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Old 12-11-2012, 07:39 AM   #21
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Default Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन

एक दिन में यह एक महीने का था, हे शिव।
दूसरे दिन, यह दूसरा महीना था,
और वह दिखने लगा था, हे शिव।
मैं पुरुषों की दुनिया को कैसे मुंह दिखाऊंगा, हे शिव।
तीसरे दिन, यह तीसरा महीना था,
मैं दुनिया को कैसे मुंह दिखाऊंगा, हे शिव।
चौथे दिन, यह चौथा महीना था
इसे कैसे सहूं, हे शिव।
पांच दिन बीते और यह पांच महीने का हो गया,
हे भगवान, तुमने मुझे क्या मुसीबत दे दी, हे शिव।
मैं इसे सह नहीं सकता, मैं इसे सह नहीं सकता, हे शिव।
मैं कैसे जियूंगा, दयनीय रावुला चीत्कार करता है।
छह दिन, और इसके छह महीने बीत चुके, हे माता,
सात दिनों में यह सात महीने का था।
कितना शर्मनाक है,
और जल्दी ही यह आठवां आ गया, हे शिव।
रावुला अपना नौवां महीना पूरा कर चुका।
जब वह पूरी तरह से तैयार हो गया, तब उसने जन्म लिया,
उस प्रिय सीता ने जन्म लिया उसकी नाक से
वह छींक मारता है और सीतम्मा जन्म लेती है,
और रावुला उसे सीतम्मा नाम देता है।15
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Old 12-11-2012, 07:39 AM   #22
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Default Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन

कन्नड़ में सीता शब्द का मतलब है ''उसने छींका'' : रावण उसे सीता बुलाते हैं क्योंकि वह उनकी छींक से पैदा हुई है। इस तरह सीता के नाम को एक कन्नड़ लोक-व्युत्पत्ति के द्वारा समझाया गया है, वैसे ही जैसे संस्कृत पाठों में इस नाम की संस्कृत व्युत्पत्ति मिलती है : वहां राजा जनक उन्हें खेत में, हल से बनी रेखा में पाते हैं, जिसे सीता कहा जाता है। इसके बाद रावुला ज्योतिषियों के पास जाते हैं, जो उन्हें बताते हैं कि यह शिव के सामने कही गयी बात पर क़ायम न रहने और अपनी पत्नी को फल का गूदा खिलाने के बजाय स्वयं खा लेने का दंड है। वे उस बच्ची को खिला-पिला कर और वस्त्र पहना कर किसी जगह छोड़ आने की सलाह देते हैं जहां वह किसी दम्पति को मिलेगी और उनके द्वारा पालित-पोषित होगी। रावण उसे एक बक्से में बंद कर जनक के खेत में छोड़ आते हैं।

सीता-जन्म की इस कथा के बाद ही कवि राम और लक्ष्मण के जन्म और कारनामों का वर्णन करता है। उसके बाद एक लंबा खंड आता है जो सीता के विवाह की प्रतियोगिता पर है। वहां रावुला आते हैं और अपमानित होते हैं, क्योंकि जिस भारी धनुष को उठाना है उसके भार से वे गिर जाते हैं। राम उस धनुष को उठा लेते हैं और सीता से विवाह करते हैं। बाद में सीता रावुला के द्वारा अगवा कर ली जाती हैं। राम अपने वानर सहयोगियों के साथ लंका की घेराबंदी करते हैं, और (एक छोटे खंड में) सीता को पुनर्प्राप्त करते हैं और उनका राज्याभिषेक होता है। इसके बाद कवि सीता की परीक्षा के प्रसंग पर आता है। उसके बारे में मिथ्यापवाद फैलता है और उसे राज्य से निकाल दिया जाता है, लेकिन वह जुड़वां बच्चों को जन्म देती है जो बड़े होकर योद्धा बनते हैं। वे राम के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को बांध देते हैं, घोड़े की देखरेख के लिए भेजी गयी सेना को पराजित कर देते हैं और अंततः अपने माता-पिता को फिर से मिला देते हैं, इस बार हमेशा-हमेशा के लिए।
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Old 12-11-2012, 07:39 AM   #23
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Default Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन

यहां सिर्फ़ एक भिन्न टेक्स्चर और बलाघात ही नहीं दिखता : प्रस्तोता हर जगह सीता की ओर - उनके जीवन, उनके जन्म, उनके विवाह, उनके अपहरण और वापसी की ओर - लौटने के लिए समुत्सुक है। राम और लक्ष्मण के जन्म, वनवास और रावण के साथ युद्ध पर जितने बड़े खंड हैं, उनकी बराबरी के पूरे-पूरे खंड सीता के निर्वासन, गर्भधारण, और पति के साथ पुनर्मिलाप को समर्पित हैं। इसके अलावा, एक पुरुष रावण के गर्भ से पुत्री के रूप में उनका असामान्य जन्म कथा में अनेक नयी व्यंजनाओं को ले आता है : गर्भ और संतानोत्पत्ति के प्रति पुरुष-ईर्ष्या, जो कि भारतीय साहित्य में बारंबार आने वाली एक थीम है, और पुत्रियों के पीछे लगे पिताओं - और, इस मामले में, अगम्यगमन करने वाले पिता की मृत्यु का कारण बनने वाली पुत्री - से जुड़ी भारतीय इडीपसीय थीम।16 अन्यत्र भी सीता के रावण की पुत्री होने का मोटिफ़ अनजाना नहीं है। यह जैन कथाओं की एक परंपरा (उदाहरण के लिए, वासुदेवाहिमदी) में और कन्नड़ तथा तेलुगु की लोक परंपराओं में, साथ ही साथ अनेक दक्षिणपूर्व एशियाई रामायणों में आता है। कुछ जगहों पर यह आता है कि रावण अपनी लोलुप युवावस्था में एक युवती का मर्दन करता है, जो प्रतिशोध लेने का संकल्प करती है और फिर उसका नाश करने के लिए उसकी पुत्री के रूप में पुनर्जन्म लेती है। इस तरह मौखिक परंपरा प्रसंगों के एक ऐसे, बिल्कुल अलग, समूह में भागीदारी करती प्रतीत होती है जो वाल्मीकि के यहां अज्ञात है।
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Old 12-11-2012, 07:49 AM   #24
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Default Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन

दक्षिणपूर्व एशिया का एक उदाहरण

भारत से दक्षिणपूर्व एशिया की ओर जाने पर हमें तिब्बत, थाईलैंड, बर्मा, लाओस, कंबोडिया, मलेशिया, जावा और इंडोनेशिया में रामकथा के भिन्न-भिन्न वाचन मिलते हैं। यहां हम सिर्फ़ एक उदाहरण, थाई रामायण रामकीर्ति, को देखेंगे। संतोष देसाई के अनुसार, थाई जीवन को रामकथा से ज़्यादा हिंदू मूल की किसी और चीज़ ने प्रभावित नहीं किया है।17 उनके बौद्ध मंदिरों की दीवारों पर की गयी नक़्क़ाशी और चित्रकारी, शहरों और गांवों में खेले जाने वाले नाटक, उनकी नृत्यनाटिकाएं - ये सभी रामकथा की सामग्री का इस्तेमाल करते हैं। 'राजा राम' नाम के एक-के-बाद-एक कई राजाओं ने थाई में रामायण के प्रसंग लिखे : राजा राम प्रथम ने पचास हज़ार छंदों में रामायण का एक वाचन लिखा, राम द्वितीय ने नृत्य के लिए नये प्रसंग लिखे, और राम षष्ठ ने अनेक दूसरे प्रसंग जोड़े जिनमें से ज़्यादातर वाल्मीकि से लिये गये थे। थाईलैंड की लोपबुरी (संस्कृत में लावापुरी), खिडकिन (किष्किंधा), और अयुथिया (अयोध्या) जैसी जगहें, अपनी ख्मेर और थाई कला के भग्नावशेषों के साथ, राम के आख्यान से संबद्ध हैं।

थाई रामकीर्ति या रामकियेन (रामकहानी) कथा के तीन तरह के चरित्रों की उत्पत्ति के वर्णन के साथ शुरू होती है - मानवीय, दानवी और वानरी। दूसरा खंड दानवों के साथ भाइयों की पहली मुठभेड़, राम के विवाह और निर्वासन, सीता के अपहरण और राम की वानर कुल से मुलाक़ात का वर्णन करता है। इसमें युद्ध की तैयारियों, हनुमान के लंका-गमन और दहन, सेतु निर्माण, लंका की घेराबंदी, रावण के पतन और सीता एवं राम के पुनर्मिलन का भी वर्णन है। तीसरे खंड में लंका में एक विद्रोह का वर्णन है, जिस विद्रोह को दबाने के लिए राम अपने दो सबसे छोटे भाइयों को नियुक्त करते हैं। इस खंड में सीता के निर्वासन, उनके पुत्रों के जन्म, राम के साथ उनके युद्ध, सीता के धरती में प्रवेश और राम-सीता को मिलाने के लिए देवताओं के प्रकट होने का वर्णन है। हालांकि कई प्रसंग बिल्कुल वाल्मीकि की रामायण जैसे ही दिखते हैं, पर साथ ही कई चीज़ें अलहदा भी हैं। मिसाल के लिए, दक्षिण भारतीय लोक रामायणों की तरह (और कुछ जैन, बांग्ला और कश्मीरी रामायणों की तरह भी) सीता के निर्वासन को एक नया नाटकीय तर्काधार दिया गया है। शूर्पणखा (वह दानवी जिसका वर्षों पहले जंगल में राम और लक्ष्मण ने अंगभंग किया था) की बेटी सीता को अपनी माता के विकृत किये जाने के लिए ज़िम्मेदार मानती है और उससे बदला लेने के लिए तैयार बैठी है। वह अयोध्या आती है, एक दासी के रूप में सीता की सेवा में नियुक्त होती है, और रावण की एक तस्वीर बनाने के लिए उसे प्रेरित करती है। यह तस्वीर बनने पर अमिट हो जाती है (कुछ वाचनों में, यह सीता के शयनकक्ष में प्राणवंत हो उठती है) और राम का ध्यान अपनी ओर खींच लेती है। ईर्ष्या के आवेग में राम सीता को मार डालने का आदेश जारी करते हैं। लेकिन सदय लक्ष्मण उन्हें वन में जीवित ही छोड़ आते हैं और उन्हें मार डालने के सबूत के तौर पर एक हिरण का हृदय लेकर लौटते हैं।
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Old 12-11-2012, 07:49 AM   #25
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राम और सीता का पुनर्मिलन भी भिन्न है। जब राम यह पाते हैं कि वह अभी भी जीवित हैं तो वे सीता को यह सूचना पहुंचा कर महल में वापस बुलवाते हैं कि उनका देहांत हो गया है। सीता उन्हें देखने के लिए भागी-भागी आती हैं, पर यह जान कर कि उनके साथ चालबाज़ी की गयी है, वे गुस्से से तिलमिला जाती हैं। निरुपाय क्रोध की झोंक में वे धरती माता का आह्वान करती हैं कि वह उन्हें अपने अंदर समा ले। हनुमान उन्हें भूमिगत प्रदेशों से वापस लाने के लिए जाते हैं, पर वे लौटने से इनकार कर देती हैं। फिर शिव की शक्ति से उनका पुनर्मिलन संभव हो पाता है।

पुनः, जैसा कि जैन दृष्टांतों और दक्षिण भारतीय लोक काव्यों में मिलता है, सीता के जन्म का वृत्तांत भी वाल्मीकि में दिये गये वृत्तांत से भिन्न है। जब दशरथ यज्ञ संपन्न करते हैं तो उन्हें एक कटोरा चावल मिलता है, खीर नहीं, जैसा कि वाल्मीकि के यहां ज़िक्र है। एक कौआ उसमें से कुछ दाने चुरा ले जाता है और रावण की पत्नी को देता है जो इसे खाकर सीता को जन्म देती है। रावण ने यह भविष्यवाणी सुन रखी है कि उनकी पुत्री ही उनकी मृत्यु का कारण बनेगी, इसलिए वह सीता को समुद्र में फिंकवा देते हैं जहां समुद्र की देवी उनकी रक्षा करती है और उन्हें जनक के पास ले जाती है।
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यही नहीं, यद्यपि राम विष्णु के अवतार हैं, पर थाईलैंड में वे शिव के मातहत हैं। कमोबेश वे एक मानवीय नायक के रूप में देखे गये हैं, और रामकीर्ति को एक धार्मिक ग्रंथ नहीं माना जाता या ऐसा अनुकरणीय ग्रंथ भी नहीं माना जाता जिसके अनुरूप स्त्री-पुरुष अपने-आप को ढालें। थाई लोग सबसे अधिक सीताहरण और युद्ध के हिस्सों को पसंद करते हैं। अलगाव और पुनर्मिलन, जो कि हिंदू रामायणों के मर्मस्थल हैं, वहां उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं जितने कि युद्ध, तकनीक, चमत्कारी अस्त्रों आदि के विवरण और उसका रोमांच। युद्धकांड किसी भी और वाचन के मुक़ाबले यहां अधिक विस्तृत है, जबकि कन्नड़ लोक वाचनों में यह बहुत कम अहमियत रखता है। देसाई कहते हैं कि युद्ध पर थाई लोगों का यह ज़ोर महत्वपूर्ण है : आरंभिक थाई इतिहास युद्धों से भरा पड़ा है; अस्तित्व-रक्षा उनकी मुख्य चिंता थी। रामकियेन के केंद्र में पारिवारिक मूल्य और अध्यात्म नहीं हैं। थाई श्रोता राम की अपेक्षा हनुमान को अधिक पसंद करते हैं। हिंदू रामायणों की तरह यहां हनुमान न तो ब्रह्मचारी हैं न ही भक्त, वे अच्छे-भले लेडीज़' मैन हैं, जो लंका के शयनकक्षों में झांकने में कोई संकोच नहीं करते और किसी और की सोती हुई पत्नी को देखना अनैतिक नहीं मानते, जैसा कि वाल्मीकि या कम्बन के हनुमान मानते हैं।

रावण भी यहां अलग हैं। रामकीर्ति में रावण की विदग्धता और विद्वत्ता की प्रशंसा की गयी है; उनके द्वारा सीता का हरण प्रेमवश किया गया कृत्य है और उसे सहानुभूति के साथ देखा गया है। रावण द्वारा एक स्त्री के लिए अपने परिवार, राज, और खुद अपने जीवन का बलिदान थाई लोगों को मार्मिक लगता है। मृत्यु के समय कहे गये उनके वचन आगे चल कर उन्नीसवीं सदी की एक प्रसिद्ध प्रेम कविता की थीम बनते हैं।18 वाल्मीकि के चरित्रों से अलग थाई चरित्र अच्छे और बुरे का मानवीय मिश्रण हैं। यहां रावण का पराभव आपको उदास कर जाता है। यह निर्भ्रांत उल्लास का अवसर नहीं है, जैसा कि वाल्मीकि में है।
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Old 12-11-2012, 07:50 AM   #27
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अंतरों के पैटर्न

इस तरह, हमारे पास वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में कही गयी एक कथा ही नहीं है, दूसरों द्वारा कही गयी अनेकों राम कथाएं हैं जिनके बीच ख़ासे बड़े अंतर मौजूद हैं। अब मैं कुछ ऐसे अंतरों की रूपरेखा प्रस्तुत करूंगा जिनसे हम अभी तक रू-ब-रू नहीं हुए हैं। मिसाल के लिए, संस्कृत में और दूसरी भारतीय भाषाओं में कथा के दो तरह के समापन हैं। एक समापन वह है जहां राम और सीता अपनी राजधानी अयोध्या लौट आते हैं, जहां इस आदर्श राज्य के राजा और रानी के रूप में उनका राज्याभिषेक होता है। दूसरा समापन, जिसे अक्सर वाल्मीकि और कम्बन में परवर्ती प्रक्षेप माना जाता है, वह है जहां रावण के उपवन में रहने वाली स्त्री के रूप में सीता के बारे में राम मिथ्यापवाद सुनते हैं, और राजा के रूप में अपनी प्रतिष्ठा (शायद हमें इसे साख कहना चाहिए) के नाम पर वे सीता को वन में निर्वासित कर देते हैं, जहां वे जुड़वां बच्चों को जन्म देती हैं। वे वाल्मीकि के आश्रम में पलते-बढ़ते हैं, रामायण के साथ-साथ उनसे युद्धकला भी सीखते हैं, राम की सेना से एक युद्ध जीतते हैं, और एक मार्मिक दृश्य में अपने पिता को, जो यह जानता भी नहीं कि ये कौन हैं, रामायण गाकर सुनाते हैं। ये दोनों अलग-अलग समापन पूरी कृति को एक भिन्न रंगत दे देते हैं। पहला समापन राजसी निर्वासितों की वापसी का जश्न मनाता है और पुनर्मिलन, राज्याभिषेक तथा शांति-स्थापना के साथ कथा को समेट लेता है। दूसरे में, उनका सुख क्षणभंगुर है, और वे दुबारा जुदा हो जाते हैं, जिससे प्रिय का वियोग या विप्रलंभ पूरी कृति का केंद्रीय मनोभाव अंगी रस, बन जाता है। यहां तक कि इसे दुखांत भी कहा जा सकता है, क्योंकि सीता इसे और सहन नहीं कर पाती और धरती के एक विवर में समा जाती है, वही धरती जो उसकी माता है, जिसमें से वह निकली थी - जैसा कि हमने पहले देखा है, उसके नाम का अर्थ है 'हलरेखा', वही जगह जहां जनक ने उसे सबसे पहले पाया था। हलरेखा से सीता की उत्पत्ति और धरती में उसकी वापसी एक वनस्पति-चक्र को भी दिखलाती है : सीता बीज के समान हैं और अपने मेघ-श्यामल शरीर के साथ राम वर्षा के समान हैं; दक्षिण में स्थित रावण अंधकारपूर्ण प्रदेशों में ले जाने वाला अपहर्ता है (दक्षिण दिशा में मृत्यु का वास है); धरती में वापस लौटने से पहले सीता थोड़े समय के लिए शुचिता और गरिमा के साथ प्रकट होती है। ऐसे मिथक को किसी कठोर रूपक/प्रतीक कथा में सीधे-सीधे ढालने की कोशिश तो नहीं करनी चाहिए, पर वह कई ब्यौरों के साथ कथा की छायाओें में अनुगूंजित होता है। उर्वरता और वर्षा के बहुतेरे हवाले, शिव जैसे योगी व्यक्ति का राम द्वारा प्रतिवाद (जिसे कम्बन ने अहिल्या की कथा में बहुत स्पष्ट कर दिया है), उनके पुरखे द्वारा अपने साम्राज्य की धरती पर गंगा नदी को उतार लाना ताकि मृतक के भस्मों का तर्पण और पुनरुज्जीवन किया जा सके - इन सब पर ग़ौर करें। ऋष्यशृंग की कथा भी प्रासंगिक है। वह काम के मामले में एक भोलाभाला योगी है जो एक स्त्री के द्वारा कामातुर बनाये जाने पर लोमपद राज्य पर वर्षा कर देता है, और जो बाद में चल कर दशरथ की रानियों के गर्भ को भरने के अनुष्ठान को संपन्न कराता है। इस तरह का मिथकीय अर्थ-विस्तार हमें प्रकृति के अनवरत हवालों, राम द्वारा सीता की खोज के दौरान उनके समर्पित मित्रों की तरह पक्षियों और जानवरों की प्रभावशाली उपस्थिति में भी दूसरे सुर सुनने पर बाध्य करता है। वाल्मीकि रामायण में पक्षी और वानर एक वास्तविक उपस्थिति और एक काव्यात्मक आवश्यकता हैं, उसी हद तक जिस हद तक जैन मत में वे अपवृद्धि हैं। हर समापन के साथ कथा के भिन्न प्रभावों को उभारा जाता है और पूरा वाचन कथा की काव्यात्मक भंगिमा को बदल देता है।
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अलग-अलग तरह की शुरुआतों के बारे में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं। वाल्मीकि स्वयं वाल्मीकि के बारे में एक कहानी कहने से शुरुआत करते हैं। वे एक शिकारी को देखते हैं जो निशाना साध कर पक्षियों के एक आनंदित प्रेमीयुगल में से एक को मार गिराता है। मादा अपने मृत साथी के चारों ओर चक्कर लगाने लगती है और चीत्कार करती है। यह दृश्य कवि और महर्षि वाल्मीकि को इतना द्रवित कर जाता है कि वे शिकारी को शाप देते हैं। क्षण भर बाद वे महसूस करते हैं कि उनके शाप ने श्लोक की एक पंक्ति का रूप ले लिया है - शब्दों का यह खेल सुप्रसिद्ध है कि उनके शोक की लय ने श्लोक को जन्म दिया है। वे उसी छंद में राम के कृत्यों पर पूरा महाकाव्य लिखने का फ़ैसला करते हैं। यह घटना परवर्ती काव्यशास्त्र में सभी काव्यात्मक उक्तियों के लिए एक दृष्टांत बन जाती है : स्वाभाविक भावों के दबाव में कोई कलात्मक रूप पाया या गढ़ा जाता है, एक ऐसा रूप जो उस भाव के सारतत्व (रस) को पकड़ता और साधारणीकृत करता है। वाल्मीकि की कृति के आरंभ में ही आने वाली यह घटना उस कृति को एक सौंदर्यात्मक आत्मसजगता प्रदान करती है। इस दिशा में और भी सोचा जा सकता है : एक पक्षी की मृत्यु और प्रेमी के वियोग की घटना रामकथा के इस वाचन की विशिष्ट स्वरलहरी बन जाती है। कई महत्वपूर्ण अवसरों पर एक प्राणी के मारे जाने की घटना जिस ख़ास लयात्मक तरीके से दोहराई गयी है, उस पर ग़ौर करें : जब दशरथ हाथी की सोच कर तीर चलाते हैं और उससे घड़े में पानी भरता एक युवा तपस्वी मारा जाता है (पानी भरने की आवाज़ वैसी ही थी जैसी किसी कुंड से हाथी के पानी पीने की आवाज़), तो उन्हें शाप मिलता है जिसके चलते आगे चल कर राम का निर्वासन और पिता पुत्र का बिछोह होता है। जब राम एक चमत्कारी स्वर्णमृग का पीछा करते हैं (जो छद्मवेश में एक राक्षस है) और उसे मार देते हैं, तो वह अपनी आख़िरी सांसों के बीच राम की आवाज़ में लक्ष्मण को पुकारता है, जिसकी वजह से वह सीता की सुरक्षा का काम छोड़ कर वहां से जाते हैं; इसी के चलते रावण को सीताहरण का मौक़ा मिलता है। रावण जब उन्हें लेकर भाग रहे हैं, तब भी एक प्राचीन पक्षी जटायु उन्हें रोकने की कोशिश करता है जिसे वे अपने खड्ग से मार गिराते हैं। इन सबके अलावा, शुरुआती हिस्से में एक पक्षी की मृत्यु और उसके जीवित साथी की चीत्कार पूरी कृति में आने वाली अनेक जुदाइयों - भाई और भाई के, माताओं और पिताओं और पुत्रों के, पत्नियों और पतियों के वियोगों - का स्वर नियत कर देती है।
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इस तरह प्रत्येक महत्वपूर्ण कृति का शुरुआती हिस्सा आगे के प्रतिपाद्यों का और छवियों के एक पैटर्न का पूर्वाभास देते हुए पूरे काव्य की सामंजस्यपूर्ण-सुसंगत स्वरयोजना क्रियान्वित कर देता है। कम्बन का तमिल काव्य बहुत अलग तरह से शुरू होता है। इसके कुछ अनुच्छेदों को देखने से बात स्पष्ट होगी।

नदी

भभूत में लिपटे शिव के रंग वाला (सफ़ेद) मेघ आकाश को अलंकृत करता हुआ जाकर समुद्र को पीता है और लौटते हुए उसका रंग अगरु का लेप धारण करने वाले स्तनों की श्रीदेवी को अपने वक्ष में धारण करने वाले (विष्णु) के रंग का-सा हो जाता है। (2)

उदार दाता की तरह मेघ मोटी-मोटी धारें गिराते हैं। वे धारें मानो चांदी की तारें हैं जिनको मेघ स्वर्ण के समान दिखते श्रेष्ठ पर्वत (हिमालय) पर लटका कर उसे बांधने का प्रयास करते हैं। (15)

(सरयू का प्रवाह प्रदेश में) प्रतिष्ठित, धर्मावलंबी और मनुनीति पर चलने वाले शीतल-छत्र-धारी राजा के यश के समान फैलता है और चतुर्वेदी ब्राह्मण को दान देने पर दाता को मिलने वाले शुभ फल के समान बढ़ता है। (16)

वह बाढ़ वेश्या का-सा बरताव करती है। वेश्या पुरुष के सिर का, शरीर का आलिंगन करती है, पैरों तले भी लगती है। एक क्षण के लिए उसका प्रेम स्थिर जैसा दिखता है, पर वह चंचल है और धोखा देकर उसका सारा धन लूट लेती है। उस पुरुष जैसा ही हाल पर्वत का है। (वेश्या-सदृश) धारा पर्वत की सारी वस्तुएं बहा ले जाती है। (17)

रत्न, स्वर्ण, मयूर-पंख, हाथी दांत, अगरु और चंदन की लकड़ियां - ऐसी और चीज़ों को बहा ले जाने वाला प्रवाह कारवां लेकर चलने वाले व्यापारी के समान है। (18)

उस प्रवाह में फूल तैरते हैं; पराग, शहद, चोखे स्वर्ण, गजों का मद-जल आदि मिले आते हैं। उनके विविध रंगों के कारण वह प्रवाह इंद्रधनुष के समान दिखाई देता है। (19)

वह प्रवाह चट्टानों को और वृक्षों को उखाड़ लाता है; उस पर पत्ते वगैरह बहते आते हैं। उसको देख कर समुद्र पर सेतु बनाने में लगी वानर-सेना याद आती है। (20)

उस प्रवाह की सज-धज देख कर ऐसा लगता है कि समुद्र से लड़ने जा रही सेना हो। विशाल मुख वाले मत्त हाथियों और अश्व-दलों के साथ वातावरण में युद्ध का शोर भरते हुए, लताओं के रूप में ध्वजाएं लहराते हुए यह प्रवाह आगे बढ़ता है। (22)

सरयू का जल-तल विशाल है; उसकी धारा अविच्छिन्न है और पवित्र है। इन बातों में सरयू नदी रवि-कुल के राजाओं के सदाचरण की समता करती है। और वह जन-समाज के लिए मातृ-सृजन के समान जीवनदायिनी और जीव-वर्द्धक है। (23)

दही, दूध, मक्खन आदि छींकों के साथ हर लेना, तरुओं को उखाड़ना, गोपियों के कंकणों और वस्त्रों का हरण - ये सब काम, कालीय नाग के सिर पर नृत्य करने वाले श्रीकृष्ण के समान, सरयू नदी भी करती है। (26)

वन को पर्वत-प्रदेश, खेतों को वन-प्रदेश, सागर-तट को उर्वर भूमि बनाती, सीमाओं को बदलती और भूदृश्यों को स्थानांतरित करती नदी की गति कर्म-गति के समान है जिसके कारण जीव विविध योनियों में अटूट क्रम से जन्म लेते हैं और वहां भी कर्म के अनुसार ही पाप या पुण्य करते हैं। (28)

हिमालय की चट्टानों में जन्म लेकर समुद्र में जा मिलने वाली यह नदी अनेक धाराओं में बंट जाती है, उस ईश्वर-तत्व के समान जो आदि में एक ही है, किंतु अनंतर विविध धर्मों के देवताओं के रूप में अनेक हो गया। (30)

जिस प्रकार जीव अनेक प्रकार के शरीरों में व्याप्त होता और फिर उसे रिक्त कर जाता है, उसी प्रकार सरयू नदी का जल पराग चूते उपवनों और चंपावनों से होकर, कलियां खिलाते जलाशयों में नया बालू भरता हुआ, माधवी लता से घिरे सुपारी के वनों से होकर गुजरता है। (31)19
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Default Re: तीन सौ रामायणें :: ए.के. रामानुजन

यह हिस्सा कम्बन में ही है; वाल्मीकि के यहां यह नहीं मिलता। यहां बताया गया है कि पानी किस तरह समुद्र से बादलों के द्वारा संकलित किया जाता है और बारिश के रूप में नीचे आता है और सरयू नदी की बाढ़ के रूप में रामराज्य की राजधानी, अयोध्या की ओर प्रवाहित होता है। इसके माध्यम से कम्बन अपने सारे प्रतिपाद्यों और बलाघातों की, यहां तक कि अपने चरित्रों, उर्वरता की थीम के प्रति अपने सरोकार (जो कि वाल्मीकि में प्रच्छन्न है), राम के पुरखों के पूरे वंश, और रामायण के माध्यम से प्रकट होने वाले भक्ति के अपने दर्शन, की प्रस्तावना कर देते हैं।

उपमाओं और संकेतों के ज़रिये विषयवस्तुओं की जिस विविधता को सामने लाया गया है, उस पर ग़ौर करें। यहां पानी से जुड़ी हर बात स्वयं रामायण की कथा के किसी पहलू का प्रतीक है और रामायण की सृष्टि के किसी अंश का प्रतिनिधित्व करती है (मिसाल के लिए, वानर)। आगे बढ़ते हुए यह जल-प्रवाह / जल-प्रवाह का वर्णन, उन ख़ास-ख़ास तमिल परंपराओं को उभारता चलता है जो कहीं और नहीं पायी जाती हैं, जैसे क्लासिकी तमिल काव्य के पांच भूदृश्य। खुद पानी, जो कि जीवन और उर्वरता का स्रोत है, पर ज़ोर तमिल साहित्यिक परंपरा का एक सुनिश्चित अंग है।

रामायणों के बीच अंतर का एक दूसरा बिंदु है, किसी महत्वपूर्ण चरित्र पर फ़ोकस करने की सघनता का अंतर। वाल्मीकि अपने आरंभिक हिस्सों में राम और उनके इतिहास पर केंद्रित हैं; विमलसूरि की जैन रामायण और थाई भाषा का महाकाव्य राम पर नहीं बल्कि रावण की वंशावलि और उसके कारनामों पर एकाग्र होते हैं; कन्नड़ के ग्रामीण वाचन सीता पर, उनके जन्म, उनके विवाह, उनकी परीक्षाओं पर एकाग्र होते हैं। अद्भुत रामायण और तमिल शतकंठवन जैसी कुछ बाद की कृतियां सीता को एक नायकोचित चरित्र तक बना देती हैं : जब दस सिर वाला रावण मार दिया जाता है तो एक दूसरा सौ सिर वाला रावण प्रकट होता है; राम इस नयी मुसीबत का सामना नहीं कर सकते, इसलिए सीता ही युद्ध करने जाती हैं और इस नये दानव का वध करती हैं।20 अपनी सुविस्तृत मौखिक परंपरा के लिए सुविदित संथाल लोग तो सीता को व्यभिचारिणी के रूप में प्रस्तुत करते हैं - वाल्मीकि और कम्बन को पढ़ने वाले किसी भी हिंदू के लिए यह सदमे और ख़ौफ़ का विषय होगा कि यहां सीता का शीलभंग रावण और लक्ष्मण दोनों के द्वारा किया जाता है। दक्षिणपूर्व एशिया के पाठों में, जैसा कि हमने पहले देखा है, हनुमान वानर मुख वाले एक ब्रह्मचारी भक्त नहीं बल्कि एक ‘लेडीज' मैन’ हैं जो अनेक प्रेमप्रसंगों में दिखते हैं। कम्बन और तुलसी के यहां राम ईश्वर हैं; जैन पाठों में वे मात्र एक उन्नत जैन पुरुष हैं जो अपने आख़िरी जन्म में है और इसीलिए रावण का वध भी नहीं करता। यहां रावण एक कुलीन नायक हैं जिन्हें अपने कर्म के चलते सीता के प्यार में पड़ना और अपनी मौत बुलाना बदा है, जबकि दूसरे पाठों में वे एक उद्धत राक्षस हैं। इस तरह हर महत्वपूर्ण चरित्र की संकल्पना में आमूल अंतर हैं, ऐसे अंतर कि कोई एक संकल्पना उन लोगों के लिए जुगुप्साजनक हो सकती है जो किसी दूसरी संकल्पना को धारण करते हैं। हम इसमें और भी बहुत कुछ जोड़ सकते हैं : सीता के निर्वासन के कारणों की व्याख्या, सीता के दूसरे पुत्र की चमत्कारिक सृष्टि, और राम और सीता का अंतिम पुनर्मिलन। इनमें से प्रत्येक एकाधिक प्रदेशों में, एकाधिक पाठीय समुदायों (हिंदू, जैन या बौद्ध) में, एकाधिक पाठों में आता है।
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