12-11-2012, 07:29 AM | #1 |
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तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
तीन सौ रामायणें : पाँच उदाहरण और अनुवाद पर तीन विचार ए.के. रामानुजन अनुवाद :: संजीव कुमार ए.के. रामानुजन का यह लेख मूलतः पाउला रिचमैन द्वारा संपादित पुस्तक मेनी रामायणाज : द डाइवर्सिटी ऑफ अ नैरेटिव ट्रेडिशन में संकलित है तथा रामकथा की परंपरा में समाहित विविधता को समझने की दृष्टि से एक नयी ज़मीन तोड़ने वाले निबंध के रूप में समादृत है। दिल्ली विश्वविद्यालय के बी.ए. स्तर के इतिहास के पाठ्यक्रम में यह लेख पाठ्य-सामग्री के तौर में शामिल था। हिंदुत्ववादियों के विरोध के आगे झुकते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन ने 2011 के सितंबर महीने में मनमाने तरीके से इसे पाठ्यक्रम से निकाल दिया।
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12-11-2012, 07:31 AM | #2 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
कितनी रामायणें? तीन सौ? तीन हज़ार? कुछ रामायणों के अंत में कभी-कभी यह सवाल पूछा जाता है कि रामायणों की कुल संख्या क्या रही है? और इस सवाल का उत्तर देने वाली कहानियां भी हैं। उनमें से एक कहानी यों है।
एक दिन राम अपने सिंहासन पर बैठे हुए थे कि उनकी अंगूठी गिर गयी। गिरते ही ज़मीन को छेदती हुई अंगूठी उसी में खो हो गयी। राम के विश्वसनीय अनुचर, हनुमान, उनके चरणों में बैठे थे। राम ने उनसे कहा, ''मेरी अंगूठी खो गयी है। उसे ढूंढ़ लाओ।'' हनुमान तो ऐसे हैं कि वे किसी भी छिद्र में घुस सकते हैं, वह कितना भी छोटा क्यों न हो! उनमें छोटी-से-छोटी वस्तु से भी छोटा और बड़ी-से-बड़ी वस्तु से भी बड़ा बन जाने की क्षमता थी। इसलिए उन्होंने अतिलघु आकार धारण किया और छेद में घुस गये। चलते गये, चलते गये, चलते गये और अचानक आ गिरे पाताललोक में। वहां कई स्त्रियां थीं। वे कोलाहल करने लगीं,, ''अरे, देखो देखो, ऊपर से एक छोटा-सा बंदर गिरा है!'' उन्होंने हनुमान को पकड़ा और एक थाली में सजा दिया। पाताललोक में रहने वाले भूतों के राजा को जीवजंतु खाना पसंद है। लिहाज़ा हनुमान शाक-सब्ज़ियों के साथ डिनर के तौर पर उसके पास भेज दिये गये। थाली पर बैठे हनुमान पसोपेश में थे कि अब क्या करें।
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12-11-2012, 07:31 AM | #3 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
पाताललोक में जब यह सब चल रहा था, राम धरती पर अपने सिंहासन पर विराजमान थे। महर्षि वशिष्ठ और भगवान ब्रह्मा उनसे मिलने आये। उन्होंने राम से कहा, ''हम आपसे एकांत में वार्ता करना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई हमारी बात सुने या उसमें बाधा डाले। क्या आपको यह स्वीकार है?''
''स्वीकार है,'' राम ने कहा। इस पर वे बोले, ''तो फिर एक नियम बनायें। अगर हमारी वार्ता के समय कोई यहां आयेगा तो उसका शिरोच्छेद कर दिया जायेगा।'' ''जैसी आपकी इच्छा,'' राम ने कहा। अब सवाल था कि सबसे विश्वसनीय द्वारपाल कौन होगा? हनुमान तो अंगूठी लाने गये हुए थे। राम लक्ष्मण से ज़्यादा किसी पर भरोसा नहीं करते थे, सो उन्होंने लक्ष्मण को द्वार पर खड़े रहने को कहा। ''किसी को अंदर न आने देना,'' उन्हें हुक्म दिया गया। लक्ष्मण द्वार पर खड़े थे जब महर्षि विश्वामित्र आये और कहने लगे, ''मुझे राम से शीघ्र मिलना अत्यावश्क है। बताओ, वे कहां हैं?'' लक्ष्मण ने कहा, ''अभी अंदर न जायें। वे कुछ और लोगों के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण वार्ता कर रहे हैं।'' ''ऐसी कौन-सी बात है जो राम मुझसे छुपायें?'' विश्वामित्र ने कहा, ''मुझे अभी, बिल्कुल अभी अंदर जाना है।''
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12-11-2012, 07:31 AM | #4 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
लक्ष्मण ने कहा, ''आपको अंदर जाने देने से पहले मुझे उनकी अनुमति लेनी होगी।''
''तो जाओ और पूछो।'' ''मैं तब तक अंदर नहीं जा सकता, जब तक राम बाहर नहीं आते। आपको प्रतीक्षा करनी होगी।'' ''अगर तुम अंदर जाकर मेरी उपस्थिति की सूचना नहीं देते जो मैं अपने अभिशाप से पूरी अयोध्या को भस्मीभूत कर दूंगा,'' विश्वामित्र ने कहा। लक्ष्मण ने सोचा, ''अगर अभी अंदर जाता हूं तो मरूंगा। पर अगर नहीं जाता तो ये अपने कोप में पूरे राज्य को भस्म कर डालेंगे। समस्त प्रजा, सारी जीवित वस्तुएं जीवन से हाथ धो बैठेंगी। बेहतर है कि मैं ही अकेला मरूं।'' इसलिए वे अंदर चले गये। राम ने पूछा, ''क्या बात है?'' ''महर्षि विश्वामित्र आये हैं।'' ''भेज दो।'' विश्वामित्र अंदर गये। एकांत वार्ता तब तक समाप्त हो चुकी थी। ब्रह्मा और वशिष्ठ राम से मिल कर यह कहने आये थे कि ''मर्त्यलोक में आपका कार्य संपन्न हो चुका है। अब रामावतार रूप को आपको त्याग देना चाहिए। यह शरीर छोड़ें और पुनः ईश्वररूप धारण करें।'' यही कुल मिला कर उन्हें कहना था।
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12-11-2012, 07:32 AM | #5 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
अब लक्ष्मण ने राम से कहा, ''भ्राता, आपको मेरा शिरोच्छेद कर देना चाहिए।''
राम ने कहा, ''क्यों? अब हमें कोई और बात नहीं करनी थी। तो मैं तुम्हारा शिरोच्छेद क्यों करूं?'' लक्ष्मण ने कहा, ''नहीं, आप ऐसा नहीं कर सकते। आप मुझे सिर्फ़ इसलिए छोड़ नहीं सकते कि मैं आपका भाई हूं। यह राम के नाम पर एक कलंक होगा। आपने अपनी पत्नी को नहीं छोड़ा। उन्हें वन में भेज दिया। मुझे भी दंड मिलना चाहिए। मैं प्राणत्याग करूंगा।'' लक्ष्मण शेषनाग के अवतार थे जिन पर विष्णु शयन करते हैं। उनका भी समय पूरा हो चुका था। वे सीधे सरयू नदी तक गये और उसके प्रवाह में विलुप्त हो गये। जब लक्ष्मण ने अपना शरीर त्याग दिया तो राम ने अपने सभी अनुयायियों, विभीषण, सुग्रीव और दूसरों को बुलाया और अपने जुड़वां पुत्रों, लव और कुश, के राज्याभिषेक की व्यवस्था की। इसके बाद राम भी सरयू नदी में प्रवेश कर गये। इस दौरान हनुमान पाताललोक में थे। उन्हें अंततः भूतों के राजा के पास ले जाया गया। उस समय वे लगातार राम का नाम दुहरा रहे थे, ''राम, राम, राम...।'' भूतों के राजा ने पूछा, ''तुम कौन हो?'' ''हनुमान।'' ''हनुमान? यहां क्यों आये हो?''
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12-11-2012, 07:32 AM | #6 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
''श्री राम की अंगूठी एक छिद्र में गिर गयी थी। मैं उसे निकालने आया हूं।''
राजा ने इधर-उधर देखा और हनुमान को एक थाली दिखायी। उस पर हज़ारों अंगूठियां पड़ी थीं। सभी राम की अंगूठियां थीं। राजा हनुमान के पास वह थाली ले आया, उसे नीचे रख कर कहा, ''अपने राम की अंगूठी उठा लो।'' सारी अंगूठियां बिल्कुल एक-सी थीं। ''मैं नहीं जानता कि वह कौन-सी है,'' हनुमान सिर डुलाते हुए बोले। भूतों के राजा ने कहा, ''इस थाली में जितनी अंगूठियां हैं, उतने ही राम अब तक हो गये हैं। जब तुम धरती पर लौटोगे तो राम नहीं मिलेंगे। राम का यह अवतार अपनी अवधि पूरी कर चुका है। जब भी राम के किसी अवतार की अवधि पूरी होने वाली होती है, उनकी अंगूठी गिर जाती है। मैं उन्हें उठा कर रख लेता हूं। अब तुम जा सकते हो।'' हनुमान वापस लौट गये।1
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12-11-2012, 07:32 AM | #7 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
यह कथा सामान्यतः यह बताने के लिए सुनायी जाती है कि ऐसे हर राम के लिए एक रामायण है। रामायणों की संख्या और पिछले पच्चीस सौ या उससे भी अधिक सालों से दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में उनके प्रभाव का दायरा हैरतनाक है। जितनी भाषाओं में राम कथा पायी जाती है, उनकी फ़ेहरिस्त बताने में ही आप थक जाएंगे : अन्नामी, बाली, बाँग्ला, कम्बोडियाई, चीनी, गुजराती, जावाई, कन्नड़, कश्मीरी, खोटानी, लाओसी, मलेशियाई, मराठी, ओड़िया, प्राकृत, संस्कृत, संथाली, सिंहली, तमिल, तेलुगु, थाई, तिब्बती - पश्चिमी भाषाओं को छोड़ कर यह हाल है। सदियों के सफ़र के दौरान इनमें से कुछ भाषाओं में राम कथा के एकाधिक वाचनों (टेलिंग्स) ने जगह बनायी है। अकेले संस्कृत में मुख़्तलिफ़ आख्यान-विधाओं (प्रबंध काव्य, पुराण इत्यादि) से जुड़े पच्चीस या उससे भी ज़्यादा वाचन उपलब्ध हैं। अगर हम नाटकों, नृत्य-नाटिकाओं, और शास्त्रीय तथा लोक दोनों परंपराओं के अन्य वाचनों को भी जोड़ दें, तो रामायणों की संख्या और भी बढ़ जाती है। दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशियाई संस्कृतियों में इनके साथ शिल्प और नक़्क़ाशी, मुखौटा-नाटकों, कठपुतली नाटकों और छाया-नाट्यों को भी अवश्य जोड़ा जाना चाहिए।2 रामायण के एक अध्येता, कामिल बुल्के, ने तीन सौ वाचनों की गिनती की है।3 कोई हैरत नहीं कि चौदहवीं सदी में ही एक कन्नड़ कवि कुमारव्यास ने महाभारत लिखना इसलिए तय किया कि उसने धरती को धारण करने वाले ब्रह्मांडीय सर्प शेषनाग, को रामायणी कवियों के बोझ तले आर्तनाद करते सुना। इस पर्चे में, जिसके लिए मैं बहुसंख्य पूर्ववर्ती अनुवादकों और विद्वानों का ऋणी हूं, मैं यह देखना चाहूंगा कि मुख़्तलिफ़ संस्कृतियों, भाषाओं, और धार्मिक परंपराओं में एक कथा के ये सैंकड़ों वाचन परस्पर कैसे संबंधित हैं : उनमें क्या-क्या अनूदित, प्रत्यारोपित, पक्षांतरित होता है।
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12-11-2012, 07:32 AM | #8 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
वाल्मीकि और कम्बन : दो अहिल्याएं
ज़ाहिर है, ये सैकड़ों वाचन एक दूसरे से भिन्न हैं। मैंने प्रचलित शब्द पाठांतर (वर्ज़न्स) या रूपांतर (वैरिएन्ट्स) की जगह वाचन (टेलिंग्स) कहना पसंद किया है तो इसका कारण है कि पाठांतर और रूपांतर, दोनों शब्द यह आशय भी देते हैं कि एक कोई मूल या आदि पाठ है जिसे पैमाना बना कर इन भटकावों की पहचान की जा सकती है,। सामान्यतः वाल्मीकि की संस्कृत रामायण को वह दर्जा मिलता है, जो कि सभी रामायणों में सबसे आरंभिक और प्रतिष्ठित है। लेकिन जैसा कि हम देखेंगे, हमेशा वाल्मीकि के आख्यान को ही एक से दूसरी भाषा में ले जाने का काम नहीं होता रहा है। शुरुआत करने से पहले कुछ अंतरों को चिह्नित कर लेना उपयोगी होगा। स्वयं परंपरा एक ओर रामकथा और दूसरी ओर वाल्मीकि, कम्बन या कृत्तिवास जैसे विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा रचित पाठों के बीच फ़र्क़ करती है। हालांकि बाद वाले कई पाठ भी लोकप्रिय स्तर पर रामायण ही कहे जाते हैं (मसलन, कम्बनरामायणम), लेकिन कुछ ही पाठों के नाम में सचमुच रामायण लगा हुआ है; इरामावतारम, रामचरितमानस, रामकियेन - इस तरह के नाम दिये गये हैं। वाल्मीकि द्वारा कही गयी रामकथा के साथ उनके संबंध भी जुदा-जुदा हैं। कथा और काव्य का यह पारंपरिक अंतर फ्रेंच के 'सुजेट' और 'रेसिट', या अंग्रेज़ी के 'स्टोरी' और 'डिस्कोर्स' के अंतर से मेल खाता है।4 यह वाक्य और कथन के अंतर जैसा भी है। हो सकता है, दो वाचनों में कथा समान हो, पर विमर्श बहुत भिन्न। यहां तक कि घटनाओं की संरचना और उनका क्रम समान हो, पर शैली, ब्यौरे, स्वर और टेक्स्चर (बुनावट) - और इसीलिए अभिप्राय - बहुत अलग हों।
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12-11-2012, 07:33 AM | #9 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
यहां 'एक ही' प्रसंग के दो वाचन दिये जा रहे हैं। यह प्रसंग दोनों जगह कथा की घटना-शृंखला में समान बिंदु पर आता है। पहला वाल्मीकि की संस्कृत रामायण के प्रथम खंड (बालकांड) से लिया गया है; दूसरा तमिल में लिखी गयी कम्बन की इरामावतारम के प्रथम सर्ग (पालकांतम) से है। दोनों में अहिल्या की कथा है।
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12-11-2012, 07:34 AM | #10 |
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Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन
अहिल्या प्रकरण : वाल्मीकि
साधु-साधु! कह, जनकपुरी की सुषमा देखी मिथिला जाकर। बहुत प्रशंसा की ऋषियों ने इसकी, अतुलित दिव्य बताकर।। उपवन में था रम्य पुरातन आश्रम एक, किंतु था निर्जन। उसे देखकर प्रश्न-रूप में ऋषि से बोले तब रघुनंदन।। आश्रम-जैसा, मुनि-विहीन यह स्थान कौन है भगवन! उत्तम?। पहले था किसका? सुनने को इच्छुक हूं, बतलाएं! सक्षम!।। राघव के इस प्रश्न-वाक्य को भलीभांति से तब फिर सुनकर। अति तेजस्वी वाक्य-विशारद बोले विश्वामित्र मुनीश्वर।। पूर्व महात्मा थे इसके जो, किया जिन्होंने इसको शापित। सुनो राम! उनका, आश्रम का वृत्त सर्वथा हो ध्यानस्थित।। पूर्व समय यह स्थान महात्मा गौतम का आश्रम था नरवर!। परम दिव्य, पूजा, सुप्रशंसा करते थे इसकी सब सुरवर।। पहले यहीं अहल्या के संग श्री महर्षि गौतम ने रहकर। वर्ष बिताये बहुत राज-सुत! करते हुए तपस्या गुरुतर।। एक समय गौतम-अनुपस्थिति में उपयुक्त सुअवसर पाकर। शचीनाथ ने ऋषि-स्वरूप रख कहा अहिल्या से यह आकर।। समाहिते! ऋतुकाल-प्रतीक्षा करते नहीं रतीच्छा-रत नर। अतः चाहता कटि-सुरम्य! तुमसे मैं संगम इस अवसर पर।। मुनि रूपी हैं इंद्र, समझकर भी दुर्मेधा ने, रघुनंदन। कौतूहलवश सहस्राक्ष संग संगम का कर दिया समर्थन।। बोली रति-तुष्टा ऋषि-पत्नी मैं कृतार्थ हूं अतिशय सुरवर!। प्रभो! आप अब इस आश्रम से यत्नपूर्वक जाएं सत्वर।। मेरी और स्वयं की रक्षा ऋषि-प्रकोप से करें सुरेश्वर!। तब बोले यह वाक्य अहल्या से, महेंद्र वे तत्क्षण हंसकर।। मैं जैसे आया था सुंदरि! उसी भांति से जाऊंगा अब। इंद्र अहल्या से संगम कर आश्रम से बाहर आये तब।। गौतम के आने की शंका से थे इंद्र पलायन-तत्पर। तब देखा करते प्रवेश हैं आश्रम में प्रत्यक्ष मुनीश्वर।। देव-दनुज-दुर्धर्ष तपोबल से वे मुनिवर परम समन्वित। तीर्थोदक-सिंचित शरीर से अग्नि-सदृश होते थे दीपित।। हाथों में वे लिये हुए थे समिधाएं, कुश यज्ञ-कार्य हित। उन्हें देखते ही विषण्णमुख इंद्र हुए भय से अतिकंपित।। परम दुराचारी महेंद्र को मुनिस्वरूप में तभी देखकर। मुनिवर गौतम कुपित हुए अति फिर वे बोले सदाचारि वर।। रखकर मेरा रूप दुर्मते! पापकर्म करने से अतिशय। होगा विफल (अंडकोषों से) मुझसे शापित होकर निश्चय।। कुपित महात्मा गौतम-मुख से निकले जैसे ही शाप-वचन। वैसे ही उस समय इंद्र के हुआ अंडकोषों का प्रपतन।। वे मुनि देकर शाप इंद्र को हुए अहल्या पर भी प्रकुपित। उससे बोले, वर्ष सहस्रों यही रहेगी तू भी शापित।। पीकर पवन, भस्म में रहकर क्षुधा, तृषा के कष्ट सहेगी। सभी प्राणियों से अदृश्य हो इस आश्रम में वास करेगी।। जब इस घोर विपिन में भार्ये! अति दुर्धर्ष राम आयेंगे। तब हो पायेगी पवित्र तू पाप-व्यूह सब मिट जायेंगे।। लोभ, मोह, सब दोष मिटेंगे उनका ही करने से आदर। पास हमारे तू आयेगी दिव्य देह अपना फिर पाकर।। अपनी दुराचारिणी पत्नी से ऐसा कहकर तदनंतर। महातपस्वी अतितेजस्वी गौतम गये निजाश्रम तजकर।। और सिद्ध-चारण-जन-सेवित हिमगिरी के रमणीय शिखर पर। (जाकर करने लगे तपस्या शुभाचरण में होकर तत्पर)।। होकर अंडकोषों से वंचित वे महेंद्र संत्रस्त नयन अति। बोले अग्नि, सिद्ध, चारण, सुर और सभी गंधर्वों के प्रति।। देवो! गौतम-तप खंडन कर मैंने किया उन्हें प्रकुपित। इससे सिद्ध किया है निश्चर्य कार्य आप सबका ही समुचित।। मुझे शाप देकर अफल किया, फिर निज पत्नी को त्याग दिया है। क्रोधित मुनि ने, इससे मैंने उनके तप का हरण किया है।। अपनी कार्य-सिद्ध-कर्ता को यत्नपूर्वक सुर, ऋषि, चारण। अंडकोषों से युक्त करें! अब जिससे हो संकष्ट-निवारण।। इंद्र-वचन सुन मरुद्गणों संग अग्नि पुरोगम देव, ऋषि प्रमुख। पितृलोक में जाकर बोले तभी पितृ देवों के सम्मुख।। मेष आपका वृषण-सहित है और इंद्र हैं वृषण-विवंचित। पितरो! इससे अर्पित कर दें इसका वृषण शचीपति के हित।। आप सभी को तुष्ट करेगा अवृषण मेष यहीं पर रहकर। तथा आपके लिए वृषण से रहित मेष देंगे जो भी नर।। उन्हें आप सब प्रमुदित होकर देंगे श्रेयस्कर उत्तम फल। (वे पायेंगे आयु, पुत्र, धन, धान्य आदि सुख निश्चय निश्चल)।। पितरों ने यह अग्नि-वचन सुन मेष-वृषण का करके त्रोटन। इंद्र-अंग के उचित स्थान पर एकत्रित हो, किया नियोजन।। बधिया मेष-प्रयोग तभी से वे आगत, काकुत्स्थ! पितृगण। करते हैं उपयोग, प्रदाता को देते उत्तम फल तत्क्षण।। उसी समय से, हे रघुनंदन! मुनि गौतम-तप के प्रभाव से। धारण करने पड़े इंद्र को मेष-वृषण अति विवश भाव से।। अब तेजस्वी राम! चलो तुम शीघ्र पुण्यकर्मा आश्रम पर। और करो उद्धार अहल्या भाग्यवती देवी का सत्वर।। विश्वामित्र मुनीश्वर का यह भलीभांति से वचन श्रवण कर। लक्ष्मण-सहित राम आश्रम में हुए प्रविष्ट, उन्हें आगे कर।। वहां अहल्या भाग्यशालिनी को देखा तप से अति दीपित। देख न सकते थे जिसको सुर, मानव, दानव बली असीमित।।5
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