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Old 13-05-2012, 07:14 PM   #11
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कुण्डलिनी शक्ति
यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है। इसीलिए यह कुण्डलिनी कहलाती है।
जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है तो यह सहस्त्रार में स्थित अपने स्वामी से मिलने के लिये ऊपर की ओर उठती है। जागृत कुण्डलिनी पर समर्थ सद्गुरू का पूर्ण नियंत्रण होता है, वे ही उसके वेग को अनुशासित एवं नियंत्रित करते हैं। गुरुकृपा रूपी शक्तिपात दीक्षा से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ६ चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रार तक पहुँचती है। कुण्डलिनी द्वारा जो योग करवाया जाता है उससे मनुष्य के सभी अंग पूर्ण स्वस्थ हो जाते हैं। साधक का जो अंग बीमार या कमजोर होता है मात्र उसी की यौगिक क्रियायें ध्यानावस्था में होती हैं एवं कुण्डलिनी शक्ति उसी बीमार अंग का योग करवाकर उसे पूर्ण स्वस्थ कर देती है।
इससे मानव शरीर पूर्णतः रोगमुक्त हो जाता है तथा साधक ऊर्जा युक्त होकर आगे की आध्यात्मिक यात्रा हेतु तैयार हो जाता है। शरीर के रोग मुक्त होने के सिद्धयोग ध्यान के दौरान जो बाह्य लक्षण हैं उनमें यौगिक क्रियाऐं जैसे दायं-बायें हिलना, कम्पन, झुकना, लेटना, रोना, हंसना, सिर का तेजी से धूमना, ताली बजाना, हाथों एवं शरीर की अनियंत्रित गतियाँ, तेज रोशनी या रंग दिखाई देना या अन्य कोई आसन, बंध, मुद्रा या प्राणायाम की स्थिति आदि मुख्यतः होती हैं ।
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Old 14-05-2012, 09:49 AM   #12
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प्राणायाम से केवल कुण्डलिनी शक्ति ही जागृत ही नहीं होती बल्कि इससे अनेकों लाभ भी प्राप्त होते हैं। ´योग दर्शन´ के अनुसार प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा नष्ट हो जाता है। इससे मनुष्य भ्रम, भय, चिंता, असमंजस्य, मूल धारणाएं और अविद्या व अन्धविश्वास आदि नष्ट होकर ज्ञान, अच्छे संस्कार, प्रतिभा, बुद्धि-विवेक आदि का विकास होने लगता है। इस साधना के द्वारा मनुष्य अपने मन को जहां चाहे वहां लगा सकता है। प्राणायाम के द्वारा मन नियंत्रण में रहता है। इससे शरीर, प्राण व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे शारीरिक क्षमता व शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के द्वारा प्राण व मन को वश में करने से ही व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य को कर सकने में समर्थ होता है। प्राणायाम आयु को बढ़ाने वाला, रोगों को दूर करने वाला, वात-पित्त-कफ के विकारों को नष्ट करने वाला होता है। यह मनुष्य के अन्दर ओज-तेज और आकर्षण को बढ़ाता है। यह शरीर में स्फूर्ति, लचक, कोमल, शांति और सुदृढ़ता लाता है। यह रक्त को शुद्ध करने वाला है, चर्म रोग नाशक है। यह जठराग्नि को बढ़ाने वाला, वीर्य दोष को नष्ट करने वाला होता है।
कुण्डलिनी शक्ति को जागरण के अनेक प्राणायाम-
कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के लिए अनेक प्रकार के प्राणायामों को बनाया गया है- ये प्राणायाम है-

भस्त्रिका
कपाल भांति
सूर्यभेदी
निबन्ध
रेचक
वायवीय कुम्भक
प्राणायाम संयुक्त

इन प्राणायामों के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति का जागरण किया जाता है। ध्यान रखें कि इन प्राणायामों का अभ्यास किसी योग गुरू की देखरेख में ही करना चाहिए। योग गुरू की देखरेख में प्राणायाम का अभ्यास करें ताकि वह आपके शरीर के स्वभाव, रूचि, आयु, समय, मौसम आदि को देखते हुए आप को उसी के अनुसार प्राणायाम का अभ्यास करने की सलाह दें। प्राणायाम में पूर्ण रूप से सफलता प्राप्त कर चुके व्यक्ति ही आपको प्राणायाम को आरम्भ में कितनी बार करना चाहिए व कैसे करना चाहिए और किस गति से अभ्यास को बढ़ाना चाहिए। इन सभी चीजों को बता पाएंगे।
कुण्डलिनी जागरण के लिए प्राणायाम-

प्राणायाम के लिए सिद्धासन में बैठ जाए। बाएं पैर को घुटने से मोड़कर एड़ी को दाईं ओर गुदा और अंडकोष के बीच जांघ से सटाकर रखें। इसी तरह बाएं पैर को भी घुटने से मोड़कर बाईं ओर गुदा और अंडकोष के बीच जांघ से सटाकर रखें। इसके बाद बाएं पैर के अंगूठे और तर्जनी को बांई जांघ और पिंडली के बीच में रखें। इस तरह दाएं पैर के अंगूठे और तर्जनी को भी बाईं जांघ और पिंडली के बीच में रखें। आसन की इस स्थिति में शरीर का पूरा भार एड़ी और सिवनी पर होना चाहिए। पूर्ण रूप से आसन बनने के बाद अपने दाएं हाथ के अंगूठे से नाक के दाएं छिद्र को बन्द कर दें और बाएं छिद्र से अन्दर के वायु को बाहर निकाल दें (रेचन करें)। पूर्ण रूप से सांस (वायु) को बाहर निकालने के बाद पुन: बाएं छिद्र से ही सांस (वायु) को अन्दर खींचें। फिर अन्दर के वायु को दाएं छिद्र से बाहर निकाल दें (रेचन करें)। इस तरह इस क्रिया का कई बार अभ्यास करें।
ध्यान रखें कि सांस बाहर निकालते समय जालन्धर बंध, मूलबंध व उडि्डयान बंध मजबूती से लगते हुए दोनों हथेलियों को घुटनों पर रखें और अपने ध्यान को नाक के अगले भाग पर केन्द्रित करें।
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Old 14-05-2012, 09:50 AM   #13
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कुण्डलिनी जागरण प्राणायाम-

इस प्राणायाम के अभ्यास के लिए पहले की तरह ही सिद्धासन में बैठ जाएं। आसन में बैठने के बाद नाक के दोनों छिद्र से सांस (वायु) अन्दर खींचें। वायु को तब तक अन्दर खींचें जब तक वायु पूर्ण रूप से नाभि में न भर जाएं। सांस अन्दर खींचने के बाद सांस को अपनी क्षमता के अनुसार अन्दर ही रोककर रखें। साथ ही जालन्धर बन्ध लगाएं और मूलबन्ध के द्वारा अपान वायु को ऊपर उठाकर नाभि में मौजूद प्राण वायु से मिलाने की कोशिश करें। अपान वायु को ऊपर की ओर उठाते समय उडि्डयन बन्ध लगाएं। सांस को अन्दर रोककर रखते हुए ही इन तीनों बन्ध को लगाएं। अब सांस को जितनी देर तक रोककर रखना सम्भव हो रोककर रखें। फिर सांस छोड़ने से पहले तीनों बन्धों को खोलकर सांस बाहर निकाल दें (रेचन करें)।
इस तरह इस क्रिया को बार-बार करने से कुण्डलिनी जागरण में जल्द लाभ प्राप्त होता है। इस प्राणायाम के द्वारा वीर्य और प्राण के ऊर्ध्वगमन से बुद्धि तंत्र के बन्द कोष खुलते और मस्तिष्क में सूक्ष्म शक्ति को जानने की शक्ति बढ़ती है, साथ ही शरीर की नस-नस में अत्यंत शक्ति, साहस व पुलक का संचार होने से क्रियाशीलता और उत्फुल्लता का विकास भी होता है।
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Old 14-05-2012, 10:06 AM   #14
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पृथ्वी मुद्रा


मुद्राओं में पृथ्वी मुद्रा का बहुत महत्व है। यह हमारे भीतर के पृथ्वी तत्व को जागृत करती है। योगियों ने मनुष्य के शरीर में दो मुख्य नाड़ियाँ बतलाई हैं। एक सूर्यनाड़ी और दूसरी चन्द्र नाड़ी।

पृथ्वी मुद्रा करने के दौरान अनामिका अर्थात सूर्य अँगुली पर दबाव पड़ता है, जिससे सूर्य नाड़ी और स्वर के सक्रिय होने में सहयोग मिलता है।

विधि : तर्जनी अँगुली को अँगूठे से स्पर्श कर दबाएँ। बाकि बच गई तीनों अँगुलियों को उपर की और सीधा तान कर रखें। आप इस मुद्रा को कहीं भी किसी भी समय कर सकते हैं।

लाभ : पृथ्वी मुद्रा से सभी तरह की कमजोरी दूर होती है। इससे वजन बढ़ता है। चेहरे की त्वचा साफ और चम
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Old 14-05-2012, 10:21 AM   #15
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वरुण मुद्रा


परिचय-

वरुण का मतलब जल (पानी) होता है। जल ही जीवन है। जिस तरह हमारे जीने के लिए वायु बहुत जरूरी है उसी तरह पानी भी उतना ही जरूरी है। किसी भी व्यक्ति को अगर कुछ दिन तक भोजन ना मिले तो वो जी सकता है लेकिन अगर उसे 1-2 दिन भी पानी न मिलें तो उसका जीना मुश्किल हो जाता है। जल का गुण होता है तरलता। जल भोजन को तरल बनानें में ही मदद नहीं करता बल्कि उससे कई प्रकार के अलग-अलग तत्वों को निर्माण करता है। अगर शरीर को जल नही मिले तो शरीर सूख जाता है तथा शरीर की कोशिकाएं भी सूखकर बेकार हो जाती है। जल तत्व शरीर को ठंडकपन और सक्रियता प्रदान करता है।

मुद्रा बनाने का तरीका-
हाथ की सबसे छोटी उंगली (कनिष्का) को जल तत्व का प्रतीक माना जाता है। जल तत्व और अग्नि तत्व (अंगूठें) को एकसाथ मिलाने से बदलाव होता है। छोटी उंगली के आगे के भाग और अंगूठें के आगे के भाग को मिलाने से `वरुण मुद्रा´ बनती है।
समय-


इस मुद्रा को सर्दी के मौसम में कुछ समय के लिए ही करें। गर्मी या दूसरें मौसम में इस मुद्रा को 24 मिनट तक किया जा सकता है। वरुण मुद्रा को ज्यादा से ज्यादा 48 मिनट तक किया जा सकता है।

लाभकारी-


इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से शरीर का रूखापन दूर होता है।
`वरुण मुद्रा´ को करने से शरीर में चमक बढ़ती है।
इस मुद्रा को करने से खून साफ होता है और चमड़ी के सारे रोग दूर होते है।
`वरुण मुद्रा´ को रोजाना करने से जवानी लंबे समय तक बनी रहती है और बुढ़ापा भी जल्दी नही आता।
ये मुद्रा प्यास को शांत करती है।

विशेष-

एक्यूप्रेशर के मुताबिक बाएं हाथ की सबसे छोटी उंगली शरीर के बाएं हिस्से को प्रतिनिधित्व करती है। दाएं हाथ की सबसे छोटी उंगली शरीर के दाएं भाग का प्रतिनिधित्व करती है। बाएं और दाएं भाग पर असर डालने वाली सबसे छोटी उंगली अग्नि तत्व से प्रभावित होती है। दोनों के दबाव से शरीर का दायां और बायां भाग स्वस्थ और ताकतवर बनता है। इस मुद्रा में अंगूठें से छोटी उंगली की मालिश करने से शक्ति संतुलित होती है। बेहोशी टूट जाती है।

सावधानी-


जिन लोगों को सर्दी और जुकाम रहता है उन्हे वरुण मुद्रा का अभ्यास ज्यादा समय तक नहीं करना चाहिए।
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वायु मुद्रा
यह वायु के असंतुलन से होने वाले सभी रोगों से बचाती है। दो माह तक लगातार इसका अभ्यास करने से वायु विकार दूर हो जाता है। सामान्य तौर पर इस मुद्रा को कुछ देर तक बार-बार करने से वायु विकार संबंधी समस्या की गंभीरता 12 से 24 घंटे में दूर हो जाती है।

विधि : इंडेक्स अर्थात तर्जनी को हथेली की ओर मोड़ते हुए उसके प्रथम पोरे को अँगूठे से दबाएँ। बाकी बची तीनों अँगुलियों को ऊपर तान दें। इसे वायु मुद्रा कहते हैं।

लाभ: प्रतिदिन 5 से 15 मिनट तक इस मुद्रा का अभ्यास 15 दिनों तक करने से जोड़ों, पक्षाघात, एसिडिटी, दर्द, दस्त, कब्ज, अम्लता, अल्सर और उदर विकार आदि में राहत मिल सकती हैं।
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Old 14-05-2012, 07:09 PM   #17
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शून्य मुद्रा

अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा,सबसे लम्बी वाली अंगुली) को मोड़कर अंगूठे के मूल भाग (जड़ में) स्पर्श करें और अंगूठे को मोड़कर मध्यमा के ऊपर से ऐसे दबायें कि मध्यमा उंगली का निरंतर स्पर्श अंगूठे के मूल भाग से बना रहे..बाकी की तीनो अँगुलियों को अपनी सीध में रखें.इस तरह से जो मुद्रा बनती है उसे शून्य मुद्रा कहते हैं..


लाभ - इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से कान बहना, बहरापन, कान में दर्द इत्यादि कान के विभिन्न रोगों से मुक्ति संभव है.यदि कान में दर्द उठे और इस मुद्रा को प्रयुक्त किया जाय तो पांच सात मिनट के मध्य ही लाभ अनुभूत होने लगता है.इसके निरंतर अभ्यास से कान के पुराने रोग भी पूर्णतः ठीक हो जाते हैं..

इसकी अनुपूरक मुद्रा आकाश मुद्रा है.इस मुद्रा के साथ साथ यदि आकाश मुद्रा का प्रयोग भी किया जाय तो व्यापक लाभ मिलता है.
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सूर्य मुद्रा

अंगूठे से तीसरी अंगुली अनामिका (रिंग फिंगर) को मोड़कर उसके ऊपरी नाखून वाले भाग को अंगूठे के जड़ (गद्देदार भाग) पर दवाब(हल्का) डालें और अंगूठा मोड़कर अनामिका पर निरंतर दवाब(हल्का) बनाये रखें तथा शेष अँगुलियों को अपने सीध में सीधा रखें.....इस तरह जिस मुद्रा का निर्माण होगा उसे सूर्य मुद्रा कहते हैं...

लाभ - यह मुद्रा शारीरिक स्थूलता (मोटापा) घटाने में अत्यंत सहायक होता है...जो लोग मोटापे से परेशान हैं,इस मुद्रा का प्रयोग कर फलित होते देख सकते हैं..

( अनामिका को महत्त्व लगभग सभी धर्म सम्प्रदाय में दिया गया है.इसे बड़ा ही शुभ और मंगलकारी माना गया है.हिन्दुओं में पूजा पाठ उत्सव आदि पर मस्तक पर जो तिलक लगाया जाता है,वह इसलिए कि ललाट में जिस स्थान पर तिलक लगाया जाता है योग के अनुसार मस्तक के उस भाग में द्विदल कमल होता है और अनामिका द्वारा उस स्थान के स्पर्श से मस्तिष्क की अदृश्य शक्ति जागृत हो जाती हैं,व्यक्तित्व तेजोमय हो जाता है)
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प्राण मुद्रा

अंगूठे से तीसरी अनामिका तथा चौथी कनिष्ठिका अँगुलियों के पोरों को एकसाथ अंगूठे के पोर के साथ मिलाकर शेष दोनों अँगुलियों को अपने सीध में खडा रखने से जो मुद्रा बनती है उसे प्राण मुद्रा कहते हैं..


लाभ - ह्रदय रोग में रामबाण तथा नेत्रज्योति बढाने में यह मुद्रा परम सहायक है.साथ ही यह प्राण शक्ति बढ़ाने वाला भी होता है.प्राण शक्ति प्रबल होने पर मनुष्य के लिए किसी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्यवान रहना अत्यंत सहज हो जाता है.वस्तुतः दृढ प्राण शक्ति ही जीवन को सुखद बनाती है..

इस मुद्रा की विशेषता यह है कि इसके लिए अवधि की कोई बाध्यता नहीं..इसे कुछ मिनट भी किया जा सकता है.
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लिंग मुद्रा/अंगुष्ठ मुद्रा
लिंग या अँगुष्ठ मुद्रा पुरुषत्व का प्रतीक है इसीलिए इसे लिंग मुद्रा कहा जाता है।

विधि : दोनों हाथों की सभी अँगुलियों को एक-दूसरे से मिलाकर ग्रीप बनाएँ तथा अंदर छूट गए अँगूठे को दूसरे अँगूठे से पकड़ते हुए सीधा तान दें। इससे शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है।

लाभ : यह छाती की जलन और कफ को दूर करती है। यह मुद्रा बलगम को रोककर फेफड़ों को शक्ति प्रदान करती है। व्यक्ति में स्फूर्ति और उत्साह का संचार करती है। अवांछित कैलोरी को हटाकर मोटापे को कम करने में भी यह लाभदायक है।

इस मुद्रा को तभी करें जबकि इसकी आवश्यकता हो। इस मुद्रा को करने के बाद पानी पीना चाहिए।
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