17-01-2019, 11:26 AM | #1 |
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जाड़ा
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ ठिठुर ठिठुर कर जाड़े में हम क्या बतलाएँ भाई थर थर थर थर कांप रहे हैं जमने लगी रजाई जो जितना कमजोर उसे यह उतना ही तड़पाकर मार रहा है जाड़ा देखो बन्दूकें लहराकर जाड़े का नेता बहुमत में लगता है अब आकर तानाशाह बना है देखो सारी गरमी खाकर सूरज को तुम दे दो कम्बल शीतलहर है जारी चन्दा को अँगीठी दे दो हमको कपड़े भारी रचना- आकाश महेशपुरी ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ वकील कुशवाहा "आकाश महेशपुरी" ग्राम- महेशपुर, पोस्ट- कुबेरस्थान जनपद- कुशीनगर, उत्तर प्रदेश पिन- 274304, मो- 9919080399 Last edited by आकाश महेशपुरी; 17-01-2019 at 06:32 PM. |
17-01-2019, 09:57 PM | #2 | |
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Re: जाड़ा
Quote:
बहुत सुन्दर आकाश जी. आपकी कविता ने सर्दी में कांपते लोगों का सही चित्र खींचा है. आपका हार्दिक धन्यवाद. वैसे, दिल्ली जैसे शहर में बहुत से लोग, जिनमे से अधिकतर मजदूर या मेहनतकश हैं, खुले में सोने पर मजबूर हैं. उन जैसों को तो रैन बसेरा भी उपलब्ध नहीं हो पाता.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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18-01-2019, 02:22 AM | #3 |
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Re: जाड़ा
अत्यंत आभार आदरणीय!
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