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Old 14-04-2013, 09:00 PM   #11
jai_bhardwaj
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प्रेम है कि नफ़रत है, जहाँ शराब कुछ भीतर तक उतरी, तहाँ आदमी की असलियत बोलने लगती है कि वह दरअसल है क्या। इस वक्त कम-से-कम खीमा साथ है, तो कुछ घर का सा वातावरण है। कहीं टनकपुर में ही अतक गए होते, तो फिर वही आधे अंग का खाना-पीना और सोना। केप छोड़ा था, तब से ही लगातार यही हुआ कि संपूर्णता नहीं है। प्रत्येक क्षण किसी की स्मृति है और, बस थोड़े-से फासले पर साथ-साथ चल रही है। पर मायामयी छाया को शरीर धारण करने में अभी भी बहुत समय लगना है। कल जाकर गाँव पहुँचेंगे, तब ही यह व्याकुलता थमेगी।

''जब तक सुदर्शनचक्र हाथ में है, तब तक सोचा है! इसकी छोटे मुँह बड़ी बात मान लेना, दाज्यू! कौन हसबैंड ऑफ मदर झूठ बोल रहा है! खीमसिंह ड्राइवर का नाम लेकर इन्क्यावरी कर सकता है, हर शख्स, जो चलना है टनकपुर-सोर की दस लाइन में, जहाँ कि ज़रा-सा बेलाइन हुए आप, श्रीमान जी तो समझिए कि मुरब्बा तैयार है!'' कहते हुए, खीमसिंह ने भुटुवे की प्लेट उठाकर, उसमें लगा तेल-मसाला चाटना शुरू कर दिया, तो मध्यम कोटि के सरूर में सूबेदार का ध्यान गया सीधे इस बात पर कि रास्ते में जाने कितनी बार तो सचमुच यही झस्-झस् हुई थी कि कहीं ऐसा न हो आइडेंटिटी-कार्ड साथ में रहता है, शिनाख्त ज़रूर पहुँच सकती है, लेकिन आदमी की जगह, सिर्फ़ उसकी शिनाख्त का पहुँचना कितना ख़तरनाक हो सकता है, इस बात की तमीज़ तो ससुरे इस सृष्टि के सिरजनहार तक को नहीं रही। एक खूबी इस चीज़ में है। एकदम लाइन के पार नहीं निकल जाए आदमी, तो पुल पर का चलना है। नीचे आपके मंथर गति की नदी बह रही है और आस-पास के पहाड़ ससुरे ऐसे घूर रहे हैं, जैसे कि घरवाली मायके जाती हो। कल्पना अगर किसी चिड़िया का नाम है, तो ठीक ऐसे ही मौके पर पंख खोलती है। जितनी बार खतरनाक मोड़ पड़ते थे, उतनी ही बार सूबेदारनी जंगल में हिरनी-जैसी व्याकुल होती जान पड़ती थीं, क्यों कि ध्यान में तो बैठी रहती हैं वही। और भीतर-ही-भीतर दोनों हाथ बार-बार इसी प्रार्थना में उठ जा रहे थे कि -- हे मइया, हाट की कालिका!
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
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''औरत है कि देवी है -- माया-मोह और भय-भीति का ही सहारा है। अटैची में चमचमाता लाल साटन डेढ़ मीटर रखा हुआ है और पौने इंची सुपरफाइन गोट और सितारे। चोला मइया का सूबेदारनी खुद अपने हाथों तैयार करेगी। जब तक मइया का ध्यान है, तब तक रक्षा ज़रूर है। नहीं तो, फौज की नौकरी में कौन जानता है कि सरकार ने कब दाना-पानी छुड़ा देना है। कैवेलरी की जिंदगानी है। जीन-लगाम ही अंगवस्त्र है। पिछले साल अचानक ही कैसा ब्लूस्टार ऑपरेशन हो गया और कितने वीर जवान राष्ट्र को समर्पित हो गए। अग्नि को भी समर्पण चाहिए। राष्ट्र की ज्योति जली रहे।

अब नैना सूबेदार का मन हो रहा था, एक प्लेट भुटुवा और मंगा लें, फिर चाहे थर्मस तक भी नौबत क्यों न आ पहुँचे। जाने को तो यह जिन्दगी ही चली जाने के लिए ही है, लेकिन कुछ वक्त ऐसे ज़रूर आते हैं, जो चाँदी के सिक्कों की तरह बोलते मालूम पड़ते हैं कि हम साथ रहेंगे। अब जैसे कि रूक्मा सूबेदारनी का ही ध्यान है, यह मात्र एकाध जनम तक ही साथ देने वाली वस्तु तो नहीं है। पहले कैसे धोती के पल्ले में नाक दबा लेती थीं सूबेदारनी साहिबा, पिछली बार की छुटि्टयों में निमोनिया की पकड़ में थीं, तो दो चम्मच ब्राण्डी पिलाना मछली का मुँह खोलकर, पानी का घूँट डालना हो गया। बाद में खुद कहने लगीं कि खेत-जंगल के कामों से टूटता बदन कुछ ठीक हो जाता है।

चूँकि भुगतान करने का ज़िम्मा खीमसिंह ने लिया, इसलिए संकोच था कि यह ज़ोर डालना हो जाएगा, मगर अपने भीतर की भाषा खीमसिंह में फूट पड़ी --''सूबेदार दाज्यू, भुटुवा बहुत ज़ोरदार बना ठहरा। एक प्लेट और लाता हूँ।''
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आखिर-आखिर थर्मस खंगाल कर पानी लेना पड़ा, लेकिन न खीमसिंह आपे से बाहर हुआ, न सूबेदार। धीरे धीरे जाने कहाँ-कहाँ की फसक-फराल लगाते में, रिमझिम-रिमझिम जज्ब होती चलीं गई। कैंप की कैटीन से बाहर निकलने की सी निश्चिंतता में, दोनों अब भोजन प्राप्त करने ढाबे की बेंच तक पहुँचे, तो देखा- ढाबे की मालकिन ही पराठे सेंक रही है और इतना तो खीमसिंह ने पहले ही बता दिया था कि यहाँ के खाने में रस है। औरत भी क्या चीज़ है, साहब। जो स्वाद सिल पर पिसे मसाले का, सो पुड़िया में कहाँ हैं। और पराठे स्साला कोई मर्द सेंक रहा हो, तो घी चाहे जितना लगा लें मगर यहा भुवनमोहिनी आवाज और हँसी कहाँ से लाएगा? इधर पराठा बेलती हैं, सेंकती है और उधर मज़ाक भी करती जाती है कि सूबेदारनी बहुत याद आ रही होंगी? कहाँ-कहाँ तक फैला दिया इसे भी, फैलाने वाले ने, जहाँ देखी, वैसी ही आभा है। जहाँ आप जल रहे, जाने कब शक्कर हो गई। बोलती है और अचानक ही हँस देती है, तो दुकानदारी करती कहाँ दिखाई देती है। कैसे पलक झपकते में दाँव लगा दिया कि 'आदमी तो दूर देश और बरसों का लौटा ही चीज होता है।' -- प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हुई में भी एक आँच हैं। वातावरण में घर की सी उष्मा मालूम देने लगी।

"हाँ, हाँ" कहने के सिवा और क्या कहना हुआ। तीन साल के बाद लौटने में तो अपने इलाके का इस पेड़ से उस पेड़ की तरफ कूदता-फाँदता बन्दर भी अपना-सा लगता है। यह तो अन्नपूर्णा की सी मूरत सामने है। होने को तो कुछ सुरूर 'थ्री-एक्स' का भी जरूर है, मगर जब तक भीतर की धारा से संगम ना हो, नशा चाहे जितना हो ले, यह दिव्यमनसता कहाँ।
चुल्हे की आँच में वह किसी वनदेवी की प्रतिमा की-सी छवि में हैं। सोने का गुलुबंद झिलमिला रहा है। पराठा पाथते में हाथों की चूड़ियाँ बज रही है। बीच-बीच में माथे पर के बाल हटाने को बायीं कुहनी हवा में उठाती है, तो रूक्मा सूबेदारनी की नकल उतारती-सी जान पड़ती है। कांक्षा हो रही है, दो के सिवा और कोई उपस्थित न हो। कोई-कोई समय जाने कैसी एक उतावली-सी भर देता है भीतर कि कहीं यह बीत न जाए।
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नैनसिंह सूबेदार को एक-एक ग्रास पहले पर्वत, फिर राई होता गया। आँखों की दुनिया अलग होती गई, हाथ-मुँह-उदर की अलग। खीमसिंह को तो, शायद, यह भ्रम हुआ हो कि थ्री एक्स ने भूख का मुँह खोल दिया है, लेकिन सूबेदार को जान पड़ा कि यह अकेले का खाना नहीं। बस, यही फिर सूबेदारनी का ही सामने बैठा होता-सा प्रतीत हुआ नहीं कि डकार भी आ गई। गिलास-भर पानी एक ही लय में गटकते, सूबेदार हाथ धोने नल की तरफ बढ़ गए।

कुछ क्षण होते हैं, विस्तार पकड़ते जाते हैं और कुछ विस्तार, जो धीरे-धीरे, क्षणिक होते जाते हैं, रास्ते का एक दिन कटना पर्वत, 'लेकिन घर पर महिने-भर की छुटि्टयाँ कपूर हो जाती है। पक्षियों-सा उड़ता समय कान में आवाज देता रहता है, लो, आज का दिन भी बीता तुम्हारा। अब बाकी कितने हैं।
बाबू ने थोड़े आँखर जागर गा तो दिया, अपशकुन क्यों करते हो कहने और सूबेदारनी बहू की गाई न्योली के कुछ बन्द सुन लेने पर, लेकिन आखिर तक उनका यह अफसोस गया नहीं कि जितनी रक़म इस फोटू कैमरे और ट्रांजिस्टर-टेपरिकार्डर में लगा दिए सूबेदार ने, उतने में घर के कितने जरूरी-जरूरी काम निबट जाते। अलबत्ता जर्सी, सूटों और थ्री एक्स की तीन बोतलों से उनकी आत्मा जरूर प्रसन्न हो गई कि "यार, पुत्र, जाड़े की मार से बचाने को आ गया तू।"
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चार सेल वाला टार्च भी उन्हें बहुत जमा और दस-पाँच दिन बीतते न बीतते तो खुद ही इस मजेदार मूड़ में आ गए कि -- यार, पुत्र, पैसा तो स्साला हाथ का मैल ठहरा! पुरूष की शोभा ठहरी जिंदादिली और रंगीनी! ले, आज तू भी क्या याद करेगा, चार आँखर भगवती जागरण पूरी श्रद्धा से कर देता हूँ। क्या करता हूँ कहता है तू, रिकार्ड ऑन करता हूँ? -- तो कर फिर ऑन -- हरी भगवान जी, प्रथम ध्यान मैं किसका धरता हूँ? तो ध्यान धरता हूँ, उस चौमुखी थिरंचि विधाता का, मइया महाकाली, जिसने कि यह अपूर्व सृष्टि रची और आकाश की जगह पर आकाश, धरती की जगह धरती और पहाड़ की जगह पहाड़, नदी की जगह नदी, अग्नि की जगह अग्नि और क्या नाम, माता गौरी शंकरी छप्परधारिणी, कि पानी की जगह पानी उत्पन्न किया। और कि फूल को पत्तों, दूध को कटोरे के आधार पर रखा। हाड़-माँस के पुतले में रखी प्राणों को संजीवनी। अहा री मइया सिंहवाहिनी -- कैसी अपरम्पार हुई सृष्टि कि सारे ब्रम्हाण्ड में एक महाशब्द व्याप्त हो गया। मनुष्य, तो मनुष्य हुआ, पाताल में का पक्षी भी 'मैं यहाँ, तू कहाँ' गाता दिखाई दिया! कहीं ऊँचा हिमालय रखा, कहीं मैला समुन्दर कहीं धूप रखी, कहीं छाया। कहीं मोहिनी रखी, कहीं माया। विरंची के बाने सृष्टि रची, विष्णु के रूप पोषण किया और शिव के रूप किया संहार -- दूसरा स्मरण तेरा है, माता भगवती, कि तूने भी जब गौरी पार्वती से माया का रूप महाभद्रा-महाकाली रखा, तभी स्थापना हुई तेरी भी हाट का कालिका, घाट की जोगिनी के रूप में। घर को घरिणी तू हुई, वन को हिरणी। पूत को माता हुई, पिता को कन्या कुआँरी --"

बाबू देवी जागरण गाए जा रहे थे। जाने कब गिलास में बाकी बची रम की एक ही घूँट में चढ़ाकर, खूँटी पर से हुड़का भी उतार लिया उन्होंने और 'दुड़-तुकि-दुड्-दुड्' का लहरा लगाते, पूरी तरह लय में हो गए। उनके माथे पर की चुटिया तक रंग में आ गई।
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पूरी पट्टी में कौन है उनके मुकाबले में भगवती महाकाली का जागरण रचाने वाला? लेकिन नैना सूबेदार का ध्यान तो 'कन्या-कन्या' सुनते ही इस तरफ चला गया, तो फिर लौटना मुश्किल हो गया कि आज तो उन्नीसवाँ दिवस, उन्होंने तो घर पहुँचने के पहले ही दिन मजाक-मजाक में सूबेदारनी के पाँव ही पकड़ लिए थे कि -- 'भगवती, कन्या ही देना' हाँ, तरंग तो कुछ तब भी जरूर रही होगी लेकिन दृष्य भी उत्पन्न तभी होता है, जबकि भीतर कोलाहल हो। जागर में भी तो यही बताया बाबू ने कि प्रथम तो उदित हुआ शब्द, तब कहीं जाके सूरज? इसी बात पर तो, खीमा के साथ ट्रक में की जात्रा की तरह, फिर अचानक हँसी फूट पड़ी और बाबू ने समझा कि कुछ ज्यादा चढ़ गई होगी। एक-दो बन्द और गाकर, हुड़के की पाग को गले से उतार कर, हुड़के में ही लपेट दिया, "कल का दिन बीच में है, नैन ! परसों शनिवार -- तीन दिन का जागर मइया हाट की कालिका के दरबार में लगना ही है। जा, सो जा, बहू रास्ता देखती होगी। मइया के दरबार में देखना कैसा जागर लगाता हूँ। आखिरी जागर होगा यह "
बुढ़वा जी बदमाश हैं। 'बच्चे रास्ता देखते होंगे' नहीं कहते। क्या कर रहे थे उस दिन कि जीवन की चक्की का एक पाट जाता रहा, एक रह गया। माँ को परमधाम गए ठीक-ठीक कितने साल बीते होंगे?

ज्यों-ज्यों छुटि्टयाँ पूँछ रहती जाती है, बीता और विस्तार पाता चल रहा है। चंपावत में रात कैसी बीती थी? भीतर-भीतर कोई यहाँ तक जोर बाँधने लगा था कि राइफिल की नोक पर सामने बिठाए रखो इस औरत को और बताओ इसे कि रोम-रोम में जो व्याकुलता जगाए चली गई हो, इसका देनदार कौन है? हवा की जगह आँधी का रूप रखती खुद गायब हुई जा रही हो, और नैनसिंह सूबेदार पेड़ की डालों से लेकर पहाड़ की चोटियों तक काँपता पड़ा रह गया है, रात के इस अनन्त लगते हुए-से सन्नाटे में? रूप भी शरीर से है, इसे तुम क्या नैना सूबेदार से कुछ कम जानती होगी भगवती? आँखो से लाचार खींचता है, बलवान तो हाथों से काम लेता है।
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बस इसी बलवान वाली बात पर सूबेदार को खीमसिंह के साथ चुपचाप उठ जाना पड़ा कि कहीं 'जम्बू बोले यह गत भई, तू क्या बोले कागा?' वाली बात न हो जाय। बद अच्छा, बदनामी बुरी।
तब का व्यतीत, अब तक साथ है ।
अड्डे तक सचमुच दस बजे से भी कुछ पहले ही पहुँच दिया था खीमसिंह ने। सुबह-सुबह चम्पावत से लोहाघाट तक कितनी गहरी और गझिन धुंध थी ।

ट्रक-समेत कहीं अदृश्य लोक में प्रवेश करते होने की भी अनुभूति होती थी और भय। सारा ध्यान इसी बात पर टँगा रहता कि क्या सचमुच इसी जनम में फिर रूक्मा सूबेदारनी होंगी और उनके साथ का तालाब में की मछली का-सा इस कोने से उस कोने तक उजाड़ना? घर पहुँचने के बाद, थोड़ा एकान्त पाते ही सूबेदारनी एकाएक दोनों पाँव जकड़ लेंगी और सोते-से फूट पड़ेंगे धरती में। जन्म-जन्मांतरों की-सी व्याकुलता में, उनकी पीठ तक हिलती होगी। तब, दोनों हाथ काखों में डाले, ऊपर उठाएँगे सूबेदार और सात्वंना देने में, एकाकार हो जाएँगे। तब ट्रक की यात्रा में ही जाने कितनी बार हुआ कि परमात्मा तो अंतर्यामी है, उससे क्या छिपा है, मगर बगल में ड्रायवर की सीट पर बैठा खीमसिंह भी न देख रहा हो। जब कोई जागता है हर क्षण आदमी की स्मृतियों में, पशु-पक्षी भी भीतर तक झाँकते गोचर होते है।
सूबेदारनी साहिबा से क्या कहा था उस पहली रात ही कि "एक आँख से हम देख रहे हैं, एक से तुम। वह भगवती पराठा सेंकती जाती है और मंजीरा-सा बजाती है कि 'एक पराठा तो और लो सूबेदार, साहब!' -- और हमें आप ही सेंकती-खिलाती नजर आती हो। ये तो आपने अब बताया कि कल रात का व्रत रखा था। देखिए कि हम बिना खबर हुए ही दो जनों का भोजन कर गए।"
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क्या रखा है स्साले किसी आदमी की जिंदगी में, अगर कहीं पाँवों से लेकर, सिर से ऊपर तक का, गहरे तालाब-जैसा प्रेम नहीं रखा है। कहाँ तो एकमूकता का-सा आलम था प्रारम्भ में। फिर शब्द फूटा एकाएक, तो सचमुच एक सृष्टि होती चली गई। जीभ में लपटा तागे का गुच्छा हट गया और वाणी झरना होती गई। जाने कब, कहाँ रात बीती। सूबेदारनी साहिबा ने नहीं टोका एक बार भी, सिर्फ इतना कहती, उठ खड़ी हुई कि विहानतारा निकल आया है। सूबेदार को भी यही हुआ कि माता भगवती, तू नहीं, तो और कौन है। कौन जागता है, दिन-रात हमारे लिए। कौन देता है इतना ध्यान। किसे पड़ी है हमारी इतनी चिन्ता।
वह गाँव पहुँचने की पहली ही रात थी। किंतु डोंगरे बालामृत वाले कलेंडर में माँ हाट की कालिका के पांवों के नीचे आ पड़े शिवशंकर की सी जो दशा अनुभव हुई थी, वह अब तक साथ है। फर्क इतना कि शंकर अनजाने आ गए, पाँवों के नीचे, नैना सूबेदार अंत:प्रेरणा से। सूबेदारनी 'विहानतारा निकल आया' कहती खड़ी हुई ही थी कि बिस्तर से पाँव बाहर रखते तक में, नैना सूबेदारनी ने सब सुन लिया।

छुटि्टयों के लिए अर्जी लगाने के दिन से लेकर, यहाँ पहुँचने के दिन तक की सारी व्याकुलता पर कैसे अपने ही रक्त में से बार-बार अवतरित होती, रोम-रोम में छा जाती रही सूबेदारनी। बाजार निकलते, सो कैसे साक्षात् उपस्थित होती-सी खुद ही ध्यान दिलाती रहती पग-पग पर कि उनके लिए क्या-क्या वस्तुएँ लेनी है, और क्या बच्चों और बाबू के लिए, इनका जाने कब, कहाँ से अचानक छाया की तरह का प्रकट होना और सारा ध्यान अपनी ओर खींच लेना, बस, गाँव पहुँचकर ही थमा है।
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पाँव छूते ही मिट्टी के घड़े की तरह का फूट पड़ना और सारा जल सूबेदार पर उँडेल देना किया था सूबेदारनी ने, तब कहीं खुद के पूर्णांग हुए होने की-सी तृप्ति हुई थी।
कल और भी क्या हुआ था। उधर बाबू देवी-जागरण में हैं और इधर सूबेदारनी के साथ का एक-एक दिन बाइस्कोप के चित्रों की तरह आँखों के सामने हुआ जा रहा है कि कौन-सा सूबेदारनी के साथ कितना बीता और कितना खेतों, कितना जंगल और नदी-बावड़ी में। कितना एक बगल सूबेदारनी है, दुसरी बगल भिमुवा या रमुवा! सूबेदार कह रहे हैं -- 'भिमुवा की अम्मा!' -- सूबेदारनी -- 'रमुवा के बाबू!' -- और यह कि 'इजा की जगह' अम्मा क्यों कहने लगे हो?'

सूबेदार एकाएक अपनी फौजी अंग्रेजी ठोंक दे रहे हैं -- 'एव्हरी डे एण्ड एव्हरी नाइट -- माई डियर सूबेदारनी, यू वॉज ऑन माई ड्रीम!' -- और सूबेदारनी पालिएस्टर की नई साड़ी का छोर मुँह में दबा ले रही, "आग लगे तुम्हारी इस लालपोकिया बानरों की जैसी बोली को।"
अंग्रेजी का अ-आ नहीं जानती है, लेकिन अंग्रजी का रंग गुलाबी होता है, इतना उन्हें पता है। सूबेदार समझा देते है कि 'इतना तो, माई डियर, बिल्कुल करेक्ट पकड़ लिया आपने कि यह लालपोकिया अंग्रेजी की लैंग्विज है।"

रातों को काफी ठंड है और छोटे रमुवा ने सोए-सोए ही लघुशंका निबटा दी है, तो सूबेदारनी मजाक कर रही है, "वहाँ फौज में भी ऐसा ही कर देते हो क्या?" सूबेदार बदले में कुछ और गहरा मजाक करने की सेाच ही रहे हैं कि सूबेदारनी की आँखें एकाएक आर्द्रा नक्षत्र में हो जाती है, "मेरे लिए रमुवा में तुममें क्या अंतर हुआ!"
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इसीलिए कहने और मानने को मन करता है कि देवी मइया, तू नहीं, तो कौन है। दो-तीन साल बलि के बकरे की तरह का टंगा होना होता है वहाँ और कौन है वहाँ, जिससे बातें करते खुद के ऊँचे-ऊँचे पर्वतशिखरों पर आसीन होने और साथ में किसी के अपने में से ही झरने की तरह फूट, या नीचे नदी की तरह बह रहे होने की प्रतीति हो। जहाँ सिर के ऊपर जाने ससुरे कितने कप्तान-कर्नल-जर्नल लढ़े रहते हैं, वहाँ सूबेदार की औकात क्या होती है। लेकिन यहाँ -- और स्मृति की मानो, तो वहाँ भी -- एक तेरा स्पर्श होता है कि शरीर में वनस्पतियाँ-सी फूट पड़ती है।
हाट की कालिका मइया के दरबार में जाने का दिन सिर पर आ रहा है और तत्पश्चात् ही सामने होगी -- विदा हेाने की घड़ी। सूबेदारनी के साथ बीते एक-एक दिन के पुष्प अँधेरे में बिखेर देने को मन करता है और टॉर्च हाथ में लेकर, ढूँढ़ने को। आज भी सूबेदारनी अभी-अभी, रोज की तरह, विहानतारे को गोद में लेकर दूध पिलाने को उतावली, छाती पर पाँव रखती-सी निकल गई है, लेकिन झाँवरों की आवाज अभी भी मधुमक्खियों का सा छत्ता डाले हुए है।

"चहा तैयार है, बाबू!" कहता भिमुवा देहली पर खड़ा दिखाई दिया, तब हुआ कि सुबह हो गई होगी। आज का दिन बीच में है, कल ही हाट की जात्रा पर जाना है। सूबेदारनी कल कह रही थी कि "हंहो, रमुवा के बाबू, तुम कह रहे थे इस बार बाँज की पाल्यों कैसी हो रही है?"
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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