29-11-2017, 07:21 PM | #32 |
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Re: मुहावरों की कहानी
'प्राण जाय पर वचन न जाय' से
'जान बची सो लाखों पाय' तक यह उस जमाने की कहानी है, जब ब्रिटिश साम्राज्य के अधीनस्थ विभिन्न राजे-रजवाड़े अपनी-अपनी आजादी के लिए आपस में कटते-पिटते अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर चुके थे। हमारे कथा का नायक ऐसे ही एक रजवाड़े का युवराज था। इंग्लैंड में ऊंची शिक्षा हासिल कर लौटने के बाद उसने जाना कि उसके परदादा ने ‘प्राण जाय पर वचन न जाय’ नामक संस्कृति में फिट होने के कारण राजगद्दी हासिल की थी, और उसके दादा ने गरीब-निरीह प्रजा के प्राणों की खातिर अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण किया। और पिता ने प्रजा के साथ खुद को ‘जान बची तो लाखो पाये’ मुहावरे में फिट कर लिया। युवराज के पढाई के लिए विदेश जाने के पूर्व ब्रिटिश साम्राज्य ने सिर्फ इतना किया था कि एक दिन आत्मसमर्पण का भव्य आयोजन करवाया था। उसमें दादा से एक सादे कागज पर देसी भासा में हस्ताक्षर कराकर उन्हें आजाद कर दिया। यानी लिखित एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर कराकर उनकी सेना के तमाम घोड़े-हाथियों पर कब्जा किया, उनकी तलवार-भाले से लैस सेना को ‘पैदल’ कर दिया और जान बख्श दी। अंग्रेजों के निर्देश पर दादा ने ‘राज्य’ के राज-काज का अधिकार युवराज के पिता को सौंप दिया। अंग्रेजी पढ़ने-लिखने की तैयारी में व्यस्त युवराज समझदार था। इसलिए समझ गया कि उसे गुलामी बरतने की आजादी मिली है। हालांकि यह भी कमोबेश ठीक उसी तरह की आजादी है, जो उसके पुरखों ने अपने शासन में अपनी प्रजा को दे रखी थी। (इन्टरनेट से साभार)
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