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Old 11-07-2013, 03:39 PM   #91
VARSHNEY.009
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Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(चौथा अध्याय)
बाईसवाँ बयान

बाबाजी यहाँ से उठकर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुँचे और वहाँ घूम-फिर कर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था।
महाराज जयसिंह उन सब चीजों को देखते ही एकदम बोल उठे, “वाह-वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होने इतनी दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना बिल्कुल राज्य बेचकर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता!!”
सबसे ज्यादा खजाना और जवाहिरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नजर पड़ा जहाँ कुंवर बीरेन्द्रसिंह ने कुमारी चन्द्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था।
तीसरे और चौथे भाग के शुरू में पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का कुछ हाल हम लिख चुके हैं। दो-तीन दिनों में सिद्ध बाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे उस वक्त महाराज जयसिंह ने सिद्ध बाबा से कहा :
“आपने जो कुछ मदद कुमारी चन्द्रकान्ता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल कहकर हम लोगों के तरद्दुद को दूर कीजिए, अब सब्र नहीं किया जाता।”
महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्ध बाबा मुस्कराकर बोले, “मैं भी अपना हाल आप लोगों पर जाहिर करता हूँ जरा सब्र कीजिए।” इतना कहकर जोर से जफील (सीटी) बजाई। उसी वक्त तीन-चार लौंडियाँ दौड़ती हुई आकर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धनाथ बाबा ने हुक्म दिया, “हमारे नहाने के लिए जल और पहिरने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उँगली का इशारा करके) इस कोठरी में लाकर जल्द रखो। आज मैं इस मृगछाले और लंबी दाढ़ी को इस्तीफा दूँगा।”
थोड़ी ही देर में सिद्ध बाबा के हुक्म की तामील हो गई। तब तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उठकर उस कोठरी में चले गए जिसमें उनके नहाने का जल और पहिरने के कपड़े रखे हुए थे।
थोड़ी ही देर बाद नहा-धो और कपड़े पहिर सिद्ध बाबा उस कोठरी के बाहर निकले। अब तो इनको सिद्ध बाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबाजी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेजसिंह के बाप जीतसिंह कहना ठीक है।
अब पूछने या हाल-चाल मालूम करने की फुरसत कहाँ! महाराज सुरेन्द्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कह के कि ‘तुम मेरे भाई से भी हजार दर्जे बढ़ के हो’ गले लगा लिया और कहा, “जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पाँच सौ सवार लेकर कुमार की मदद की थी (दूसरा भाग, पाँचवां बयान)। आज तो तुमने कुमार से भी बढ़कर नाम पैदा किया और पुश्तहापुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने अहसान का बोझ रखा!” देर तक गले लगाए रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्जा देकर गले लगाया। तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने भी बड़ी खुशी से पूजा की।
अब मालूम हुआ कि कुमारी चन्द्रकान्ता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले, आज तक अच्छे-अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुँअर बीरेन्द्रसिंह को धोखे में डालकर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोककर जान बचाने और चुनार राज्य में फतह का डंका बजाने वाले सिद्धनाथ योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।
इस वक्त की खुशी का क्या अंदाजा है। अपने-अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे हैं कि त्रिभुवन की संपत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुँअर बीरेन्द्रसिंह को कुमारी चन्द्रकान्ता से मिलने की खुशी जैसी भी थी आप खुद ही सोच-समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का, सिद्धनाथ बाबा तो कुछ थे ही नहीं।
इस वक्त महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़-चढ़ रहा है वे ही जानते होंगे। कुमारी चन्द्रकान्ता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक्त कुमारी चन्द्रकान्ता के हाथ पकड़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर डाल दिया और डबडबाई आँखों को पोंछकर कहा, “आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊँ और जात-बेरादरी तथा पण्डित लोगों के सामने कुँअर बीरेन्द्रसिंह की लौंडी बनाऊँ।”
राजा सुरेन्द्रसिंह ने कुमारी को अपने पैर से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगाकर कहा, “जहाँ तक जल्दी हो सके आप कुमारी को लेकर विजयगढ़ जायं क्योंकि इसकी माँ बेचारी मारे गम के सूखकर काँटा हो रही होगी!”
इसके बाद महाराज सुरेन्द्रसिंह ने पूछा, “अब क्या करना चाहिए?”
जीत – अब सबों को यहाँ से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहाँ से माल-असबाब और खजाने को ले चलने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अव्वल तो यह माल-असबाब सिवाय कुमारी चन्द्रकान्ता के किसी के मतलब का नहीं, इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियाँ भी पहले से ही इनके कब्जे में रही हैं, यहाँ से उठाकर ले जाने और फिर इनके साथ भेजकर लोगों को दिखाने की कोई जरूरत नहीं, दूसरे यहाँ की आबोहवा कुमारी को बहुत पसंद है, जहाँ तक मैं समझता हूँ, कुमारी चन्द्रकान्ता फिर यहाँ आकर कुछ दिन जरूर रहेंगी, इसलिए हम लोगों को यहाँ से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चन्द्रकान्ता को लेकर बाहर होना चाहिए।
बहादुर और पूरे ऐयार जीतसिंह की राय को सबों ने पसंद किया और वहाँ से बाहर होकर नौगढ़ और विजयगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।
जीतसिंह ने कुल लौंडियों को जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिए वहाँ लाए थे, बुला के कहा, “तुम लोग अपने-अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को लेकर जल्द यहाँ आओ जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मँगा रखी है।”
जीतसिंह का हुक्म पाकर वे लौंडियाँ जो गिनती में बीस होंगी दूसरे बाग में चली गईं और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कंधो पर लिये हाजिर हुईं।
कुँअर बीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने अब इन लौंडियों को पहचाना। तेजसिंह ने ताज्जुब में आकर कहा :
“वाह-वाह, अपने घर की लौंडियों को आज तक मैंने न पहचाना। मेरी माँ ने भी यह भेद मुझसे न कहा!”
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(चौथा अध्याय)
तेईसवाँ बयान

जिस राह से कुँअर बीरेन्द्रसिंह वगैरह आया-जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आये थे वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी-घोड़े या पालकी पर सवार होकर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने में कुछ चक्कर पड़ता था, इसलिए जीतसिंह ने कुमारी के वास्ते पालकी मँगाई मगर दोनों महाराज और कुँअर बीरेन्द्रसिंह किस पर सवार होंगे अब वे सोचने लगे।
वहाँ खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाये गये थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मँगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।
उसी बाग के दक्खिन तरफ एक बड़ा फाटक था जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियाँ थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुँचे और उसकी दाहिनी आँख में उँगली डाली, साथ ही उसका पेट दो पल्ले की तरह खुल गया और बीच में चांदी का एक मुट्ठा नजर पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया। जैसे-जैसे मुट्ठा घुमाते थे तैसे-तैसे वह फाटक जमीन में घुसता जाता था, यहाँ तक कि तमाम फाटक जमीन के अंदर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्जी से भरा हुआ मैदान नजर पड़ा। (फाटक के बाहर भी उसी ढंग की दो पुतलियाँ थीं। उसी तरह बाईं तरफ वाली पुतली का पेट खोल मुट्ठा उलटा घुमाकर फाटक बंद किया गया।)
फाटक खुलने के बाद जीतसिंह फिर इन लोगों के पास आकर बोले, “इसी राह से हम लोग बाहर चलेंगे।”
दिन आधी घड़ी से ज्यादा न बीता होगा जब महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चन्द्रकान्ता की पालकी आगे कर फाटक के बाहर हुए। 1
दोनों महाराजों के बीच में दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुँअर बीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।
पहर भर चलने के बाद ये लोग उस लश्कर में पहुँचे जो खोह के दरवाजे पर उतरा हुआ था। रात भर उसी जगह रहकर सुबह को कूच किया। यहाँ से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहिर कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए मगर वे लौंडियाँ भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहाँ तक कि उनकी पालकी उठाकर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेन्द्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गयीं।
राजा सुरेन्द्रसिंह कुमार को साथ लिए हुए नौगढ़ पहुँचे। कुँअर बीरेन्द्रसिंह पहले महल में जाकर अपनी मां से मिले और कुलदेवी की पूजा करके बाहर आये।
अब तो बड़ी खुशी से दिन गुजरने लगे, आठवें ही रोज महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुँचा और बड़ी धुमधाम से बीरेन्द्रसिंह को चढ़ाया गया।
पाठक! अब तो कुँअर बीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकान्ता का वृत्तांत समाप्त ही हुआ समझिए। बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी। इस वक्त तक सब किस्से को मुख्तसर लिखकर सिर्फ बारात के लिए कई वर्क कागज के रंगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखा चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, केवड़े के जल से छिड़काव किया गया, दोनों तरफ बिल्लौरी हाँडियाँ रोशन की गईं, इत्यादि। आप खुद ख्याल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक-माशूक की बारात किस धुमधाम की होगी, तिस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की एक-एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल-खजाना पाने की खुशी ने और दिमाग बढ़ा रखा था। मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसंद करता हूँ कि अच्छी सायत में कुँअर बीरेन्द्रसिंह की बारात बड़े धूमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।
बारात को मुख्तसर ही में लिखकर बला टाली मगर एक आखिरी दिल्लगी लिखे बिना जी नहीं मानता, क्योंकि वह पढ़ने के काबिल है।
विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी-चढ़ी थी। बारात पहुँचने के पहले ही समां बँधा हुआ था, अच्छी-अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रण्डियों से महफिल भरी हुई थी, मगर जिस वक्त बारात पहुँची अजब झमेला मचा।
बारात के आगे-आगे महाराज शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपेंच बांधो कमर से दोहरी तलवार लगाये, हाथ में झण्डा लिए, जनवासे के दरवाजे पर पहुँचे, इसके बाद धीरे-धीरे कुल जलूस पहुँचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर गए।
कुमार बीरेन्द्रसिंह का घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर जाना ही था कि बाहर हो-हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेजी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुँह से यही आवाज निकल रही है कि ‘हमारी मदद को कोई न आवे, सब दूर से तमाशा देखें।’ एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी-अभी सरपेंच बाँधे हाथ में झण्डा लिए घोड़े पर सवार आए थे और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहिरे हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।
थोड़ी ही देर में हमारे शिवदत्त को (जो झण्डा उठाये घोड़े पर सवार आये थे) इतना मौका मिला कि कमर में से कमंद निकाल अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बाँध लिया और घसीटते हुए जनवासे के अंदर चले। पीछे-पीछे बहुत से आदमियों की भीड़ भी इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अंदर पहुँची।
हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहिरे हुए महाराज शिवद्त्त को एक खंभे के साथ खूब कसकर बाँधा दिया और एक मशालची के हाथ से जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल लेकर उनके हाथ में थमा आप कुँअर बीरेन्द्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने का जड़ाऊ बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रखा था, उससे रूमाल तर करके हमारे महाराज ने अपना मुँह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपेंच वही, मगर सूरत तेजसिंह बहादुर की!!
अब तो मारे हँसी के पेट में बल पड़ने लगा। पाठक, आप तो इस दिल्लगी को खूब समझ गए होंगे, लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया तो मैं लिखे देता हूँ।
हमारे तेजसिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपेंच (फतह का सरपेंच जो देवीसिंह लाए थे) बाँध झंडा ले कुमार की बारात के आगे-आगे चले थे, उधर असली महाराज शिवदत्त जो महाराज सुरेन्द्रसिंह से जान बचा तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गये थे कुँअर बीरेन्द्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आए। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खुटाई गई नहीं थी।
महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आये मगर आगे-आगे झंडा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गए कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रीपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को सम्हाल न सके, तलवार निकालकर लड़ ही गए। आखिर नतीजा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुँअर बीरेन्द्रसिंह की शादी खुशी-खुशी कुमारी चन्द्रकान्ता के साथ हो गई।

॥चन्द्रकान्ता समाप्त॥
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