04-01-2013, 08:32 PM | #11 |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
सेहरा औ’ मर्सिया (रचना: दिलावर फिगार) अच्छे मियां का अक्द हुआ है बहार में. कह दो किसी से फूल बिछा दे मज़ार में. रू -ए –हसीं से सेहरे पे कैसी बहार है. ऐ मौत आ भी जा कि तेरा इंतज़ार है. दुल्हा दुल्हन शरीफ घराने में हैं पले. “लाई हयात आये, कज़ा ले चली चले.” नौशाह को उरूसी बड़ी ज़ीहुनर मिली. मरहूम को हयात बड़ी मुख़्तसर मिली. या रब बनी के साथ हमेशा बना रहे. ये क्या रहेंगे जब न रसूले-खुदा रहे. नौशाह को उरूज़ वो रब्बे-जलील दे. और उसके वारिसीन को सब्रे-जमील दे. १. अक्द = विवाह २. रू-ए-हसीं = हसीन चेहरे ३. हयात = जीवन ४. कज़ा = मृत्यु ५. नौशाह = दूल्हा ६. उरूसी = दुल्हन / पत्नी ७. ज़ीहुनर = गुणी ८. मरहूम = स्वर्गीय ९. मुख़्तसर = छोटी १०. बनी = दुल्हन ११. बना = दूल्हा १२. रसूले खुदा = पैग़म्बर १३. उरूज़ = ऊंचाई १४. रब्बे-जलील = महान ईश्वर १५. वारिसीन = उत्तराधिकारी १६. सब्रे-जमील = सहन करने की शक्ति (लफ्ज़: दिस. २००६ - फरवरी २००७ से साभार) Last edited by rajnish manga; 06-01-2013 at 06:41 PM. |
05-01-2013, 10:50 AM | #12 |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
उर्दू अदब की यही खुसूसियात उसे साहित्यांचल में सिरमौर बनाती हैं। एक अनुपम रवायत पर रौशनी डालने के लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया रजनीशजी।
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04-02-2013, 05:10 AM | #13 |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
कुछ मज़ाहिया अशआर ...
अय मेरी बेगम ना तू मेरी खुदी कमजोर कर ये शरीफों का मोहल्ला है ना इतना शोर कर शब के पुरतस्कीन लम्हों में ना मुझको बोर कर इस सआदतमंद शौहर को ना यूं इग्नोर कर दीदा ओ दिल तेरी चाहत के लिए बेताब है मुझ सा शौहर आजकल बाज़ार में नायाब है
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04-02-2013, 05:45 PM | #14 |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
ये इश्*क़ नहीं मुश्किल बस इतना समझ लीजिये
कब आग का दरिया है कब डूब कर जाना है । मायूस ना हो आशिक़ मिल जायेगी माशूक़ा बस इतनी सी ज़ेहमत है मोबाइल उठाना है ।।
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04-02-2013, 05:46 PM | #15 |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
कहां निकलती हैं नमकीन सूरतें घर से
नमक की शहर में क़ीमत जो बढ़ गयी प्*यारे नमक-हलालों की यूं ही कमी है दुनिया में नमक हरामों की औक़ात बढ़ गयी प्*यारे ।।
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10-04-2013, 11:56 AM | #16 |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
... तो 'ज़िया' चल दिए घर से
माशूक जो ठिगना है आशिक भी है नाटा इसका कोई नुकसान न उसका कोई घाटा तेरी नवाज़िश है कि तू आ गया लेकिन अय दोस्त मेरे घर में न चावल है न आटा लड्डन तो हनीमून मनाने गए लन्दन चल हम भी क्लिफ्टन पे करें सैर सपाटा तुमने तो कहा था कि चलो डूब मरें हम अब साहिले-दरिया पे खड़े करते हो टा-टा उश्शाक़ राह-ए-इश्क़ में मोहतात रहेंगे सीखा है हसीनों ने भी जूडो कराटा काला न सही लाल सही तिल तो बना है अच्छा हुआ मच्छर ने तेरे गाल पे काटा उस रोज़ से मैंने उसे छेड़ा तो नहीं है जिस रोज़ से ज़ालिम ने जमाया है चमाटा जब उसने बुलाया तो 'ज़िया' चल दिए घर से बिस्तर को रखा सर पे, लपेटा न लिपाटा
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10-04-2013, 11:27 PM | #17 | |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
Quote:
बहुत अच्छे, अलैक जी. बहुत दिनों के बाद ऐसा बढ़िया मज़ाहिया कलाम पढ़वाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया. |
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09-09-2013, 12:43 AM | #18 |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
क्या कहने जनाब बहुत खूब.
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12-09-2013, 08:58 AM | #19 |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
कहाँ छिपे हुए हैं यह सभी नगीने. इस फोरम पर विचरण तो समुन्द्र मंथन के समान है, जितना मंथन करो उतने ही शानदार और रोचक सूत्र निकल कर बाहर आयेंगे.
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24-04-2014, 11:00 PM | #20 |
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Re: उर्दू की मज़ाहिया शायरी
एक मज़ाहिया ग़ज़ल
फैज़ मुहम्मद कुरैशी मैं हूँ बीवी से परेशान तुम्हें क्या मालूम है मुसीबत में मेरी जान तुम्हें क्या मालूम जब से शादी हुई घर के न रहे घाट के हम मर गये दिल के सब अरमान तुम्हें क्या मालूम घर से बन ठनके न यूँ रात को निकलो खानम राह में होगा कोई खान तुम्हें क्या मालूम पान मुंह में है अँधेरा है कहाँ ढूंढोगे कहाँ रखा है उगलदान तुम्हें क्या मालूम वो जो शैतान था बैठा है सरेंडर कर के आदमी हो गया शैतान तुन्हें क्या मालूम फर्माबरदार रहे, ज़ुल्म सहे, कुछ न कहे अच्छे शौहर की है पहचान तुम्हें क्या मालूम सच तो कहते हैं मगर जान पे जब आती है ‘फैज़’ बन जाते हैं अनजान तुम्हें क्या मालूम
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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