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Old 03-10-2014, 11:19 AM   #1
Rajat Vynar
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Talking मीडिया का ‘दम’

वैसे तो मुझे मीडिया के ‘दम’ के बारे में पहले से कुछ-कुछ पता था. कुछ लोग कहते है- सरकार बदली देश की जनता ने, किन्तु बुद्धिजीवी वर्ग का मानना है- सरकार बदली देश की मीडिया ने! मीडिया जब चाहे जिसको ‘नोटबल’ बना दे. जब चाहे जिसको ‘नॉन-नोटबल’ बना दे. इस राज़ का पता मुझे तब चला जब शहर का एक मामूली ज्योतिषी शहर का नोटबल’ ज्योतिषी बन गया. मैंने खोजबीन की तो पता चला कि उसकी शहर के पत्रकारों से अच्छी जोड़-तोड़ और दोस्ती है और उसके लेख समाचार-पत्रों में जब-तब छपते रहते हैं. संक्षेप में, मीडिया आज ‘जुरासिक’ की तरह शक्तिशाली बन कर उभरा है. कुछ लोग कहते है कि मीडिया का शक्तिशाली बनना लोकतंत्र के लिए आवश्यक है क्योंकि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी माना जाता है, किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मीडिया सिर्फ एक बिज़नेस है और यह लोगों की विचारधारा को द्रुत गति से प्रभावित करने वाला एक शक्तिशाली माध्यम है. एक बिज़नेस जब लोगों की विचारधारा को परिवर्तित करने लगे तो उस बिज़नेस को लोकतंत्र का स्तम्भ किसी हालत में नहीं माना जा सकता. यही नहीं, जब मीडिया उद्योग एक दूसरे उद्योग को अपने हस्तक्षेप से प्रभावित करता है तो मुझे अत्यधिक आश्चर्य होता है. इसका जीवन्त उदहारण फिल्म उद्योग है और स्वयं फिल्म उद्योग इस हस्तक्षेप को हँसी-खुशी बर्दाश्त भी करता है. आपने स्वयं देखा होगा कि जब भी कोई नई फ़िल्म लोकार्पित होती है तो समाचार-पत्रों में उस फ़िल्म की समीक्षा के साथ कुछ रेटिंग स्टार्स छपे होते हैं और निःसंदेह ये रेटिंग स्टार्स फ़िल्म के बिजनेस को कुछ न कुछ अवश्य प्रभावित करते हैं. उदाहरण के लिए ‘टेबल नम्बर 21’ जैसी मज़ेदार और इंट्रेस्टिंग मूवी को बहुत ही कम रेटिंग स्टार्स दिए गए थे जिसके कारण मैंने वह फ़िल्म नहीं देखी और फिर देखी तो बहुत बाद में. कोई बिजनेस अपने बिजनेस में दूसरे बिजनेस का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करता जिससे उसका बिजनेस ज़रा भी प्रभावित हो. सिर्फ फ़िल्म उद्योग पसन्द करता है और निःसंदेह यह एक हास्यास्पद बात है!
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Old 03-10-2014, 11:53 AM   #2
rajnish manga
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Default Re: मीडिया का ‘दम’

आपकी यह बात ठीक है कि कोई बिज़नस दूसरे बिज़नस का हस्तक्षेप पसंद नहीं करता जबतक की वह पहले बिज़नस द्वारा स्पोंसर्ड न हो. फिल्मों के मामले में आपकी बात उचित नहीं है. रेटिंग अखबार वाले देते हैं. हर अखबार में फिल्म क्रिटिक मिल जायेंगे जो वहां अपना नियमित कॉलम देते हैं. मैंने देखा है कि विभिन्न अखबारों में दी जाने वाली रेटिंग में अधिक अंतर नहीं होता. अर्थात क्रिटिक एक फिल्म के सभी पहलुओं पर गौर करते हुए रेटिंग तय करता है. मेरे हिसाब से रेटिंग का अधिक असर नहीं होता. पिछले दिनों 'हमशकल' फिल्म को 5 में से 1 या 1.5 की रेटिंग दी गयी थी. इसके बावजूद फिल्म एक हफ्ते में ठीक ठाक कारोबार कर गयी थी. बाद में साजिद खान ने अपनी यूनिट को पार्टी भी दी थी. मैंने वह फिल्म नहीं देखी.

दूसरी और 3, 3.5 या 4 की रेटिंग दी जाती है, मैं उन्हें भी नहीं देखता. तो कहाँ बिज़नस पर फर्क पड़ता है. एक और बात. यहाँ आप कई पॉइंट्स मिक्स कर गए हैं. फिल्म एक शो बिज़नस है. मीडिया स्वतंत्र काम कर रहा है. समीक्षा व रेटिंग देना उसका एक रूटीन काम है. फिल्म चले या न चले यह यह उसकी ज़िम्मेदारी नहीं है. हां आजकल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर फिल्म की पब्लिसिटी कई तरह से की जाती है. लेकिन यह भी फिल्म चलने की गारंटी नहीं दे सकते.
__________________
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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Old 03-10-2014, 02:42 PM   #3
Rajat Vynar
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Talking Re: मीडिया का ‘दम’

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Originally Posted by rajnish manga View Post
आपकी यह बात ठीक है कि कोई बिज़नस दूसरे बिज़नस का हस्तक्षेप पसंद नहीं करता जबतक की वह पहले बिज़नस द्वारा स्पोंसर्ड न हो. फिल्मों के मामले में आपकी बात उचित नहीं है. रेटिंग अखबार वाले देते हैं. हर अखबार में फिल्म क्रिटिक मिल जायेंगे जो वहां अपना नियमित कॉलम देते हैं. मैंने देखा है कि विभिन्न अखबारों में दी जाने वाली रेटिंग में अधिक अंतर नहीं होता. अर्थात क्रिटिक एक फिल्म के सभी पहलुओं पर गौर करते हुए रेटिंग तय करता है. मेरे हिसाब से रेटिंग का अधिक असर नहीं होता. पिछले दिनों 'हमशकल' फिल्म को 5 में से 1 या 1.5 की रेटिंग दी गयी थी. इसके बावजूद फिल्म एक हफ्ते में ठीक ठाक कारोबार कर गयी थी. बाद में साजिद खान ने अपनी यूनिट को पार्टी भी दी थी. मैंने वह फिल्म नहीं देखी.

दूसरी और 3, 3.5 या 4 की रेटिंग दी जाती है, मैं उन्हें भी नहीं देखता. तो कहाँ बिज़नस पर फर्क पड़ता है. एक और बात. यहाँ आप कई पॉइंट्स मिक्स कर गए हैं. फिल्म एक शो बिज़नस है. मीडिया स्वतंत्र काम कर रहा है. समीक्षा व रेटिंग देना उसका एक रूटीन काम है. फिल्म चले या न चले यह यह उसकी ज़िम्मेदारी नहीं है. हां आजकल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर फिल्म की पब्लिसिटी कई तरह से की जाती है. लेकिन यह भी फिल्म चलने की गारंटी नहीं दे सकते.
मैं यहाँ पर संचार-माध्यमों में नियमित रूप से आने वाले किसी चलचित्र के उन्नायक कार्यक्रमों की बात नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि ये सभी कार्यक्रम प्रायोजित होते हैं. मैं मात्र समाचार-पत्रों में प्रकाशित होने वाली समीक्षा के साथ चमकते हुए उन ‘मूल्यांकन सितारों’ की बात कर रहा हूँ जिसे ‘रेटिंग स्टार्स’ कहते हैं. आप इन सितारों को नहीं देखते, किन्तु मैं तो इन सितारों को देखकर ही निर्णय लेता हूँ कि इस चलचित्र पर आदरणीय गाँधी जी का निवेश करना बुद्धिमत्ता होगी या नहीं? मेरे अतिरिक्त और भी कई ऐसे बुद्धिजीवियों का समूह है जो इन ‘मूल्यांकन सितारों’ को देखकर ही किसी चलचित्र को देखने का निर्णय लेता है. आपके कथनानुसार ‘रेटिंग का अधिक असर नहीं होता’. आपके कथन का तात्पर्य यह है कि ‘कुछ न कुछ असर’ तो होता अवश्य है. हिंदी का एक मुहावरा है- ‘बूँद-बूँद करके घड़ा भरता है’, किन्तु यदि उसी घड़े के पेंदे में एक छोटा सा छेद भी हो तो ‘बूँद-बूँद करके घड़ा खाली भी हो जाता है’! अतः यदि इन ‘मूल्यांकन सितारों’ को एक चलचित्र के टिकट-घर (box office) के पेंदे में बना छोटा-छोटा छेद कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी!
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