28-12-2010, 01:07 PM | #1 |
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अघोषित आलसी का इकबालनामा
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28-12-2010, 01:08 PM | #2 |
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Re: अघोषित आलसी का इकबालनामा
घर में आये...... भांजे-भांजियों की मस्ती......... एक त्यौहार का वातावरण............ कितना बढ़िया लग रहा है......... सबसे छोटी भांजी में तो मुझे नानू कहना शुरू कर दिया है....... और मैं दिमागी रूप से उम्र का एक और पड़ाव पार कर रहा हूं.......
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28-12-2010, 01:09 PM | #3 |
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Re: अघोषित आलसी का इकबालनामा
ऊपर से कार्य का दबाव........ ६ तरीक तक एक और मगज़िने छाप कर देनी है....... अभी डिज़ाइन भी शुरू नहीं किया....... राम जी खैर करे.........
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28-12-2010, 01:10 PM | #4 |
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Re: अघोषित आलसी का इकबालनामा
और इसी सब के इस चिटठा जगत के मित्रों से दूरी......... आलस्य भारी पड़ता है.... सभों और. आज सीट पर बैठे है तो देखते है सभी भई लोग कार्यशील हैं..... एक मुझ आघोषित आलसी को छोड़ कर ....कहाँ से शुरू करूँ...... किस ब्लॉग पर पहले जाऊ.... क्या क्या पढूं...... सभी तो मनपसंद है.... पोसिशन उसी सावन में गधे जैसी........... पुराने दिन याद आते हैं, ऐसे लगता है...... १ सप्ताह स्कूल नहीं गया........ होम वर्क बहुत रह गया है... कौन से सब्जेक्ट पहले कवर करूँ....... इसी उहापोह में कुछ भी नहीं करता था..... और बस सरजी के २ थप्पड़ का इन्तेज़ार रहता था...... वो पड़े और दिल को चैन मिले....... बुद्धि बहुत थी, कोई जरूरी नहीं है कापी भरना..... बस थप्पड़ से बचने के लिए ही तो भरता था..... दिल-दिमाग तो पढ़ाई से कोसों दूर रहता था....... राम जी, इतनी बुद्धि के साथ साथ थोड़ी सद्बुद्धि भी दे देते...... पर अब ऐसा नहीं है... पढ़े-लिखे विद्वान ब्लोगर भाइयों का साथ है, ..... जो पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया आज इन्ही सब के बीच पूरी करने का प्रयत्न करता हूं.
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28-12-2010, 01:11 PM | #5 |
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Re: अघोषित आलसी का इकबालनामा
रविवार को संजोग से पुस्तक मैले के दर्शन भी कर आया...... और कुछ किताबें भी खरीदी – उसमे सबसे उल्लेखनीय ....... आवारा मसीहा....... पिछले कई वर्षों से पढ़ने की सोच रहा था. छोटे बहनोई (सुनील जी) साथ थे...... गेट पर हेलिकोप्टर (बच्चों के खिलोने) बिक रहे थे ७५ रुपे का एक..... जब तक मैं टिकट ले कर आया तो सुनील जी ने भाव बनाया.... १०० के ४. मैंने मना कर दिया कहाँ अंदर ले कर घुमते रहेंगे....... राकेस (खिलोने बेचने वाला) का मुंह उतर आया.... अंकल जी आपसे ही बोहनी करनी थी...... रेट भी ठीक लगा दिए..... मैंने २० रुपे उसे दिए...... भई जब बाहर आयेंगे तो ले लेंगे.... और हम लोग अंदर चले गए..... बाहर लौटे तो ७ बज़ रहे थे..... और खिलोनेवाले को भूल गए थे..... पर वो हमारी इन्तेज़ार में बैठा था..... सारा सामान समेट कर. भागता भागता पीछे आ गया..... बोला अंकलजी खिलोने नहीं लेने...... मैंने फिर मना कर दिया....... बोला अपने पैसे वापिस ले लो... आपके इन्तेज़ार में इतनी सर्दी में बैठा था......... उसकी इमानदारी ने सोचने पर मजबूर कर दिया..... सर्दी बहुत थी सही में वो जा सकता था.... .. सुनील जी ने उसे १०० रुपे और दिए ...... हेलिकोप्टर घर को तहस-नहस करने घर आ गए........ राकेस तुम्हारी इमानदारी को प्रणाम
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28-12-2010, 01:13 PM | #6 |
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Re: अघोषित आलसी का इकबालनामा
सितम ढहती कुछ चुटकियाँ........
बहुत कविता कर ली, पर चैन नहीं आया..... ख़बरें और आ रही है..... दिल को झंझ्कोर कर रख रही है..... वास्तविकता है ...... चुटकियाँ है.... अरे नहीं आपके लिए नहीं .......... पर दौलतमंद दलालों के लिए तो मात्र चुटकियाँ हैं ....... पढ़ लीजिए...... और दर्द महसूस कीजिए...... क्योंकि जो दर्द था वो तो सौदागर ले गया.... |
28-12-2010, 01:14 PM | #7 |
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Re: अघोषित आलसी का इकबालनामा
श्रीमती जी जब प्याज काट रही थी ... तो बातों बातों में दाम पूछने लगी..... मैं मुस्कुरा उठा...... उनको मेरी मुस्कराहट कुछ रहस्यमई लगी..... बोली कि हम प्याज का भाव पूछ रहे है..... और तुम विष्णु भगवान की तरह मुस्कुरा रहे हो..... अजीब लग रहा है तुम्हारा ये मुस्कुराना ...... दाम काहे नहीं बताते..... मैंने जवाब दिया आज तक तो पूछा नहीं आज किस बात की जिद्द है..... वो बोली, आज प्याज काटने पर आंसू ज्यादा आ रहे है..... मैंने मन को मज़बूत करते हुए जवाब दे ही दिया ७० रुपे किलो....... तो उसका हाथ एकदम अपने गाल पर चला गया....... पूछने पर बताने लगी.... कांग्रेस का हाथ अपने गाल पर महसूस कर रही हूँ..
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28-12-2010, 01:14 PM | #8 |
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Re: अघोषित आलसी का इकबालनामा
दिल्ली से १०० किलोमीटर दूर गाँव मानका (राजस्थान) से आया एक किसान बहुत खुश है...... आजादपुर मंदी में उसके खेत के प्याज २२ रुपे ७५ पैसे किलो के हिस्साब से बिके है...... कम से कम बीजों और कीटनाशक, खाद और पानी के पैसे तो निकल आये....... अपनी मजदूरी तो गई तेल लेने ...... पहले कभी मिली है क्या.
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28-12-2010, 01:15 PM | #10 |
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Re: अघोषित आलसी का इकबालनामा
महान लोकतान्त्रिक देश की राजमाता ने अपनी पार्टी के महाधिवेशन के शुरू में शर्मो-शर्मा वंदे मातरम गाने का आदेश दिया....... सभी लोग खड़े होकर वन्देमातरम गाने लगे ..... पर माईक से अजीब अजीब आवाजे आने लग गयी....... पता नहीं गले के शर्मनिरपेक्ष सुर आदेश का साथ नहीं दे रहे थे या फिर साउंड के ठेकेदार को पैसे की चिंता थी......कि वंदे मातरम गाया तो गया पब्लिक तक नहीं पहुंचा और ........ राजमाता की नाक बच गई..... नहीं तो मुस्लिम वोटरों को क्या जवाब देती.
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