19-08-2015, 09:27 PM | #11 |
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Re: परिचय (१९७२)
राय साहब के नौकर 'नारायण' का रोल असरानी ने अदा किया है। यकीन मानीए ईस रोल को असरानी के अलावा अन्य कोई भी शायद ही न्याय दे पाता। नारायण स्वामी भक्त है और कर्नल राय साहब के अकेलेपन के दुख से अच्छी तरह वाकेफ है। ईनकी स्वामी भक्ति ईस दृश्य में उजागर होती है.... https://youtu.be/EFzft4aDeBM?t=5m लाजवाब! है ना? |
19-08-2015, 09:31 PM | #12 |
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Re: परिचय (१९७२)
ईस बीच कर्नल साहब को काम के सिलसिले में बाहर जाना पडा। बच्चे जो घर में कैद से थे वह अब अधिक खुल गए। रवि भी उनको हंसाता, घुमाता और साथ साथ पढाता है। बच्चे रवि के मामा जी से मिलने उनके घर भी जातें है। मामा-मामी को रमा भा जाती है।
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19-08-2015, 09:51 PM | #13 |
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Re: परिचय (१९७२)
कोई भी लेखक या कलाकार यह जानता है की रचनाओं में विषमता (Contrast) का होना कितना जरुरी है। द्राश्य, श्राव्य या अनुभव हो सके ऐसा कोन्ट्रास्ट दिखाने से रचनाओं में रस बढता है। रचनाएं और ईन्ट्रेस्टींग हो जाती है। मतलब की साईझ कोन्ट्रास्ट, एस्थेटीक/फील कोन्ट्रास्ट ... सब होना ही चाहिए। वरना कहानी या फिल्म भी सरपट या सपाट हो जाती है।
Size Contrast: अब जा कर साउथ ईन्डियन फिल्म में साईस कोन्ट्रास्ट देखने को मिला है। यहां पानी का झरना ईतना विशाल है और उसके सामने ईन्सान एकदम अदना। ईसलिए यह फ्रेम्स ईतने रसप्रद लग रहें है। फील/एस्थेटीक कोन्ट्रास्ट का बढिया उदाहरण होलिवुड की फिल्म 'ध प्रपोझल' हो सकती है। ईस में शहर से निकल कर छोटे से टाउन में आ कर रहना फिर आखिर में वापस शहर का वातावरण दिखाना...वगैरह दर्शक को रसप्रद लगता है। होलिवुड की एसी सेंकडो फिल्म हैं...कास्ट अवे, ध ममी, रोकी वगैरह। अपने यहां कोन्ट्रास्ट का उपयोग कम बार हुआ है वह भी माईल्ड लेवल पर। या जब अमीर हीरो/हीरोईन या गरीब हीरो/हीरोईन का प्रेम दिखाया गया हो तब आप यह कोन्ट्रास्ट महसुस कर सकतें है। लेकिन गुलज़ार और ह्रिषिकेश मुकर्जी ने एस्थेटीक कोन्ट्रास्ट का उपयोग किया है जो बहुत कम फिल्म दिग्दर्शक कर सके। वह भी उस जमाने में...जब फिल्म बनाना ही एक चेलेन्ज था! |
04-12-2015, 10:09 AM | #14 | |
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Re: परिचय (१९७२)
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