11-11-2012, 06:24 PM | #21 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
नारी बिचारी है पुरुष की मारी है तन से क्षुधित है मन से मुदित है लपक कर झपक कर अंत में चित है
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11-11-2012, 06:25 PM | #22 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
पढ़िए गीता
पढ़िए गीता बनिए सीता फिर इन सब में लगा पलीता किसी मूर्ख की हो परिणीता निज घर-बार बसाइए होंय कँटीली आँखें गीली लकड़ी सीली, तबियत ढीली घर की सबसे बड़ी पतीली भर कर भात पसाइए
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11-11-2012, 06:28 PM | #23 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
खोज खबर
अनजाने व्यक्ति ने जान पर खेल कर लोगों के सामने चेहरा दिखला दिया जिसने आवाज दी हत्यारा वह है - जाने न पाए वह उसे अब छिपा दिया गया है वह अपनी एकाकी गरिमा में प्रकट हुआ एक मिनट के लिए प्रकट हुआ और फिर हम सब से अलग कर दिया गया अपराध संगठित, राजनीति संगठित, दमनतंत्र संगठित केवल अपराध के विरुद्ध जो कि बोला था अकेला है उसने कहा है कि हमसे संपर्क करे, गुप्त रहे हमें उसे पुरस्कार देना है और पुरस्कार को गुप्त नहीं रखेंगे मुझसे कहा है कि मृत्यु की खबर लिखो : मुर्दे के घर नहीं जाओ, मरघट जाओ लाश को भुगताने के नियम, खर्च और कुप्रबंध खोज खबर लिख लाओ : यह तुमने क्या लिखा - 'झुर्रियाँ, उनके भीतर छिपे उनके प्रकट होने के आसार, - आँखों में उदासी सी एक चीज दिखती है -' यह तुमने मरने के पहले का वृत्तांत क्यों लिखा ?
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11-11-2012, 06:28 PM | #24 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
गुलामी
मनुष्य के कल्याण के लिए पहले उसे इतना भूखा रखो कि वह औऱ कुछ सोच न पाए फिर उसे कहो कि तुम्हारी पहली जरूरत रोटी है जिसके लिए वह गुलाम होना भी मंजूरर करेगा फिर तो उसे यह बताना रह जाएगा कि अपनों की गुलामी विदेशियों की गुलामी से बेहतर है और विदेशियों की गुलामी वे अपने करते हों जिनकी गुलामी तुम करते हो तो वह भी क्या बुरी है तुम्हें रोटी तो मिल रही है एक जून।
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11-11-2012, 06:29 PM | #25 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
बिखरना
कुछ भी रचो सब के विरुद्ध होता है
इस दुनिया में जहाँ सब सहमत हैं क्या होते हैं मित्र कौन होते हैं मित्र जो यह जरा-सी बात नहीं जानते अकेले लोगों की टोली देर तक टोली नहीं रहती वह बिखर जाती है रक्षा की खोज में रक्षा की खोज में पाता है हर एक अपनी-अपनी मौत
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11-11-2012, 06:29 PM | #26 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
ठंड से मृत्यु
फिर जाड़ा आया फिर गर्मी आई
फिर आदमियों के पाले से लू से मरने की खबर आई : न जाड़ा ज्यादा था न लू ज्यादा तब कैसे मरे आदमी वे खड़े रहते हैं तब नहीं दिखते, मर जाते हैं तब लोग जाड़े और लू की मौत बताते हैं
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11-11-2012, 06:29 PM | #27 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
पानी पानी
पानी पानी बच्चा बच्चा हिंदुस्तानी माँग रहा है पानी पानी जिसको पानी नहीं मिला है वह धरती आजाद नहीं उस पर हिंदुस्तानी बसते हैं पर वह आबाद नहीं पानी पानी बच्चा बच्चा माँग रहा है हिंदुस्तानी जो पानी के मालिक हैं भारत पर उनका कब्जा है जहाँ न दे पानी वाँ सूखा जहाँ दें वहाँ सब्जा है अपना पानी माँग रहा है हिंदुस्तानी बरसों पानी को तरसाया जीवन से लाचार किया बरसों जनता की गंगा पर तुमने अत्याचार किया हमको अक्षर नहीं दिया है हमको पानी नहीं दिया पानी नहीं दिया तो समझो हमको बानी नहीं दिया अपना पानी अपनी बानी हिंदुस्तानी बच्चा बच्चा माँग रहा है धरती के अंदर का पानी हमको बाहर लाने दो अपनी धरती अपना पानी अपनी रोटी खाने दो पानी पानी पानी पानी बच्चा बच्चा माँग रहा है अपनी बानी पानी पानी पानी पानी पानी पानी
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11-11-2012, 06:30 PM | #28 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
बेटे से
टूट रहा है यह घर जो तेरे वास्ते बनाया था
जहाँ कहीं हो आ जाओ ... नहीं यह मत लिखो लिखो जहाँ हो वहीं अपने को टूटने से बचाओ हम एक दिन इस घर से दूर दुनिया के कोने में कहीं बाँहें फैला कर मिल जाएँगे
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11-11-2012, 06:30 PM | #29 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
सोचने का परिणाम
कष्ट के परिणाम से हम दूसरों से क्या बड़े होंगे व्यथा को भुलाने में अकेले हम कौन ऐसा तीर मारेंगे भले ही चूकने में या निशाना साधने में हुनर दिखला लें तथा यह भी कि हरदम सोचते रहना किसी की शुद्धता उत्कृष्टता का नहीं लक्षण है गधा भी सोचता है घास पर चुपचाप एकाकी प्रतिष्ठित हो कि इतनी घास कैसे खा सकूँगा और दुबला हुआ करता है।
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11-11-2012, 06:30 PM | #30 |
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Re: रघुवीर सहाय की कविताएँ
अरे अब ऐसी कविता लिखो
अरे अब ऐसी कविता लिखो कि जिसमें छंद घूम कर आय घुमड़ता जाय देह में दर्द कहीं पर एक बार ठहराय कि जिसमें एक प्रतिज्ञा करूँ वही दो बार शब्द बन जाय बताऊँ बार-बार वह अर्थ न भाषा अपने को दोहराय अरे अब ऐसी कविता लिखो कि कोई मूड़ नहीं मटकाय न कोई पुलक-पुलक रह जाय न कोई बेमतलब अकुलाय छंद से जोड़ो अपना आप कि कवि की व्यथा हृदय सह जाय थाम कर हँसना-रोना आज उदासी होनी की कह जाय
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