18-11-2013, 09:49 PM | #11 |
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Re: किस्सागोई के आखिरी शहंशाह.....
हजारों शादियां में बैंड बजाने वाले इब्राहिम स्वयं कुंआरे ही रह गए और अगर उनकी शादी होती तो शायद वे स्वयं ही दूल्हा भी होते और बैंडवाला भी जैसे कि केए अब्बास की महान ‘चार दिल चार राहों’ में नायक राजकपूर चांवली चमारन से शादी करने जा रहा है तो कोई बराती साथ जाने को तैयार नहीं है, वह स्वयं हाथ में मशाल लिए गाता हुआ शादी करने जाता है। यह बात गौरतलब है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों के वे ही गीत कालजयी हुए हैं जिन्हें बैंडमास्टर शादियों में बजाते हैं और वे केवल सरल हृदय को छूने वाले गीत ही बजा पाते हैं जबकि आज संगीत में कंप्यूटर जनित अजीबोगरीब ध्वनियों के कारण यह संभव नहीं है।विजयदान देथा की ‘सिकंदर और कौआ’ कहानी में अमर हो जाने की लालसा के खोखलेपन को उजागर किया गया है और उदयप्रकाश इस पर फिल्म बना चुके हैं। ‘महाभारत’ में मोक्ष की अवधारणा पर यह बात कही गई है कि अपने निजत्व को क्यों किसी विराट में मिलाकर उसे शून्य करें और स्मृति पटल के बिना स्वर्ग जाने या पुन: जन्मे जाने का क्या अर्थ है। अब इसी तरह अगर विजयदान देथा के कपडों से राजस्थान की मिट्टी और रेत झटकने का आदेश ईश्वर दें तो संभव है विजयदान देथा इनकार कर दें और लौट आएं क्योंकि उनके लिए कण-कण रेत ही अपने अस्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा है या कहें कि युधिष्ठिर के कुत्ते की तरह है.........
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18-11-2013, 09:55 PM | #12 |
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18-11-2013, 09:56 PM | #13 |
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18-11-2013, 09:56 PM | #14 |
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18-11-2013, 09:58 PM | #15 |
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18-11-2013, 09:58 PM | #16 |
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18-11-2013, 09:59 PM | #17 |
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15-01-2014, 04:42 PM | #18 |
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Re: किस्सागोई के आखिरी शहंशाह.....
कृतियाँ : राजस्थानी भाषा में करीब 800 से अधिक लघुकथाएं लिखने वाले विजयदान देथा की कृतियों का हिंदी, अंग्रेज़ी समेत विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया। विजयदान देथा ने कविताएँ भी लिखीं और उपन्यास भी। वे कलात्मक दृष्टि से उतने सफल नहीं नहीं हो सके। संभवतः उनकी रचनात्मक क्षमता खिल पाई लोक कथाओं के साथ उनके अपने काम में। विजयदान देथा ने रंगमंच और सिनेमा को अपनी ओर खींचा। एक अच्छी खासी आबादी है जो उन्हें 'चरणदास चोर' के माध्यम से ही जानती है। अमोल पालेकर, मणि कौल, प्रकाश झा, श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने उनकी कहानियों पर फिल्में बनाईं। हबीब तनवीर उनकी कहानी को अपनाने वाले रंग निर्देशकों में सबसे प्रसिद्ध हैं लेकिन देश भर में उनकी जाने कितनी कहानियों को मंच पर खेला गया, इसका कोई हिसाब नहीं है :......... राजस्थानी कृतियाँ बाताँ री फुलवारी, भाग 1-14, 1960 - 1974, लोक लोरियाँ प्रेरणा (कोमल कोठारी द्वारा सह-सम्पादित) 1953 सोरठा, 1956 - 1958 टिडो राव, राजस्थानी की प्रथम जेब में रखने लायक पुस्तक, 1965 उलझन, 1984, (उपन्यास) अलेखुन हिटलर, 1984, (लघु कथाएँ) रूँख, 1987 कबू रानी, 1989, (बच्चों की कहानियाँ) राजस्थानी-हिन्दी कहावत कोष। (संपादन) हिन्दी अनुवादित कृतियाँ अपनी मातृ भाषा राजस्थानी के समादर के लिए 'बिज्जी' ने कभी अन्य किसी भाषा में नहीं लिखा, उनका अधिकतर कार्य उनके एक पुत्र कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी में अनुवादित किया। उषा, 1946 (कविताएँ) बापु के तीन हत्यारे, 1948 (आलोचना) ज्वाला साप्ताहिक में स्तम्भ, 1949 – 1952 साहित्य और समाज, 1960, (निबन्ध) अनोखा पेड़ (सचित्र बच्चों की कहानियाँ), 1968 फूलवारी (कैलाश कबीर द्वारा हिन्दी अनुवादित) 1992 चौधरायन की चतुराई (लघु कथाएँ) 1996 अन्तराल, 1997 (लघु कथाएँ) सपन प्रिया, 1997 (लघु कथाएँ) मेरो दर्द ना जाणे कोय, 1997 (निबन्ध) अतिरिक्ता, 1997 (आलोचना) महामिलन, (उपन्यास) 1998 प्रिया मृणाल, 1998 (लघु कथाएँ)
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