12-12-2013, 10:36 AM | #171 |
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Re: इधर-उधर से
एक 80 साल का बूढा आदमी अपने घर में सोफे पर बैठा हुआ था, अपने 45 साल के उच्च शिक्षित बेटे के साथ. अचानक एक कौवाउनकी खिड़की पर आ बैठा.पिता ने अपने पुत्र से पूछा, "यह क्या है?" बेटे ने कहा "यह एक कौवा है". कुछ ही मिनटों के बाद, पिता ने अपने बेटे से दूसरी बार पूछा,"यह क्या है?" बेटे ने कहा,"पिताजी, मैंने अभी आप से कहा है " यह एक कौवा है ". थोड़ी देर के बाद, बूढ़े पिताजी ने फिर बेटे से तीसरी बार पूछा, यह क्या है? " इस समय कुछ क्रोध के भाव उत्पन्न हुवे और उसने डांटने के अंदाज में अपने पिता से कहा. "यह एक कौवा है, "कौवा. एक छोटे से अन्तराल के बाद पुनः चौथी बार पिताजी ने फिर से अपने बेटे से पूछा कि "यह क्या है ?" इस बार बेटा अपने पिता पर चिल्लाया, " पिताजी तुम क्या चाहते हो जो बार बार एक ही सवाल दोहरा रहे हो? लगता है तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है?’’ हालांकि मैंने तुमसे कितनी बार कहा था 'यह एक कौवा है. आप कुछ करने में सक्षम नहीं, यह समझ में आया? " थोड़ी देर बाद पिताजी अपने कमरे में चले गये और वापसी में अपने हाथ में एक जीर्ण शीर्ण डायरी लेके आये जिसको वह उस समय लिखते थे जब उनका यह बेटा पैदा हुआ था और उन्होंने उस डायरी का एक पृष्ट खोल कर अपने बेटे को पढने को दिया और जब बेटे ने इसे पढ़ा, डायरी: - " आज मैं मेरे तीन साल के छोटे बेटे के साथ आँगन में बैठा हुआ था और सामने पेड़ पर एक कौवा आकर बैठ गया मेरे बेटे ने उसको देख कर मुझ से पूछा पिताजी यह क्या है तो मैंने कहा बेटे यह कौवा है l उसने यह प्रश्न मेरे से कोई 23 बार किया और हर बार मुझे उसको जवाब देने में स्नेह का अनुभव होता था और मैं उसके मस्तक को चूम लेता था उसके बार बार एक ही प्रश्न करने से मुझे खीज उत्पन्न नहीं हुई बल्कि ख़ुशी हुई.” |
12-12-2013, 10:37 AM | #172 |
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Re: इधर-उधर से
और आज जब पिता ने अपने बेटे से एक ही प्रश्न सिर्फ 4 बार पूछा तो बेटा चिढ़ गया और नाराज होने लगा.
इसलिए: मेरे भाई बहनों यदि आपके माता पिता वृद्ध हो गए है तो उनको बोझ समझ कर घर से बाहर मत निकालो, उनको पूरा मान सम्मान दो जिसके वह हक़दार हैं ऐसा करके आप उन पर कोई एहसान नहीं कर रहे क्योंकि उन्होंने आपके जन्म से लेके आज तक आप पर अपने निस्वार्थ प्रेम की बारिश की है उन्होंने आपको समाज में सम्मानित व्यक्ति बनाने और आपको अपने पैरों पे खड़ा करने के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया, किसी भी मुसीबत से टकरा गए, कभी किसी दुःख दर्द की परवाह नहीं की, खुद भूखे रह कर आपको खिलाया, तभी आज इस रूप में हैं अतः मेरे भाई बहनों हकीकत को पहचानो और यह मत सोचो कि हमारे माँ बाप का व्यव्हार कैसा है, यह सोचो कि हमारा क्या फ़र्ज़ है? अपने फ़र्ज़ को पहचानो और भगवान् के लिए ऐसा कोई कार्य मत करो जिस से माता-पिता का दिल दुखे क्योंकि माँ बाप की सेवा से बढ़ कर संसार में कोई पूजा नहीं है, शायद इसी लिए किसी शायर ने कहा है : "चाहे लाख करो तुम पूजा तीरथ करो हज़ार, माँ बाप का दिल जो दुखाया तो सब है बेकार" माँ बाप के आशीर्वाद से बढ़ कर दुनिया में और कोई आशीर्वाद नहीं है माँ बाप के आशीर्वाद को काटने कि हिम्मत तो भगवान् में भी नहीं है हर धर्म, हर मज़हब में माँ बाप का स्थान सबसे ऊँचा है अतः भगवान् से प्रार्थना कीजिये कि आज से आप ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जिस से आपके घर में विराजमान मात पिता स्वरुप साक्षात् भगवान् भोले नाथ और माँ पार्वती का दिल दुखे ॐ नमः शिवाय इसको पढने के लिए समय निकालने के लिए धन्यवाद. (साभार: दिलीप भार्गव) |
17-12-2013, 06:43 PM | #173 |
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Re: इधर-उधर से
नि:संदेह उत्तम सुत्र.......
मंगा जी को सह्रीदय धन्यवाद
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
17-12-2013, 10:39 PM | #174 |
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Re: इधर-उधर से
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18-12-2013, 09:20 PM | #175 |
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Re: इधर-उधर से
इस बार दिल्ली विधान सभा चुनावों में एक नई बात मतदाताओं के लिए लागू की गई. वह थी चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के नाम और उनके चुनाव चिन्हों के सामने दिये गये बटनों के अतिरिक्त एक और बटन रखा गया है- NOTA (None Of The Above) अर्थात् यदि मतदाता को कोई भी प्रत्याशी नहीं जंच रहा तो वह उक्त बटन को दबा कर अपने मत का उपयोग कर सकता है जो वस्तुतः किसी भी प्रत्याशी के पक्ष में नहीं जाएगा. इस नये दिशा-निर्देश की पृष्ठभूमि में मुझे अपने कॉलेज के दिनों की मजेदार घटना याद आ गयी.
घटना 1970 की है. उन दिनों हमारे कॉलेज की यूनियन के चुनाव हो चुके थे. मुख्य चुनाव हो जाने के पश्चात अन्य विभागों की तरह ही मनोविज्ञान विभाग के लिये भी 'क्लास रिप्रेज़ेन्टेटिव' चुनने के लिए वोटिंग हो रही थी. इस पद के लिए मेरे दो मित्र खड़े हए थे. मैं दोनों को बराबर चाहता था, अतः किसी एक के पक्ष में वोट नहीं देना चाहता था और न ही वोटिंग से बाहर रहना चाहता था. इस धर्मसंकट की स्थिति से निपटने के लिए मैंने एक रास्ता निकाल ही लिया. अपना वोट डालने से पहले मैंने अपनी वोट-पर्ची में लिखा "To Both With Love" यानि "दोनों (प्रत्याशियों) को सस्नेह". इस प्रकार मेरा वोट अमान्य हो गया लेकिन वोटिंग के इस अंदाज़ की कई दिनों तक कॉलेज में चर्चा होती रही. आज मैं सोचता हूँ कि क्या कॉलेज में मेरा वोट देने का अंदाज़ हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये आदेशानुसार (NOTA) का ही एक रूप नहीं था? |
19-12-2013, 06:09 PM | #176 |
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Re: इधर-उधर से
उत्तम प्रस्तुतिया.............
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28-12-2013, 08:33 PM | #177 |
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Re: इधर-उधर से
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28-12-2013, 08:39 PM | #178 |
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Re: इधर-उधर से
ग़ज़ल
(कलाम: राशिद हुसैन ‘राही’) प्यार की राह में दीवार उठाते क्यों हो |
06-01-2014, 10:30 AM | #179 |
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Re: इधर-उधर से
कथाकार उदय प्रकाश का साक्षात्कार
(एक अंश) दिनेश श्रीनेत- जिस दौर में आप अपने कहानी संग्रह दरियाई घोड़ा की कहानियां लिख रहे थे- तब से लेकर हाल में प्रकाशित मैंगोसिल तक समय के फैलाव में आप क्या बदलाव देखते हैं? क्या आपको लगता है कि बतौर रचनाकार आपके लिए चुनौती उत्तरोत्तर कठिन हुई है? क्या बदलते परिवेश ने आपकी रचनात्मकता पर भी कोई दबाव डाला है? उदय प्रकाश- कोई भी रचनाकार - कथाकार समय, इतिहास स्मृति के स्तर पर, खासकर टाइम एंड मेमोरी के स्तर पर लिखता है। दरियाई घोड़ा की कहानियां भी उसके प्रकाशन से बहुत पहले लिखी गई थीं। अगर आप इन कहानियों को देखें तो समय इनमें किसी इको की तरह है। लेकिन दरियाई घोड़ा बहुत निजी स्मृति की कहानी है। वह पिता की मृत्यु पर लिखी कहानी है। इंदौर के एक अस्पताल में मेरे पिता की मृत्यु हुई थी-कैंसर से-तो वह उस घटना के आघात से-उसकी स्मृति में लिखी कहानी है। चौरासी में छपा था संग्रह। तब से अब तक दो दशक का समय बड़े टाइम चेंज का समय रहा है। मेरा मानना है कि किसी भी रचनाकार को अपनी संवेदना लगातार बचा कर रखनी चाहिए। अपने आसपास के परिवर्तन के प्रति ग्रहणशीलता लगातार बनी रहनी चाहिए। जिस मोमेंट आप उसे खो देते हैं आपकी संवेदनशीलता खत्म हो जाती है। फिर आपके पास सिर्फ नास्टेल्जिया या स्मृतियां बचती हैं। उनके सहारे आप चिठ्ठी या पर्सनल डायरी तो लिख सकते हैं कोई रचना-कोई कहानी या कविता नहीं लिख सकते। दिनेश श्रीनेत - लेकिन क्या ये सच नहीं है कि उस समय के रचनाकार के पास आस्था के कुछ केंद्र तो बचे ही थे। भले ही वे अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे। मगर क्या ये सच नहीं है कि आज का लेखक एक अराजक किस्म की अनास्था के बीच सृजन कर रहा है? उदय प्रकाश- आपको याद होगा जिस वक्त मैंने तिरिछ लिखी थी - उसी दौरान इंदिरा की हत्या व राजीव का राज्यारोहण हुआ था। राजीव नया के बड़े समर्थक थे। जैसे हिंदी कहानी में नई कहानी, नया लेखन जैसे फैशन आते-जाते रहे। तो राजीव नई शिक्षा नीति, नई अर्थनीति का नया चेहरा के अगुआ थे। विशव बैंक -अंतरराष्टीय मुद्राकोष के प्रभुत्व व हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि बनने लगी थी। निजीकरण शुरू हो गया। लोगों के बीच डि-सेंसेटाइजेशन बढ़ने लगा। मैं दिनमान में काम करता था। जो पानवाल पहले बहुत हंसकर बोलता था अब वह कैजुअल हो गया। जो चपरासी पहले अपने पत्नी बच्चों का दुखड़ा रोता था उसकी जगह आया नया चपरासी काम की बातें करता था बस। लोगों ने निजी बातें बंद कर दीं। तब मैंने तिरिछ लिखी। शुरू में बड़ा विरोध हुआ। अफवाह फैलाई गई कि यह मारक्वेज की ए क्रानकिल डेथ फोरटोल्ड की नकल है। एक कथाकार - आलोचक सज्जन ने मुझे लगभग डराते हुए कहा कि हंस अपने अगले अंक में एक पन्ने पर ओरिजिनल कहानी व दूसरे पर तिरिछ छापने जा रहा है। यकीन कीजिए मैं चुप रहा मुझे हंसी भी आई। मुझे हिंदी समाज से कुछ मिला नहीं है उन्होंने मुझे गाली या अपमान के सिवा कुछ नहीं दिया है। मैं ईमानदारी से कहूं तो घृणा करता हूं इस समाज ठीक उतनी ही जितनी वे मुझसे करते हैं। तिरिछ एक मार्मिक कथा बन पड़ी इसलिए नहीं कि उसमें पिता की मौत हो गई। यह दरअसल सिविलाइजेशन टांजेशन था। मैं कहना चाह रहा था कि अब जो अरबनाइजेशन होगा जो एक पूरी दुनिया बनेगी उसमें एक मनुष्य जो बूढ़ा है कमजोर है जिसके सेंसेज काम नहीं कर रहे। उसकी नियति मृत्यु होगी। वह बचेगा नहीं अनजाने ही मार दिया जाएगा।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
09-01-2014, 10:01 PM | #180 |
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Re: इधर-उधर से
हिंदी साहित्य की लोकप्रिय पुस्तकें
अभी पिछले दिनों एक दिलचस्प विवरण पढ़ने को मिला. इस विवरण में हिंदी की उन पुस्तकों के बारे बताया गया था जो लोकप्रियता के मामले में अन्य पुस्तकों से बढ़ चढ़ कर हैं. यहाँ पर लोकप्रियता का आधार उन पुस्तकों के अब तक छप चुके संस्करणों की संख्या को बनाया गया है. आइये पुस्तकों की लोकप्रियता के हिसाब से हिंदी की कुछ पुस्तकों की लिस्ट पर नज़र डालते हैं यद्यपि संस्करणों की संख्या का कोई पुख्ता आधार नहीं बताया गया. लिस्ट इस प्रकार है:- 1. मधुशाला ---- हरिवंशराय बच्चन- 61 संस्करण 1. गुनाहों का देवता- धर्मवीर भारती- 61 संस्करण 2. सूरज का सातवाँ घोड़ा.. वही ......60 संस्करण 3. भारत-भारती –मैथिली शरण गुप्त 47 संस्करण 4. साकेत ------- मैथिली शरण गुप्त-41 संस्करण 4. त्यागपत्र ---- जैनेन्द्र कुमार ------41 संस्करण 4. सारा आकाश- राजेन्द्र यादव ------41 संस्करण 5. नदी के द्वीप – अज्ञेय ------------35 संस्करण 5. कलम का सिपाही --- अमृतराय ..35 संस्करण 6. शेखर एक जीवनी ..... अज्ञेय .....33 संस्करण 7. मैला आँचल ....फनीश्वरनाथ रेणु .25 संस्करण 7. चित्रलेखा ......भगवती चरण वर्मा 25 संस्करण 7. आवारा मसीहा ... विष्णु प्रभाकर .25 संस्करण 8. तमस ............. भीष्म साहनी ...24 संस्करण 8. उर्वशी .......रामधारी सिंह दिनकर 23 संस्करण 9. आपका बंटी ... मन्नू भंडारी .......22 संस्करण 10. राग दरबारी .. श्रीलाल शुक्ल ...18 संस्करण 10. भूले बिसरे चित्र भगवती चरण वर्मा ..18 संस्करण 10. बाणभट्ट की आत्मकथा हजारी प्रसाद द्विवेदी 18 संस्करण उपरोक्त के अलावा भी कुछ और पुस्तकों को भी लोकप्रियता क्रम में जगह दी गयी है जैसे:- साए में धूप (दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें), आधा गाँव (राही मासूम रज़ा का उपन्यास), अँधा युग (धर्मवीर भारती का काव्य-नाटक), आषाढ़ का एक दिन (मोहन राकेश का नाटक), मुझे चाँद चाहिये (सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास), ग़ालिब छुटी शराब (रवींद्र कालिया), बूंद और समुद्र एवम् अमृत और विष (दोनों उपन्यासों के रचयिता अमृत लाल नागर) आदि पुस्तकें और प्रेमचंद का विशाल साहित्य जिसे कई कई प्रकाशकों ने कई कई बार छापा है. हर व्यक्ति का अपना अपना आकलन हो सकता है. अतः यह विश्लेषण भी विवादों से मुक्त नहीं होगा. इसका एक कारण तो यह है कि किताब पहली बार कब छपी थी, इस पर भी उसके संस्करण या आवृत्ति का फ़रक पड़ना स्वाभाविक होता है. यहाँ यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिये कि जो पुस्तकें छात्रों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं, उनकी आवृत्ति या संस्करण अन्य पुस्तकों की अपेक्षा अधिक निकलते हैं. इस प्रकार हम यह मान कर चल सकते हैं कि लोकप्रियता का यह कोई अंतिम आधार नहीं है.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 10-01-2014 at 01:30 PM. |
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