25-05-2014, 10:44 AM | #1 |
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विभाजन कथा: रफूजी
कथाकार: स्वदेश दीपक नानी बिलकुल अनपढ़। अस्सी के ऊपर आयु होगी, लेकिन अंग्रेजी के कुछ शब्द उसे आते हैं - जैसे कि रिफ्यूजी, जिसे वह रफूजी बोलती है। कुछ शब्द इतिहास की उपज होते हैं, जो प्रतिदिन की जिंदगी का हिस्सा बन जाते हैं। ये शब्द राजा अथवा रानी की देन होते हैं। अंग्रेज जाते-जाते बँटवारा करा गए और विरासत में एक शब्द दे गए - रिफ्यूजी। जैसा कुछ वर्ष पहले हमारी महारानी मरी और विरासत में एक शब्द दे गई - उग्रवादी। सारा क़स्बा उसे नानी कह कर बुलाता है। शायद परिवार के सदस्यों के अलावा किसी को भी असली नाम मालूम या याद नहीं। जिस्म के सारे हिस्से जिस्म का साथ छोड़ चुके हैं सिवा आवाज के। फटे ढोल की तरह की आवाज - एकदम कानफाड़ और ऊँची। बेटे तो बँटवारे की भेंट चढ़ गए, एक लड़की बची थी, इसलिए कि विभाजन से पहले वह जालंधर में ब्याही गई। अब यह भी नहीं। उसके बेटे, अपने दोहते के साथ नानी रहती है, इस कसबे में। कलेमों में थोड़ी जमीन मिल गई, मकान भी बनवा लिया। दोहता कॉलेज में पढ़ाता है, लेकिन नानी उसे प्रोफेसर नहीं, मास्टर कह कर बुलाती है। उसकी समझ में सब पढ़ानेवाले मास्टर ही होते हैं। वह जालंधर के कॉलेज में, जो यहाँ से दस किलोमीटर दूर है, रोज पढ़ाने जाता है, स्कूटर पर। नानी आँगन में नीम के पेड़ के नीचे लेटी हुई। बच्चे स्कूल जा चुके हैं, अपनी माँ के साथ, जो उसी स्कूल में पढ़ाती है। >>>
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 25-05-2014 at 10:52 AM. |
25-05-2014, 10:56 AM | #2 |
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Re: विभाजन कथा: रफूजी
आँगन में कदमों की आवाजें। नानी कमर पर हाथ रख चारपाई पर अध-उठ गई। अध-अंधी है। नजर बाँध कर कदमों को, आवाजों को, जिस्*मों के साथ जोड़ने की कोशिश की, लेकिनकोशिश, नाकाम।
'कोण। किस नूँ मिलना है? घर कोई नहीं। शाम नूँ आणा।' नानी की आवाज सुन कर नीम पर बैठे कौवे ने गर्दन घुमाई। कहीं कोई खतरा नहीं। फिर भी एक टहनी से दूसरी टहनी पर छलाँग गया। 'नानी, तेरी तो आँखें भी गईं। चल, फिकर न कर, आँखों के बैंक से किसी जवान कुड़ी की आँखें तुझे डलवा देंगे। मरने से पहले जहान तो देख लेगी।' 'जीते, तू मोया साठ का हो गया, लेकिन जबान अब भी कैंची की कैंची। मैं मरनेवाली नहीं। तेरा संसकार करके ही जाऊँगी। खातिर जमा रख।' 'नानी, बैंक से आँखें ला दूँ? एकदम जवान हो जाएगी।' 'कौन। मल्कियत। नानी को जवान बनाएगा। मोया फिर सात फेरे भी लेगा न। तेरी घरवाली तो कब की मर गई, मुझे घर ले चलना। इस उमर में लुत्तर-लुत्तर तो बंद होगी।' सरपंच सुरजीत सिंह ने नीम के नीचे दूसरी चारपाई बिछाई, तहमद टखनों तक खींची और पसर गया। नानी को फिर छेड़ा, 'नानी, बैंक से आँखें...' 'चुप ओए मोया। जीभ में कीड़े पड़ेंगे कीड़े। मुझे बेवकूफ बनाता है। बंक में तेरे बाप रुपए देते हैं कि आँखें...? तू तो अपनी माँ को भी ऐसे ही छेड़ता था।' नानी को अचानक याद आया कि मल्कियत सिंह बिलकुल चुप है। जरूर कोई बात होगी, वरना यह तो कैंची है, कैंची - लगातार चकट-चकट करती हुई। >>>
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25-05-2014, 10:57 AM | #3 |
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Re: विभाजन कथा: रफूजी
'मलकीते, तैनूँ साँप क्*यों सूँघ गया है। बोलता क्*यों नहीं। रात बोतल नहीं मिली क्*या? ठहर, मैं लस्*सी लाती हूँ।' नानी ने उठने की कोशिश की।
'तू बैठी रह नानी, अब की उठी शाम तक अंदर से वापस आएगी। तेरे लारे और ब्*याहे भी क्*वारे।' 'मरजाँणा, बस महवारे डालना तो कोई तुझसे सीखे। अच्*छा यह सवेरे-सवेरे यहाँ चढ़ाई किसलिए कर दी?' सुरजीत और मल्कियत ने एक-दूसरे की तरफ पूछती निगाहों से देखा था - नानी से बात कौन करे? नानी ने उसकी चुप्*पी को सूँघ लिया। उसे पता है इस इलाके के लोगों काएकदम चुप होना किसी बुरी बात के खतरे की निशानी होती है। वह थोड़ा-सा डर गई इसलिए और ऊँची आवाज में बोली – 'ओये मोये, जीभ तालू से क्*यों चिपक गई? कुछ बकते क्*यों नहीं? मेरे मास्*टर की कही टक्*कर तो नहीं लग गई?' इस बार आवाज का धमाका इतना ऊँचा था कि कौवे बिलकुल डर गए। उडारी भर कर छत पर जा बैठे। 'नानी की बच्*ची, मास्*टर नहीं, प्रोफेसर कह। तुझे कितनी बार बताया है कि जो कॉलेज में पढ़ाए, उसे प्रोफेसर कहते हैं।' 'चुप्*प ओये, बड़ा आया मुझे सीख देनेवाला। पढ़ाता ही है न, चाहे कालज-फालज में पढ़ाए, चाहे स्*कूल में, मास्*टर तो मास्*टर होगा, थानेदार तो नहीं। अच्*छा बताओ, की गल है?' मल्कियत ने सुरजीत को कुहनी मारी कि तू ही बोल। 'सुन नानी, प्रोफेसर को समझा दे कि फालतू न बोला करे। आजकल ऐसी बातें करना ठीक नहीं।' >>>
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25-05-2014, 11:06 AM | #4 |
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Re: विभाजन कथा: रफूजी
'क्*या फालतू बोलता है, जरा मैं भी तो सुनूँ। सारा दिन तो किताबें चाटता रहता हैं। अभी से ऐनक चढ़ गई, बुड्ढा हो गया।'
नानी के लिए नजर की ऐनक नजर की शुरुआत है। 'नानी, उगरवादियों के खिलाफ सरेआम बोलता है। अपनी क्*लासों में भी। गाँव के लड़के, जो कॉलेज में पढ़ते हैं, उन्*होंनेहमें बताया।' 'खलाफ बोलता है तो क्*या बुरा करता है। अब सच बोलने पर कर्फ्यू लग गया है क्*या?' 'नानी, लगता है तेरा दिमाग भी चल गया,' सुरजीत सिंह की आवाज सख्*त हो गई, 'तुझे पता नहीं कि अब मुल्क में सच बोलने की मनाही है। बस दो टैम की रोटी खाओ, और जोदिन खैर-खरीयत से गुजर जाए, सच्*चे पातशाह की किरपा समझो। लोगाँ के सिर पर खून सवार है। लेकिन तेरा पढ़ा-लिखा प्रोफसर तो झल्ला हो गया है, बोलने से बाज नहींआता। क्*या सरकार ने उसे सच का नंबरदार बना दिया है?' नानी के अतीत से अपने पेड़ जैसे तीन लड़कों का अपनी आँखों के सामने क़त्ल होने का दृश्*य कूदा और उसकी अध-अंधी आँखों में ठहर गया। उसने पूरा जोर लगाया और चारपाईपर गठरी बन गई। आजकल जो कुछ हो रहा है, उसे वैसे भी समझ नहीं आता, लेकिन आतंक की बू को तो जानवरों तक की इंद्रियाँ ग्रहण कर लेती हैं। नानी को बहुत-सी बातेंसुनाई तो देती हैं, कारण समझ न आए। उसने याचना भरी आवाज में सलाह दी – >>>
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25-05-2014, 11:19 AM | #5 |
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Re: विभाजन कथा: रफूजी
'मलकीयते, तू ही समझा मास्टर को। तुमसे तो दबता है। मैं कुछ कहूँ तो जवाब तक नहीं देता। उसकी घरवाली भी कोशिश करती है, लेकिन पता नहीं उसे अंग्रेजी में क्या कहता है कि वह चुप हो जाती है। मेरी तो आखिरी निशानी है मेरा इंदर। उसे भी कुछ हो गया तो खानदान का बीज तक नाश हो जाएगा।' अब नानी बेआवाज रो रही है। चेहरे कीगहरी झुर्रियों में आँसू गिर कर अटक गए।
'ओये नानो, उसे क्या होगा। हमारे गाँव में किसी हिंदू को आज तक किसी ने छूआ है क्या। मलकियते की दोनाली बंदूक को सारा दुआबा जानता है, समझी। दो क़त्ल कर चुकाहै, दो।' उसने इतना ऊँचा बोला कि छत की मुँडेर पर बैठे कौवों ने इस बार लंबी उडारी भरी और मकान की हद से बाहर निकल गए। 'लेकिन नानी, बड़ा खराब वक्त चल रहा है। किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। भाई को भाई शक़ की नजर से देखने लग पड़ा है। इस इंदर को हम भी समझाएँगे, लेकिन तूबात जरूर करना। चौरासी में जब दिल्ली में दंगे हुए थे, तो इंदर हिन्दुओं के खलाफ सरेआम बोलता था न। तब भी हमने समझाया, लेकिन नहीं माना न। हिंदुओं ने ही ईंट मारकर उसका सिर फोड़ दिया था। कितना खून चढ़ा, तब जा कर बचा। उसे बता कि आजकल झूठ का बोलबाला और सच का मुँह काला।' सुरजीत चारपाई से उठा, तहमद नीचे की। मल्कियत ने साफ देखा कि नानी के चेहरे पर से दहशत अब भी नहीं हटी। 'नानी, तू खातर जमा रख, हमारे होते चिड़ी भी गाँव में नहीं फटक सकती। ऐसा सूरमा अभी किसी माँ ने पैदा नहीं किया, जो हमारे गाँव में आ कर उस पर हमला कर सके।लेकिन शहर से तो स्कूटर पर अकेला आता है न, कहीं रास्ते में...' मल्कियत ने अपनी बात पूरी करने की जरूरत नहीं समझी। >>>
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26-05-2014, 11:10 AM | #6 |
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Re: विभाजन कथा: रफूजी
'अच्*छा पुत्तरो, तुसी चलो, साईं रखे।'
दोनों ने आज पहली बार नानी को वहाँ से जाने से पहले छेड़ा नहीं। कौवे फिर नीम के पेड़ पर लौट आए। काँव-काँव, रोटी दे-रोटी दे की रट लगा दी। नानी ने उन्*हें गाली दी, 'मोये, मरे जाते हैं। थोड़ा-सा भी सबर नहीं।' चारपाई सेउतरी। कमर पर हाथ रखे, लचीले बाँस का-सा दोहरा हो कर मुड़ गया शरीर अब अंदर की तरफ घिसटना शुरू हुआ। साथ-साथ यादें भी। हाँ, दिल्ली के दंगों के बाद इंदर का सिर हिंदुओं ने फोड़ दिया। वह सरेआम उन्*हें गालियाँ जो देता था। यह बात तो नानी को कल की तरह याद है। अभी अतीत की धूल इनदृश्*यों पर जमी जो नहीं। दिल्*ली से सिखों के कुछ परिवार यहाँ के गुरुद्वारे में रफूजी बन कर आए थे। नानी भी गाँव की औरतों के साथ रोटियों की पोटली बना कर वहीं गई, उनसे मिलने। वह कहीअतीत-वर्तमान के बीच जिंदा है। सहमी बैठी औरतों से पूछा था – 'क्*यों, पाकस्*तान ने आए हो जी?' लुट-पुट कर आई एक बूढ़ी औरत का चेहरा तमतमाया, शायद कोई कड़ा जवाब देने लगी। गाँव की औरतों ने उसे सैनत की, अपने सिर को हाथों से छू कर इशारे से बताया कि नानीके दिमाग के पुर्जे ढीले हैं। एक ने समझाया, 'नानी, एह लोग दिल्*ली से आए ने।' नानी से अध-अंधी आँखें फाड़-फाड़ कर सबकी तरफ देखा। हथेली की छतरी आँखों के आगे हाथ से बनाई। कुछ बच्*चों के सहमे हुए चेहरे दृष्टि-दायरे में आए। उसने फटे ढोलकी आवाज में अपने गाँव की औरत को डाँटा, 'दिल्*ली तो आए ने? हाय रब्*बा, यह दिल्*ली में पाकस्*तान कब बनगया। मुसलमानों ने मारा है?' 'न, नानी, हिंदुओं ने घर फूँक दिए, मरदों को जिंदा जला दिया।' >>>
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26-05-2014, 11:11 AM | #7 |
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Re: विभाजन कथा: रफूजी
नानी ने एक बच्*ची के सिर पर हाथ रखा। बच्*ची सुबकना शुरू हो गई।
'न पुत्तर, रोंदे नहीं। देखना, कल जवाहरलाल आएगा। तुम सबको मकान देगा राशन भी देगा। हम पाकस्*तान बनने पर कुलछेतर आए थे, हाँ। हर महीने जवाहरलाल कंप में आता था।एक साल में सब को फिर से बसा दिया। मेरी गल पल्*ले बाँध लो। उसे पता चल गया होगा, कल जरूर आएगा।' कुछ बच्*चे हँस पड़े। एक ने दूसरे को इशारे से समझाया कि बुढ़िया बिलकुल पागल है। उस अधेड़ औरत ने नानी को बताया, 'नानी, जवाहालाल तो कब का मर गया, अब कहाँ सेआएगा?' 'चुप्*प नी, जवाहर जरूर आएगा। बड्डी आई नानी नू बेवकूफ बनाणवाली।' अपने गाँव की औरत ने याद दिलाया, 'नानी, तेरे दिन पूरे हो गए लगते हैं। तुझे तो कुछ याद नहीं रहता। ट्रक में बैठ कर दिल्*ली गई थी कि नहीं, जवाहरलाल के अंतमदरशन करने।' नानी हक्*की-बक्*की। याददाश्*त ने छोटी-सी छलाँग लगाई - हाँ, दिल्*ली तो गई थी, किसके मरने पर? मात्*मा गांधी मरे था, तब न। कुड़ी ठीक कहँदी होएगी। जवाहर भी मरगया होएगा। नानी ने अपने हाथों से पतीलों से सबको दाल परोसी। चुन्*नी के किनारे में बँधी गाँठ खोली, हाथ से छू कर बच्*चों को पैसे बाँटे, 'जाओ पुत्तर, लाले की दुकान सेचीजी खा लो। नानी रोज आएगी। अपने छोनो-मोनो को चीजों के पैसे देगी। खब्*बरदार जे कोई रोया ते। कल जवाहर आएगा। हाँ, कुलछेतर आता था तो मुट्ठियाँ भर-भर बच्*चों कोपैसे देता था। तुहानूँ वी देगा।' >>>
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26-05-2014, 11:13 AM | #8 |
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Re: विभाजन कथा: रफूजी
'चल नानी, बहुत गलाँ हो गइयाँ। इन लोगों के लिए रात की रोटी भी बनानी है।'
'न भेंणों, रहने दो। यहीं दो ईंटों का चूल्*हा बना कर काम चला लेंगे।' अधेड़ उमर की औरत ने सबकी तरफ से हाथ बाँध कर कहा। नानी को गुस्*सा आ गया, 'चुप्*प नी, बड़ी आई चूल्*हा बनानेवाली। रफूजी हो, पाकस्*तानो आए हो। रोटी बणायोगे। न जी। हमारी गड्डी अंबरसर रुकी थी। पंदरा दिन उत्*थेरहे। सरगार भरावाँ ने इक दिन चूल्*हा नहीं बालने दिया। असी रोटी-रोटी पुचाँवाँगे। देख लेना कल जवाहर आएगा जरूर-पर-जरूर। सब ठीक कर देगा...' काँव-काँव, रोटी दे, रोटी दे। अतीत का दृश्*य कट गया। मोये भुखे, जरा भी सबर नहीं। नानी घिसटती हुई बाहर आई। कौवे फुदक कर नीम से नीचे। नानी उन्*हें रोटी के टुकड़े डालने लगी। बाहर के दरवाजे के पास फौजी बूटों की आवाजें। सीपीआरएफवाले आ गए। नानी ने इन दिनों अंग्रेजी का एक और शब्*द सीख लिया - सीपीआरएफ दे फौजी। 'नानी, तुम इधर से जाने का नहीं,' नायक दक्षिण भारत का है। नानी से उलटी-सीधी हिंदी बोलने में उसे मजा आता है। 'न पुत्तर, जाणा कहाँ है।' 'बिलकुल ठीक। इस गाँव के हिंदू-सिख में बहोत प्*यार है, फिर डरने का क्*यों? तुम जाएगा तो हमारी बोत इज्*जत खराब होगा।' 'न पुत्तर, पर जीता ते मल्*कीयत सवेरे आए थे। कहते है इंदर बुहत बकबक करता है। खतरा है।' >>>
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26-05-2014, 11:14 AM | #9 |
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Re: विभाजन कथा: रफूजी
'हाँ नानी, तुम उसको थोड़ा समझा कर रखो। बोत बात करना अच्*छा नहीं। अभी बुरे दिन खत्म नहीं हुए। अच्*चा, हम जाते।'
'चुप्*प ओए हम जाते के पुत्तर, वोह जा लस्*सी का घड़ा भरा रखा है, तेरा बाप आ कर पीएगा। हम जाते। बड़ी अंगरेजी मारता है। जा, अंदर से उठा ला। सबको पिला। हाय, इतनी गरमी में बेचारे सारा दिन मारे-मारे फिरते हो। लस्*सी पी के जाँणा।' 'नानी, तुम तो हमारे सीओ साब से ज्*यादा गुस्*सा करता। बहुत हुकुम मारता है,' नायक ने छेड़ा। 'बड़ा देखा तेरी सीओ-फिओ। मेरे सामने ला किसी दिन। वोह फटकार दूँ कि आगे से तुम पर गुस्*सा नहीं करेगा। हाँ, बड्डा सीओ-फिओ। बच्*चों को डाँटता है हाँ...' जवानों ने लस्*सी पी, सबने पैर ठोक कर नानी को सैल्*यूट किया और हँसते हुए घर से बाहर चले गए। नानी ने सिर उठा कर ऊपर देखा। गर्दनें पेट के साथ लगाए कव्*वे ऊँघ रहे हैं। भर गया पेट। मोयों को शांति पड़ गई। अब सो रहे हैं। वह फिर चारपाई पर लेट गई। धूप सीधी माथे पर आ बैठी, शिस्*त लगा कर। नानी उठी। चारपाई को थोड़ा परे खींचा, धूप को गाली दी - 'मोयी, हाथ धो कर पीछे पड़े रहती है।' उसने चुन्*नी की गोल गठरी बनाई, सिर के नीचे रखी, आँखें बंद कर लीं। >>>
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26-05-2014, 11:18 AM | #10 |
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Re: विभाजन कथा: रफूजी
हम चाहे सो जाएँ, लेकिन स्*मृतियाँ तो हमेशा जागती रहती हैं, इन्*हें कभी नींद नहीं आती। नानी के सोए मन-माथे में उसके तीन जवान लड़के उग गए। लगातार लंबे होतेहुए। बुरछे जैसे जवान। इतने बड़े हो गए, फिर भी उनके कानों के पीछे नानी काला टीका लगाती थी। बड़ा बहुत गुस्सैल था। एक बार माँ को टोका था, 'टीका-फीका मत लगायाकर, यार लोग मखौल उड़ाते है।' नानी ने गाली दे कर उसे बताया था कि मरजाणे किसी की नजर खा जाएगी। बड़े ने माँ को घूरा और सख्*त आवाज में जो कहा, वह वाक्य अब भीनानी के दिल पर खुदा हुआ है –
'कोई माँ का जाया नजर उठा कर देखेगा, तब ही नजर लगेगी न। है कोई बब्*बर शेर तो मेरी तरफ देखने का हौसला करे।' उसने अपनी हथेली से कान के पीछे लगा टीका पोंछा औरदनदनाता हुआ बाहर निकल गया था। दूसरा दृष्य अँधेरी कोठरी से बाहर निकला। पहले बलवइयों ने बड़े के टुकड़े-टुकड़े किए थे, फिर दो छोटे भाइयों के। उसे जिंदा छोड दिया था, ताकि ताउम्र कलेजा जलतारहे। लेकिन बड़े की शकल क्*यों बदल रही है। उसके कटे सिर की जगह अपने दोहते इंदर का सिर क्*यों कर लग रहा है। नानी की नींद एक झटके से खुली, बिना कमर पर हाथरखे चारपाई पर उठ बैठी। हथेलियाँ मुँह पर फेरी। सारे दृष्य वापस अपनी गार में भाग गए। उसने खुद से कहा, 'हे रब्बा, खैर रख दिन को सपने आना तो चंगा नहीं होता।मेरा इंदर क्*यों कर सपने में आया। कहीं टक्कर तो नहीं...' >>>
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