16-11-2012, 06:47 AM | #51 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
रामचन्द्र ने लक्ष्मण की ओर परसन्नता के भाव से देखकर कहा—लक्ष्मण, मैं जानता हूं कि तुम्हें मेरे वनवास से बहुत दुःख हो रहा है; किन्तु मैं तुम्हारे मुंह से माता कैकेयी के विषय में कोई अनादर की बात नहीं सुन सकता। कैकेयी हमारी माता हैं। तुम्हें उनका सम्मान करना चाहिए। मैं इसलिए वनवास नहीं ले रहा हूं कि यह कैकेयी की इच्छा है, किन्तु इसलिए कि यदि मैं न जाऊं, तो महाराज का वचन झूठा होता है। दोचार दिन में भरत आ जायेंगे, जैसा मुझसे परेम करते हो, वैसे ही उनसे परेम करना। अपने वचन या कर्म से यह कदापि न दिखाना कि तुम उनके अहित की इच्छा रखते हो, बारबार मेरी चचार भी न करना, अन्यथा शायद भरत को बुरा लगे। लक्ष्मण ने क्रोध से लाल होकर कहा—भैया, बारबार भरत का नाम न लीजिए। उनके नाम ही से मेरे शरीर में आग लग जाती है। किसी परकार क्रोध को रोकना चाहता हूं, किन्तु अधिकार को यों मिटते देखकर हृदय वश से बाहर हो जाता है। भरत का राज्य पर कोई अधिकार नहीं। राज्य आपका है और मेरे जीतेजी कोई आपसे उसे नहीं छीन सकता। क्षत्रिय अपने अधिकार के लिये लड़ कर मर जाता है। मैं रक्त की नदी बहा दूंगा। |
16-11-2012, 06:47 AM | #52 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
लक्ष्मण का क्रोध ब़ते देखकर राम ने कहा—लक्ष्मण, होश में आओ। यह क्रोध और युद्ध का समय नहीं है। यह महाराज दशरथ के वचन निभाने की बात है। मैं इस कर्तव्य को किसी भी दशा में नहीं तोड़ सकता। मेरा वन जाना निश्चित है। कर्तव्य के मुकाबले में शारीरिक सुख का कोई मूल्य का नहीं।
लक्ष्मण को जब ज्ञात हो गया कि रामचन्द्र ने जो निश्चित किया है उससे टल नहीं सकते तो बोले—अगर आपका यही निर्णय है तो मुझे भी साथ लेते चलिये। आपके बिना मैं यहां एक दिन भी नहीं रह सकता। जब आप वन में घूमेंगे तो मैं इस महल में क्योंकर रह सकूंगा। आपके बिना यह राज्य मुझे श्मशानसा लगेगा। जब से मैंने होश संभाला, कभी आपके चरणों से विलग नहीं हुआ। अब भी उनसे लिपटा रहूंगा। रामचन्द्र ने लक्ष्मण को परेमपूर्ण नेत्रों से देखा। छोटे भाई को मुझसे कितना परेम है! मेरे लिए जीवन के सारे सुख और आनन्द पर लात मारने के लिए तैयार है। बोले—नहीं लक्ष्मण, इस विचार को त्याग दो। भला सोचो तो, जब तुम भी मेरे साथ चले जाओगे, तो माता सुमित्रा और कौशल्या किसका मुंह देखकर रहेंगी? कौन उनके दुःख के बोझ को हल्का करेगा? भरत के राजा होने पर रानी कैकेयी सफेद और काले की मालिक होंगी। सम्भव है वह हमारी माताओं को किसी परकार का कष्ट दें। उस समय कौन उनकी सहायता करेगा? नहीं, तुम्हारा मेरे साथ चलना उचित नहीं। |
16-11-2012, 06:47 AM | #53 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
लक्ष्मण—नहीं भाई साहब! मैं आपके बिना किसी परकार नहीं रह सकता। भरत की ओर से इस परकार का भय नहीं हो सकता। वह इतना डरपोक और नीच नहीं हो सकता। रघु के वंश में ऐसा मनुष्य पैदा ही नहीं हो सकता। आपका साथ मैं किसी तरह नहीं छोड़ सकता।
रामचन्द्र ने बहुत समझाया, किन्तु जब लक्ष्मण किसी तरह न माने तो उन्होंने कहा—अच्छा, यदि तुम नहीं मानते तो मैं तुम्हारे साथ अत्याचार नहीं कर सकता। किन्तु पहले जाकर सुमित्रा से पूछ आओ। लक्ष्मण ने सुमित्रा से बन जाने की अनुमति मांगी तो उन्होंने उसे हृदय से लगाकर कहा—शौक से बन जाओ बेटा! मैं तुम्हें खुशी से आज्ञा देती हूं। दुःख में भाई ही भाई के काम आता है। राम से तुम्हें जितना परेम है, उसकी मांग यही है कि तुम इस कठिन समय में उनका साथ दो। मैं सदा तुम्हें आशीवार्द देती रहूंगी। इसी समय में सीता जी को भी रामचन्द्र के वनवास का समाचार मिला। वह अच्छेअच्छे आभूषणों से सज्जित होकर राजतिलक के लिए तैयार थीं। एकाएक यह दुःखद समाचार मिला और मालूम हुआ कि राम अकेले जाना चाहते हैं, तो दौड़ी हुई आकर उनके चरणों पर गिर पड़ी और बोलीं—स्वामी, आप बन जाते हैं तो मैं यहां अकेले कैसे रहूंगी। मुझे भी साथ चलने की अनुमति दीजिये। आपके बिना मुझे यह महल फाड़ खायेगा, फूलों की सेज कांटों की तरह गड़ेगी। आपके साथ जंगल भी मेरे लिए बाग है, आपके बिना बाग भी जंगल है। कौशल्या ने सीता को गले से लगाकर कहा—बेटी ! तुम भी चली जाओगी, तो मैं किसका मुंह देखकर जिऊंगी। फिर तो घर ही सूना हो जायगा। सोचती थी कि तुम्हीं को देखकर मन में सन्टोष करुंगी। किन्तु अब तुम भी वन जाने को परस्तुत हो। ईश्वर! अब कौनसा दुःख दिखाना चाहते हो? क्यों इस अभागिन को नहीं उठा लेते? |
16-11-2012, 06:47 AM | #54 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
रामचन्द्र को यह विचार भी न हुआ कि सीताजी उनके साथ चलने को तैयार होंगी। समझाते हुए बोले—सीता, इस विचार का त्याग कर दो। जंगल में बड़ीबड़ी कठिनाइयां हैं पगपग पर जन्तुओं का भय, जंगल के डरावने आदमियों से वास्ता, रास्ता कांटों और कंकड़ों से भरा हुआ—भला तुम्हारा कोमल शरीर यह कठिनाइयां कैसे झेल सकेगा? पत्थर की चट्टानों पर तुम कैसे सोओगी? पहाड़ों का पानी ऐसा खराब होता है कि तरहतरह की बीमारियां पैदा हो जाती हैं। तुम इन तकलीफों को कैसे बर्दाश्त कर सकोगी?
सीता आंखों में आंसू भरकर बोलीं—स्वामी! जब आप मेरे साथ होंगे तो मुझे किसी बात का भय न होगा। वह खुशी सारी तकलीफों को मिटा देगी। यह कैसे हो सकता है कि आप जंगलों में तरहतरह की कठिनाइयां झेलें और मैं राजमहल में आराम से सोऊं। स्त्री का धर्म अपने पति का साथ देना है, वह दुःख और सुख हर दशा में उसकी संगिनी रहती है। यही उसका सबसे बड़ा कर्तव्य है। यदि आप सैर और मनबहलाव के लिए जाते होते, तो मैं आपके साथ जाने के लिए अधिक आगरह न करती। किन्तु यह जानकर कि आपको हर तरह का कष्ट होगा, मैं किसी तरह नहीं रुक सकती। मैं आपके रास्ते से कांटे चुनूंगी, आपके लिए घास और पत्तों की सेज बनाऊंगी, आप सोयेंगे, तो आपको पंखा झलूंगी। इससे ब़कर किसी स्त्री को और क्या सुख हो सकता है? रामचन्द्र निरुत्तर हो गये। उसी समय तीनों आदमियों ने राजसी पोशाकें उतार दीं और भिक्षुकों कासा सादा कपड़ा पहनकर कौशल्या से आकर बोले—माताजी! अब हमको चलने की अनुमति दीजिये। |
16-11-2012, 06:48 AM | #55 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
कौशल्या फूटफूटकर रोने लगीं—बेटा, किस मुंह से जाने को कहूं ! मन को किसी परकार संष्तोा नहीं होता। धर्म का परश्न है, रोक भी नहीं सकती। जाओ ! मेरा आशीवार्द सदा तुम्हारे साथ रहेगा। जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुंह भी दिखाना। यह कहतेकहते कौशल्या रानी दुःख से मूर्छा खाकर गिर पड़ीं। यहां से तीनों आदमी सुमित्रा के पास गये और उनके चरणों पर सिर झुकाकर रानी कैकेयी के कोपभवन में महाराज दशरथ से विदा होने गये। राजा मृतक शरीर के समान निष्पराण और नि:स्पंद पड़े थे। तीनों आदमियों ने बारीबारी से उनके चरणों पर सिर झुकाया। तब राम बोले—महाराज ! मैं तो अकेला ही जाना चाहता था, किन्तु लक्ष्मण और जानकी किसी परकार मेरा साथ नहीं छोड़ते, इसलिए इन्हें भी लिये जाता हूं। हमें आशीवार्द दीजिये।
यह कहकर जब तीनों आदमी वहां से चले तो राजा दशरथ ने जोर से रोकर कहा—हाय राम! तुम कहां चले? उन पर एक पागलपन कीसी दशा आ गयी। भले और बुरे का विचार न रहा। दौड़े कि राम को पकड़कर रोक लें, किन्तु मूर्च्छा खाकर गिर पड़े। रात ही भर में उनकी दशा ऐसी खराब हो गयी थी कि मानो बरसों के रोगी हैं। अयोध्या में यह खबर मशहूर हो गयी थी। लाखों आदमी राजभवन के दरवाजों पर एकत्रित हो गये थे। जब ये तीनों आदमी भिक्षुकों के वेश में रनिवास से निकले तो सारी परजा फूटफूटकर रोने लगी। सब हाथ जोड़जोड़कर कहते थे, महाराज! आप न जायं। हम चलकर महारानी कैकेयी के चरणों पर सिर झुकायेंगे, महाराज से परार्थना करेंगे। आप न जायं। हाय ! अब कौन हमारे साथ हमदर्दी करेगा, हम किससे अपना दुःख कहेंगे, कौन हमारी सुनेगा, हम तो कहीं के न रहे। रामचन्द्र ने सबको समझाकर कहा—दुःख में धैर्य के सिवा और कोई चारा नहीं। यही आपसे मेरी विनती है। मैं सदा आप लोगों को याद करता रहूंगा। |
16-11-2012, 06:48 AM | #56 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
राजा ने समुन्त्र को पहले ही से बुलाकर कह दिया था कि जिस परकार हो सके, राम, सीता और लक्ष्मण को वापस लाना।
सुमन्त्र रथ तैयार किये खड़ा था। रामचन्द्र ने पहले सीता जी को रथ पर बैठाया, फिर दोनों भाई बैठे और सुमन्त्र को रथ चलाने का आदेश दिया। हजारों आदमी रथ के पीछे दौड़े और बहुत समझाने पर भी रथ का पीछा न छोड़ा। आखिर शाम को जब लोग तमसा नदी के किनारे पहुंचे, तो राम ने उन्हें दिलासा देकर विदा किया। इधर अयोध्या में कुहराम मचा हुआ था। मालूम होता था, सारा शहर उजाड़ हो गया है। जहां कल सारा शहर दीपकों से जगमगा रहा था, वहां आज अंधेरा छाया हुआ था। सुबह जहां मंगलगीत हो रहे थे, वहां इस समय हर घर से रोने की आवाजें आती थीं। दुकानें बन्द थीं। जहां दो आदमी मिल जाते, यही चचार होने लगती। बेटा हो तो ऐसा हो ! पिता की आज्ञा पाते ही राजपाट पर लात मार दी। संसार में ऐसा कौन होगा। बड़ेबड़े राजा एक बालिश्त जमीन के लिए लड़तेमरते हैं। भाई, भी तो ऐसा हो। सबसे अधिक परशंसा सीताजी की हो रही थी। पुरुषों के लिए जंगल की कठिनाइयां सहना कोई असाधारण बात नहीं, स्त्री के लिए असाधारण बात थी। सती स्त्रियां ऐसी होती हैं। जिसने कभी पृथ्वी पर पांव नहीं रखा, वह जंगल में चलने के लिए तैयार हो गयी। सच है, कुसमय में ही स्त्री और मित्र की परख होती है। उधर रनिवास शोकगृह बना हुआ था। किसी को तनबदन की सुध न थी। |
16-11-2012, 06:48 AM | #57 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
राजा दशरथ की मृत्यु तमसा नदी को पार करके पहर रात जातेजाते रामचन्द्र गंगा के किनारे जा पहुंचे। वहां भील सरदार गुह का राज्य था। रामचन्द्र के आने का समाचार पाते ही उसने आकर परणाम किया। रामचन्द्र ने उसकी नीच जाति की तनिक भी चिन्ता न करके उसे हृदय से लगा लिया और कुशलक्षेम पूछा। गुह सरदार बाग़बाग़ हो गया—कौशल के राजकुमार ने उसे हृदय से लगा लिया! इतना बडा सम्मान उसके वंश में और किसी को न मिला था। हाथ जोड़कर बोला—आप इस निर्धन की कुटिया को अपने चरणों से पवित्र कीजिये। इस घर के भी भाग्य जागें। जब मैं आपका सेवक यहां उपस्थित हूं तो आप यहां क्यों कष्ट उठायेंगे। रामचन्द्र ने गुह का निमन्त्रण स्वीकार न किया। जिसे वनवास की आज्ञा मिली हो, वह नगर में किस परकार रहता। वहीं एक पेड़ के नीचे रात बितायी। दूसरे दिन परातःकाल रामचन्द्र ने सुमन्त्र से कहा—अब तुम लौट जाओ, हम लोग यहां से पैदल जायंगे। माताजी से कह देना कि हम लोग कुशल से हैं, घबराने की कोई बात नहीं। सुमन्त्र ने रोकर कहा—महाराज दशरथ ने तो मुझे आप लोगों को वापस लाने का आदेश दिया था। खाली रथ देखकर उनकी क्या दशा होगी! राम ने सुमन्त्र को समझा बुझाकर विदा किया। सुमन्त्र रोते हुए अयोध्या लौटे। किन्तु जब वह नगर के निकट पहुंचे तो दिन बहुत शेष था। उन्हें भय हुआ कि यदि इसी समय अयोध्या चला जाऊंगा तो नगर के लोग हजारों परश्न पूछपूछकर परेशान कर देंगे। इसलिये वह नगर के बाहर रुके रहे। जब संध्या हुई तो अयोध्या में परविष्ट हुए। |
16-11-2012, 06:49 AM | #58 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
इधर राजा दशरथ इस परतीक्षा में बैठे थे कि शायद सुमन्त्र राम को लौटा लाये। आशा का इतना सहारा शेष था। कैकेयी से रुष्ट होकर वह कौशल्या के महल में चले गये थे और बारबार पूछ रहे थे कि सुमन्त्र अभी लौटा या नहीं। दीपक जल गये, अभी सुमन्त्र नहीं आया। महाराज की विकलता ब़ने लगी। आखिर सुमन्त्र राजमहल में परविष्ट हुए। दशरथ उन्हें देखकर दौड़े और द्वार पर आकर पूछा—राम कहां हैं ? क्या उन्हें वापस नहीं लाये? सुमन्त्र कुछ बोल न सके, पर उनका चेहरा देखकर महाराज की अन्तिम आशा का तार टूट गया। वह वहीं मूर्छा खाकर गिर पड़े और हाय राम! हाय राम! कहते हुए संसार से विदा हो गये। मरने से पहले उन्हें उस अन्धे तपस्वी की याद आयी जिसके बेटे को आज से बहुत दिन पहले उन्होंने मार डाला था। वह जिस परकार बेटे के लिये तड़प तड़पकर मर गया, उसी परकार महाराज दशरथ भी लड़कों के वियोग में तड़पकर परलोक सिधारे। उनके शाप ने आज परभाव दिखाया।
रनिवास में शोक छा गया। कौशल्या महाराज के मृत शरीर को गोद में लेकर विलाप करने लगीं। उसी समय कैकेयी भी आ गयी। कौशल्या उसे देखते ही क्रोध से बोलीं—अब तो तुम्हारा कलेजा ठंडा हुआ! अब खुशियां मनाओ। अयोध्या के राज का सुख लूटो। यही चाहती थीं न? लो, कामनाएं फलीभूत हुई। अब कोई तुम्हारे राज में हस्तक्षेप करने वाला नहीं रहा। मैं भी कुछ घड़ियों की मेहमान हूं; लड़का और बहू पहले ही चले गये। अब स्वामी ने भी साथ छोड़ दिया। जीवन में मेरे लिए क्या रखा है। पति के साथ सती हो जाऊंगी। कैकेयी चित्रलिखित-सी खड़ी रही। दासियों ने कौशिल्या की गोद से महाराज का मृत शरीर अलग किया और कौशल्या को दूसरी जगह ले जाकर आश्वासन देने लगीं। दरबार के धनीमानियों को ज्योंही खबर लगी, सबके-सब घबराये हुये आये और रानियों को धैर्य बंधाने लगे। इसके उपरान्त महाराज के मृत शरीर को तेल में डुबाया गया जिसमें सड़ न जाय और भरत को बुलाने के लिए एक विश्वासी दूत परेषित किया गया। उनके अतिरिक्त अब क्रियाकर्म और कौन करता? |
16-11-2012, 06:49 AM | #59 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
भरत की वापसी जिस दिन महाराज दशरथ की मृत्यु हुई उसी दिन रात को भरत ने कई डरावने स्वप्न देखे। उन्हें बड़ी चिन्ता हुई कि ऐसे बुरे स्वप्न क्यों दिखायी दे रहे हैं। न जाने लोग अयोध्या में कुशल से हैं या नहीं। नाना की अनुमति मांगी, पर उन्होंने दोचार दिन और रहने के लिए आगरह किया—आखिर जल्दी क्या है। काश्मीर की खूब सैर कर लो, तब जाना। अयोध्या में यह हृदय को हरने वाले पराकृतिक सौन्दर्य कहां मिलेंगे। विवश होकर भरत को रुकना पड़ा। इसके तीसरे दिन दूत पहुंचा। उसे भली परकार चेता दिया गया था कि भरत से अयोध्या की दशा का वर्णन न करना, इसलिए जब भरत ने दूत से पूछा—क्यों भाई, अयोध्या में सब कुशल है न? तो उसने कोई खास जवाब न देकर व्यंग्य से कहा—आप जिनकी कुशल पूछते हैं, वे कुशल से हैं। दूत भी हृदय से भरत से असन्तुष्ट था। भरत जी को क्या खबर कि दूत इस एक वाक्य में क्या कह गया। उन्होंने नाना और मामा से आज्ञा ली और उसी दिन शत्रुघ्न के साथ अयोध्या के लिये परस्थान किया। रथ के घोड़े हवा से बातें करने वाले थे। तीसरे ही दिन वह अयोध्या में परविष्ट हुए। किन्तु यह नगर पर उदासी क्यों छायी हुई है ? नगर श्रीहीन सा क्यों हो रहा है ? गलियों में धूल क्यों उड़ रही है? बाजार क्यों बन्द हैं ? रास्ते में जो भरत को देखता था, बिना इनसे कुछ बातचीत किये, बिना कुशलक्षेम पूछे या परणाम किये कतरा कर निकल जाता था। उनके आगे ब़ आने पर लोग कानाफूसी करने लगते थे। भरत की समझ में कुछ न आता था कि भेद क्या है। कोई उनकी ओर आकृष्ट भी न होता था कि उससे कुछ पूछें। राजमहल तक पहुंचना उनके लिए कठिन हो गया। राजमहल पहुंचे तो उसकी दशा और भी हीन थी। मालूम होता था कि उसकी जान निकल गयी है, केवल मृत शरीर शेष है। खिन्नता विराज रही थी। कई दिन से दरवाजे पर झाडू तक न दी गयी थी। दोचार सन्तरी खड़े जम्हाइयां ले रहे थे। वह भी भरत को देखकर एक कोने में दुबक गये, जैसे उनकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। |
16-11-2012, 06:49 AM | #60 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
द्वार पर पहुंचते ही भरत और शत्रुघ्न ने रथ से कूदकर अंदर परवेश किया। महाराज अपने कमरे में न थे। भरत ने समझा, अवश्य कैकेयी माता के परासाद में होंगे। वह परायः कैकेयी ही के परासाद में रहते थे। लपके हुए माता के पास गये। महाराज का वहां भी पता न था। कैकेयी विधवाओं के से वस्त्र पहने खड़ी थी। भरत को देखते ही वह फूली न समायी। आकर भरत को गले से लगा लिया और बोली—जीते रहो बेटा। रास्तें में कोई कष्ट तो नहीं हुआ ?
भरत ने माता की ओर आश्चर्य से देखकर कहा—जी नहीं, बड़े आराम से आया। महाराज कहां हैं? तनिक उन्हें परणाम तो कर लूं ? कैकेयी ने ठंडी आह खींचकर कहा—बेटा, उनकी बात क्या पूछते हो। उन्हें परलोक सिधारे तो आज एक सप्ताह हो गया। क्या तुमसे अभी तक किसी ने नहीं कहा? भरत के सिर पर जैसे शोक का पहाड़ टूट पड़ा। सिर में चक्करसा आने लगा। वह खड़े न रह सके। भूमि पर बैठकर रोने लगे। जब तनिक जी संभला तो बोले—उन्हें क्या हुआ था माता जी? क्या बीमारी थी? हाय! मुझ अभागे को उनके अन्तिम दर्शन भी पराप्त न हुए। कैकेयी ने सिर झुकाकर कहा—बीमारी तो कुछ नहीं थी बेटा। राम, लक्ष्मण और सीता के वनवास के शोक से उनकी मृत्यु हुई। राम पर तो वह जान देते थे। भरत की रहीसही जान भी नहों में समा गयी। सिर पीटकर बोले—भाई रामचन्द्र ने ऐसा कौनसा पाप किया था माता जी, कि उनको वनवास का दण्ड दिया गया? क्या उन्होंने किसी बराह्मण की हत्या की थी या किसी परस्त्री पर बुरी दृष्टि डाली थी? धर्म के अवतार रामचन्द्र को देशनिकाला क्यों हुआ ? |
Bookmarks |
|
|