03-11-2010, 06:19 PM | #1 |
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चरित्रहीन
आज चला था पैसो से मैं यौवन का सुख पाने को दिल की धड़कन भी थिरक रही थी यौवन के मोहक बाजे पे अरमानों के साथ मैं पंहुचा उस तड़ीता के दरवाजे पे अंदर पंहुचा तो मानो हया ने भी मुँह फेर लिया चारो तरफ से मुझको यूँ रुपसियों ने था घेर लिया हर कोई अपने यौवन के श्रृंगार से सुसज्जित था पर अब जाने क्यों मेरा मॅन थोडा सा लज्जित था आहत होता था हृदय बहुत उन संबोधन के तीरों से पर अभी भी मॅन था बंधा हुआ संवेगों की जंजीरों से तभी एक रूपसी पर अटकी मेरी दृष्टि थी लगता था मानो स्वयं वही सुन्दरता की सृष्टि थी
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
03-11-2010, 06:32 PM | #2 |
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इसके आगे की रचना का इन्तजार है
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03-11-2010, 06:37 PM | #3 |
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धन्यवाद दादा पर
अगर और लोगों को भी पसंद आया तो ???????????????????????? रोज थोड़ा थोड़ा पोस्ट करूँगा हर रोज एक प्रविष्टि
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
03-11-2010, 07:47 PM | #4 |
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खुब पसन्द हैँ भाई
कृप्या और पोस्ट करेँ |
03-11-2010, 08:13 PM | #5 |
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03-11-2010, 11:24 PM | #6 |
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तुम्हारे शबनमी होंठों का आखिर क्या करेंगे 'जय'
ओस के चाटे भला , क्या प्यास बुझती है ??
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
04-11-2010, 11:10 AM | #7 | |
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Quote:
प्रस्तुत है आगे की पंक्तियाँ व्यग्र हुआ मन साथ में उसके स्वयं चरम सुख पाने को उस कनकलता को लिए चला अपनी कामाग्नि बुझाने को जून के उष्ण महीने में बसंती सी हो गयी थी रुत कुछ ऐसे अपने तन को उसने मेरे सम्मुख किया प्रस्तुत खुला निमंत्रण था सपनो को आलिंगन में भरने का पर नहीं समझ पा रहा था कारण अपने अंतस के डरने का अंतस को अनदेखा कर के प्रथम स्पर्श किया तन को उस मद से ज्यादा मद-मादित अब तक कुछ नहीं लगा मन को खुद अंग ही इतने सुंदर थे लज्जा आ जाये गहनों को पर सहसा सहम गया देख उस मृग-नयनी के नयनो को आँखों में कोई चमक नहीं चेहरे पे कोई भाव नहीं सपने कोई छीन गया जैसे जीने कोई चाह नहीं
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
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04-11-2010, 04:03 PM | #8 |
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निशांत भाई, इस बेहद मर्मस्पर्शी रचना के लिए आपको धन्यवाद. कृपया इस रचना को अतिशीघ्र पूर्ण करने की कृपा करें . सभी पाठक बेसब्री से इन्तेजार कर रहे हैं.
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अच्छा वक्ता बनना है तो अच्छे श्रोता बनो, अच्छा लेखक बनना है तो अच्छे पाठक बनो, अच्छा गुरू बनना है तो अच्छे शिष्य बनो, अच्छा राजा बनना है तो अच्छा नागरिक बनो |
07-11-2010, 08:41 AM | #9 | |
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Quote:
प्रश्नों की श्रृंखल कड़ियों ने सारा मद तोड़ दिया पल में व्याकुल था अंतस जानने को क्या है इसके हृदयातल में उसे देख अवस्था में ऐसी जब रहा नहीं गया मुझसे जो उबल रहा था अंतस में वो सब कुछ बोल दिया उससे आँखे सूना चेहरा सूना क्यों सूना तेरा जीवन है इच्छाओं के संसार में क्यों अब लगता नहीं तेरा मन है सिर्फ तन का मूल्य दिया हूँ मैं, मन पर मेरा अधिकार नहीं पर इतना तो बता ऐ कनकलता क्या तुझको मैं स्वीकार्य नहीं हे कामप्रिया!,हे मृगनयनी! ऐसी क्या विवशता है तुझको जो मन से मेरे साथ नहीं फिर तन क्यों सौप दिया मुझको शांत भाव से बोली वो यहाँ मन को कौन समझता है एक लड़की के लिए गरीबी ही उसकी सबसे बड़ी विवशता है
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल Last edited by ndhebar; 07-11-2010 at 08:51 AM. |
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