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05-04-2015, 09:40 AM | #1 |
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खुश्बु (१९७५)
अभी कुछ ही सालों पहेले की बात है। हमारे एरिया में केबलवालों के झगड़े चल रहे थे। घर से केबल-कनेक्शन काम नहीं कर रहे थे। मैने छत पर पुराने जमाने का एन्टेना लगा दिया था। अब देखने के लिए फिर से सिर्फ दूरदर्शन रह गया था।
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05-04-2015, 09:40 AM | #2 |
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Re: खुश्बु (१९७५)
वैसे मुझे अंग्रेजी फिल्मों का ईतना चाव चढ़ा था की चार-पांच साल तक कोम्प्युटर पर वही हैरतअंगेज करनेवाली फिल्मे देखता रहा। मुझे हंमेशा से लगता था की ईन हैरतअंगेज करनेवाली फिल्में सभी देखते है, लेकिन वे अमेरिका मे भी सबकी प्यारी तो नही होगी। बाद में लगा की ज्यादातर लोगो को दरअसल सीदी-सादी फिल्में ही पसंद है जो वहां के कल्चर से प्रभावित हो, फेमिली ड्रामा हो ईत्यादि। वहां एक्शन फिल्में हीट हो कर चली जाती है। उसका प्रभाव भी युवापीढी पर दिखाई देता है। फिर भी ईन सब के बीच ड्रामा फिल्में अपनी छाप छोड ही जाती है।
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05-04-2015, 09:40 AM | #3 |
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Re: खुश्बु (१९७५)
मुझे सिर्फ फिल्मों का ही शौक है ओर मेरी गीनती थी की मुझे तीन फिल्म प्रति सप्ताह देखने को मिल जाए तो भी बड़ी बात है। शनिवार, ईतवार को दो फिल्में देखने को मीलती थी लेकिन तीसरी फिल्म की भुक मिटाई 'बायोग्राफी' ने। यह बायोग्राफी नामक प्रोग्राम फिल्मों को तीन घंटो में बांट कर सोम से बुध तक रोजाना १०-३० से ११-३० तक प्रस्तुत करता था। उन दिनों बहूत अच्छी फिल्में देखने को मिली, जो आज तक मै नहीं भुल पाया।
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05-04-2015, 09:41 AM | #4 |
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Re: खुश्बु (१९७५)
उस दिन आई फिल्म 'खुश्बु' । मैने ईस से पहेले गुलज़ार की 'परिचय' देखी थी। उसे कोमेडी फिल्म के बाद ईस गामठी फिल्म में क्या मज़ा आएगा...मै वही सोच रहा था। तीन दिन, तीन टुकडों मे वह फिल्म देखने के बाद वह मेरी मनपसंद फिल्मों की सूची में शामिल हो गई।
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05-04-2015, 09:41 AM | #5 |
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Re: खुश्बु (१९७५)
फिल्म में सब कुछ एक के बाद एक परतों में रखा गया है। फिल्म को रीयालिस्टीक बनाया गया है। आप एक के बाद एक सक्षम चरित्र आपके समक्ष आते रहते है। फिर जब तक हम हेमामालिनी और जितेन्द्र का रिश्ता समज पाए कई तकलीफ, उलझनें भी उजागर होती है। साथ में असरानी और मास्टर राजु को देख जबरन मुस्कुराना भी पडता है।
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05-04-2015, 09:41 AM | #6 |
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Re: खुश्बु (१९७५)
असरानी जी का यह रोल मुझे बहूत पसंद है। उनको छोटी सी बात में देख कर जितना गुस्सा आता है, उतना ही अच्छा खुश्बु में गरीब भाई का रोल देख कर लगता है।
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05-04-2015, 09:41 AM | #7 |
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Re: खुश्बु (१९७५)
एक ओर छोटी सी बात याद आ गई। जितेन्द्र का एक पुराना हीट गाना टीवी पर चल रहा था। मुझे देख कर लगा की क्या ईस जंपीग जेक ने सिर्फ एसी ही फिल्में की थी? फिर अचानक याद आया...हां परिचय और खुश्बु ही मेरे लिए काफी नहीं थी?! जितेन्द्र का लुक ईस फिल्म में एकदम अलग है। हां वह परिचय जैसा ही है....लेकिन उनकी बाकी सभी फिल्मों से तो एकदम जुदा है। उन्हें ईतना सिन्सीयर शायद कभी नहीं देखा गया।
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05-04-2015, 09:42 AM | #8 |
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Re: खुश्बु (१९७५)
फिल्मों के गाने बहुत ही कर्णप्रिय है। ओ माझी रे, घर जाएगी तर जाएगी, दौ नेनों में आसूं भरे है...सभी एक से बढ कर एक।
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05-04-2015, 09:42 AM | #9 |
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Re: खुश्बु (१९७५)
अब बारी है कुसुम के पात्र की। उसकी हालत एसी है की वह ना तो त्यक्ता है और न तो ब्याह्ता। अत्यंत गरीब होने के बावजुद वह जीस गर्व और स्वाभिमान का प्रदर्शन करती है उससे नारी जाति के प्रति मान और बढ जाता है। साथ साथ कभी समाज के रिवाजों और उनके प्रभाव भी दिखते है। हेमामालिनी ईस फिल्म में सीदे-सादे गेटअप में भी ग्रेसफुल लगती है।
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05-04-2015, 09:43 AM | #10 |
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Re: खुश्बु (१९७५)
उनकी सहेली फरिदा जलाल का छोटा लेकिन खास रोल भी दिल को छू जाता है।
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