दबकर बोलीं, “ख़सम खानी, अब बोलती क्यों नहीं?”
“वह कहता था,” जिन्दां सिसकती रही, “चल जिन्दां, अन्दर चलकर शरबत पी ले। आज तू बहुत सोहणी लग रही है...।”
“मुआ कमज़ात!” वह सहसा उबल पड़ी, “मुए को अपनी माँ रंडी नहीं सोहणी लगती? मुए की नज़र में कीड़े पड़ें। निपूते, तेरे घर में लडक़ी होती, तो इससे बड़ी होती, तेरे दीदे फटें!...फिर तूने क्या कहा?”
“मैंने कहा चाचा, मुझे प्यास नहीं है,” जिन्दां कुछ सँभलने लगी।
“फिर?”
“कहने लगा प्यास नहीं है, तो भी एक घूँट पी लेना। चाचा का शरबत पिएगी तो याद करेगी।...और मेरी बाँह पकडक़र खींचने लगा।”
“हाय रे मौत-मरे, तेरा कुछ न रहे, तेरे घर में आग लगे। आने दे सुच्चासिंह को। मैं तेरी बोटी-बोटी न नुचवाऊँ तो कहना, जल-मरे! तू सोया सो ही जाए।...हाँ, फिर?”
“मैं बाँह छुड़ाने लगी, तो मुझे मिठाई का लालच देने लगा। मेरे हाथ से उपले वहीं गिर गये। मैंने उन्हें वैसे ही पड़े रहने दिया और बाँह छुड़ाकर भाग आयी।”
उसने ध्यान से जिन्दां को सिर से पैर तक देखा और फिर अपने साथ सटा लिया।
“और तो नहीं कुछ कहा उसने?”
“जब मैं थोड़ी दूर निकल आयी, तो पीछे से ही-ही करके बोला, ‘बेटी, तू बुरा तो नहीं मान गयी? अपने उपले तो उठाकर ले जा। मैं तो तेरे साथ हँसी कर रहा था। तू इतना भी नहीं समझती? चल, आ इधर, नहीं आती, तो मैं आज तेरे घर आकर तेरी बहन से शिकायत करूँगा कि जिन्दां बहुत गुस्ताख़ हो गयी है, कहा नहीं मानती।’...मगर मैंने उसे न जवाब दिया, न मुडक़र उसकी तरफ़ देखा। सीधी घर चली आयी।”
“अच्छा किया। मैं मुए की हड्डी-पसली एक कराकर छोड़ूँगी। तू आने दे सुच्चासिंह को। मैं अभी जाकर उससे बात करूँगी। इसे यह नहीं पता कि जिन्दां सुच्चा सिंह ड्राइवर की साली है, ज़रा सोच-समझकर हाथ लगाऊँ।” फिर कुछ सोचकर उसने पूछा, “वहाँ तुझे और किसी ने तो नहीं देखा?”
“नहीं। खेतों के इस तरफ़ आम के पेड़ के नीचे राधू चाचा बैठा था। उसने देखकर पूछा कि बेटी, इस वक़्त धूप में कहाँ से आ रही है, तो मैंने कहा कि बहन के पेट में दर्द था, हकीमजी से चूरन लाने गयी थी।”
“अच्छा किया। मुआ जंगी तो शोहदा है। उसके साथ अपना नाम जुड़ जाए, तो अपनी ही इज़्ज़त जाएगी। उस सिर-जले का क्या जाना है? लोगों को तो करने के लिए बात चाहिए।”
उसके बाद उपले लाकर खाना बनाने में उसे काफ़ी देर हो गयी। जिस वक़्त उसने कटोरे में आलू की तरकारी और आम का अचार रखकर उसे रोटियों के साथ खद्दर के टुकड़े में लपेटा, उसे पता था कि दो कब के बज चुके हैं और वह दोपहर की रोटी सुच्चासिंह को नहीं पहुँचा सकती। इसलिए वह रोटी रखकर इधर-उधर के काम करने लगी। मगर जब बिलकुल ख़ाली हो गयी, तो उससे यह नहीं हुआ कि बस के अन्दाज़े से घर से चले। मुश्किल से साढ़े तीन-चार ही बजे थे कि वह चलने के लिए तैयार हो गयी।
“बहन, तू कब तक आएगी?” जिन्दां ने पूछा।
“दिन ढलने से पहले ही आ जाऊँगी।”
“जल्दी आ जाना। मुझे अकेले डर लगेगा।”
“डरने की क्या बात है?” वह दिखावटी साहस के साथ बोली, “किसकी हिम्मत है जो तेरी तरफ़ आँख उठाकर भी देख सके? सुच्चासिंह को पता लगेगा, तो वह उसे कच्चा ही नहीं चबा जाएगा? वैसे मुझे ज़्यादा देर नहीं लगेगी। साँझ से पहले ही घर पहुँच जाऊँगी। तू ऐसा करना कि अन्दर से साँकल लगा लेना। समझी? कोई दरवाज़ा खटखटाए तो पहले नाम पूछ लेना।” फिर उसने ज़रा धीमे स्वर में कहा, “और अगर जंगी आ जाए, और मेरे लिए पूछे कि कहाँ गयी है, तो कहना कि सुच्चासिंह को बुलाने गयी है। समझी?...पर नहीं। तू उससे कुछ नहीं कहना। अन्दर से जवाब ही नहीं देना समझी?”
वह दहलीज़ के पास पहुँची तो जिन्दां ने पीछे से कहा, “बहन, मेरा दिल धडक़ रहा है।”
“तू पागल हुई है?” उसने उसे प्यार के साथ झिडक़ दिया, “साथ गाँव है, फिर डर किस बात का है? और तू आप भी मुटियार है, इस तरह घबराती क्यों है?”
मगर जिन्दां को दिलासा देकर भी उसकी अपनी तसल्ली नहीं हुई। सडक़ के किनारे पहुँचने के वक़्त से ही वह चाह रही थी कि किसी तरह बस जल्दी से आ जाए जिससे वह रोटी देकर झटपट जिन्दां के पास वापस पहुँच जाए।
“वीरा, दो बजे वाली बस को गये कितनी देर हुई है?” उसने भिखमंगे से पूछा जिसकी आँखें अब भी उसके हाथ की रोटी पर लगी थीं। धूप की चुभन अभी कम नहीं हुई थी, हालाँकि खोखे की छाया अब पहले से काफ़ी लम्बी हो गयी थी। कुत्ता प्याऊ के त$ख्ते के नीचे पानी को मुँह लगाकर अब आसपास चक्कर काट रहा था।
“पता नहीं भैणा,” भिखमंगे ने कहा, “कई बसें आती हैं। कई जाती हैं। यहाँ कौन घड़ी का हिसाब है!”
बालो चुप हो रही। एक बस अभी थोड़ी ही देर पहले नकोदर की तरफ़ गयी थी। उसे लग रहा था धूल के फैलाव के दोनों तरफ़ दो अलग-अलग दुनियाएँ हैं। बसें एक दुनिया से आती हैं और दूसरी दुनिया की तरफ़ चली जाती हैं। कैसी होंगी वे दुनियाएँ जहाँ बड़े-बड़े बाज़ार हैं, दुकानें हैं, और जहाँ एक ड्राइवर की आमदनी का तीन-चौथाई हिस्सा हर महीने ख़र्च हो जाता है? देवी अक्सर कहा करता था कि सुच्चासिंह ने नकोदर में एक रखैल रख रखी है। उसका कितना मन होता था कि वह एक बार उस औरत को देखे। उसने एक बार सुच्चासिंह से कहा भी था कि उसे वह नकोदर दिखा दे, पर सुच्चासिंह ने डाँटकर जवाब दिया था, “क्यों, तेरे पर निकल रहे हैं? घर में चैन नहीं पड़ता? सुच्चासिंह वह मरद नहीं है कि औरत की बाँह पकडक़र उसे सडक़ों पर घुमाता फिरे। घूमने का ऐसा ही शौक है, तो दूसरा ख़सम कर ले। मेरी तरफ़ से मुझे खुली छुट्*टी है।”
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उस दिन के बाद वह यह बात ज़बान पर भी नहीं लायी थी। सुच्चासिंह कैसा भी हो, उसके लिए सब कुछ वही था। वह उसे गालियाँ दे लेता था, मार-पीट लेता था, फिर भी उससे इतना प्यार तो करता था कि हर महीने तनख़ाह मिलने पर उसे बीस रुपये दे जाता था। लाख बुरी कहकर भी वह उसे अपनी घरवाली तो समझता था! ज़बान का कड़वा भले ही हो, पर सुच्चासिंह दिल का बुरा हरगिज़ नहीं था। वह उसके जिन्दां को घर में रख लेने पर अक्सर कुढ़ा करता था, मगर पिछले महीने खुद ही जिन्दां के लिए काँच की चूडिय़ाँ और अढ़ाई गज़ मलमल लाकर दे गया था।
एक बस धूल उड़ाती आकाश के उस छोर से इस तरफ़ को आ रही थी। बालो ने दूर से ही पहचान लिया कि वह सुच्चासिंह की बस नहीं है। फिर भी बस जब तक पास नहीं आ गयी, वह उत्सुक आँखों से उस तरफ़ देखती रही। बस प्याऊ के सामने आकर रुकी। एक आदमी प्याज़ और शलगम का गट्*ठर लिये बस से उतरा। फिर कंडक्टर ने ज़ोर से दरवाज़ा बन्द किया और बस आगे चल दी। जो आदमी बस से उतरा था, उसने प्याऊ के पास जाकर प्याऊ वाले को जगाया और चुल्लू से दो लोटे पानी पीकर मूँछें साफ़ करता हुआ अपने गट्*ठर के पास लौट आया।
“वीरा, नकोदर से अगली बस कितनी देर में आएगी?” बालो ने दो क़दम आगे जाकर उस आदमी से पूछ लिया।
“घंटे-घंटे के बाद बस चलती है, माई।” वह बोला, “तुझे कहाँ जाना है?”
“जाना नहीं है वीरा, बस का इन्तज़ार करना है। सुच्चासिंह ड्राइवर मेरा घरवाला है। उसे रोटी देनी है।”
“ओ सुच्चा स्यों!” और उस आदमी के होंठों पर ख़ास तरह की मुस्कराहट आ गयी।
“तू उसे जानता है?”
“उसे नकोदर में कौन नहीं जानता?”
बालो को उसका कहने का ढंग अच्छा नहीं लगा, इसलिए वह चुप हो रही। सुच्चासिंह के बारे में जो बातें वह खुद जानती थी, उन्हें दूसरों के मुँह से सुनना उसे पसन्द नहीं था। उसे समझ नहीं आता था कि दूसरों को क्या हक है कि वे उसके आदमी के बारे में इस तरह बात करें?
“सुच्चासिंह शायद अगली बस लेकर आएगा,” वह आदमी बोला।
“हाँ! इसके बाद अब उसी की बस आएगी।”
“बड़ा ज़ालिम है जो तुझसे इस तरह इन्तज़ार कराता है।”
“चल वीरा, अपने रास्ते चल!” बालो चिढक़र बोली, “वह क्यों इन्तज़ार कराएगा?” मुझे ही रोटी लाने में देर हो गयी थी जिससे बस निकल गयी। वह बेचारा सवेरे से भूखा बैठा होगा।”
“भूखा? कौन सुच्चा स्यों?” और वह व्यक्ति दाँत निकालकर हँस दिया। बालो ने मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया। “या साईं सच्चे!” कहकर उस आदमी ने अपना गट्*ठर सिर पर उठा लिया और खेतों की पगडंडी पर चल दिया। बालो की दाईं टाँग सो गयी थी। उसने भार दूसरी टाँग पर बदलते हुए एक लम्बी साँस ली और दूर तक के वीराने को देखने लगी।
न जाने कितनी देर बाद आकाश के उसी कोने से उसे दूसरी बस अपनी तरफ़ आती नज़र आयी। तब तक खड़े-खड़े उसके पैरों की एडिय़ाँ दुखने लगी थीं। बस को देखकर वह पोटली का कपड़ा ठीक करने लगी। उसे अफ़सोस हो रहा था कि वह रोटियाँ कुछ और देर से बनाकर क्यों नहीं लायी, जिससे वे रात तक कुछ और ताज़ा रहतीं। सुच्चासिंह को कड़ाह परसाद का इतना शौक है—उसे क्यों यह ध्यान नहीं आया कि आज थोड़ा कड़ाह परसाद ही बनाकर ले आये?...ख़ैर, कल गुर परब है, कल ज़रूर कड़ाह परसाद बनाकर लाएगी।...
पीछे गर्द की लम्बी लकीर छोड़ती हुई बस पास आती जा रही थी। बालो ने बीस गज़ दूर से ही सुच्चासिंह का चेहरा देखकर समझ लिया कि वह उससे बहुत नाराज़ है। उसे देखकर सुच्चासिंह की भवें तन गयी थीं और निचले होंठ का कोना दाँतों में चला गया था। बालो ने धडक़ते दिल से रोटी वाला हाथ ऊपर उठा दिया। मगर बस उसके पास न रुककर प्याऊ से ज़रा आगे जाकर रुकी।
दो-एक लोग वहाँ बस से उतरने वाले थे। कंडक्टर बस की छत पर जाकर एक आदमी की साइकिल नीचे उतारने लगा। बालो तेज़ी से चलकर ड्राइवर की सीट के बराबर पहुँच गयी।
“सुच्चा स्यां!” उसने हाथ ऊँचा उठाकर रोटी अन्दर पहुँचाने की चेष्टा करते हुए कहा, “रोटी ले ले।”
“हट जा,” सुच्चासिंह ने उसका हाथ झटककर पीछे हटा दिया।
“सुच्चा स्यां, एक मिनट नीचे उतरकर मेरी बात सुन ले। आज एक ख़ास वज़ह हो गयी थी, नहीं तो मैं...।”
“बक नहीं, हट जा यहाँ से,” कहकर सुच्चासिंह ने कंडक्टर से पूछा कि वहाँ का सारा सामन उतर गया है या नहीं।
“बस एक पेटी बाकी है, उतार रहा हूँ,” कंडक्टर ने छत से आवाज़ दी।
“सुच्चा स्यां, मैं दो घंटे से यहाँ खड़ी हूँ,” बालो ने मिन्नत के लहज़े में कहा, “तू नीचे उतरकर मेरी बात तो सुन ले।”
“उतर गयी पेटी?” सुच्चासिंह ने फिर कंडक्टर से पूछा।
“हाँ, चलो,” पीछे से कंडक्टर की आवाज़ आयी।
“सुच्चा स्यां! तू मुझ पर नाराज़ हो ले, पर रोटी तो रख ले। तू मंगलवार को घर आएगा तो मैं तुझे सारी बात बताऊँगी।” बालो ने हाथ और ऊँचा उठा दिया।
“मंगलवार को घर आएगा तेरा...,” और एक मोटी-सी गाली देकर सुच्चासिंह ने बस स्टार्ट कर दी।
दिन ढलने के साथ-साथ आकाश का रंग बदलने लगा था। बीच-बीच में कोई एकाध पक्षी उड़ता हुआ आकाश को पार कर जाता था। खेतों में कहीं-कहीं रंगीन पगडिय़ाँ दिखाई देने लगी थीं। बालो ने प्याऊ से पानी पिया और आँखों पर छींटे मारकर आँचल से मुँह पोंछ लिया। फिर प्याऊ से कुछ फासले पर जाकर खड़ी हो गयी। वह जानती थी, अब सुच्चासिंह की बस जालन्धर से आठ-नौ बजे तक वापस आएगी। क्या तब तक उसे इन्तज़ार करना चाहिए? सुच्चासिंह को इतना तो करना चाहिए था कि उतरकर उसकी बात सुन लेता। उधर घर में जिन्दां अकेली डर रही होगी। मुआ जंगी पीछे किसी बहाने से आ गया तो? सुच्चासिंह रोटी ले लेता, तो वह आधे घंटे में घर पहुँच जाती। अब रोटी तो वह बाहर कहीं न कहीं खा ही लेगा, मगर उसके गुस्से का क्या होगा? सुच्चासिंह का गुस्सा बेजा भी तो नहीं है। उसका मेहनती शरीर है और उसे कसकर भूख लगती है। वह थोड़ी और मिन्नत करती, तो वह ज़रूर मान जाता। पर अब?
प्याऊ वाला प्याऊ बन्द कर रहा था। भिखमंगा भी न जाने कब का उठकर चला गया था। हाँ, कुत्ता अब भी वहाँ आसपास घूम रहा था। धूप ढल रही थी और आकाश में उड़ते चिडिय़ों के झुंड सुनहरे लग रहे थे। बालो को सडक़ के पार तक फैली अपनी छाया बहुत अजीब लग रही थी। पास के किसी खेत में कोई गभरू जवान खुले गले से माहिया गा रहा था :
“बोलण दी थां कोई नां
जिहड़ा सानूँ ला दे दित्ता
उस रोग दा नां कोई नां।”
माहिया की वह लय बालो की रग-रग में बसी हुई थी। बचपन में गरमियों की शाम को वह और बच्चों के साथ मिलकर रहट के पानी की धार के नीचे नाच-नाचकर नहाया करती थी, तब भी माहिया की लय इसी तरह हवा में समाई रहती थी। साँझ के झुटपुटे के साथ उस लय का एक ख़ास ही सम्बन्ध था। फिर ज्यों-ज्यों वह बड़ी होती गयी, ज़िन्दगी के साथ उस लय का सम्बन्ध और गहरा होता गया। उसके गाँव का युवक लाली था जो बड़ी लोच के साथ माहिया गाया करता था। उसने कितनी बार उसे गाँव के बाहर पीपल के नीचे कान पर हाथ रखकर गाते सुना था। पुष्पा और पारो के साथ वह देर-देर तक उस पीपल के पास खड़ी रहती थी। फिर एक दिन आया जब उसकी माँ कहने लगी कि वह अब बड़ी हो गयी है, उसे इस तरह देर-देर तक पीपल के पास नहीं खड़ी रहना चाहिए। उन्हीं दिनों उसकी सगाई की भी चर्चा होने लगी। जिस दिन सुच्चासिंह के साथ उसकी सगाई हुई, उस दिन पारो आधी रात तक ढोलक पर गीत गाती रही थी। गाते-गाते पारो का गला रह गया था फिर भी वह ढोलक छोडऩे के बाद उसे बाँहों में लिये हुए गाती रही थी—
“बीबी, चन्नण दे ओहले ओहले किऊँ खड़ी,
नीं लाडो किऊँ खड़ी?
मैं तां खड़ी सां बाबल जी दे बार,
मैं कनिआ कँवार,
बाबल वर लोडि़ए।
नीं जाइए, किहो जिहा वह लीजिए?
जिऊँ तारिआँ विचों चन्द,
चन्दा विचों नन्द,
नन्दां विचों कान्ह-कन्हैया वर लीडि़ए...!”
वह नहीं जानती थी कि उसका वर कौन है, कैसा है, फिर भी उसका मन कहता था कि उसके वर की सूरत-शक्ल ठीक वैसी ही होगी जैसी कि गीत की कडिय़ाँ सुनकर सामने आती हैं। सुहागरात को जब सुच्चासिंह ने उसके चेहरे से घूँघट हटाया, तो उसे देखकर लगा कि वह सचमुच बिलकुल वैसा ही कान्ह-कन्हैया वर पा गयी है। सुच्चासिंह ने उसकी ठोड़ी ऊँची की, तो न जाने कितनी लहरें उसके सिर से उठकर पैरों के नाख़ूनों में जा समाईं। उसे लगा कि ज़िन्दगी न जाने ऐसी कितनी सिहरनों से भरी होगी जिन्हें वह रोज़-रोज़ महसूस करेगी और अपनी याद में सँजोकर रखती जाएगी।
“तू हीरे की कणी है, हीरे की कणी,” सुच्चासिंह ने उसे बाँहों में भरकर कहा था।
उसका मन हुआ था कि कहे, यह हीरे की कणी तेरे पैर की धूल के बराबर भी नहीं है, मगर वह शरमाकर चुप रह गयी थी।
“माई, अँधेरा हो रहा है, अब घर जा। यहाँ खड़ी क्या कर रही है?” प्याऊ वाले ने चलते हुए उसके पास रुककर कहा।
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Old 04-02-2011, 08:49 AM   #4
Sikandar_Khan
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“वीरा, यह बस आठ-नौ बजे तक जालन्धर से लौटकर आ जाएगी न?” बालो ने दयनीय भाव से उससे पूछ लिया।
“क्या पता कब तक आए? तू उतनी देर यहाँ खड़ी रहेगी?”
“वीरा, उसकी रोटी जो देनी है।”
“उसे रोटी लेनी होती, तो ले न लेता? उसका तो दिमाग़ ही आसमान पर चढ़ा रहता है।”
“वीरा, मर्द कभी नाराज़ हो ही जाता है। इसमें ऐसी क्या बात है?”
“अच्छा खड़ी रह, तेरी मर्ज़ी। बस नौ से पहले क्या आएगी!”
“चल, जब भी आए।”
प्याऊ वाले से बात करके वह निश्चय खुद-ब-खुद हो गया जो वह अब तक नहीं कर पायी थी—कि उसे बस के जालन्धर से लौटने तक वहाँ रुकी रहना है। जिन्दां थोड़ा डरेगी—इतना ही तो न? जंगी की अब दोबारा उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ सकती। आख़िर गाँव की पंचायत भी तो कोई चीज़ है। दूसरे की बहन-बेटी पर बुरी नज़र रखना मामूली बात है? सुच्चासिंह को पता चल जाए, तो वह उसे केशों से पकडक़र सारे गाँव में नहीं घसीट देगा? मगर सुच्चासिंह को यह बात न बताना ही शायद बेहतर होगा। क्या पता इतनी-सी बात से दोनों में सिर-फुटव्वल हो जाए? सुच्चासिंह पहले ही घर के झंझटों से घबराता है, उसे और झंझट में डालना ठीक नहीं। अच्छा हुआ जो उस वक़्त सुच्चासिंह ने बात नहीं सुनी। वह तो अभी कह रहा था कि मंगलवार को घर नहीं आएगा। अगर वह सचमुच न आया, तो? और अगर उसने गुस्से होकर घर आना बिलकुल छोड़ दिया, तो? नहीं, वह उसे कभी कोई परेशान करनेवाली बात नहीं बताएगी। सुच्चासिंह ख़ुश रहे, घर की परेशानियाँ वह ख़ुद सँभाल सकती है।
वह ज़रा-सा सिहर गयी। गाँव का लोटूसिंह अपनी बीबी को छोडक़र भाग गया था। उसके पीछे वह टुकड़े-टुकड़े को तरस गयी थी। अन्त में उसने कुएँ में छलाँग लगाकर आत्महत्या कर ली थी। पानी से फूलकर उसकी देह कितनी भयानक हो गयी थी?
उसे थकान महसूस हो रही थी, इसलिए वह जाकर प्याऊ के त$ख्ते पर बैठ गयी। अँधेरा होने के साथ-साथ खेतों की हलचल फिर शान्त होती जा रही थी। माहिया के गीत का स्थान अब झींगुरों के संगीत ने ले लिया था। एक बस जालन्धर की तरफ़ से और एक नकोदर की तरफ़ से आकर निकल गयी। सुच्चासिंह जालन्धर से आख़िरी बस लेकर आता था। उसने पिछली बस के ड्राइवर से पता कर लिया था कि अब जालन्धर से एक ही बस आनी रहती है। अब जिस बस की बत्तियाँ दिखाई देंगी, वह सुच्चासिंह की ही बस होगी। थकान के मारे उसकी आँखें मुँदी जा रही थीं। वह बार-बार कोशिश से आँखें खोलकर उन्हें दूर तक के अँधेरे और उन काली छायाओं पर केन्द्रित करती जो धीरे-धीरे गहरी होती जा रही थीं। ज़रा-सी भी आवाज़ होती, तो उसे लगता कि बस आ रही है और वह सतर्क हो जाती। मगर बत्तियों की रोशनी न दिखाई देने से एक ठंडी साँस भर फिर से निढाल हो रहती। दो-एक बार मुँदी हुई आँखों से जैसे बस की बत्तियाँ अपनी ओर आती देखकर वह चौंक गयी—मगर बस नहीं आ रही थी। फिर उसे लगने लगा कि वह घर में है और कोई ज़ोर-ज़ोर से घर के किवाड़ खटखटा रहा है। जिन्दां अन्दर सहमकर बैठी है। उसका चेहरा हल्दी की तरह पीला हो रहा है।...रहट के बैल लगातार घूम रहे हैं। उनकी घंटियों की ताल के साथ पीपल के नीचे बैठा एक युवक कान पर हाथ रखे माहिया गा रहा है।...ज़ोर की धूल उड़ रही है जो धरती और आकाश की हर चीज़ को ढके ले रही है। वह अपनी रोटीवाली पोटली को सँभालने की कोशिश कर रही है, मगर वह उसके हाथ से निकलती जा रही है।...प्याऊ पर सूखे मटके रखे हैं जिनमें एक बूँद भी पानी नहीं है। वह बार-बार लोटा मटके में डालती है, पर उसे ख़ाली पाकर निराश हो जाती है।...उसके पैरों में बिवाइयाँ फूट रही हैं। वह हाथ की उँगली से उन पर तेल लगा रही है, मगर लगाते-लगाते ही तेल सूखता जाता है।...जिन्दां अपने खुले बाल घुटनों पर डाले रो रही है। कह रही है, “तू मुझे छोडक़र क्यों गयी थी? क्यों गयी थी मुझे छोडक़र? हाय, मेरा परांदा कहाँ गया? मेरा परांदा किसने ले लिया?”
सहसा कन्धे पर हाथ के छूने से वह चौंक गयी।
“सुच्चा स्यां!” उसने जल्दी से आँखों को मल लिया।
“तू अब तक घर नहीं गयी?” सुच्चासिंह त$ख्ते पर उसके पास ही बैठ गया। बस ठीक प्याऊ के सामने खड़ी थी। उस वक़्त उसमें एक सवारी नहीं थी। कंडक्टर पीछे की सीट पर ऊँघ रहा था।
“मैंने सोचा रोटी देकर ही जाऊँगी। बैठे-बैठे झपकी आ गयी। तुझे आये बहुत देर तो नहीं हुई?”
“नहीं, अभी बस खड़ी की है। मैंने तुझे दूर से ही देख लिया था। तू इतनी पागल है कि तब से अब तक रोटी देने के लिए यहीं बैठी है?”
“क्या करती? तू जो कह गया था कि मैं घर नहीं आऊँगा!” और उसने पलकें झपककर अपने उमड़ते आँसुओं को सुखा देने की चेष्टा की।
“अच्छा ला, दे रोटी, और घर जा! जिन्दां वहाँ अकेली डर रही होगी।” सुच्चासिंह ने उसकी बाँह थपथपा दी और उठ खड़ा हुआ।
रोटीवाला कटोरा उससे लेकर सुच्चासिंह उसकी पीठ पर हाथ रखे हुए उसे बस के पास तक ले आया। फिर वह उचककर अपनी सीट पर बैठ गया। बस स्टार्ट करने लगा, तो वह जैसे डरते-डरते बोली, “सुच्चा स्यां, तू मंगल को घर आएगा न?”
“हाँ, आऊँगा। तुझे शहर से कुछ मँगवाना हो, तो बता दे।”
“नहीं, मुझे मँगवाना कुछ नहीं है।”
बस घरघराने लगी, तो वह दो क़दम पीछे हट गयी। सुच्चासिंह ने अपनी दाढ़ी-मूँछ पर हाथ फेरा, एक डकार लिया और उसकी तरफ़ देखकर पूछ लिया, “तू उस वक़्त क्या बात बताना चाहती थी?”
“नहीं, ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी। मंगल को घर आएगा ही...”
“अच्छा, अब जल्दी से चली जा, देर न कर। एक मील बाट है...!”
“...सुच्चा स्यां, कल गुर परब है। कल मैं तेरे लिए कड़ाह परसाद बनाकर लाऊँगी...।”
“अच्छा, अच्छा...”
बस चल दी। बालो पहियों की धूल में घिर गयी। धूल साफ़ होने पर उसने पल्ले से आँखें पोंछ लीं और तब तक बस के पीछे की लाल बत्ती को देखती रही जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी।
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Old 04-02-2011, 11:34 AM   #5
khalid
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वाह , क्या कहानी पोस्ट किया हैँ आपने सिकन्दर भाई
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दोस्ती करना तो ऐसे करना
जैसे इबादत करना
वर्ना बेकार हैँ रिश्तोँ का तिजारत करना
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Old 04-02-2011, 12:22 PM   #6
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वाह , क्या कहानी पोस्ट किया हैँ आपने सिकन्दर भाई
ये कहानी नहीं देखा जाये तो एक सच बया करती है बहुत खूब सिकंदर भाई मेरी तरफ से +
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Old 05-02-2011, 12:40 AM   #7
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सिकंदर साब का, समाज की रूढ़िवादिता पर कटाक्ष करता एक बहुत ही उपयुक्त, छोटी, मगर हकीकत बताती कहानियों से भरा सूत्र; वाकई लाजवाब है|
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Missing you guys!
फिर मिलेंगे|
मुझे तोड़ लेना वन-माली, उस पथ पर तुम देना फेंक|
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक||

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Old 05-02-2011, 12:53 AM   #8
Sikandar_Khan
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वाह , क्या कहानी पोस्ट किया हैँ आपने सिकन्दर भाई
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ये कहानी नहीं देखा जाये तो एक सच बया करती है बहुत खूब सिकंदर भाई मेरी तरफ से +
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सिकंदर साब का, समाज की रूढ़िवादिता पर कटाक्ष करता एक बहुत ही उपयुक्त, छोटी, मगर हकीकत बताती कहानियों से भरा सूत्र; वाकई लाजवाब है|
आप सभी का हार्दिक आभार
आगे भी कुछ ऐसी ही कहानियों से रूबरू करवाऊंगा .
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Old 05-02-2011, 12:59 AM   #9
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प्रेमचंद की कहानी - ईदगाह

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गॉंव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियॉँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पेदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लोटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ो के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयां खाऍंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी ऑंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर काधन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहनसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लाऍंगें— खिलौने, मिठाइयां, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या।
और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पॉँच साल का गरीब सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया,. तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियॉँ लेकर आऍंगे। अम्मीजान अल्लहा मियॉँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियॉँ और अम्मीजान नियमतें लेकर आऍंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहॉँ से उतने पैसे निकालेंगे।
अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अन्धकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने के क्या मतल? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितबन उसका विध्वसं कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है—तुम डरना नहीं अम्मॉँ, मै सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।
अमीना का दिल कचोट रहा है। गॉँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे केसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाऍंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहॉँ सेवैयॉँ कोन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहॉँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। मॉँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पेसे मिले थे। उस उठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं हे, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटुवें में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्ला ही बेड़ा पर लगाए। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आऍंगी। सभी को सेवेयॉँ चाहिए और थोड़ा किसी को ऑंखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराए? साल-भर का त्योंहार हैं। जिन्दगी खैरियत से रहें, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जाऍंगे।
गॉँव से मेला चला। ओर बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नींचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियॉँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता हे। माली अंदर से गाली देता हुआ निंलता है। लड़के वहाँ से एक फलॉँग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को केसा उल्लू बनाया है।
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे ओर क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हें, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहॉँ मुर्दो की खोपड़ियां दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हें, पर किसी कोअंदर नहीं जाने देते। और वहॉँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हें, मूँछो-दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मॉँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क जाऍं।
महमूद ने कहा—हमारी अम्मीजान का तो हाथ कॉँपने लगे, अल्ला कसम।
मोहसिन बोल—चलों, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो हाथ कॉँपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पॉँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो ऑंखों तक अँधेरी आ जाए।
महमूद—लेकिन दौड़तीं तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
मोहसिन—हॉँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मॉँ इतना तेज दौड़ी कि में उन्हें न पा सका, सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुई। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयॉँ कौन खाता? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थें कि आधी रात को एक आदमी हर दूकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।
हामिद को यकीन न आया—ऐसे रूपये जिन्नात को कहॉँ से मिल जाऍंगी?
मोहसिन ने कहा—जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहें चले जाऍं। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हें, पॉँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाऍं।
हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?
मोहसिन—एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए।
हामिद—लोग उन्हें केसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिनन को खुश कर लूँ।
मोहसिन—अब यह तो न जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देगें। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।
आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियॉँ हो जाऍं। मोहसिन ने प्रतिवाद किया—यह कानिसटिबिल पहरा देते हें? तभी तुम बहुत जानते हों अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हें, सब इनसे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जाते रहो!’ पुकारते हें। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हें। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हें। बरस रूपया महीना पाते हें, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हें। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहॉँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे—बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले—हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाऍं। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए।
हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला..अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिरन जाने कहॉँ से एक सौ कर्ज लाए तो बरतन-भॉँड़े आए।
हामिद—एक सौ तो पचार से ज्यादा होते है?
‘कहॉँ पचास, कहॉँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?
अब बस्ती घनी होने लगी। ईइगाह जाने वालो की टोलियॉँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तॉँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से आर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया हे। नाचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम ढिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियॉँ एक के पीछे एक न जाने कहॉँ वक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहॉँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं हे। यहॉँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हें। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती हे, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाऍं, और यही ग्रम चलता, रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाऍं, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं।
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Sikandar_Khan is offline   Reply With Quote
Old 05-02-2011, 01:12 AM   #10
Sikandar_Khan
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नमाज खत्म हो गई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला हें एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ो में लटके हुए हैं। एक पेसा देकर बैठ जाओं और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटो पर बैठते हें। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। अधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया, राज ओर वकी, भिश्ती और धोबिन और साधु। वह! कत्ते सुन्दर खिलोने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता हे, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता हे, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी अड़ेला ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम हे। कैसी विद्वत्ता हे उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पौथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौन वह केसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के!
मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा सॉँझ-सबेरे
महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।
नूरे—ओर मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।
सम्मी—ओर मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी।
हामिद खिलौनों की निंदा करता है—मिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो चकनाचूर हो जाऍं, लेकिन ललचाई हुई ऑंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हें, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हें, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचता रह जाता है।
खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियॉँ ली हें, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक् है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई ऑंखों से सबक ओर देखता है।
मोहसिन कहता है—हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!
हामिद को सदेंह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद हें मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे ओर सम्मी खूब तालियॉँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
मोहसिन—अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जा।
हामिद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है?
सम्मी—तीन ही पेसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगें?
महमूद—हमसे गुलाबजामुन ले जाओ हामिद। मोहमिन बदमाश है।
हामिद—मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयॉँ लिखी हैं।
मोहसिन—लेकिन दिन मे कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
महमूद—इस समझते हें, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाऍंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।
मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहॉँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पररूक जात हे। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तबे से रोटियॉँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी ऊगलियॉँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई ऑंख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाऍंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियॉँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग मॉँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मॉँ बेचारी को कहॉँ फुरसत हे कि बाजार आऍं और इतने पैसे ही कहॉँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।
हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कतने लालची हैं। इतनी मिठाइयॉँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करों। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाऍं मिठाइयॉँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियॉं निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुराऍंगे और मार खाऍंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हें। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्मॉँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी—मेरा बच्चा अम्मॉँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआऍं देगा? बड़ों का दुआऍं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाते। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आऍंगे। अम्मा भी ऑंएगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा हूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जात है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियॉँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हंसें! मेरी बला से! उसने दुकानदार से पूछा—यह चिमटा कितने का है?
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा—तुम्हारे काम का नहीं है जी!
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहॉँ क्यों लाद लाए हैं?’
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छ: पैसे लगेंगे।‘
हामिद का दिल बैठ गया।
‘ठीक-ठीक पॉँच पेसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा तीन पैसे लोगे?
यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियॉँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियॉँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानों बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाऍं करते हैं!
मोहसिन ने हँसकर कहा—यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?
हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटकर कहा—जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियॉँ चूर-चूर हो जाऍं बचा की।
महमूद बोला—तो यह चिमटा कोई खिलौना है?
हामिद—खिलौना क्यों नही है! अभी कन्धे पर रखा, बंदूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे काकाम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाऍं, मेरे चिमटे का बाल भी बॉंका नही कर सकतें मेरा बहादुर शेर है चिमटा।
सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला—मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।
हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खॅजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, ऑंधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हें, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुंचने की जल्दी हो रही हे। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रर्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हा गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहनि, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए मियॉँ भिश्ती के छक्के छूट जाऍं, जो मियॉँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुंह छिपाकर जमीन पर लेट जाऍं। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी ऑंखे निकाल लेगा।
मोहसिन ने एड़ी—चोटी का जारे लगाकर कहा—अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा—भिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई—अगर बचा पकड़ जाऍं तो अदालम में बॅधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेगे।
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा—हमें पकड़ने कौने आएगा?
नूरे ने अकड़कर कहा—यह सिपाही बंदूकवाला।
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा—यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेगें! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेगें क्या बेचारे!
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई—तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया—आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लैडियों की तरह घर में घुस जाऍंगे। आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।
महमूद ने एक जोर लगाया—वकील साहब कुरसी—मेज पर बैठेगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
इस तर्क ने सम्मी औरनूरे को भी सजी कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही हे पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धॉँधली शुरू की—मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेगें, तो जाकर उन्हे जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।
बात कुछ बनी नही। खाल गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालनेवाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज हे। उसको पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती हे। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द हे। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिल। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाऍंगी। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
संधि की शर्ते तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा—जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमार भिश्ती लेकर देखो।
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए।
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