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Old 26-08-2013, 09:52 PM   #11
Dr.Shree Vijay
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Default Re: गीली यादों के कुछ पल .....

बेहतरीन साहित्यिक रचना...........................
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*** Dr.Shri Vijay Ji ***

ऑनलाईन या ऑफलाइन हिंदी में लिखने के लिए क्लिक करे:

.........: सूत्र पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे :.........


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Old 26-08-2013, 10:35 PM   #12
rajnish manga
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Default Re: गीली यादों के कुछ पल .....

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Originally Posted by jai_bhardwaj View Post
मंजिल होना कैसी त्रासदी है...कि यहाँ से कहीं और राहें नहीं जाती जहाँ मैं तुम्हारे साथ चल सकूँ.

...गहरे अँधेरे समंदर के बीच कहीं नदियाँ ढूँढूं...पाऊं...गरम पानी की नदियाँ जैसे अन्तः करण का मूक विलाप.

कौन से सफ़र पर निकल जाऊं जिधर रास्ते न हों...

..... तुम्हारे साथ एक रिश्ते की कल्पना करूँ...एक बिंदु से फिर रास्ते बनाऊं...और तुम्हारे संग चल दूँ...किसी तीसरी दुनिया के किसी अनजाने सफ़र पर.
कुछ कल्पना, कुछ यथार्थ, कभी मंजिलों के होने का खौफ़, कभी रिश्तों और रास्तों को तलाश करने की जद्दोजहद व एक अनजाने सफ़र पर जाने की ख्वाहिश. ठहराव के बिना पात्रों की वर्णित मनःस्थिति कहीं कहीं पाठक को भी विचलित करती है.

मुझे शायर का निम्नलिखित कथन बहुत अपील करता है:

मुसाफिर अपनी मंजिल पर पहुँच कर चैन पाता है
वो मौजें सर पटकती हैं जिन्हें साहिल नहीं मिलता

काश, आलेख से बाहर निकल कर पात्र इस बारे में अपना विचार रख पाते.
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Old 27-08-2013, 05:30 PM   #13
jai_bhardwaj
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Default Re: गीली यादों के कुछ पल .....

Quote:
Originally Posted by dr.shree vijay View Post
बेहतरीन साहित्यिक रचना...........................

बहुत बहुत आभार बन्धु।

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Originally Posted by rajnish manga View Post
कुछ कल्पना, कुछ यथार्थ, कभी मंजिलों के होने का खौफ़, कभी रिश्तों और रास्तों को तलाश करने की जद्दोजहद व एक अनजाने सफ़र पर जाने की ख्वाहिश. ठहराव के बिना पात्रों की वर्णित मनःस्थिति कहीं कहीं पाठक को भी विचलित करती है.

मुझे शायर का निम्नलिखित कथन बहुत अपील करता है:

मुसाफिर अपनी मंजिल पर पहुँच कर चैन पाता है
वो मौजें सर पटकती हैं जिन्हें साहिल नहीं मिलता

काश, आलेख से बाहर निकल कर पात्र इस बारे में अपना विचार रख पाते.


आप ने सच ही कहा है किन्तु स्मृतियाँ ठहरती कहाँ है? वे तो चंचल बनी रहती हैं .. एक पल को यहाँ तो अगले ही पल कहीं और ... तब भला पात्र स्थिरचित्त कैसे हो सकता है ? यही तो चंचल मन की शास्वत सत्यता को प्रतिपादित करता है।

और हाँ बन्धु .......

किसी शायर के उत्कृष्ट शे'र के लिए मैं हृदय से आभारी हूँ। धन्यवाद।
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Old 04-09-2013, 06:28 PM   #14
jai_bhardwaj
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Default Re: गीली यादों के कुछ पल .....

लड़की ने अपना फेक फेसबुक अकाउंट खोला। सर्चबार में आर लिखा और दूसरे विकल्प को सेलेक्ट किया। ‘इसके सिर्फ टैग की हुई तस्वीरें और अपडेट्स दिखते हैं और लंबे अरसे से इसने किसी को टैग नहीं किया है’
फिलहाल वह स्क्राॅल डाऊन करके ‘शो ओल्डर स्टोरीज़’ में जाकर उसके पुराने स्टेटस देख रही है।

अंर्तजाल पर यूं तो अरबों शब्द छींटे हुए हैं। जिनमें से हज़ार शब्द उसके भी हैं।

पुराने स्टेट्स पर भी सरसरी निगाह डालते हुए उसमें जहां कहीं उसका अपना नाम दिखता - आह! कितना सुखद अतीत!! मुझे ज़हन में रखकर लिखी गई महबूब की ये पंक्तियां। नियान लाईट की रोशनी लिए उन आंखों में क्षण भर के लिए एक सौ अस्सी वाॅट की चमक आ जाती है।

और ये स्टेट्स उस शाम की है जब थोड़ी देर को सोकर उठी ही थी। सर में तेज़ दर्द था और दिल कर रहा था कि इस सूने घर में किसी को आवाज़ देकर कहूं - दीदी अदरक वाली चाय बना दो। कि तभी फोन की घंटी बजी। दिल ने जैसे धड़कना शुरू कर दिया। तकिए को हटाया तो लगा जैसे वो तकिए के नीचे ही आवाज़ लगा रहा था। फोन का रिंग भी जैसे मेरा ही नाम पुकार रही हो। स्क्रीन पर उसका नाम चमक रहा था। एन काॅलिंग..... के बाद तीन डाॅट्स जैसे बिना फोन उठाए ही जैसे इस बेचैनी को बयां कर रहे थे। काश इंतज़ार के उन बेचैन लम्हों की फोटोकाॅपी रख रखा जा सकता!

उन दिनों कितना घुमा फिरा कर ये स्टेट्स लिखा करता था! उसी शाम उसने पूछा था - क्या पहनी हो? मैंने हंस कर कहा था - गाऊन।
- उतार कर मुझे पहना दो।
- अच्छा ?
- हां, और उसके नीचे?
- चप्पल। वो भी पहना दूं।

दो जोड़े कान और होठों के दरम्यान दीर्घ हंसी देर तक गूंजती रही थी।

खुले में जैसे पुराना किला हो। इन बारिशों में पत्थरों ने हरे गाऊन डाल लिए हैं। इन्हें छूता हूं तो ये मेरा स्पर्श महसूस करती हैं। प्रेम में अमूर्त चीज़ें भी मूर्त हो जाती हैं। यादें जाफना के जंगल जैसी हैं और यहां से तुम्हें उल्टे उंगलियों से छू रहा था। तुम सांस लेने लगी हो।

इस शाम लड़की के सर का दर्द फिर तारी है। अदरकी चाय देने वाली दीदी तो आज भी नहीं है और न जिलाने वाले स्टेट्स ही।
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Old 04-09-2013, 06:28 PM   #15
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Default Re: गीली यादों के कुछ पल .....

सफ़ेदी मानो कालिमा से ढंकती जा रही है. हर ओर शुभ्रता पर हौले-हौले कालिख फैलायी जा रही है... किसी गहरी साज़िश के तहत. कहीं बडी गहरी, बेहद भीतरी तहों से शुरु हुआ था ये सब... पहले-पहल मन मैला हुआ था.

अगर अभी याद्दाश्त पर काला पर्दा नहीं पडा है तो शायद रंगीन इन्द्रधनुषी रंगों के, बारिशों की नमी के दिन थे जब प्यार का लबादा पहने किसी ने दस्तक दी और मेरे भीतर पसरना शुरु किया. मैंने तो बस उसे एक कमरा भर दिया था मगर उसने हर चीज़ पर कब्ज़ा कर लिया, मेरे भीतर से सबको एक-एक कर के कब बाहर कर दिया, पता भी नहीं चला. होश तो तब आया जब मुझे भी एक रोज़ मेरे अंदर से बाहर फेंक दिया. मेरी देह, मेरे आत्म पर एकक्षत्र राज्य हो गया उसका.

उसकी छाया मेरे उगाये त्याग, संस्कार के नन्हे पौधों पर पडी और वो मुरझा गये. प्यार और अपनेपन वाली भी सारी पौधें सड गईं. पहले पीली पडीं फिर मिट्टी बनी और कई सदियों जाने कितना कुछ भुगतने के बाद काले पत्थरों में तब्दील हो गईं. लपलपाती ज़ुबान से आग बरसी और कोयलों ने दहकना शुरू किया. एक कोने से दूसरे कोने तक सबके भीतर बचे र्ंगों के आखिरी हिस्सों ने अपने अपने हिस्से की आखिरी सांसें लीं. लाल, पीली, नीली, नारंगी लौ उठीं और उसके बाद.. राख़, सिर्फ राख़.

जाने कौन कह मरा था कि बंजर ज़मीनों में कुछ नहीं उगता. अगर उसने राख़ में बेरूखी की धूल, बेपरवाही की खाद मिला कर देखा होता तो उसे मालूम होता कि उसने बेवफाई की फसल के लिये दुनिया की सबसे उपजाऊ मिट्टी तैयार की है. रात के अंधेरों में सर्र्-सर्र की डरावनी आवाज़ें होतीं और सुबह ग्लानि के आंसुओं का छिडकाव करते हुये मालूम होता कि फसल खूब बढ रही है... वासना के खर-पतवार भी दिखने लगे थे कहीं-कहीं कि ज़रूरी नहीं कि जो बोया जाये वही काटा भी जाये हर बार. बल्कि बिना बोये जो उग आता है उसे ही काटना ज़्याद मुश्किल होता है.

ख़ैर... अब तो इस सब को भी उजडे हुये अर्सा हो गया. अपनी बर्बादी की याद तब आयी जब भीतर की कालिमा देह की झीनी चादर से झलकने लगी. ओह! मन की कालिख तन पर भी चढने लगी है अब शायद.
--
मेरी जिन खूबियों के चलते मैं भा गई थी तुमको,
वो सब तो अब गुज़रे हुये कल की बातें हैं
और उस पर तुम्हारा कहना कि;
"कुछ भी नहीं बदला"
मेरा दिल रखने की ये कोशिश बडी नाकाम लगती है...

मेरी जिस पावन गरिमा पर खुद गर्व था मुझको,
वो सब इतिहास के पन्नों में जडी मुर्दा रातें हैं
और उस पर तुम्हारा कहना कि;
"गंगाजल नहीं सडता"
ये बात मेरे ही अंतस में हंसता कोई इल्ज़ाम लगती है...
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Old 04-09-2013, 06:30 PM   #16
jai_bhardwaj
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तुम अब भी याद आते हो. ना... उतना तो नहीं कि जितना आया करते थे मगर फिर भी एक दम गायब नहीं हुये हो अब तक. हालांकि अब तुम्हारी याद में वो धार नहीं रही कि सोच पर फेरते ही ख़याल कट कर रह जाये, बस किसी नरम पंख जैसी छुअन भर बाकी है.

अभी भी किसी-किसी रात तुम्हारी याद का कोई टुकडा सिर उठाता है जैसे हारमोनियम के किसी सुर पर से तार फिसल के हट गया हो लेकिन अब जीवन का राग बेसुरा नहीं होने देती मैं. कोई सुन पाये उससे पहले ही सब कुछ वापस उसकी जगह पर करीने से लगा देती हूं. टूटा-फूटा यादों का वो कोलाज अपनी बातों के सजावटी गुलदान के पीछे छिपा देती हूं.

जानते हो आज भी किसी के उंगली के पोरों में मेरा जिस्म तुम्हारी छुअन टटोलता है. आंखों को मींच के खुद को यक़ीन दिलाने की कोशिश करता है कि हां, ये तुम ही हो लेकिन रूह छिलती-सी चली जाती है. सुबह मैं वहां तुम्हारी नज़रअंदाज़ी का मरहम लगा देती हूं. कोशिश करती हूं कि ज़ख़्म भर जाये लेकिन खुद घाव को ही ग़र मरहम से ज़्यादा दर्द प्यारा हो तो भला आराम कहां मुमकिन है!

मैं जानती हूं कि तुम अपनी सम्पूर्ण पूर्णता के साथ कहीं और हो फिर क्यूं हमेशा तुम्हारे ख़यालों की चिंदी-चिंदी कर बिखेर दी कतरनें मुझे अपने आस-पास उडती दिखाई देती हैं?

इस सवाल के जवाब में मैं खुद से एक बेहद खूबसूरत झूठ कह देना चाहती हूं कि; "मैं भी तुम्हारे भीतर कहीं ज़िन्दा हूं अब तक... दिल में ना सही, दिमाग के किसी अंधेरे, सीलन भरे ज़रा से टुकडे में तुमने मेरी याद को मर जाने के लिये अकेला छोड दिया है."

अगर इतनी बेरूखी से भी तुम कभी-कभी मुझे याद करो तो मुझे चैन मिल जायेगा... मेरी सांसें थोडी कम मुश्किल हो जायेंगी... मेरी धडकन कुछ कम भारी... मेरा जीन ज़रा कम तकलीफदेह.

मैं कोशिश करती हूं कि कम से कम य कि ना ही लिखूं लेकिन अक्सर मेरा स्वार्थ मेरे अहम पर भारी पड जाता है. कभी- कभी ही सही मैं हर संभव तरीके से तुम्हें जता देना चाहती हूं कि मेरा तुम पर नेह शायद उतना उथला नहीं जितना तुमने या खुद मैंने समझा था.

मैं जानती हूं कि तुम ये सब पढ रहे हो मगर ज़रा संभल कर... बडी मुश्किल से सुलाई मेरी इन ख्वाहिशों को पढ या देख भले लो मगर इन्हें छूने की ग़लती ना कर बैठना क्यों कि तुम्हारे छूने भर से ये जान कर ज़िन्दा हो जायेंगी और फिर हम दोनों को चाहे या अनचाहे ताउम्र आंखों में एक-दूसरे का अक्स लिये फिरना होगा.

ख़ैर...
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Old 04-09-2013, 06:30 PM   #17
jai_bhardwaj
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तुम अब भी याद आते हो. ना... उतना तो नहीं कि जितना आया करते थे मगर फिर भी एक दम गायब नहीं हुये हो अब तक. हालांकि अब तुम्हारी याद में वो धार नहीं रही कि सोच पर फेरते ही ख़याल कट कर रह जाये, बस किसी नरम पंख जैसी छुअन भर बाकी है.

अभी भी किसी-किसी रात तुम्हारी याद का कोई टुकडा सिर उठाता है जैसे हारमोनियम के किसी सुर पर से तार फिसल के हट गया हो लेकिन अब जीवन का राग बेसुरा नहीं होने देती मैं. कोई सुन पाये उससे पहले ही सब कुछ वापस उसकी जगह पर करीने से लगा देती हूं. टूटा-फूटा यादों का वो कोलाज अपनी बातों के सजावटी गुलदान के पीछे छिपा देती हूं.

जानते हो आज भी किसी के उंगली के पोरों में मेरा जिस्म तुम्हारी छुअन टटोलता है. आंखों को मींच के खुद को यक़ीन दिलाने की कोशिश करता है कि हां, ये तुम ही हो लेकिन रूह छिलती-सी चली जाती है. सुबह मैं वहां तुम्हारी नज़रअंदाज़ी का मरहम लगा देती हूं. कोशिश करती हूं कि ज़ख़्म भर जाये लेकिन खुद घाव को ही ग़र मरहम से ज़्यादा दर्द प्यारा हो तो भला आराम कहां मुमकिन है!

मैं जानती हूं कि तुम अपनी सम्पूर्ण पूर्णता के साथ कहीं और हो फिर क्यूं हमेशा तुम्हारे ख़यालों की चिंदी-चिंदी कर बिखेर दी कतरनें मुझे अपने आस-पास उडती दिखाई देती हैं?

इस सवाल के जवाब में मैं खुद से एक बेहद खूबसूरत झूठ कह देना चाहती हूं कि; "मैं भी तुम्हारे भीतर कहीं ज़िन्दा हूं अब तक... दिल में ना सही, दिमाग के किसी अंधेरे, सीलन भरे ज़रा से टुकडे में तुमने मेरी याद को मर जाने के लिये अकेला छोड दिया है."

अगर इतनी बेरूखी से भी तुम कभी-कभी मुझे याद करो तो मुझे चैन मिल जायेगा... मेरी सांसें थोडी कम मुश्किल हो जायेंगी... मेरी धडकन कुछ कम भारी... मेरा जीन ज़रा कम तकलीफदेह.

मैं कोशिश करती हूं कि कम से कम य कि ना ही लिखूं लेकिन अक्सर मेरा स्वार्थ मेरे अहम पर भारी पड जाता है. कभी- कभी ही सही मैं हर संभव तरीके से तुम्हें जता देना चाहती हूं कि मेरा तुम पर नेह शायद उतना उथला नहीं जितना तुमने या खुद मैंने समझा था.

मैं जानती हूं कि तुम ये सब पढ रहे हो मगर ज़रा संभल कर... बडी मुश्किल से सुलाई मेरी इन ख्वाहिशों को पढ या देख भले लो मगर इन्हें छूने की ग़लती ना कर बैठना क्यों कि तुम्हारे छूने भर से ये जान कर ज़िन्दा हो जायेंगी और फिर हम दोनों को चाहे या अनचाहे ताउम्र आंखों में एक-दूसरे का अक्स लिये फिरना होगा.

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Old 06-09-2013, 09:37 AM   #18
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बहुत खूब,भाई वाह.
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Old 07-09-2013, 05:50 PM   #19
jai_bhardwaj
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आईने से मुझे नफरत है कि उसमें असली शक्ल नज़र नहीं आती... मैंने जब कभी अपना चेहरा आईने में देखा, मुझे ऐसा लगा कि मेरे चेहरे पर किसी ने कलई कर दी है... लानत भेजो ऐसी वाहियात चीज़ पर... जब आईने नहीं थे, लोग ज्यादा खूबसूरत थे... अब आईने मौजूद हैं, मगर लोग खूबसूरत नहीं रहे...
-----सआदत हसन मंटो

*****


[जुहू चौपाटी पर का एक कमरा जिसमें चीजें बेतरतीबी से इधर उधर फैली हैं .. हरेक चीज़ इस्तेमाल की हुई लग रही है, बिस्तर पर सुजीत और श्यामा अलग अलग लेटे छत में कोई एक जगह तलाश रहे हैं जहाँ दोनों की निगाह टिक जाए और कहना ना पड़े की "मैं वहीँ रह गया हूँ " ]

सुजीत : उलझी से लटों में कई कहानियों के छल्ले हैं..... मैं एक सिगरेट हूँ और तुम्हारी साँसें मुझे सुलगाती रहती हो. मैं ख़त्म हो रहा हूँ आहिस्ता-आहिस्ता... तुम धुंआ बनकर कोहरे में समा जाती हो... किसी रहस्य की तरह...

श्यामा : तो तुम अपनी सासें कोहरे से खींचते हो ?

सुजीत : हाँ ! तुम ऐसा कह सकती हो, तुम्हारे पूरे वजूद में ही गिरहें हैं...

[श्यामा पलट कर सुजीत के ऊपर चढ़ आती है ]

श्यामा : तो ज़रा सुलझा दो ना !
सुजीत : मेरे बदन का तापमान बढ़ गया है.
श्यामा : (हलके से हँसते हुए) इतने बरस बाद भी ?
सुजीत : तुम इस दुनिया की सबसे हसीनतरीन औरत हो.
श्यामा : सबसे मतलब ? कितनों को जांचा है तुमने ?
सुजीत : कईयों को !
श्यामा : अब मेरी सारी गिरहें खोल दो !
सुजीत : कमबख्त यह कुर्सी भी ऐसे में पैर में ज़यादा लगने लगती है.

[कुर्सी की खटखटाहत बढ़ जाती है]

[तूफ़ान के थोड़ी देर बाद, सुजीत श्यामा पर निढाल पड़ा है, जैसे सपने में किसी ने पहाड़ से नीचे फेक दिया हो, माथे पर पसीने की हलकी चिकनाहट उभर आई है]

श्यामा : कैसा महसूस हो रहा है ?
सुजीत : फिलहाल तो पैरों में कमजोरी लग रही है ?
श्यामा : उम्म्म.... प्यार और सेक्स में क्या फर्क होता है ? जानते हो ?
सुजीत : सेक्स थोड़ी देर का उन्माद होता है; एक क्षणिक पागलपन जो ख़त्म होने के बाद शरीर, शक्ल और बिस्तर से विरक्त हो जाता है, वहीँ प्यार में सेक्स हो जाने के बाद भी मैं तुम्हें बड़े तबियत से जकड़े रहता हूँ.
श्यामा : आदमी और औरत क्या है ?
सुजीत : एक दूसरे को जानने की भूख और ना जान पाने के बाइस एक गैर जिम्मेदाराना उब.
श्यामा : जुहू चौपाटी पर कितने मर्द ऐसी बातें करते होंगे?
सुजीत : दुनिया में कितनी औरत में इतनी शिद्दत होगी.?
श्यामा (कान में) : हम्म... मुझे बना रहे हो !
सुजीत : औरत यह भी होती है, एक वक्त के बाद उसकी महीन-पतली आवाज़ भी गर्माहट देती है.
श्यामा : और आदमी ?
सुजीत : मैं फिर से खोजता हूँ, वैसे यह तुम्हें बताना चाहिए.... क्या कहती हो !

[सुजीत और श्यामा की धीमी हंसी उभरती है और एक साथ शांत हो जाती है. ]

सुजीत : क्या है आदमी ?
श्यामा : सिर्फ अपने सम्बन्ध के आधार पर बताऊँ ?
सुजीत : बता सकोगी ?

[बाहर ट्राफिक का शोर उभारना शुरू होता है जो बढ़ता जाता है ]

[सुजीत और श्यामा छत में फिर से कोई कोमन जगह तलाश रहे हैं]
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जब कभी उन बीते लम्हों की अलमारी खोलता हूँ तो बेतरतीबी से बिखरी हुयी यादें भरभरा के बाहर गिर पड़ती हैं ... न जाने कितनी बार सोचा कि उन्हें करीने से सजा दूं लेकिन कभी जब बहुत बेचैन होता हूँ तो मन में उठते हुए उबार किसी एक ख़ास लम्हें की तलाश में जैसे सब कुछ बिखेर देते हैं...
तुम्हें वो पीपल का पेड़ याद है जहाँ तुम हर सुबह अपनी स्कूल बस का इंतज़ार करती थी, और मैं किसी न किसी बहाने से वहां अपनी सायकिल से गुज़रता था... तुम्हें बहुत दिनों तक वो महज एक इत्तफाक लगा था... तुम्हें क्या पता ये इतनी मेहनत सिर्फ इसलिए थी कि इसी बहाने एक बार तुम मुझे मुस्कुरा कर तो देखती थी, और कभी कभी तो मुझे रोक कर थोड़ी देर बात भी कर लेती थी.. वो ख़ुशी तो त्यौहार में अचानक से मिलने वाले बोनस से कम नहीं होती थी...

प्यार करना भी उतना आसान थोड़े न है, वो देर रात तक सिर्फ इसलिए जागना क्यूंकि तुम्हारे कमरे की बत्ती जल रही होती थी, आखिर कभी कभी खिड़की से तुम दिख ही जाती थी... ऐसा लगता था जैसे खिड़की के उसपार पूनम का चाँद उतर आया है...
यूँ वजह-बेवजह तोहफा देने की आदत भी तुम्हारी अजीब थी, पता तुम्हारी दी हुयी हर चीज आज भी संभाल कर रखी है... वो बुकमार्क जो फ्रेंडशिप डे पर तुमने दिया था, आज भी मेरी किताबों के पन्ने से मुझे झाँक लिया करता है... और वो घड़ी, कलाई पर आज भी उतने ही विश्वास से टिक-टिक कर रही है, और तुम्हारे साथ बिताये हुए लम्हों की याद दिला जाती है...
जब मैं तुम्हें बिना बताये छुट्टियों में पहली बार शहर से घर आया था, कैसे पागलों की तरह चीखी थी तुम, तुम्हारी आखों की वो चमक मंदिर में जलते किसी दीये की तरह थी, जो जलने पर अपनी लौ में कम्पन कर किसी नैसर्गिक ख़ुशी को व्यक्त करता है... उन खूबसूरत आखों में आंसू भी खूब देखे हैं मैंने, तुम्हारे पापा की बरसी पर जब तुम्हारे आंसुओं ने मेरे कन्धों को भिगोया था, मैं अपने आप को कितना बेबस महसूस कर रहा था... उस समय तुम्हारी एक मुस्कराहट के बदले शायद सब कुछ दे सकता था मैं... उन आखों को चाहकर भी भुला नहीं पाया हूँ..
एक अरसा हुआ उन आखों को देखे हुए लेकिन इतना यकीन है कि उन आखों में आज भी वही चमक और वही मुस्कराहट तैरती होगी, भले ही उसका कारण अब मैं नहीं हूँ....
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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