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Old 12-02-2011, 07:09 AM   #21
ABHAY
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" इसे तो सब्जी खाने की आदत ही नहीं है। पता नहीं...... शायद मायके में सब्जी बनती ही न रही होगी इसी लिए सब्जी खाने की आदत ही नहीं है॥"

तब से रोज़ अनिच्छा से सही, बासी सब्जी खा रही है अलका....... ।

आधुनिकता का झूठा लबादा ओढे अलका की ससुराल में एलान हुआ था - ' हमारे यहाँ सब एक साथ खाना खाते हैं" अच्छा लगा था उसे। लेकिन जब खाना खाने बैठे तो बगल में बैठी अम्मा जी ने टोका-

" बडकी ज़रा पल्लू खींच लो। तुम्हारे बाल दिखाई दे रहे हैं। पल्लू माथे तक रहना चाहिए, बालों की झलक न मिले।"

मन बुझ गया था अलका का। पिता समान ससुर के सामने इतनी वर्जनाएं क्यों ? फिर अगर ऐसा ही है तो साथ में खाना खाने की ज़रूरत ही क्या है?
अलका के पति रवि सुदर्शन ; सुशिक्षित हैं लेकिन किसी बड़े नामचीन पद पर आसीन नहीं हैं। बस इसीलिए अलका भी घर में सम्मानित जगह नहीं पा सकती । छोटा देवर इंजीनियर है , साल में एक-दो बार आता है , अम्मा जी के लिए साड़ी और छिट-पुट सामान ले आता है चार दिन रहता है सो जी खोल कर खर्च करता है। इसीलिए बहुत अच्छा है। घर में उसकी इज्ज़त भी रवि से कई गुना ज़्यादा है।
इसी अभय की शादी हो रही है। बारात बस आती ही होगी। किन-किन ख्यालों ने घेर लिया था अलका को......... । सर झटक के उठ खड़ी हुई अलका।

" नानी बारात आ गई............"
"बुआ जल्दी चलो, नई दुल्हन आ गई है..........."
" अरे बडकी मामी, तुम भी चलो न!!......

तुम भी? मतलब चलो तो ठीक है नही चलो तो भी ठीक है ।
पर्दे पर तो कलाकार ही दिखते हैं ना,परदे के पीछे
उस दृश्य को तैयार करने में जुटने वाले लोग और उनकी मेहनत किसे दिखती है ? उनका तो कोई नाम भी नही जानता। ठीक यही हाल अलका का है। पूरी तैयारी उसी ने की है लेकिन कोई ये कहने वाला तक नही कि अलका ने बड़ी मेहनत की।
नई बहू का परछन हो रहा है,सास ने अपने गले की तीन तोले की चेन उतार कर बहू को पहना दी। एक -एक कर सारे रिश्तेदारों ने रस्म अदा की। बडकी के साथ भी ये ही सारी रस्में हुई थी लेकिन सास ने क्या दिया था? मुश्किल से चार ग्राम के कान के बुन्दे !!
खैर... अलका बहुत ज़्यादा नही सोचती इस बारे में । लेकिन सोचने की बात तो है न!!
" नई दुल्हन को बैठने तो दो........."
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Old 12-02-2011, 07:11 AM   #22
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" हटो भीड़ मत लगाओ रे............"

" थोड़ा आराम कर लेने दो, फिर बात करना....."
किसी किसी प्रकार बच्चा पार्टी नई दुल्हन के पास से हटी।

घर में सुबह सबसे पहले उठने की जिम्मेदारी बडकी की ही है। उठकर किचन में सबके लिये चाय चढाना।
फिर सारे रिश्तेदारो तक पहुंचवाना भी एक बड़ा काम था। आज भी बडकी आदत के अनुसार छ्ह बजे उठकर नीचे उतर आई थी, उसने देखा, नई बहू का कमरा अभी बंद था। राहत की एक लम्बी सांस ली उसने। पता नहीं क्यों उसे लग रहा था, कि यदि नई बहू उससे पहले उठ गई, तो उसे दिए जाने वाले तमाम,ताउम्र उदाहरणॊं में ये भी शामिल हो जायेगा। शादी के बाद उसे पहले ही दिन उठने में साढे छह बज गये थे, और तब से लेकर आज तक सैकडॊं बार उसे यह बात सुनाई जा चुकी है। उसकी नींद को लेकर फ़ब्तियां कसी जाती रहतीं हैं। बस इसलिये नई दुल्हन का दरवाजा बंद देख उसे ऐसा लगा,जैसे कोई बहुत बडा बोझ उसके सर से उतर गया हो।

टॆबल पर अम्मा जी और कुछ अन्य लोगों की चाय लगा दी थी बड्की ने। पौने सात बजे छोटी बहू किरन बाहर निकली। अपने नाइट गाउन के ऊपर ही दुपट्टा ओढ कर छोटी किचन में आई।

"हाय भाभी! गुड मोर्निंग। दो कप चाय मिलेगी क्या?"

बड्की ने तत्काल दो कप चाय ट्रे में रख दी। उसे लग रहा था, कि एक तो छोटी देर से उठी उस पर गाउन पहने ही बाहर चली आयी, और अब दो कप चाय लेकर वापस जा रही है। अम्मा जी से मिली भी नही, गाउन पहने है शायद इसलिये ........ ।

लेकिन ये क्या,सुना बड्की ने मगर कानों पर भरोसा नहीं हुआ। अम्मा जी भी कह रही थी छोटी से

" अरे छोटी इतनी जल्दी क्यों उठ गयी? जाओ थोडा और आराम कर लो। कोई काम तो करना नही है---। "

हैं!! ये क्या वही अम्मा जी हैं?? अचम्भित है बड्की.... ।

न उसके बैठने पर कुछ कहा न उसके कपड़ों पर..... ।

अगले दो दिन फ़िर भारी व्यस्तता से भरे थे। रिसेप्शन के बाद मेहमानों की विदाई और घर व्यवस्थित करने में ही पांच दिन निकल गये। आज कुछ राहत मिली तो बड्की अपने कमरे में लेट गई। सोचा लंच में तो अभी देर है, थोडा आराम ही कर लूं। तभी जोर से खिलखिलाने की आवाज ने उसे चौका दिया-उठ कर देखा तो छोटी मेज पर खाना लगा रही थी, और चह्कते हुए पापा यानी ससुर जी को बता रही थी कि उसने क्या-क्या बनाया है। और सास जी? वो भी भाव-विभोर हो कर उसकी बातें सुन रही थी।

समझ में ही नही आया बड्की को ;क्या हो रहा है। ये दो तरह का व्यवहार क्यों? उस पर इतनी पाबंदियां और छोटी पर??
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Old 12-02-2011, 07:12 AM   #23
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शाम को फ़िर छोटी सास जी से जिद कर रही थी, बच्चों की तरह-

"चलिए मम्मी जी.... आइसक्रीम खाने चलेंगे........... । "

अलका की आंखों में भय और अचरज का भाव देखकर तुरन्त अम्माजी बोलीं-" अरे छोटी है न...

इसलिये , अरे ओ अभय तू ही खिला ला आइसक्रीम। मैं तो न जा पाऊगीं"

रवि से कभी कहा उन्होनें, कि बड्की को आइसक्रीम खिला ला? उसे घूमना अच्छा नही लगता क्या?

और पूरे दस दिन बाद ही छोटी सूट पहनकर खडी थी, जिसे पहनने की हिम्मत अलका पांच सालों में भी नही कर पायी। और अम्मा भी
"हो गया छोटी है पहनने दो । बड़ों को शोभा नही देता सो तुम न पहनना बड्की। "

" बडो को? मैं कितनी बडी हूं, उससे केवल दो साल न?

छोटी ने तो रोज़ का रुटीन बना लिया था, घूमने का। सुबह भी कुछ बनाने का मन हुआ तो ठीक है नही तो नहीं। दोनों टाइम का खाना बड़्की के सिर पर..... ।

कहीं भी जाना है तो इठलाकर पूछ्ती थी जाऊं न मम्मा??

और अम्माजी गद गद हो जाती। तुरन्त कह्ती-

" हां हां जाओ न। खाना बड़की बना लेगी। "

पता नही अम्मा जी की जुबान पर किसने ताला डाल रखा था, अभय की नौकरी ने या दहेज में आये चार लाख रुपयों ने......... ।

लेकिन नही अब नहीं। अगर एक बहू के लिये अम्माजी इतनी दरियादिल और आधुनिक हो सकती हैं,तो उन्हें दूसरी के साथ भी यही रवैया अपनाना होगा। बस अब बहुत हुआ।

यदि रवि अपनी और अपनी पत्नी की स्थिती पर कुछ नही बोल सकते तो अब बड्की को ही आवाज उठानी होगी। अब कल से बड्की अपनी तरह से जियेगी। सबसे पहले उन संस्थानों में आवेदन करेगी जिन्हें उसकी ज़रूरत है।

कितना हल्का महसूस कर रही है बड्की...............

आज चैन की नींद सोयेगी अलका...... ।
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Old 13-02-2011, 10:35 AM   #24
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चौथी का जोडा - इस्मत चुग़ताई की कहानियाँ

सहदरी के चौके पर आज फिर साफ - सुथरी जाजम बिछी थी। टूटी - फूटी खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आडे - तिरछे कतले पूरे दालान में बिखरे हुए थे। मोहल्ले टोले की औरतें खामोश और सहमी हुई - सी बैठी हुई थीं; जैसे कोई बडी वारदात होने वाली हो। मांओं ने बच्चे छाती से लगा लिये थे। कभी - कभी कोई मुनहन्नी - सा चरचरम बच्चा रसद की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता। नांय - नायं मेरे लाल! दुबली - पतली मां से अपने घुटने पर लिटाकर यों हिलाती, जैसे धान - मिले चावल सूप में फटक रही हो और बच्चा हुंकारे भर कर खामोश हो जाता।

आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की मां के मुतफक्किर चेहरे को तक रही थीं। छोटे अर्ज की टूल के दो पाट तो जोड लिये गये, मगर अभी सफेद गजी क़ा निशान ब्योंतने की किसी की हिम्मत न पडती थी। कांट - छांट के मामले में कुबरा की मां का मरतबा बहुत ऊंचा था। उनके सूखे - सूखे हाथों ने न जाने कितने जहेज संवारे थे, कितने छठी - छूछक तैयार किये थे और कितने ही कफन ब्योंते थे। जहां कहीं मुहल्ले में कपडा कम पड ज़ाता और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठती, कुबरा की मां के पास केस लाया जाता। कुबरा की मां कपडे क़े कान निकालती, कलफ तोडतीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चौखूंटा करतीं और दिल ही दिल में कैंची चलाकर आंखों से नाप - तोलकर मुस्कुरा उठतीं।

आस्तीन और घेर तो निकल आयेगा, गिरेबान के लिये कतरन मेरी बकची से ले लो। और मुश्किल आसान हो जाती। कपडा तराशकर वो कतरनों की पिण्डी बना कर पकडा देतीं।

पर आज तो गजी क़ा टुकडा बहुत ही छोटा था और सबको यकीन था कि आज तो कुबरा की मां की नाप - तोल हार जायेगी। तभी तो सब दम साधे उनका मुंह ताक रही थीं। कुबरा की मां के पुर - इसतकक़ाल चेहरे पर फिक्र की कोई शक्ल न थी। चार गज गज़ी के टुकडे क़ो वो निगाहों से ब्योंत रही थीं। लाल टूल का अक्स उनके नीलगूं जर्द चेहरे पर शफक़ की तरह फूट रहा था। वो उदास - उदास गहरी झुर्रियां अंधेरी घटाओं की तरह एकदम उजागर हो गयीं, जैसे जंगल में आग भडक़ उठी हो! और उन्होंने मुस्कुराकर कैंची उठायी।

मुहल्लेवालों के जमघटे से एक लम्बी इत्मीनान की सांस उभरी। गोद के बच्चे भी ठसक दिये गये। चील - जैसी निगाहों वाली कुंवारियों ने लपाझप सुई के नाकों में डोरे पिरोए। नयी ब्याही दुल्हनों ने अंगुश्ताने पहन लिये। कुबरा की मां की कैंची चल पडी थी।

सहदरी के आखिरी कोने में पलंगडी पर हमीदा पैर लटकाये, हथेली पर ठोडी रखे दूर कुछ सोच रही थी।

दोपहर का खाना निपटाकर इसी तरह बी - अम्मां सहदरी की चौकी पर जा बैठती हैं और बकची खोलकर रंगबिरंगे कपडों का जाल बिखेर दिया करती है। कूंडी के पास बैठी बरतन मांजती हुई कुबरा कनखियों से उन लाल कपडों को देखती तो एक सुर्ख छिपकली - सी उसके जर्दी मायल मटियाले रंग में लपक उठती। रूपहली कटोरियों के जाल जब पोले - पोले हाथों से खोल कर अपने जानुओं पर फैलाती तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा एक अजीब अरमान भरी रौशनी से जगमगा उठता। गहरी सन्दूको - जैसी शिकनों पर कटोरियों का अक्स नन्हीं - नन्हीं मशालों की तरह जगमगाने लगता। हर टांके पर जरी का काम हिलता और मशालें कंपकंपा उठतीं।

याद नहीं कब इस शबनमी दुपट्टे के बने - टके तैयार हुए और गाजी क़े भारी कब्र - जैसे सन्दूक की तह में डूब गये। कटोरियों के जाल धुंधला गये। गंगा - जमनी किरने मान्द पड गयीं। तूली के लच्छे उदास हो गये। मगर कुबरा की बारात न आयी। जब एक जोडा पुराना हुआ जाता तो उसे चाले का जोडा कहकर सेंत दिया जाता और फिर एक नये जोडे क़े साथ नयी उम्मीदों का इफतताह ( शुरुआत) हो जाता। बडी छानबीन के बाद नयी दुल्हन छांटी जाती। सहदरी के चौके पर साफ - सुथरी जाजम बिछती। मुहल्ले की औरतें हाथ में पानदान और बगलों में बच्चे दबाये झांझे बजाती आन पहुंचतीं।

छोटे कपडे क़ी गोट तो उतर आयेगी, पर बच्चों का कपडा न निकलेगा। लो बुआ लो, और सुनो। क्या निगोडी भारी टूल की चूलें पडेंग़ी? और फिर सबके चेहरे फिक्रमन्द हो जाते। कुबरा की मां खामोश कीमियागर की तरह आंखों के फीते से तूलो - अर्ज नापतीं और बीवियां आपस में छोटे कपडे क़े मुताल्लिक खुसर - पुसर करके कहकहे लगातीं। ऐसे में कोई मनचली कोई सुहाग या बन्ना छेड देती, कोई और चार हाथ आगे वाली समधनों को गालियां सुनाने लगती, बेहूदा गन्दे मजाक और चुहलें शुरु हो जातीं। ऐसे मौके पर कुंवारी - बालियों को सहदरी से दूर सिर ढांक कर खपरैल में बैठने का हुक्म दे दिया जाता और जब कोई नया कहकहा सहदरी से उभरता तो बेचारियां एक ठण्डी सांस भर कर रह जातीं। अल्लाह! ये कहकहे उन्हें खुद कब नसीब होंगे। इस चहल - पहल से दूर कुबरा शर्म की मारी मच्छरों वाली कोठरी में सर झुकाये बैठी रहती है। इतने में कतर - ब्योंत निहायत नाजुक़ मरहले पर पहुंच जाती। कोई कली उलटी कट जाती और उसके साथ बीवियों की मत भी कट जाती। कुबरा सहम कर दरवाजे क़ी आड से झांकती।

यही तो मुश्किल थी, कोई जोडा अल्लाह - मारा चैन से न सिलने पाया। जो कली उल्टी कट जाय तो जान लो, नाइन की लगाई हुई बात में जरूर कोई अडंग़ा लगेगा। या तो दूल्हा की कोई दाश्त: ( रखैल) निकल आयेगी या उसकी मां ठोस कडों का अडंगा बांधेगी। जो गोट में कान आ जाय तो समझ लो महर पर बात टूटेगी या भरत के पायों के पलंग पर झगडा होगा। चौथी के जोडे क़ा शगुन बडा नाजुक़ होता है। बी - अम्मां की सारी मश्शाकी और सुघडापा धरा रह जाता। न जाने ऐन वक्त पर क्या हो जाता कि धनिया बराबर बात तूल पकड ज़ाती। बिसमिल्लाह के जोर से सुघड मां ने जहेज ज़ोडना शुरु किया था। जरा सी कतर भी बची तो तेलदानी या शीशी का गिलाफ सीकर धनुक - गोकरू से संवार कर रख देती। लडक़ी का क्या है, खीरे - ककडी सी बढती है। जो बारात आ गयी तो यही सलीका काम आयेगा।

और जब से अब्बा गुजरे, सलीके क़ा भी दम फूल गया। हमीदा को एकदम अपने अब्बा याद आ गये। अब्बा कितने दुबले - पतले, लम्बे जैसे मुहर्रम का अलम! एक बार झुक जाते तो सीधे खडे होना दुश्वार था। सुबह ही सुबह उठ कर नीम की मिस्वाक ( दातुन) तोड लेते और हमीदा को घुटनों पर बिठा कर जाने क्या सोचा करते। फिर सोचते - सोचते नीम की मिस्वाक का कोई फूंसडा हलक में चला जाता और वे खांसते ही चले जाते। हमीदा बिगड क़र उनकी गोद से उतर जाती। खांसी के धक्कों से यूं हिल - हिल जाना उसे कतई पसन्द नहीं था। उसके नन्हें - से गुस्से पर वे और हंसते और खांसी सीने में बेतरह उलझती, जैसे गरदन - कटे कबूतर फडफ़डा रहे हों। फिर बी - अम्मां आकर उन्हें सहारा देतीं। पीठ पर धपधप हाथ मारतीं।

तौबा है, ऐसी भी क्या हंसी। अच्छू के दबाव से सुर्ख आंखें ऊपर उठा कर अब्बा बेकसी से मुस्कराते। खांसी तो रुक जाती मगर देर तक हांफा करते। कुछ दवा - दारू क्यों नहीं करते? कितनी बार कहा तुमसे। बडे शफाखाने का डॉक्टर कहता है, सूइयां लगवाओ और रोज तीन पाव दूध और आधी छटांक मक्खन। ए खाक पडे ऌन डाक्टरों की सूरत पर! भल एक तो खांसी, ऊपर से चिकनाई! बलगम न पैदा कर देगी? हकीम को दिखाओ किसी। दिखाऊंगा। अब्बा हुक्का गुडग़ुडाते और फिर अच्छू लगता। आग लगे इस मुए हुक्के को! इसी ने तो ये खांसी लगायी है। जवान बेटी की तरफ भी देखते हो आंख उठा कर?

और अब अब्बा कुबरा की जवानी की तरफ रहम - तलब निगाहों से देखते। कुबरा जवान थी। कौन कहता था जवान थी? वो तो जैसे बिस्मिल्लाह ( विद्यारम्भ की रस्म) के दिन से ही अपनी जवानी की आमद की सुनावनी सुन कर ठिठक कर रह गयी थी। न जाने कैसी जवानी आयी थी कि न तो उसकी आंखों में किरनें नाचीं न उसके रुखसारों पर जुल्फ़ें परेशान हुईं, न उसके सीने पर तूफान उठे और न कभी उसने सावन - भादों की घटाओं से मचल - मचल कर प्रीतम या साजन मांगे। वो झुकी - झुकी, सहमी - सहमी जवानी जो न जाने कब दबे पांव उस पर रेंग आयी, वैसे ही चुपचाप न जाने किधर चल दी। मीठा बरस नमकीन हुआ और फिर कडवा हो गया।

अब्बा एक दिन चौखट पर औंधे मुंह गिरे और उन्हें उठाने के लिये किसी हकीम या डाक्टर का नुस्खा न आ सका।

और हमीदा ने मीठी रोटी के लिये जिद करनी छोड दी। और कुबरा के पैगाम न जाने किधर रास्ता भूल गये। जानो किसी को मालूम ही नहीं कि इस टाट के परदे के पीछे किसी की जवानी आखिरी सिसकियां ले रही है और एक नयी जवानी सांप के फन की तरह उठ रही है। मगर बी - अम्मां का दस्तूर न टूटा। वो इसी तरह रोज - रोज दोपहर को सहदरी में रंग - बिरंगे कपडे फ़ैला कर गुडियों का खेल खेला करती हैं।

कहीं न कहीं से जोड ज़मा करके शरबत के महीने में क्रेप का दुपट्टा साढे सात रुपए में खरीद ही डाला। बात ही ऐसी थी कि बगैर खरीदे गुज़ारा न था। मंझले मामू का तार आया कि उनका बडा लडक़ा राहत पुलिस की ट्रेनिंग के सिलसिले में आ रहा है। बी - अम्मां को तो बस जैसे एकदम घबराहट का दौरा पड ग़या। जानो चौखट पर बारात आन खडी हुई और उन्होंने अभी दुल्हन की मांग अफशां भी नहीं कतरी। हौल से तो उनके छक्के छूट गये। झट अपनी मुंहबोली बहन, बिन्दु की मां को बुला भेजा कि बहन, मेरा मरी का मुंह देखो जो इस घडी न आओ।

और फिर दोनों में खुसर - पुसर हुई। बीच में एक नजर दोनों कुबरा पर भी डाल लेतीं, जो दालान में बैठी चावल फटक रही थी। वो इस कानाफूसी की जबान को अच्छी तरह समझती थी।

उसी वक्त बी - अम्मां ने कानों से चार माशा की लौंगें उतार कर मुंहबोली बहन के हवाले कीं कि जैसे - तैसे करके शाम तक तोला भर गोकरू, छ: माशा सलमा - सितारा और पाव गज नेफे के लिये टूल ला दें। बाहर की तरफ वाला कमरा झाड - पौंछ कर तैयार किया गया। थोडा सा चूना मंगा कर कुबरा ने अपने हाथों से कमरा पोत डाला। कमरा तो चिट्टा हो गया, मगर उसकी हथेलियों की खाल उड ग़यी। और जब वो शाम को मसाला पीसने बैठी तो चक्कर खा कर दोहरी हो गयी। सारी रात करवटें बदलते गुजरी। एक तो हथेलियों की वजह से, दूसरे सुबह की गाडी से राहत आ रहे थे।

अल्लह! मेरे अल्लाह मियां, अबके तो मेरी आपा का नसीब खुल जाये। मेरे अल्लाह, मैं सौ रकात नफिल ( एक प्रकार की नमाज) तेरी दरगाह में पढूंग़ी। हमीदा ने फजिर की नमाज पढक़र दुआ मांगी।

सुबह जब राहत भाई आये तो कुबरा पहले से ही मच्छरोंवाली कोठरी में जा छुपी थी। जब सेवइयों और पराठों का नाश्ता करके बैठक में चले गये तो धीरे - धीरे नई दुल्हन की तरह पैर रखती हुई कुबरा कोठरी से निकली और जूठे बर्तन उठा लिये।

लाओ मैं धो दूं बी आपा। हमीदा ने शरारत से कहा। नहीं। वो शर्म से झुक गयीं। हमीदा छेडती रही, बी - अम्मां मुस्कुराती रहीं और क्रेप के दुपट्टे में लप्पा टांकती रहीं।

जिस रास्ते कान की लौंग गयी थी, उसी रास्ते फूल, पत्ता और चांदी की पाजेब भी चल दी थीं। और फिर हाथों की दो - दो चूडियां भी, जो मंझले मामू ने रंडापा उतारने पर दी थीं। रूखी - सूखी खुद खाकर आये दिन राहत के लिये परांठे तले जाते, कोफ्ते, भुना पुलाव महकते। खुद सूखा निवाला पानी से उतार कर वो होने वाले दामाद को गोश्त के लच्छे खिलातीं।

जमाना बडा खराब है बेटी! वो हमीदा को मुंह फुलाये देखकर कहा करतीं और वो सोचा करती - हम भूखे रह कर दामाद को खिला रहे हैं। बी - आपा सुबह - सवेरे उठकर मशीन की तरह जुट जाती हैं। निहार मुंह पानी का घूंट पीकर राहत के लिये परांठे तलती हैं। दूध औटाती हैं, ताकि मोटी सी बालाई पडे। उसका बस नहीं था कि वो अपनी चर्बी निकाल कर उन परांठों में भर दे। और क्यों न भरे, आखिर को वह एक दिन उसीका हो जायेगा। जो कुछ कमायेगा, उसीकी हथेली पर रख देगा। फल देने वाले पौधे को कौन नहीं सींचता?

फिर जब एक दिन फूल खिलेंगे और फूलों से लदी हुई डाली झुकेगी तो ये ताना देने वालियों के मुंह पर कैसा जूता पडेग़ा! और उस खयाल ही से बी - आपा के चेहरे पर सुहाग खेल उठता। कानों में शहनाइयां बजने लगतीं और वो राहत भाई के कमरे को पलकों से झाडतीं। उसके कपडों को प्यार से तह करतीं, जैसे वे उनसे कुछ कहते हों। वो उनके बदबूदार, चूहों जैसे सडे हुए मोजे धोतीं, बिसान्दी बनियान और नाक से लिपटे हुए रुमाल साफ करतीं। उसके तेल में चिपचिपाते हुए तकिये के गिलाफ पर स्वीट ड्रीम्स काढतीं। पर मामला चारों कोने चौकस नहीं बैठ रहा था। राहत सुबह अण्डे - परांठे डट कर जाता और शाम को आकर कोफ्ते खाकर सो जाता। और बी - अम्मां की मुंहबोली बहन हाकिमाना अन्दाज में खुसर - पुसर करतीं।
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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बडा शर्मीला है बेचारा! बी - अम्मां तौलिये पेश करतीं। हां ये तो ठीक है, पर भई कुछ तो पता चले रंग - ढंग से, कुछ आंखों से। अए नउज, ख़ुदा न करे मेरी लौंडिया आंखें लडाए, उसका आंचल भी नहीं देखा है किसी ने। बी - अम्मां फख्र से कहतीं। ए, तो परदा तुडवाने को कौन कहे है! बी - आपा के पके मुंहासों को देखकर उन्हें बी - अम्मां की दूरंदेशी की दाद देनी पडती। ऐ बहन, तुम तो सच में बहुत भोली हो। ये मैं कब कहूं हूं? ये छोटी निगोडी क़ौन सी बकरीद को काम आयेगी? वो मेरी तरफ देख कर हंसतीं अरी ओ नकचढी! बहनों से कोई बातचीत, कोई हंसी - मजाक! उंह अरे चल दिवानी! ऐ, तो मैं क्या करूं खाला? राहत मियां से बातचीत क्यों नहीं करती? भइया हमें तो शर्म आती है। ए है, वो तुझे फाड ही तो खायेगा न? बी अम्मां चिढा कर बोलतीं। नहीं तो मगर मैं लाजवाब हो गयी। और फिर मिसकौट हुई। बडी सोच - विचार के बाद खली के कबाब बनाये गये। आज बी - आपा भी कई बार मुस्कुरा पडीं। चुपके से बोलीं, देख हंसना नहीं, नहीं तो सारा खेल बिगड ज़ायेगा।नहीं हंसूंगी। मैं ने वादा किया।

खाना खा लीजिये। मैं ने चौकी पर खाने की सेनी रखते हुए कहा। फिर जो पाटी के नीचे रखे हुए लोटे से हाथ धोते वक्त मेरी तरफ सिर से पांव तक देखा तो मैं भागी वहां से। अल्लाह, तोबा! क्या खूनी आंखें हैं! जा निगोडी, मरी, अरी देख तो सही, वो कैसा मुंह बनाते हैं। ए है, सारा मजा किरकिरा हो जायेगा। आपा - बी ने एक बार मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में इल्तिजा थी, लुटी हुई बारातों का गुबार था और चौथी के पुराने जोडों की मन्द उदासी। मैं सिर झुकाए फिर खम्भे से लग कर खडी हो गयी।

राहत खामोश खाते रहे। मेरी तरफ न देखा। खली के कबाब खाते देख कर मुझे चाहिये था कि मजाक उडाऊं, कहकहे लगाऊं कि वाह जी वाह, दूल्हा भाई, खली के कबाब खा रहे हो! मगर जानो किसी ने मेरा नरखरा दबोच लिया हो।

बी - अम्मां ने मुझे जल्कर वापस बुला लिया और मुंह ही मुंह में मुझे कोसने लगीं। अब मैं उनसे क्या कहती, कि वो मजे से खा रहा है कमबख्त! राहत भाई! कोफ्ते पसन्द आये? बी - अम्मां के सिखाने पर मैं ने पूछा। जवाब नदारद। बताइये न? अरी ठीक से जाकर पूछ! बी - अम्मां ने टहोका दिया। आपने लाकर दिये और हमने खाये। मजेदार ही होंगे। अरे वाह रे जंगली! बी - अम्मां से न रहा गया। तुम्हें पता भी न चला, क्या मजे से खली के कबाब खा गये! खली के? अरे तो रोज क़ाहे के होते हैं? मैं तो आदी हो चला हूं खली और भूसा खाने का।

बी - अम्मां का मुंह उतर गया। बी - अम्मां की झुकी हुई पलकें ऊपर न उठ सकीं। दूसरे रोज बी - आपा ने रोजाना से दुगुनी सिलाई की और फिर जब शाम को मैं खाना लेकर गयी तो बोले - कहिये आज क्या लायी हैं? आज तो लकडी क़े बुरादे की बारी है। क्या हमारे यहां का खाना आपको पसन्द नहीं आता? मैं ने जलकर कहा।ये बात नहीं, कुछ अजीब - सा मालूम होता है। कभी खली के कबाब तो कभी भूसे की तरकारी। मेरे तन बदन में आग लग गयी। हम सूखी रोटी खाकर इसे हाथी की खुराक दें। घी टपकतप परांठे ठुसाएं। मेरी बी - आपा को जुशांदा नसीब नहीं और इसे दूध मलाई निगलवाएं। मैं भन्ना कर चली आयी।

बी - अम्मां की मुंहबोली बहन का नुस्खा काम आ गया और राहत ने दिन का ज्यादा हिस्सा घर ही में गुज़ारना शुरु कर दिया। बी - आपा तो चूल्हे में जुकी रहतीं, बी - अम्मां चौथी के जोडे सिया करतीं और राहत की गलीज आँखों के तीर मेरे दिल में चुभा करते। बात - बेबात छेडना, खाना खिलाते वक्त कभी पानी तो कभीनमक के बहाने। और साथ - साथ जुमलेबाजी! मैं खिसिया कर बी आपा के पास जा बैठती। जी चाहता, किसी दिन साफ कह दूं कि किसकी बकरी और कौन डाले दाना - घास! ऐ बी, मुझसे तुम्हारा ये बैल न नाथा जायेगा। मगर बी - आपा के उलझे हुए बालों पर चूल्हे की उडती हुई राख नहीं मेरा कलेजा धक् से हो गया। मैं ने उनके सफेद बाल लट के नीचे छुपा दिये। नास जाये इस कमबख्त नजले का, बेचारी के बाल पकने शुरु हो गये।

राहत ने फिर किसी बहाने मुझे पुकारा। उंह! मैं जल गयी। पर बी आपा ने कटी हुई मुर्गी की तरह जो पलट कर देखा तो मुझे जाना ही पडा। आप हमसे खफा हो गयीं?राहत ने पानी का कटोरा लेकर मेरी कलाई पकड ली। मेरा दम निकल गया और भागी तो हाथ झटककर। क्या कह रहे थे? बी - आपा ने शर्मो हया से घुटी आवाज में कहा। मैं चुपचाप उनका मुंह ताकने लगी। कह रहे थे, किसने पकाया है खाना? वाह - वाह, जी चाहता है खाता ही चला जाऊं। पकानेवाली के हाथ खा जाऊं। ओह नहीं खा नहीं जाऊं, बल्कि चूम लूं। मैं ने जल्दी - जल्दी कहना शुरु किया और बी - आपा का खुरदरा, हल्दी - धनिया की बसांद में सडा हुआ हाथ अपने हाथ से लगा लिया। मेरे आंसू निकल आये। ये हाथ! मैं ने सोचा, जो सुबह से शाम तक मसाला पीसते हैं, पानी भरते हैं, प्याज काटते हैं, बिस्तर बिछाते हैं, जूते साफ करते हैं! ये बेकस गुलाम की तरह सुबह से शाम तक जुटे ही रहते हैं। इनकी बेगार कब खत्म होगी? क्या इनका कोई खरीदार न आयेगा? क्या इन्हें कभी प्यार से न चूमेगा? क्या इनमें कभी मेंहदी न रचेगी? क्या इनमें कभी सुहाग का इतर न बसेगा? जी चाहा, जोर से चीख पडूं।

और क्या कह रहे थे? बी - आपा के हाथ तो इतने खुरदरे थे पर आवाज ऌतनी रसीली और मीठी थी कि राहत के अगर कान होते तो मगर राहत के न कान थे न नाक, बस दोजख़ ज़ैसा पेट था! और कह रहे थे, अपनी बी - आपा से कहना कि इतना काम न किया करें और जोशान्दा पिया करें। चल झूठी! अरे वाह, झूठे होंगे आपके वो अरे, चुप मुरदार! उन्होंने मेरा मुंह बन्द कर दिया। देख तो स्वेटर बुन गया है, उन्हें दे आ। पर देख, तुझे मेरी कसम, मेरा नाम न लीजो। नहीं बी - आपा! उन्हें न दो वो स्वेटर। तुम्हारी इन मुट्ठी भर हड्डियों को स्वेटर की कितनी जरूरत है? मैं ने कहना चाहा पर न कह सकी। आपा - बी, तुम खुद क्या पहनोगी? अरे, मुझे क्या जरूरत है, चूल्हे के पास तो वैसे ही झुलसन रहती है।

स्वेटर देख कर राहत ने अपनी एक आई - ब्रो शरारत से ऊपर तान कर कहा - क्या ये स्वेटर आपने बुना है? नहीं तो। तो भई हम नहीं पहनेंगे। मेरा जी चाहा कि उसका मुंह नोच लूं। कमीने मिट्टी के लोंदे! ये स्वेटर उन हाथों ने बुना है जो जीते - जागते गुलाम हैं। इसके एक - एक फन्दे में किसी नसीबों जली के अरमानों की गरदनें फंसी हुई हैं। ये उन हाथों का बुना हुआ है जो नन्हे पगोडे झुलाने के लिये बनाये गये हैं। उनको थाम लो गधे कहीं के और ये जो दो पतवार बडे से बडे तूफान के थपेडों से तुम्हारी जिन्दगी की नाव को बचाकर पार लगा देंगे। ये सितार की गत न बजा सकेंगे। मणिपुरी और भरतनाटयम की मुद्रा न दिखा सकेंगे, इन्हें प्यानो पर रक्स करना नहीं सिखाया गया, इन्हें फूलों से खेलना नहीं नसीब हुआ, मगर ये हाथ तुम्हारे जिस्म पर चरबी चढाने के लिये सुबह शाम सिलाई करते हैं, साबुन और सोडे में डुबकियां लगाते हैं, चूल्हे की आंच सहते हैं। तुम्हारी गलाजतें धोते हैं। इनमें चूडियां नहीं खनकती हैं। इन्हें कभी किसी ने प्यार से नहीं थामा।

मगर मैं चुप रही। बी - अम्मां कहती हैं, मेरा दिमाग तो मेरी नयी - नयी सहेलियों ने खराब कर दिया है। वो मुझे कैसी नयी - नयी बातें बताया करती हैं। कैसी डरावनी मौत की बातें, भूख की और काल की बातें। धडक़ते हुए दिल के एकदम चुप हो जाने की बातें।

ये स्वेटर तो आप ही पहन लीजिये। देखिये न आपका कुरता कितना बारीक है! जंगली बिल्ली की तरह मैं ने उसका मुंह, नाक, गिरेबान नोच डाले और अपनी पलंगडी पर जा गिरी। बी - आपा ने आखिरी रोटी डालकर जल्दी - जल्दी तसले में हाथ धोए और आंचल से पांछती मेरे पास आ बैठीं। वो बोले? उनसे न रहा गया तो धडक़ते हुए दिल से पूछा। बी - आपा, ये राहत भाई बडे ख़राब आदमी हैं। मैं ने सोचा मैं आज सब कुछ बता दूंगी। क्यों? वो मुस्कुरायी। मुझे अच्छे नहीं लगते देखिये मेरी सारी चूडियां चूर हो गयीं! मैं ने कांपते हुए कहा। बडे शरीर हैं! उन्होंने रोमान्टिक आवाज में सरमा कर कहा। बी - आपा सुनो बी - आपा! ये राहत अच्छे आदमी नहीं मैं ने सुलग कर कहा। आज मैं बी-अम्मां से कह दूंगी। क्या हुआ? बी-अम्मां ने जानमाज बिछाते हुए कहा। देखिये मेरी चूडियां बी - अम्मां! राहत ने तोड ड़ालीं?बी - अम्मां मसर्रत से चहक कर बोलीं। हां! खूब किया! तू उसे सताती भी तो बहुत है।ए है, तो दम काहे को निकल गया! बडी मोम की नमी हुई हो कि हाथ लगाया और पिघल गयीं! फिर चुमकार कर बोलीं, खैर, तू भी चौथी में बदला ले लीजियो, कसर निकाल लियो कि याद ही करें मियां जी! ये कह कर उन्होंने नियत बांध ली। मुंहबोली बहन से फिर कॉनफ्रेन्स हुयी और मामले को उम्मीद - अफ्ज़ा रास्ते पर गामजन देखकर अज़हद खुशनूदी से मुस्कुराया गया।

ऐ है, तू तो बडी ही ठस है। ऐ हम तो अपने बहनोइयों का खुदा की कसम नाक में दम कर दिया करते थे। और वो मुझे बहनोइयों से छेड छाड क़े हथकण्डे बताने लगीं कि किस तरह सिर्फ छेडछाड क़े तीरन्दाज नुस्खे से उन दो ममेरी बहनों की शादी करायी, जिनकी नाव पार लगने के सारे मौके हाथ से निकल चुके थे। एक तो उनमें से हकीम जी थे।जहां बेचारे को लडक़ियां - बालियां छेडतीं, शरमाने लगते और शरमाते - शरमाते एख्तेलाज क़े दौरे पडने लगते। और एक दिन मामू साहब से कह दिया कि मुझे गुलामी में ले लीजिये। दूसरे वायसराय के दफ्तर में क्लर्क थे। जहां सुना कि बाहर आये हैं, लडक़ियां छेडना शुरु कर देती थीं। कभी गिलौरियों में मिर्चें भरकर भेज दें, कभी सेवंईंयों में नमक डालकर खिला दिया।

ए लो, वो तो रोज आने लगे। आंधी आये, पानी आये, क्या मजाल जो वो न आयें। आखिर एक दिन कहलवा ही दिया। अपने एक जान - पहचान वाले से कहा कि उनके यहां शादी करा दो। पूछा कि भई किससे? तो कहा, किसी से भी करा दो। और खुदा झूठ न बुलवाये तो बडी बहन की सूरत थी कि देखो तो जैसे बैंचा चला आता है। छोटी तो बस सुब्हान अल्लाह! एक आंख पूरब तो दूसरी पच्छम। पन्द्रह तोले सोना दिया बाप ने और साहब के दफ्तर में नौकरी अलग दिलवायी। हां भई, जिसके पास पन्द्रह तोले सोना हो और बडे साहब के दफ्तर की नौकरी, उसे लडक़ा मिलते देर लगती है? बी - अम्मां ने ठण्डी सांस भरकर कहा। ये बात नहीं है बहन। आजकल लडक़ों का दिल बस थाली का बैंगन होता है। जिधर झुका दो, उधर ही लुढक़ जायेगा।
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मगर राहत तो बैंगन नहीं अच्छा - खासा पहाड है। झुकाव देने पर कहीं मैं ही न फंस जाऊं, मैं ने सोचा। फिर मैं ने आपा की तरफ देखा। वो खामोश दहलीज पर बैठी, आटा गूंथ रही थीं और सब कुछ सुनती जा रही थीं। उनका बस चलता तो जमीन की छाती फाडक़र अपने कुंवारेपन की लानत समेत इसमें समा जातीं।

क्या मेरी आपा मर्द की भूखी हैं? नहीं, भूख के अहसास से वो पहले ही सहम चुकी हैं। मर्द का तसव्वुर इनके मन में एक उमंग बन कर नहीं उभरा, बल्कि रोटी - कपडे क़ा सवाल बन कर उभरा है। वो एक बेवा की छाती का बोझ हैं। इस बोझ को ढकेलना ही होगा।

मगर इशारों - कनायों के बावज़ूद भी राहत मियां न तो खुद मुंह से फूटे और न उनके घर से पैगाम आया। थक हार कर बी - अम्मां ने पैरों के तोडे ग़िरवी रख कर पीर मुश्किलकुशा की नियाज दिला डाली। दोपहर भर मुहल्ले - टोले की लडक़ियां सहन में ऊधम मचाती रहीं। बी - आपा शरमाती लजाती मच्छरों वाली कोठरी में अपने खून की आखिरी बूंदें चुसाने को जा बैठीं। बी - अम्मां कमजाेरी में अपनी चौकी पर बैठी चौथी के जोडे में आखिरी टांके लगाती रहीं। आज उनके चेहरे पर मंजिलों के निशान थे। आज मुश्किलकुशाई होगी। बस आंखों की सुईयां रह गयी हैं, वो भी निकल जायेंगी। आज उनकी झुर्रियों में फिर मुश्किल थरथरा रही थी। बी - आपा की सहेलियां उनको छेड रही थीं और वो खून की बची - खुची बूंदों को ताव में ला रही थीं। आज कई रोज से उनका बुखार नहीं उतरा था। थके हारे दिये की तरह उनका चेहरा एक बार टिमटिमाता और फिर बुझ जाता। इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। अपना आंचल हटा कर नियाज क़े मलीदे की तश्तरी मुझे थमा दी। इस पर मौलवी साहब ने दम किया है। उनकी बुखार से दहकती हुई गरम - गरम सांसें मेरे कान में लगीं।

तश्तरी लेकर मैं सोचने लगी - मौलवी साहब ने दम किया है। ये मुकद्दस मलीदा अब राहत के पेट में झौंका जायेगा। वो तन्दूर जो छ: महीनों से हमारे खून के छींटों से गरम रखा गया; ये दम किया हुआ मलीदा मुराद बर लायेगा। मेरे कानों में शादियाने बजने लगे। मैं भागी - भागी कोठे से बारात देखने जा रही हूं। दूल्हे के मुंह पर लम्बा सा सेहरा पडा है, जो घोडे क़ी अयालों को चूम रहा है। चौथी का शहानी जोडा पहने, फूलों से लदी, शर्म से निढाल, आहिस्ता - आहिस्ता कदम तोलती हुई बी - आपा चली आ रही हैं चौथी का जरतार जोडा झिलमिल कर रहा है। बी - अम्मां का चेहरा फूल की तरह खिला हुआ है बी - आपा की हया से बोझिल निगाहें एक बार ऊपर उठती हैं। शुकराने का एक आंसू ढलक कर अफ्शां के जर्रों में कुमकुमे की तरह उलझ जाता है। ये सब तेरी मेहनत का फल है। बी - आपा कह रही हैं।

हमीदा का गला भर आया जाओ न मेरी बहनो! बी - आपा ने उसे जगा दिया और चौंक कर ओढनी के आंचल से आंसू पौंछती डयोढी क़ी तरफ बढी। ये मलीदा, उसने उछलते हुए दिल को काबू में रखते हुए कहा उसके पैर लरज रहे थे, जैसे वो सांप की बांबी में घुस आयी हो। फिर पहाड ख़िसकाऔर मुंह खोल दिया। वो एक कदम पीछे हट गयी। मगर दूर कहीं बारात की शहनाइयों ने चीख लगाई, जैसे कोई दिन का गला घोंट रहा हो। कांपते हाथों से मुकद्दस मलीदे का निवाला बना कर सने राहत के मुंह की तरफ बढा दिया।

एक झटके से उसका हाथ पहाड क़ी खोह में डूबता चला गया नीचे तअफ्फ़ुन और तारीकी से अथाह ग़ार की गहराइयों मेंएक बडी सी चट्टान ने उसकी चीख को घोंटा। नियाज मलीदे की रकाबी हाथ से छूटकर लालटेन के ऊपर गिरी और लालटेन ने जमीन पर गिर कर दो चार सिसकियां भरीं और गुल हो गयी। बाहर आंगन में मुहल्ले की बहू - बेटियां मुश्किलकुशा ( हजरत अली) की शान में गीत गा रही थीं।

सुबह की गाडी से राहत मेहमाननवाज़ी का शुक्रिया अदा करता हुआ चला गया। उसकी शादी की तारीख तय हो चुकी थी और उसे जल्दी थी।उसके बाद इस घर में कभी अण्डे तले न गये, परांठे न सिकें और स्वेटर न बुने। दिक ज़ो एक अरसे से बी - आपा की ताक में भागी पीछे - पीछे आ रही थी, एक ही जस्त में उन्हें दबोच बैठी। और उन्होंने अपना नामुराद वजूद चुपचाप उसकी आगोश में सौंप दिया।

और फिर उसी सहदरी में साफ - सुथरी जाजम बिछाई गई। मुहल्ले की बहू - बेटियां जुडीं। क़फन का सफेद - सफेद लट्ठा मौत के आंचल की तरह बी - अम्मां के सामने फैल गया। तहम्मुल के बोझ से उनका चेहरा लरज रहा था। बायीं आई - ब्रो फडक़ रही थी। गालों की सुनसान झुर्रियां भांय - भांय कर रही थीं, जैसे उनमें लाखों अजदहे फुंकार रहे हों।

लट्ठे के कान निकाल कर उन्होंने चौपरत किया और उनके फिल में अनगिनत कैंचियां चल गयीं। आज उनके चेहरे पर भयानक सुकून और हरा - भरा इत्मीनान था, जैसे उन्हें पक्का यकीन हो कि दूसरे जोडों की तरह चौथी का यह जोडा न सेंता जाये।

एकदम सहदरी में बैठी लडक़ियां बालियां मैनाओं की तरह चहकने लगीं। हमीदा मांजी को दूर झटक कर उनके साथ जा मिली। लाल टूल पर सफेद गज़ी का निशान! इसकी सुर्खी में न जाने कितनी मासूम दुल्हनों का सुहाग रचा है और सफेदी में कितनी नामुराद कुंवारियों के कफन की सफेदी डूब कर उभरी है। और फिर सब एकदम खामोश हो गये। बी - अम्मां ने आखिरी टांका भरके डोरा तोड लिया। दो मोटे - मोटे आंसू उनके रूई जैसे नरम गालों पर धीरे धीरे रैंगने लगे। उनके चेहरे की शिकनों में से रोशनी की किरनें फूट निकलीं और वो मुस्कुरा दीं, जैसे आज उन्हें इत्मीनान हो गया कि उनकी कुबरा का सुआ जोडा बनकर तैयार हो गया हो और कोए ए अदम में शहनाइयां बज उठेंगी।
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माँ - प्रेमचंद की कहानी

आज बन्दी छूटकर घर आ रहा है। करुणा ने एक दिन पहले ही घर लीप-पोत रखा था। इन तीन वर्षो में उसने कठिन तपस्या करके जो दस-पॉँच रूपये जमा कर रखे थे, वह सब पति के सत्कार और स्वागत की तैयारियों में खर्च कर दिए। पति के लिए धोतियों का नया जोड़ा लाई थी, नए कुरते बनवाए थे, बच्चे के लिए नए कोट और टोपी की आयोजना की थी। बार-बार बच्चे को गले लगाती ओर प्रसन्न होती। अगर इस बच्चे ने सूर्य की भॉँति उदय होकर उसके अंधेरे जीवन को प्रदीप्त न कर दिया होता, तो कदाचित् ठोकरों ने उसके जीवन का अन्त कर दिया होता। पति के कारावास-दण्ड के तीन ही महीने बाद इस बालक का जन्म हुआ। उसी का मुँह देख-देखकर करूणा ने यह तीन साल काट दिए थे। वह सोचती—जब मैं बालक को उनके सामने ले जाऊँगी, तो वह कितने प्रसन्न होंगे! उसे देखकर पहले तो चकित हो जाऍंगे, फिर गोद में उठा लेंगे और कहेंगे—करूणा, तुमने यह रत्न देकर मुझे निहाल कर दिया। कैद के सारे कष्ट बालक की तोतली बातों में भूल जाऍंगे, उनकी एक सरल, पवित्र, मोहक दृष्टि दृदय की सारी व्यवस्थाओं को धो डालेगी। इस कल्पना का आन्नद लेकर वह फूली न समाती थी।
वह सोच रही थी—आदित्य के साथ बहुत—से आदमी होंगे। जिस समय वह द्वार पर पहुँचेगे, जय—जयकार’ की ध्वनि से आकाश गूँज उठेगा। वह कितना स्वर्गीय दृश्य होगा! उन आदमियों के बैठने के लिए करूणा ने एक फटा-सा टाट बिछा दिया था, कुछ पान बना दिए थे ओर बार-बार आशामय नेत्रों से द्वार की ओर ताकती थी। पति की वह सुदृढ़ उदार तेजपूर्ण मुद्रा बार-बार ऑंखों में फिर जाती थी। उनकी वे बातें बार-बार याद आती थीं, जो चलते समय उनके मुख से निकलती थी, उनका वह धैर्य, वह आत्मबल, जो पुलिस के प्रहारों के सामने भी अटल रहा था, वह मुस्कराहट जो उस समय भी उनके अधरों पर खेल रही थी; वह आत्मभिमान, जो उस समय भी उनके मुख से टपक रहा था, क्या करूणा के हृदय से कभी विस्मृत हो सकता था! उसका स्मरण आते ही करुणा के निस्तेज मुख पर आत्मगौरव की लालिमा छा गई। यही वह अवलम्ब था, जिसने इन तीन वर्षो की घोर यातनाओं में भी उसके हृदय को आश्वासन दिया था। कितनी ही राते फाकों से गुजरीं, बहुधा घर में दीपक जलने की नौबत भी न आती थी, पर दीनता के आँसू कभी उसकी ऑंखों से न गिरे। आज उन सारी विपत्तियों का अन्त हो जाएगा। पति के प्रगाढ़ आलिंगन में वह सब कुछ हँसकर झेल लेगी। वह अनंत निधि पाकर फिर उसे कोई अभिलाषा न रहेगी।
गगन-पथ का चिरगामी लपका हुआ विश्राम की ओर चला जाता था, जहॉँ संध्या ने सुनहरा फर्श सजाया था और उज्जवल पुष्पों की सेज बिछा रखी थी। उसी समय करूणा को एक आदमी लाठी टेकता आता दिखाई दिया, मानो किसी जीर्ण मनुष्य की वेदना-ध्वनि हो। पग-पग पर रूककर खॉँसने लगता थी। उसका सिर झुका हुआ था, करणा उसका चेहरा न देख सकती थी, लेकिन चाल-ढाल से कोई बूढ़ा आदमी मालूम होता था; पर एक क्षण में जब वह समीप आ गया, तो करूणा पहचान गई। वह उसका प्यारा पति ही था, किन्तु शोक! उसकी सूरत कितनी बदल गई थी। वह जवानी, वह तेज, वह चपलता, वह सुगठन, सब प्रस्थान कर चुका था। केवल हड्डियों का एक ढॉँचा रह गया था। न कोई संगी, न साथी, न यार, न दोस्त। करूणा उसे पहचानते ही बाहर निकल आयी, पर आलिंगन की कामना हृदय में दबाकर रह गई। सारे मनसूबे धूल में मिल गए। सारा मनोल्लास ऑंसुओं के प्रवाह में बह गया, विलीन हो गया।
आदित्य ने घर में कदम रखते ही मुस्कराकर करूणा को देखा। पर उस मुस्कान में वेदना का एक संसार भरा हुआ थां करूणा ऐसी शिथिल हो गई, मानो हृदय का स्पंदन रूक गया हो। वह फटी हुई आँखों से स्वामी की ओर टकटकी बॉँधे खड़ी थी, मानो उसे अपनी ऑखों पर अब भी विश्वास न आता हो। स्वागत या दु:ख का एक शब्द भी उसके मुँह से न निकला। बालक भी गोद में बैठा हुआ सहमी ऑखें से इस कंकाल को देख रहा था और माता की गोद में चिपटा जाता था।
आखिर उसने कातर स्वर में कहा—यह तुम्हारी क्या दशा है? बिल्कुल पहचाने नहीं जाते!
आदित्य ने उसकी चिन्ता को शांत करने के लिए मुस्कराने की चेष्टा करके कहा—कुछ नहीं, जरा दुबला हो गया हूँ। तुम्हारे हाथों का भोजन पाकर फिर स्वस्थ हो जाऊँगा।
करूणा—छी! सूखकर काँटा हो गए। क्या वहॉँ भरपेट भोजन नहीं मिलात? तुम कहते थे, राजनैतिक आदमियों के साथ बड़ा अच्छा व्यवहार किया जाता है और वह तुम्हारे साथी क्या हो गए जो तुम्हें आठों पहर घेरे रहते थे और तुम्हारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहते थे?
आदित्य की त्योरियों पर बल पड़ गए। बोले—यह बड़ा ही कटु अनुभव है करूणा! मुझे न मालूम था कि मेरे कैद होते ही लोग मेरी ओर से यों ऑंखें फेर लेंगे, कोई बात भी न पूछेगा। राष्ट्र के नाम पर मिटनेवालों का यही पुरस्कार है, यह मुझे न मालूम था। जनता अपने सेवकों को बहुत जल्द भूल जाती है, यह तो में जानता था, लेकिन अपने सहयोगी ओर सहायक इतने बेवफा होते हैं, इसका मुझे यह पहला ही अनुभव हुआ। लेकिन मुझे किसी से शिकायत नहीं। सेवा स्वयं अपना पुरस्कार हैं। मेरी भूल थी कि मैं इसके लिए यश और नाम चाहता था।
करूणा—तो क्या वहाँ भोजन भी न मिलता था?
आदित्य—यह न पूछो करूणा, बड़ी करूण कथा है। बस, यही गनीमत समझो कि जीता लौट आया। तुम्हारे दर्शन बदे थे, नहीं कष्ट तो ऐसे-ऐसे उठाए कि अब तक मुझे प्रस्थान कर जाना चाहिए था। मैं जरा लेटँगा। खड़ा नहीं रहा जाता। दिन-भर में इतनी दूर आया हूँ।
करूणा—चलकर कुछ खा लो, तो आराम से लेटो। (बालक को गोद में उठाकर) बाबूजी हैं बेटा, तुम्हारे बाबूजी। इनकी गोद में जाओ, तुम्हे प्यार करेंगे।
आदित्य ने ऑंसू-भरी ऑंखों से बालक को देखा और उनका एक-एक रोम उनका तिरस्कार करने लगा। अपनी जीर्ण दशा पर उन्हें कभी इतना दु:ख न हुआ था। ईश्वर की असीम दया से यदि उनकी दशा संभल जाती, तो वह फिर कभी राष्ट्रीय आन्दोलन के समीप न जाते। इस फूल-से बच्चे को यों संसार में लाकर दरिद्रता की आग में झोंकने का उन्हें क्या अधिकरा था? वह अब लक्ष्मी की उपासना करेंगे और अपना क्षुद्र जीवन बच्चे के लालन-पालन के लिए अपिर्त कर देंगे। उन्हें इस समय ऐसा ज्ञात हुआ कि बालक उन्हें उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है, मानो कह रहा है—‘मेरे साथ आपने कौन-सा कर्त्तव्य-पालन किया?’ उनकी सारी कामना, सारा प्यार बालक को हृदय से लगा देने के लिए अधीर हो उठा, पर हाथ फैल न सके। हाथों में शक्ति ही न थी।
करूणा बालक को लिये हुए उठी और थाली में कुछ भोजन निकलकर लाई। आदित्य ने क्षुधापूर्ण, नेत्रों से थाली की ओर देखा, मानो आज बहुत दिनों के बाद कोई खाने की चीज सामने आई हैं। जानता था कि कई दिनों के उपवास के बाद और आरोग्य की इस गई-गुजरी दशा में उसे जबान को काबू में रखना चाहिए पर सब्र न कर सका, थाली पर टूट पड़ा और देखते-देखते थाली साफ कर दी। करूणा सशंक हो गई। उसने दोबारा किसी चीज के लिए न पूछा। थाली उठाकर चली गई, पर उसका दिल कह रहा था-इतना तो कभी न खाते थे।
करूणा बच्चे को कुछ खिला रही थी, कि एकाएक कानों में आवाज आई—करूणा!
करूणा ने आकर पूछा—क्या तुमने मुझे पुकारा है?
आदित्य का चेहरा पीला पड़ गया था और सॉंस जोर-जोर से चल रही थी। हाथों के सहारे वही टाट पर लेट गए थे। करूणा उनकी यह हालत देखकर घबर गई। बोली—जाकर किसी वैद्य को बुला लाऊँ?
आदित्य ने हाथ के इशारे से उसे मना करके कहा—व्यर्थ है करूणा! अब तुमसे छिपाना व्यर्थ है, मुझे तपेदिक हो गया हे। कई बार मरते-मरते बच गया हूँ। तुम लोगों के दर्शन बदे थे, इसलिए प्राण न निकलते थे। देखों प्रिये, रोओ मत।
करूणा ने सिसकियों को दबाते हुए कहा—मैं वैद्य को लेकर अभी आती हूँ।
आदित्य ने फिर सिर हिलाया—नहीं करूणा, केवल मेरे पास बैठी रहो। अब किसी से कोई आशा नहीं है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। मुझे तो यह आश्चर्य है कि यहॉँ पहुँच कैसे गया। न जाने कौन दैवी शक्ति मुझे वहॉँ से खींच लाई। कदाचित् यह इस बुझते हुए दीपक की अन्तिम झलक थी। आह! मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया। इसका मुझे हमेशा दु:ख रहेगा! मैं तुम्हें कोई आराम न दे सका। तुम्हारे लिए कुछ न कर सका। केवल सोहाग का दाग लगाकर और एक बालक के पालन का भार छोड़कर चला जा रहा हूं। आह!
करूणा ने हृदय को दृढ़ करके कहा—तुम्हें कहीं दर्द तो नहीं है? आग बना लाऊँ? कुछ बताते क्यों नहीं?
आदित्य ने करवट बदलकर कहा—कुछ करने की जरूरत नहीं प्रिये! कहीं दर्द नहीं। बस, ऐसा मालूम हो रहा हे कि दिल बैठा जाता है, जैसे पानी में डूबा जाता हूँ। जीवन की लीला समाप्त हो रही हे। दीपक को बुझते हुए देख रहा हूँ। कह नहीं सकता, कब आवाज बन्द हो जाए। जो कुछ कहना है, वह कह डालना चाहता हूँ, क्यों वह लालसा ले जाऊँ। मेरे एक प्रश्न का जवाब दोगी, पूछूँ?
करूणा के मन की सारी दुर्बलता, सारा शोक, सारी वेदना मानो लुप्त हो गई और उनकी जगह उस आत्मबल काउदय हुआ, जो मृत्यु पर हँसता है और विपत्ति के साँपों से खेलता है। रत्नजटित मखमली म्यान में जैसे तेज तलवार छिपी रहती है, जल के कोमल प्रवाह में जैसे असीम शक्ति छिपी रहती है, वैसे ही रमणी का कोमल हृदय साहस और धैर्य को अपनी गोद में छिपाए रहता है। क्रोध जैसे तलवार को बाहर खींच लेता है, विज्ञान जैसे जल-शक्ति का उदघाटन कर लेता है, वैसे ही प्रेम रमणी के साहस और धैर्य को प्रदीप्त कर देता है।
करूणा ने पति के सिर पर हाथ रखते हुए कहा—पूछते क्यों नहीं प्यारे!
आदित्य ने करूणा के हाथों के कोमल स्पर्श का अनुभव करते हुए कहा—तुम्हारे विचार में मेरा जीवन कैसा था? बधाई के योग्य? देखो, तुमने मुझसे कभी पर्दा नहीं रखा। इस समय भी स्पष्ट कहना। तुम्हारे विचार में मुझे अपने जीवन पर हँसना चाहिए या रोना चाहिऍं?
करूणा ने उल्लास के साथ कहा—यह प्रश्न क्यों करते हो प्रियतम? क्या मैंने तुम्हारी उपेक्षा कभी की हैं? तुम्हारा जीवन देवताओं का—सा जीवन था, नि:स्वार्थ, निर्लिप्त और आदर्श! विघ्न-बाधाओं से तंग आकर मैंने तुम्हें कितनी ही बार संसार की ओर खींचने की चेष्टा की है; पर उस समय भी मैं मन में जानती थी कि मैं तुम्हें ऊँचे आसन से गिरा रही हूं। अगर तुम माया-मोह में फँसे होते, तो कदाचित् मेरे मन को अधिक संतोष होता; लेकिन मेरी आत्मा को वह गर्व और उल्लास न होता, जो इस समय हो रहा है। मैं अगर किसी को बड़े-से-बड़ा आर्शीवाद दे सकती हूँ, तो वह यही होगा कि उसका जीवन तुम्हारे जैसा हो।
यह कहते-कहते करूणा का आभाहीन मुखमंडल जयोतिर्मय हो गया, मानो उसकी आत्मा दिव्य हो गई हो। आदित्य ने सगर्व नेत्रों से करूणा को देखकर कहा बस, अब मुझे संतोष हो गया, करूणा, इस बच्चे की ओर से मुझे कोई शंका नहीं है, मैं उसे इससे अधिक कुशल हाथों में नहीं छोड़ सकता। मुझे विश्वास है कि जीवन-भर यह ऊँचा और पवित्र आदर्श सदैव तुम्हारे सामने रहेगा। अब मैं मरने को तैयार हूँ।
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Old 15-02-2011, 10:57 AM   #28
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2....


सात वर्ष बीत गए।
बालक प्रकाश अब दस साल का रूपवान, बलिष्ठ, प्रसन्नमुख कुमार था, बल का तेज, साहसी और मनस्वी। भय तो उसे छू भी नहीं गया था। करूणा का संतप्त हृदय उसे देखकर शीतल हो जाता। संसार करूणा को अभागिनी और दीन समझे। वह कभी भाग्य का रोना नहीं रोती। उसने उन आभूषणों को बेच डाला, जो पति के जीवन में उसे प्राणों से प्रिय थे, और उस धन से कुछ गायें और भैंसे मोल ले लीं। वह कृषक की बेटी थी, और गो-पालन उसके लिए कोई नया व्यवसाय न था। इसी को उसने अपनी जीविका का साधन बनाया। विशुद्ध दूध कहॉँ मयस्सर होता है? सब दूध हाथों-हाथ बिक जाता। करूणा को पहर रात से पहर रात तक काम में लगा रहना पड़ता, पर वह प्रसन्न थी। उसके मुख पर निराशा या दीनता की छाया नहीं, संकल्प और साहस का तेज है। उसके एक-एक अंग से आत्मगौरव की ज्योति-सी निकल रही है; ऑंखों में एक दिव्य प्रकाश है, गंभीर, अथाह और असीम। सारी वेदनाऍं—वैधव्य का शोक और विधि का निर्मम प्रहार—सब उस प्रकाश की गहराई में विलीन हो गया है।
प्रकाश पर वह जान देती है। उसका आनंद, उसकी अभिलाषा, उसका संसार उसका स्वर्ग सब प्रकाश पर न्यौछावर है; पर यह मजाल नहीं कि प्रकाश कोई शरारत करे और करूणा ऑखें बंद कर ले। नहीं, वह उसके चरित्र की बड़ी कठोरता से देख-भाल करती है। वह प्रकाश की मॉँ नहीं, मॉँ-बाप दोनों हैं। उसके पुत्र-स्नेह में माता की ममता के साथ पिता की कठोरता भी मिली हुई है। पति के अन्तिम शब्द अभी तक उसके कानों में गूँज रहे हैं। वह आत्मोल्लास, जो उनके चेहरे पर झलकने लगा था, वह गर्वमय लाली, जो उनकी ऑंखो में छा गई थी, अभी तक उसकी ऑखों में फिर रही है। निरंतर पति-चिन्तन ने आदित्य को उसकी ऑंखों में प्रत्यक्ष कर दिया है। वह सदैव उनकी उपस्थिति का अनुभव किया करती है। उसे ऐसा जान पड़ता है कि आदित्य की आत्मा सदैव उसकी रक्षा करती रहती है। उसकी यही हार्दिक अभिलाषा है कि प्रकाश जवान होकर पिता का पथगामी हो।
संध्या हो गई थी। एक भिखारिन द्वार पर आकर भीख मॉँगने लगी। करूणा उस समय गउओं को पानी दे रही थी। प्रकाश बाहर खेल रहा था। बालक ही तो ठहरा! शरारत सूझी। घर में गया और कटोरे में थोड़ा-सा भूसा लेकर बाहर निकला। भिखारिन ने अबकी झेली फैला दी। प्रकाश ने भूसा उसकी झोली में डाल दिया और जोर-जोर से तालियॉँ बजाता हुआ भागा।
भिखारिन ने अग्निमय नेत्रों से देखकर कहा—वाह रे लाड़ले! मुझसे हँसी करने चला है! यही मॉँ-बाप ने सिखाया है! तब तो खूब कुल का नाम जगाओगे!
करूणा उसकी बोली सुनकर बाहर निकल आयी और पूछा—क्या है माता? किसे कह रही हो?
भिखारिन ने प्रकाश की तरफ इशारा करके कहा—वह तुम्हारा लड़का है न। देखो, कटोरे में भूसा भरकर मेरी झोली में डाल गया है। चुटकी-भर आटा था, वह भी मिट्टी में मिल गया। कोई इस तरह दुखियों को सताता है? सबके दिन एक-से नहीं रहते! आदमी को घंमड न करना चाहिए।
करूणा ने कठोर स्वर में पुकारा—प्रकाश?
प्रकाश लज्जित न हुआ। अभिमान से सिर उठाए हुए आया और बोला—वह हमारे घर भीख क्यों मॉँगने आयी है? कुछ काम क्यों नहीं करती?
करुणा ने उसे समझाने की चेष्टा करके कहा—शर्म नहीं आती, उल्टे और ऑंख दिखाते हो।
प्रकाश—शर्म क्यों आए? यह क्यों रोज भीख मॉँगने आती है? हमारे यहॉँ क्या कोई चीज मुफ्त आती है?
करूणा—तुम्हें कुछ न देना था तो सीधे से कह देते; जाओ। तुमने यह शरारत क्यों की?
प्रकाश—उनकी आदत कैसे छूटती?
करूणा ने बिगड़कर कहा—तुम अब पिटोंगे मेरे हाथों।
प्रकाश—पिटूँगा क्यों? आप जबरदस्ती पीटेंगी? दूसरे मुल्कों में अगर कोई भीख मॉँगे, तो कैद कर लिया जाए। यह नहीं कि उल्टे भिखमंगो को और शह दी जाए।
करूणा—जो अपंग है, वह कैसे काम करे?
प्रकाश—तो जाकर डूब मरे, जिन्दा क्यों रहती है?
करूणा निरूत्तर हो गई। बुढ़िया को तो उसने आटा-दाल देकर विदा किया, किन्तु प्रकाश का कुतर्क उसके हृदय में फोड़े के समान टीसता रहा। उसने यह धृष्टता, यह अविनय कहॉँ सीखी? रात को भी उसे बार-बार यही ख्याल सताता रहा।
आधी रात के समीप एकाएक प्रकाश की नींद टूटी। लालटेन जल रही है और करुणा बैठी रो रही है। उठ बैठा और बोला—अम्मॉँ, अभी तुम सोई नहीं?
करूणा ने मुँह फेरकर कहा—नींद नहीं आई। तुम कैसे जग गए? प्यास तो नही लगी है?
प्रकाश—नही अम्मॉँ, न जाने क्यों ऑंख खुल गई—मुझसे आज बड़ा अपराध हुआ, अम्मॉँ !
करूणा ने उसके मुख की ओर स्नेह के नेत्रों से देखा।
प्रकाश—मैंने आज बुढ़िया के साथ बड़ी नटखट की। मुझे क्षमा करो, फिर कभी ऐसी शरारत न करूँगा।
यह कहकर रोने लगा। करूणा ने स्नेहार्द्र होकर उसे गले लगा लिया और उसके कपोलों का चुम्बन करके बोली—बेटा, मुझे खुश करने के लिए यह कह रहे हो या तुम्हारे मन में सचमुच पछतावा हो रहा है?
प्रकाश ने सिसकते हुए कहा—नहीं, अम्मॉँ, मुझे दिल से अफसोस हो रहा है। अबकी वह बुढ़िया आएगी, तो में उसे बहुत-से पैसे दूँगा।
करूणा का हृदय मतवाला हो गया। ऐसा जान पड़ा, आदित्य सामने खड़े बच्चे को आर्शीवाद दे रहे हैं और कह रहे हैं, करूणा, क्षोभ मत कर, प्रकाश अपने पिता का नाम रोशन करेगा। तेरी संपूर्ण कामनाँ पूरी हो जाएँगी।
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3....

लेकिन प्रकाश के कर्म और वचन में मेल न था और दिनों के साथ उसके चरित्र का अंग प्रत्यक्ष होता जाता था। जहीन था ही, विश्वविद्यालय से उसे वजीफे मिलते थे, करूणा भी उसकी यथेष्ट सहायता करती थी, फिर भी उसका खर्च पूरा न पड़ता था। वह मितव्ययता और सरल जीवन पर विद्वत्ता से भरे हुए व्याख्यान दे सकता था, पर उसका रहन-सहन फैशन के अंधभक्तों से जौ-भर घटकर न था। प्रदर्शन की धुन उसे हमेशा सवार रहती थी। उसके मन और बुद्धि में निरंतर द्वन्द्व होता रहता था। मन जाति की ओर था, बुद्धि अपनी ओर। बुद्धि मन को दबाए रहती थी। उसके सामने मन की एक न चलती थी। जाति-सेवा ऊसर की खेती है, वहॉँ बड़े-से-बड़ा उपहार जो मिल सकता है, वह है गौरव और यश; पर वह भी स्थायी नहीं, इतना अस्थिर कि क्षण में जीवन-भर की कमाई पर पानी फिर सकता है। अतएव उसका अन्त:करण अनिवार्य वेग के साथ विलासमय जीवन की ओर झुकता था। यहां तक कि धीरे-धीरे उसे त्याग और निग्रह से घृणा होने लगी। वह दुरवस्था और दरिद्रता को हेय समझता था। उसके हृदय न था, भाव न थे, केवल मस्तिष्क था। मस्तिष्क में दर्द कहॉँ? वहॉँ तो तर्क हैं, मनसूबे हैं।
सिन्ध में बाढ़ आई। हजारों आदमी तबाह हो गए। विद्यालय ने वहॉँ एक सेवा समिति भेजी। प्रकाश के मन में द्वंद्व होने लगा—जाऊँ या न जाऊँ? इतने दिनों अगर वह परीक्षा की तैयारी करे, तो प्रथम श्रेणी में पास हो। चलते समय उसने बीमारी का बहाना कर दिया। करूणा ने लिखा, तुम सिन्ध न गये, इसका मुझे दुख है। तुम बीमार रहते हुए भी वहां जा सकते थे। समिति में चिकित्सक भी तो थे! प्रकाश ने पत्र का उत्तर न दिया।
उड़ीसा में अकाल पड़ा। प्रजा मक्खियों की तरह मरने लगी। कांग्रेस ने पीड़ितो के लिए एक मिशन तैयार किया। उन्हीं दिनों विद्यालयों ने इतिहास के छात्रों को ऐतिहासिक खोज के लिए लंका भेजने का निश्चय किया। करूणा ने प्रकाश को लिखा—तुम उड़ीसा जाओ। किन्तु प्रकाश लंका जाने को लालायित था। वह कई दिन इसी दुविधा में रहा। अंत को सीलोन ने उड़ीसा पर विजय पाई। करुणा ने अबकी उसे कुछ न लिखा। चुपचाप रोती रही।
सीलोन से लौटकर प्रकाश छुट्टियों में घर गया। करुणा उससे खिंची-खिंची रहीं। प्रकाश मन में लज्जित हुआ और संकल्प किया कि अबकी कोई अवसर आया, तो अम्मॉँ को अवश्य प्रसन्न करूँगा। यह निश्चय करके वह विद्यालय लौटा। लेकिन यहां आते ही फिर परीक्षा की फिक्र सवार हो गई। यहॉँ तक कि परीक्षा के दिन आ गए; मगर इम्तहान से फुरसत पाकर भी प्रकाश घर न गया। विद्यालय के एक अध्यापक काश्मीर सैर करने जा रहे थे। प्रकाश उन्हीं के साथ काश्मीर चल खड़ा हुआ। जब परीक्षा-फल निकला और प्रकाश प्रथम आया, तब उसे घर की याद आई! उसने तुरन्त करूणा को पत्र लिखा और अपने आने की सूचना दी। माता को प्रसन्न करने के लिए उसने दो-चार शब्द जाति-सेवा के विषय में भी लिखे—अब मै आपकी आज्ञा का पालन करने को तैयार हूँ। मैंने शिक्षा-सम्बन्धी कार्य करने का निश्चक किया हैं इसी विचार से मेंने वह विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है। हमारे नेता भी तो विद्यालयों के आचार्यो ही का सम्मान करते हें। अभी वक इन उपाधियों के मोह से वे मुक्त नहीं हुए हे। हमारे नेता भी योग्यता, सदुत्साह, लगन का उतना सम्मान नहीं करते, जितना उपाधियों का! अब मेरी इज्जत करेंगे और जिम्मेदारी को काम सौपेंगें, जो पहले मॉँगे भी न मिलता।
करूणा की आस फिर बँधी।
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विद्यालय खुलते ही प्रकाश के नाम रजिस्ट्रार का पत्र पहुँचा। उन्होंने प्रकाश का इंग्लैंड जाकर विद्याभ्यास करने के लिए सरकारी वजीफे की मंजूरी की सूचना दी थी। प्रकाश पत्र हाथ में लिये हर्ष के उन्माद में जाकर मॉँ से बोला—अम्मॉँ, मुझे इंग्लैंड जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा मिल गया।
करूणा ने उदासीन भाव से पूछा—तो तुम्हारा क्या इरादा है?
प्रकाश—मेरा इरादा? ऐसा अवसर पाकर भला कौन छोड़ता है!
करूणा—तुम तो स्वयंसेवकों में भरती होने जा रहे थे?
प्रकाश—तो आप समझती हैं, स्वयंसेवक बन जाना ही जाति-सेवा है? मैं इंग्लैंड से आकर भी तो सेवा-कार्य कर सकता हूँ और अम्मॉँ, सच पूछो, तो एक मजिस्ट्रेट अपने देश का जितना उपकार कर सकता है, उतना एक हजार स्वयंसेवक मिलकर भी नहीं कर सकते। मैं तो सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठूँगा और मुझे विश्वास है कि सफल हो जाऊँगा।
करूणा ने चकित होकर पूछा-तो क्या तुम मजिस्ट्रेट हो जाओगे?
प्रकाश—सेवा-भाव रखनेवाला एक मजिस्ट्रेट कांग्रेस के एक हजार सभापतियों से ज्यादा उपकार कर सकता है। अखबारों में उसकी लम्बी-लम्बी तारीफें न छपेंगी, उसकी वक्तृताओं पर तालियॉँ न बजेंगी, जनता उसके जुलूस की गाड़ी न खींचेगी और न विद्यालयों के छात्र उसको अभिनंदन-पत्र देंगे; पर सच्ची सेवा मजिस्ट्रेट ही कर सकता है।
करूणा ने आपत्ति के भाव से कहा—लेकिन यही मजिस्ट्रेट तो जाति के सेवकों को सजाऍं देते हें, उन पर गोलियॉँ चलाते हैं?
प्रकाश—अगर मजिस्ट्रेट के हृदय में परोपकार का भाव है, तो वह नरमी से वही काम करता है, जो दूसरे गोलियॉँ चलाकर भी नहीं कर सकते।
करूणा—मैं यह नहीं मानूँगी। सरकार अपने नौकरों को इतनी स्वाधीनता नहीं देती। वह एक नीति बना देती है और हरएक सरकारी नौकर को उसका पालन करना पड़ता है। सरकार की पहली नीति यह है कि वह दिन-दिन अधिक संगठित और दृढ़ हों। इसके लिए स्वाधीनता के भावों का दमन करना जरूरी है; अगर कोई मजिस्ट्रेट इस नीति के विरूद्ध काम करता है, तो वह मजिस्ट्रेट न रहेगा। वह हिन्दुस्तानी था, जिसने तुम्हारे बाबूजी को जरा-सी बात पर तीन साल की सजा दे दी। इसी सजा ने उनके प्राण लिये बेटा, मेरी इतनी बात मानो। सरकारी पदों पर न गिरो। मुझे यह मंजूर है कि तुम मोटा खाकर और मोटा पहनकर देश की कुछ सेवा करो, इसके बदले कि तुम हाकिम बन जाओ और शान से जीवन बिताओ। यह समझ लो कि जिस दिन तुम हाकिम की कुरसी पर बैठोगे, उस दिन से तुम्हारा दिमाग हाकिमों का-सा हो जाएगा। तुम यही चाहेगे कि अफसरों में तुम्हारी नेकनामी और तरक्की हो। एक गँवारू मिसाल लो। लड़की जब तक मैके में क्वॉँरी रहती है, वह अपने को उसी घर की समझती है, लेकिन जिस दिन ससुराल चली जाती है, वह अपने घर को दूसरो का घर समझने लगती है। मॉँ-बाप, भाई-बंद सब वही रहते हैं, लेकिन वह घर अपना नहीं रहता। यही दुनिया का दस्तूर है।
प्रकाश ने खीझकर कहा—तो क्या आप यही चाहती हैं कि मैं जिंदगी-भर चारों तरफ ठोकरें खाता फिरूँ?
करुणा कठोर नेत्रों से देखकर बोली—अगर ठोकर खाकर आत्मा स्वाधीन रह सकती है, तो मैं कहूँगी, ठोकर खाना अच्छा है।
प्रकाश ने निश्चयात्मक भाव से पूछा—तो आपकी यही इच्छा है?
करूणा ने उसी स्वर में उत्तर दिया—हॉँ, मेरी यही इच्छा है।
प्रकाश ने कुछ जवाब न दिया। उठकर बाहर चला गया और तुरन्त रजिस्ट्रार को इनकारी-पत्र लिख भेजा; मगर उसी क्षण से मानों उसके सिर पर विपत्ति ने आसन जमा लिया। विरक्त और विमन अपने कमरें में पड़ा रहता, न कहीं घूमने जाता, न किसी से मिलता। मुँह लटकाए भीतर आता और फिर बाहर चला जाता, यहॉँ तक महीना गुजर गया। न चेहरे पर वह लाली रही, न वह ओज; ऑंखें अनाथों के मुख की भाँति याचना से भरी हुई, ओठ हँसना भूल गए, मानों उन इनकारी-पत्र के साथ उसकी सारी सजीवता, और चपलता, सारी सरलता बिदा हो गई। करूणा उसके मनोभाव समझती थी और उसके शोक को भुलाने की चेष्टा करती थी, पर रूठे देवता प्रसन्न न होते थे।
आखिर एक दिन उसने प्रकाश से कहा—बेटा, अगर तुमने विलायत जाने की ठान ही ली है, तो चले जाओ। मना न करूँगी। मुझे खेद है कि मैंने तुम्हें रोका। अगर मैं जानती कि तुम्हें इतना आघात पहुँचेगा, तो कभी न रोकती। मैंने तो केवल इस विचार से रोका था कि तुम्हें जाति-सेवा में मग्न देखकर तुम्हारे बाबूजी की आत्मा प्रसन्न होगी। उन्होंने चलते समय यही वसीयत की थी।
प्रकाश ने रूखाई से जवाब दिया—अब क्या जाऊँगा! इनकारी-खत लिख चुका। मेरे लिए कोई अब तक बैठा थोड़े ही होगा। कोई दूसरा लड़का चुन लिया होगा और फिर करना ही क्या है? जब आपकी मर्जी है कि गॉँव-गॉँव की खाक छानता फिरूँ, तो वही सही।
करूणा का गर्व चूर-चूर हो गया। इस अनुमति से उसने बाधा का काम लेना चाहा था; पर सफल न हुई। बोली—अभी कोई न चुना गया होगा। लिख दो, मैं जाने को तैयार हूं।
प्रकाश ने झुंझलाकर कहा—अब कुछ नहीं हो सकता। लोग हँसी उड़ाऍंगे। मैंने तय कर लिया है कि जीवन को आपकी इच्छा के अनुकूल बनाऊँगा।
करूणा—तुमने अगर शुद्ध मन से यह इरादा किया होता, तो यों न रहते। तुम मुझसे सत्याग्रह कर रहे हो; अगर मन को दबाकर, मुझे अपनी राह का काँटा समझकर तुमने मेरी इच्छा पूरी भी की, तो क्या? मैं तो जब जानती कि तुम्हारे मन में आप-ही-आप सेवा का भाव उत्पन्न होता। तुम आप ही रजिस्ट्रार साहब को पत्र लिख दो।
प्रकाश—अब मैं नहीं लिख सकता।
‘तो इसी शोक में तने बैठे रहोगे?’
‘लाचारी है।‘
करूणा ने और कुछ न कहा। जरा देर में प्रकाश ने देखा कि वह कहीं जा रही है; मगर वह कुछ बोला नहीं। करूणा के लिए बाहर आना-जाना कोई असाधारण बात न थी; लेकिन जब संध्या हो गई और करुणा न आयी, तो प्रकाश को चिन्ता होने लगी। अम्मा कहॉँ गयीं? यह प्रश्न बार-बार उसके मन में उठने लगा।
प्रकाश सारी रात द्वार पर बैठा रहा। भॉँति-भॉँति की शंकाऍं मन में उठने लगीं। उसे अब याद आया, चलते समय करूणा कितनी उदास थी; उसकी आंखे कितनी लाल थी। यह बातें प्रकाश को उस समय क्यों न नजर आई? वह क्यों स्वार्थ में अंधा हो गया था?
हॉँ, अब प्रकाश को याद आया—माता ने साफ-सुथरे कपड़े पहने थे। उनके हाथ में छतरी भी थी। तो क्या वह कहीं बहुत दूर गयी हैं? किससे पूछे? अनिष्ट के भय से प्रकाश रोने लगा।
श्रावण की अँधेरी भयानक रात थी। आकाश में श्याम मेघमालाऍं, भीषण स्वप्न की भॉँति छाई हुई थीं। प्रकाश रह-रहकार आकाश की ओर देखता था, मानो करूणा उन्हीं मेघमालाओं में छिपी बैठी हे। उसने निश्चय किया, सवेरा होते ही मॉँ को खोजने चलूँगा और अगर....
किसी ने द्वार खटखटाया। प्रकाश ने दौड़कर खोल, तो देखा, करूणा खड़ी है। उसका मुख-मंडल इतना खोया हुआ, इतना करूण था, जैसे आज ही उसका सोहाग उठ गया है, जैसे संसार में अब उसके लिए कुछ नहीं रहा, जैसे वह नदी के किनारे खड़ी अपनी लदी हुई नाव को डूबते देख रही है और कुछ कर नहीं सकती।
प्रकाश ने अधीर होकर पूछा—अम्मॉँ कहॉँ चली गई थीं? बहुत देर लगाई?
करूणा ने भूमि की ओर ताकते हुए जवाब दिया—एक काम से गई थी। देर हो गई।
यह कहते हुए उसने प्रकाश के सामने एक बंद लिफाफा फेंक दिया। प्रकाश ने उत्सुक होकर लिफाफा उठा लिया। ऊपर ही विद्यालय की मुहर थी। तुरन्त ही लिफाफा खोलकर पढ़ा। हलकी-सी लालिमा चेहरे पर दौड़ गयी। पूछा—यह तुम्हें कहॉँ मिल गया अम्मा?
करूणा—तुम्हारे रजिस्ट्रार के पास से लाई हूँ।
‘क्या तुम वहॉँ चली गई थी?’
‘और क्या करती।‘
‘कल तो गाड़ी का समय न था?’
‘मोटर ले ली थी।‘
प्रकाश एक क्षण तक मौन खड़ा रहा, फिर कुंठित स्वर में बोला—जब तुम्हारी इच्छा नहीं है तो मुझे क्यों भेज रही हो?
करूणा ने विरक्त भाव से कहा—इसलिए कि तुम्हारी जाने की इच्छा है। तुम्हारा यह मलिन वेश नहीं देखा जाता। अपने जीवन के बीस वर्ष तुम्हारी हितकामना पर अर्पित कर दिए; अब तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा की हत्या नहीं कर सकती। तुम्हारी यात्रा सफल हो, यही हमारी हार्दिक अभिलाषा है।
करूणा का कंठ रूँध गया और कुछ न कह सकी।
__________________
Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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