14-08-2012, 03:23 PM | #1 |
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15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
14-08-2012, 03:24 PM | #2 |
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Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
नई पीढी को आजादी का महत्व बताने में देशभक्ति वाली फिल्मों की अहम भूमिका
हिन्दी फिल्मों ने आम जनजीवन से जुड़े हर पहलू को छुआ और उसमें भावनाओं के रंग भरे हैं। देशप्रेम भी इनमें से एक है और देशभक्ति पर बनी फिल्मों ने न केवल आजाद हवा में सांस ले रही नयी पीढी को स्वतंत्रता के नायकों की कुर्बानियों का अहसास कराया बल्कि उसे यह अहसास भी कराया कि मातृभूमि से बढकर कुछ भी नहीं है। फिल्म अभिनेता पवन मल्होत्रा ने कहा, ‘वर्ष 2005 में आमिर खान ने देश के 1857 के पहले स्वतंत्रता विद्रोह और इसके नायक मंगल पांडे पर फिल्म बनाई। एम टीवी और इंटरनेट की दुनिया में जी रही आज की पीढी ने फिल्म में देखा कि मंगल पांडे ने कैसे ब्रिटिश फौज से लोहा लिया और घिर जाने पर किस तरह खुद को खत्म करने की कोशिश की, तो यह उनके लिए सिहराने वाली बात थी।’ उन्होंने कहा, ‘इस पीढी में से ज्यादातर लोग शायद फिल्म से पहले मंगल पांडे को नहीं जानते रहे होंगे। उन्हें ‘मंगल पांडे’ ने यह अहसास कराया कि जिन आजाद हवाओं में वह सांस ले रहे हैं वह उन्हें मंगल पांडे जैसे सेनानियों के बलिदान की बदौलत मिली हैं।’ फिल्म समीक्षक अनिरूद्ध मिश्रा ने कहा ‘आजादी के बाद भी युद्ध हुए और देश की खातिर लोगों ने अपने प्राण गंवाए। लेकिन हमारे ही आसपास का माहौल यह अहसास कराता है कि इस कुर्बानी की कीमत हमारी नजर में कितनी है। अगर इन युद्धों में शहीद होने वाले हमारे अपने नहीं हैं तो हम यह दर्द कैसे महसूस कर पाएंगे। यह चुभन महसूस कराने में फिल्मों की भूमिका अहम है।’ अनिरूद्ध ने कहा, ‘बलराज साहनी की पुरानी ‘हकीकत’ हो या जे पी दत्ता की ‘बॉर्डर’... सीमा पर जूझ रहे जवानों के हौंसले को आज की पीढी फिल्मों से ही महसूस कर सकती है। 1947 के लोग अब उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं। फिर हमारी नयी पीढी के लिए आजादी का जीवंत संघर्ष इन फिल्मों के जरिये ही नजर आएगा। ऐसी फिल्में बनते रहना चाहिए। फिल्मों में गहरी दिलचस्पी रखने वाले सेवानिवृत्त प्राध्यापक मनमोहन धांड ने कहा, ‘वर्ष 1943 में जब अशोक कुमार, मुमताज शांति अभिनीत ‘किस्मत’ की शूटिंग हो रही थी तब भारत छोड़ो आंदोलन चरम पर था। फिल्म के गीत कवि प्रदीप ने लिखे अ*ैर संगीत अनिल बिस्वास ने दिया। प्रदीप के गीत ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है’ ने देशभक्ति का जज्बा मजबूत करने में गहरा योगदान दिया।’ उन्होंने कहा ‘‘सेंसर बोर्ड ने इस गीत को पास कर दिया था लेकिन दर्शकों के उत्साह के बाद सेंसर बोर्ड को महसूस हुआ कि उसने क्या कर डाला। बहरहाल, गीत की लोकप्रियता आज भी बरकरार है।’ देश में 1940 से 1960 के दशक के बीच देशभक्ति आधारित कई फिल्में बनीं। भारत छोड़ो आंदोलन के संदर्भ में 1940 में ‘शहीद’ आई। समकालीन विषय पर बनी इस फिल्म के गीत ‘वतन की राह पे वतन के नौजवां शहीद हों’ को मोहम्मद रफी और खान मस्ताना के स्वर ने अमर बना दिया। नेताजी सुभाषचंद्र बोस और इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) पर 1950 में बनी ‘समाधि’ में दिखाया गया कि नेताजी के आह्वान पर अशोक कुमार आईएनए में शामिल हो कर सिंगापुर पहुंचते हैं जहां ब्रिटिश सेना की ओर से उनका बड़ा भाई उनसे युद्ध में लड़ता है। वर्ष 1951 में बनी ‘आंदोलन’ में बापू का सत्याग्रह, साइमन कमीशन, वल्लभभाई पटेल का बारदोली आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन दिखाया गया था। 1952 में ‘आनंदमठ’ आई जिसमें लता मंगेशकर का गाया ‘वन्दे मातरम’ शहीदों की इस पावन भूमि को जैसे नमन करता है। वर्ष 1953 में सोहराब मोदी ने ‘झांसी की रानी’ बनाई। अनिरूद्ध ने कहा ‘‘देशभक्ति पर बनी फिल्मों ने अपने किरदारों को भी अमर कर दिया चाहे वह शहीद में मनोज कुमार हों, हिन्दुस्तान की कसम में राजकुमार हों, सरफरोश में आमिर खान हों या लीजेंड आॅफ भगत सिंह में अजय देवगन हों। ऐसी फिल्में युवाओं को सशस्त्र बलों में शामिल होने या अपने तरीके से देश की सेवा करने के लिए प्रेरित करती हैं।’’
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14-08-2012, 03:25 PM | #3 |
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Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
कई परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है राष्ट्रीय ध्वज को
स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से फहराए जाने वाले राष्ट्रीय ध्वज का निर्माण भी उसकी गरिमा के अनुरूप ही कड़े मानदंडों के तहत किया जाता है। राष्ट्रीय ध्वज को अपने संपूर्ण रूप में आने से पूर्व कई परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है और उसके बाद ही इसे विभिन्न सरकारी इमारतों पर फहराने की अनुमति प्रदान की जाती है। राष्ट्रीय ध्वज का डिजाइन और उसकी निर्माण प्रक्रिया ब्यूरो आफ इंडियन स्टैंडर्ड्स (बीआईएस) द्वारा जारी तीन दस्तावेजों के प्रावधानों से नियंत्रित होती है। सभी राष्ट्रीय ध्वज सूती खादी या रेशमी खादी से बनाए जाते हैं। राष्ट्रीय ध्वज से संबंधित मापदंडों की व्यवस्था 1968 में की गयी थी और इन्हें वर्ष 2008 में फिर से अद्यतन किया गया। कानून के अनुसार, आज नौ प्रकार के राष्ट्रीय ध्वजों के निर्माण की अनुमति प्रदान की गयी है तथा सबसे बड़े आकार का यानी 6 3 मीटर गुणा 4 2 मीटर का राष्ट्रीय ध्वज महाराष्ट्र सरकार द्वारा मंत्रालय भवन पर फहराया जाता है। यह इमारत राज्य का प्रशासनिक मुख्यालय है। बीआईएस के जनसंपर्क विभाग के निदेशक एच एल कौल ने बताया कि बीआईएस राष्ट्रीय ध्वज निर्माण के लिए लाइसेंस प्रदान करता है और उसके लिए मानक तय करता है। मानकों में उचित रंग, उचित आकार और उचित कपडे का इस्तेमाल सुनिश्चित किया जाता है। 1951 में भारत के गणतंत्र बनने के बाद इंडियन स्टैंडर्ड्स इंस्टीट्यूट (अब बीआईएस) ने पहली बार आधिकारिक रूप से ध्वज की रूपरेखा तय की थी। इसमें बाद में 1964 और 17 अगस्त 1968 को संशोधन किया गया। नए मापदंडों में भारतीय ध्वज के आकार, उसे रंगे जाने वाले रंग, उसका उजलापन, धागों की संख्या आदि अन्य पक्षों को शामिल किया गया। राष्ट्रीय ध्वज से संबंधित दिशा निर्देश दीवानी और आपराधिक कानून के तहत आते हैं तथा इसके निर्माण में किसी प्रकार की खामी पर दोषी को आर्थिक दंड या जेल की सजा हो सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार, राष्ट्रीय ध्वज के निर्माण में हाथ से बुनी खादी या कपड़े का ही इस्तेमाल किया जा सकता है तथा किसी भी अन्य सामग्री से बने राष्ट्रीय ध्वज को फहराने पर कानून के तहत सजा का प्रावधान है। ध्वज में दो प्रकार की खादी का इस्तेमाल होता है। एक प्रकार की खादी से ध्वज बनाया जाता है तो दूसरी मोटी खादी से झंडे को स्तंभ से बांधने के लिए उसकी मोठी गोठ बनायी जाती है। यह गेंहूए रंग की होती है। ध्वज में इस्तेमाल होने वाली दूसरी प्रकार की मोटी खादी गैर पारंपरिक तरीके से बुनी जाती है जिसमें सामान्यत: दो धागों के विपरीत तीन धागों का इस्तेमाल होता है। इस प्रकार की बुनाई बेहद दुर्लभ है और भारत में ऐसे कुशल बुनकर मात्र दर्जनभर ही हैं। राष्ट्रीय ध्वज के लिए हाथ से बुनी खादी उत्तरी कर्नाटक के धारवाड़ और बगालकोट जिलों में दो हथकरघा यूनिटों से मंगायी जाती है। इस समय हुबली स्थित कर्नाटक खादी ग्रामोद्योग संयुक्त संघ को ही केवल राष्ट्रीय ध्वज के निर्माण का लाइसेंस हासिल है। खादी विकास और ग्रामोद्योग आयोग ही देश में राष्ट्रीय ध्वज निर्माण यूनिट स्थापित करने की अनुमति प्रदान करता है। लेकिन नियमों का उल्लंघन होने पर बीआईएस इस लाइसेंस को रद्द करने का अधिकार रखता है। एक बार राष्ट्रीय ध्वज के लिए कपड़ा बुने जाने पर उसे परीक्षण के लिए बीआईएस प्रयोगशाला में भेजा जाता है। गुणवत्ता की जांच होने पर, यदि मंजूरी मिल जाती है तो उसे वापस फैक्ट्री में भेजा जाता है। इसके बाद इस कपड़े को तीन हिस्सों में बांटकर केसरिया, सफेद और हरे रंगों में रंगा जाता है। अशोक चक्र की स्क्रीन प्रिंटिंग होती है। इस बात की विशेष सावधानी बरती जाती है कि चक्र दोनों ओर से साफ दिखाई दे। इसके उपरांत जरूरी आकार के तीन रंगों के तीन टुकड़ों को आपस में सिला जाता है और इसे इस्त्री कर पैक कर दिया जाता है। तत्पश्चात बीआईएस रंगों की जांच करता है और केवल उसके बाद ही राष्ट्रीय ध्वजों को बेचने के लिये बाजार में भेजा जाता है। इस प्रकार पूरी होती है राष्ट्रीय ध्वज की यात्रा।
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14-08-2012, 03:27 PM | #4 |
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Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
आजाद हिंद फौज के कैप्टन ने कहा
आजादी की कद्र नहीं जानते नेता आजाद हिंद फौज (आईएनए) के एक कैप्टन ने मांग की है कि स्वाधीनता संग्राम के बारे में युवा पीढ़ी को जानकारी देने के लिए स्कूलों में एक अलग पीरियड की व्यवस्था होनी चाहिए । उन्होंने कहा कि आज के नेता आजादी की कद्र करना नहीं जानते और न ही उन्हें इस बात का अहसास है कि आजादी कितने बलिदानों से मिली है, वे तो बस ‘नोट और वोट’ के चक्कर में सब कुछ बर्बाद करने में लगे हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगुवाई वाली ‘आजाद हिंद फौज’ के कैप्टन तथा जालंधर निवासी ओ. पी. शर्मा (90) ने कहा, ‘नेताओं को इस बात का अहसास नहीं है कि हमें आजादी कैसे मिली है। उन्हें शायद यह भी जानकारी नहीं है कि बहुत बड़ी कुर्बानी देने के बाद हमें यह आजादी हासिल हुई है।’ उन्होंने कहा, ‘नेताओं को देश में काम की चिंता नहीं है। उन्हें सिर्फ सत्ता में बने रहने की चिंता है। वे सुभाष चंद्र बोस और अन्य क्रांतिकारियों के बलिदान से मिली इस आजादी का अपमान कर रहे हैंं।’ बेहद कमजोर, लेकिन चुस्त दिखने वाले शर्मा ने दुखी होकर कहा, ‘शासक वर्ग ने आज आजादी के मायने ही बदल दिये हैं। बड़ा दुख होता है। हमने किस मिशन के साथ काम किया था और आज लोगों का मिशन क्या हो गया है।’ बेहद अनुशासित और संतुलित तरीके से बातचीत करने वाले शर्मा ने यह भी कहा, ‘सबको अपनी पड़ी हुई है। देश के बारे में कोई नहीं सोच रहा है। हर तरफ गुंडागर्दी है, बेरोजगारी है, इनके बारे में सोचने के लिए किसी को फुर्सत नहीं है।’ उन्होंने कहा कि नेताजी हमेशा कहते थे कि जिसने देश के लिए कुछ कर दिया, उसका जन्म लेना सफल हो गया। इसलिए देश के लिए कुछ करो। उन्होंने कहा कि अब एक बार फिर से देश के लिए कुछ करने का वक्त आ गया है। लोगों को इस बारे में सोचना होगा। यह पूछे जाने पर कि आप इस बारे में क्या कहना चाहेंगे, टूटे शब्दों में शर्मा कहते हैं, ‘आजादी बड़ी मुश्किल से मिली है। इसका अपमान न करो। इसकी कद्र करो। जो दौर हमने और आपके पूर्वजों ने देखा है, ऐसा कुछ करो कि आपको फिर से वो दौर न देखना पडे।’ उन्होंने यह भी कहा, ‘लोगों को आजादी, आजादी की लड़ाई और क्रांतिकारियों के बारे में बताने की जरूरत है। आज की पीढ़ी को उनके बारे में जानकारी ही नहीं है जिन लोगों ने अपना बलिदान देकर मुल्क को अंग्रेजों की दास्तां से मुक्त कराया था। इसलिए यह जरूरी है कि स्कूलों में इसके लिए अलग से एक पीरियड की व्यवस्था होनी चाहिए।’ वयोवृद्ध शर्मा अपने घर आने वाले हर किसी का अभिवादन ‘सल्यूट’ कर और ‘जय हिंद’ कह कर करते हैं। बातचीत में उनके शब्द टूटते हैं। उनकी स्मृति में वह सब कुछ है, जो उन्होंने उस दौर में देखा था। वह कहते हैं, ‘पहले मैं 17 साल की उम्र में अंग्रेजों की फौज में भर्ती हुआ था। मुझे सिंगापुर लड़ने के लिए भेज दिया गया।’ शर्मा ने कहा, ‘मैं जब सिंगापुर में था तो मुझे नेताजी के ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ के नारे के बारे में पता चला। मैंने अंग्रेजों की फौज छोड़ दी। बीस साल की उम्र में आजाद हिंद फौज में बतौर सुरक्षा अधिकारी भर्ती हो गया।’ उन्होंने कहा कि इसके बाद उन्होंने बर्मा (अब म्यामां) और थाईलैंड में फिरंगियों के खिलाफ संघर्ष किया। उन्हें गोली भी लगी। बाद में उन्हें कालापानी भेज दिया गया। शर्मा ने कहा, ‘जापान के हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराए जाने की घटना ने भी हमारी आजादी को प्रभावित किया ... नहीं तो हम तो 1947 से पहले ही आजाद हो गए होते। गांधी जी कहते थे, लड़ो मत। हम ऐसे ही आजादी ले लेंगे, लेकिन सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज नहीं होती, तो आजादी मिलने में 20 साल और लगते।’ उन्होंने भर्राये गले से कहा, ‘मेरी जिंदगी पूरी हो गई है। मेरा बुलावा कब आ जाए, पता नहीं ... लेकिन आप सब (देशवासियों) से गुजारिश है कि देश और आजादी को बनाये रखना आपका कर्तव्य है और इससे पीछे नहीं हटिए। कुर्बानी भी देनी पड़े, तो आगे रहिए, क्योंकि आजादी कैसे मिली है यह आप नहीं जानते हैं।’
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14-08-2012, 03:28 PM | #5 |
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Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
जीवन की सांझ में सीमा के उस पार से अपनों के आने का इंतजार
‘काड़जे दे दो टुक्कड़ हुए, ते इक इत्थौं रोए होर इक उत्थौं भीगे’ 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ तो यह आजादी खुशी के साथ साथ कभी न मिट पाने वाला दर्द भी दे गई, क्योंकि मुक्त हवाओं में ली जाने वाली हर सांस उन लोगों की याद दिलाती है जो दो हिस्सों में बंट चुके देश के दूसरे हिस्से में रह गए और जिनसे मिलने के लिए दिल तड़पता है। अपनों को छोड़ कर हिन्दुस्तान के इस भाग में आई कुछ आंखें अब बूढी हो गई हैं लेकिन दूसरे भाग में रह रहे अपनों से मिलने का उन्हें अब तक इंतजार है। आंखों में नमी अब एक बार फिर बढ गई है क्योंकि अब इनमें से कई के जीवन की सांझ करीब है। आज जीवन के सौ बसंत देख चुकीं शम्मी बख्शी चाहती हैं कि पाकिस्तान में लाहौर के समीप डेरा बख्शियां में रह रहे उनके भाई और उनके बच्चे एक बार आ कर उनसे जरूर मिलें। वह कहती हैं, ‘पांच भाइयों में से अब दो ही बचे हैं। विभाजन के समय मेरी ससुराल वालों ने हिन्दुस्तान आने का फैसला किया। मेरा पीहर डेरा बख्शियां में है।’ शम्मी एक बार सीमा के इस पार आई तो फिर नए सिरे से गृहस्थी बसाने में इस कदर उलझीं कि डेरा बख्शियां जा ही नहीं सकीं। वह कहती हैं, ‘मेरी मां, पिताजी और भाई पहले मिलने आते थे। तब हालात इतने खराब नहीं थे। फिर मां नहीं रही, पिताजी भी चल बसे। तीन भाई भी चले गए। मैं अपनी परेशानियों से नहीं उबर पाई। अब वीजा के लिए इतनी मुश्किल हो रही है कि चाहते हुए भी हम वहां नहीं जा पा रहे हैं। यही हाल उन लोगों का है।’ शम्मी कहती हैं, ‘मैं एक बार अपना घर देखना चाहती हूं। अब तो पुराना घर तोड़ कर नया बना लिया गया है। पर मिट्टी तो नहीं बदली होगी। आंखें बंद होने से पहले बस, एक बार ...।’ सी पी सूरी जब विभाजन के बाद अपने बच्चों को लेकर हिन्दुस्तान आए तो उन्हें यहां बड़ौदा हाउस में नौकरी मिल गई थी। वह कहते हैं ‘‘यहां सब कुछ मिला। लेकिन अपनों को कैसे भूलूं। फोन पर अपने साथियों से बातें होती थीं। एक एक कर कई साथी चले गए। अब जो बचे हैं उनसे मिलना चाहता हूं। मेरे चाचा, ताया का परिवार भी वहां है। वह लोग यहां आना चाहते हैं लेकिन सब कुछ आसान नहीं होता।’ जाने माने शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. संजीव सूरी के पिता सी पी सूरी कहते हैं, ‘आजादी की खुशी बहुत हुई, लेकिन मेरा दर्द भी कम नहीं है।’ स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. बीना ग्रोवर कहती हैं, ‘मेरे दादा दादी मुल्तान में रहते थे। उनसे वहां की बहुत बातें सुनीं। दो बार हम लोग वहां गए भी। वहां से हमारे रिश्तेदार नहीं आ पाए। मेरे दादा आखिरी समय तक यही कहते रहे कि वह मुल्तान में अपने घर पर आखिरी सांस लेना चाहते हैं। पर जब तक हमें वीजा मिला, दादा विभाजन कर दर्द लिए गुजर चुके थे।’ डॉ बीना कहती हैं ‘हमारा रहन सहन, सूरत, शक्ल सब कुछ तो एक समान है फिर भी हम दो हिस्सों में बंटे हुए हैं।’ शम्मी कहती हैं, ‘काड़जे दे दो टुक्कड़ हुए, ते इक इत्थौं रोए होर इक उत्थौं भीगे।’
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Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
उम्मीदों की पतंग
स्वतंत्रता दिवस पर देश की राजधानी दिल्ली सहित पूरे देश में उत्साह और जोश का माहौल रहता है। वाहनों और घरों पर फहराते तिरंगों के बीच इस दिन नीले आसमान में डोर के सहारे इतराती पतंगों को भला कौन भूल सकता है। इस दिन पतंगबाजी के लिए खास इंतजाम किए जाते हैं और पतंगबाजी की खास प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैंं। इस दिन पुरानी दिल्ली के कई स्थानों पर पतंगबाजी के शौकीन सवेरे से ही जुटने लगते हैं। मांझा, चरखी, सद्दी और ढेरों पतंगों के साथ दशकों पहले मिली आजादी की सालगिरह का जश्न मनाया जाता है। आसमान में उड़ती रंग बिरंगी पतंगें देखने वालों के लिए भी विशेष आकर्षण का केन्द्र होती हैं । भारत में वैसे तो पतंगबाजी का इतिहास काफी पुराना है, कहा जाता है कि भगवान कृष्ण भी गोपियों के संग पतंग उड़ाया करते थे। मुगलकाल में भी पतंगबाजी की लोकप्रियता के साक्ष्य मिले हैं। भारतीय साहित्य में भी पतंगबाजी का उल्लेख है, 1542 ई. में भारतीय कवि मंजान ने अपनी कविता ‘मधुमालती’ में पहली बार ‘पतंग’ शब्द का उल्लेख किया था । आज भी भारत में कुछ विशेष अवसरों पर पतंगबाजी आयोजित की जाती है । मकरसंक्रांति के अवसर पर 14 जनवरी को हर साल गुजरात के अहमदाबाद में अंतर्राष्ट्रीय पतंग महोत्सव का आयोजन किया जाता है। दिल्ली की एक निजी कंपनी में कार्यरत 59 वर्षीय रमेश चोपड़ा अपने बचपन के दिनों को याद कर कहते हैं, ‘स्कूल के दिनों में मैंने खूब पतंगें उड़ाई हैं और 15 अगस्त के लिए तो विशेष तैयारी करते थे । मुझे याद है कि तब एक पैसे में पतंग मिला करती थी, आजकल की तरह फैंसी और प्लास्टिक की पतंगों का चलन नहीं था, हम खुद ही अपने घरों में पतंग बनाया करते थे । मुहल्ले में जिसके घर की छत उंची होती थी उसी के घर जमघट लगा करता था । आज तो काफी कुछ बदल गया है ।’ रमेश चोपड़ा के 82 वर्षीय पिता रोशन लाल चोपड़ा कहते हैं, ‘मैंने ज्यादा पतंग नहीं उड़ाई हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि हमारे जमाने में पतंगबाजी नहीं हुआ करती थी । हमारे जमाने में भी पतंग उड़ाने का शौकीनों की कमी नहीं थी। बसंत पंचमी पर खूब पतंगें उड़ती थीं। आजादी के बाद 15 अगस्त पर पतंगें उड़ाने का चलन शुरू हुआ जो समय के साथ बढता गया।’ वहीं 30 वर्षीय संदीप को भी अपने पिता रमेश चोपड़ा की तरह पतंगबाजी का खूब शौक है। वह कहते हैं, ‘हर साल की तरह इस साल भी 15 अगस्त पर मैं पतंग उड़ाने वाला हूं, आजकल पतंग की कीमत कोई पांच रुपए के आसपास होगी, लेकिन स्कूल के दिनों में हम खुद ही पतंग बनाया करते थे । तब गज के हिसाब से पतंग उड़ाने का धागा मिलता था । दिल्ली के फिल्मीस्तान, लालकुआं से हम पतंग लाते करते थे । पतंग के मांझे को कटने से बचाने के लिए विशेष तरह का गोंद का इस्तेमाल करते थे।’ इन तीन पीढियों की पतंगबाजी का अंदाज भले ही जुदा हो, लेकिन उत्साह वही और आसमान में उम्मीदों की डोर थामे पतंगों का संदेश भी वही - आजादी... उन्नति... और शांति...।
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Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
आजादी की लड़ाई में भी थी चम्बल के बागियों की भूमिका
उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक फैला चम्बल का बीहड़ नामी डकैतों के लिए कुख्यात है, लेकिन आजादी की जंग में इसी बीहड़ में रहने वाले बागियों ने अहम भूमिका निभाई थी। चम्बल के बीहड़ों में आजादी की जंग की कहानी 1909 से शुरूहुई। इससे पहले शौर्य, पराक्रम और स्वाभिमान का प्रतीक मानी जाने वाली बीहड़ की वादियां चंबल के पानी की तरह साफ सुथरी और शान्त हुआ करती थीं। चम्बल में पलने वाले लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ रहे क्रांतिकारियों का जम कर साथ दिया। बीहड़ क्रांतिकारियों के छिपने का ठिकाना भी बना। बीहड़ों में रहने वाले अब भले ही डकैत कहे जाते हैं, लेकिन अंग्रेज उन्हें बागी कहा करते थे। डकैतों को अब भी बागी कहलाना ही पसंद है। आजादी के बाद बीहड़ में जुर्म की शुरुआत हुई, जो अब तक जारी है। इस आग में हजारों घर बर्बाद हो गए। बीहड़ में बसे डकैतों के पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर क्रान्तिकारियों का साथ दिया, लेकिन आजादी के बाद इन्हें कुछ नहीं मिला, इसीलिए तो उनके वंशज आज भी अपने स्वाभिमान के लिए बीहड़ को आबाद किए हैं। बीहड़ मामलों के जानकार भिंड निवासी 85 वर्षीय मलखान सिंह गुर्जर, जिन्होंने आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक बीहड़ का करीब से अवलोकन किया है, ने बताया कि राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में बहने वाली चम्बल के किनारे 450 वर्ग किमी. फैले इन बीहड़ों में डकैत आज से नहीं आजादी से पहले भी हुआ करते थे। उन्हें पिंडारी कहा जाता था। पिंडारी मुगलकालीन जमींदारों के पाले हुए वफादार सिपाही हुआ करते थे, जिनका इस्तेमाल जमींदार किसी विवाद को निबटाने के लिए किया करते थे। मुगलकाल की समाप्ति के बाद अंग्रेजी शासन में चम्बल के किनारे रहने वाले इन्हीं पिंडारियों ने वहीं डकैती डालना शुरू कर दिया और बचने के लिए अपनाया चम्बल की वादियों का रास्ता। अंग्रेजो के खिलाफ भारत छोड़ो आन्दोलन में चम्बल के किनारे बसी हथकान रियासत के हथकान थाने में सन 1909 में चर्चित डकैत पंचम सिंह, पामर और मुस्कुंड के सहयोग से क्रान्तिकारी पंडित गेंदालाल दीक्षित ने थाने पर हमला कर 21 पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और थाने में रखा असलहा गोला बारूद लूट लिया। इन्हीं डकैतों ने क्रान्तिकारियों गेंदालाल दीक्षित, अशफाक उल्ला खान के नेतृत्व में सन 1909 में ही पिन्हार तहसील का खजाना लूटा और उन्हीं हथियारों से 9 अगस्त 1915 को हरदोई से लखनऊ जा रही ट्रेन को काकोरी रेलवे स्टेशन पर रोककर सरकारी खजाना लूटा। डकैती, लूट और हत्याओं की सैकड़ों घटनाओं को अंजाम देने वाले क्रान्तिकारी तो जेल चले गए या फांसी पर लटका दिए गए, लेकिन चम्बल की इन वादियों में रह गए तो सिर्फ डकैत जो देश की आजादी के बाद चम्बल की बहती साफ सुथरी धरा की तरह अपने स्वाभिमान के गुलाम बने। फर्क इतना है कि पहले बागी हुआ करते थे, लेकिन आज होते हैं डकैत।
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Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
चम्बल के इतिहास में पंचम सिंह, पामर, मुस्कुंड के बाद नामी गिरामी दस्यु सम्राट सुल्ताना डाकू, मान सिंह मल्लाह, मलखान सिंह, दराब सिंह, माधव सिंह, तहसीलदार सिंह, लालाराम, रामआसरे तिवारी उर्फ फक्कड बाबा, निर्भय गुर्जर, रज्जन गुर्जर, पहलवान उर्फ सलीम गुर्जर, अरविंद गुर्जर, रामवीर गुर्जर, रामबाबू गरेड़िया, शंकर केवट, मंगली केवट, चंदन यादव, जगजीवन परिहार के अलावा दस्यु सुन्दरियों में पुतलीबाई से लेकर फूलन देवी, कुसुमा नाइन, सीमा परिहार, मुन्नी पांडेय, लवली पाण्डे, गंगा पाण्डे, ममता विश्नोई उर्फ गुड्डी, सुरेखा, नीलम, पार्वती, सरला जाटव, रेनू यादव, सीमा जोशी जैसी सुन्दरियों का चम्बल घाटी में आतंक कायम रहा, जिन्होंने अपहरण और लूट-हत्याओं को अंजाम देकर चम्बल के बीहड़ों से लेकर गुजरात, राजस्थान, महाराष्टñ और राजधानी दिल्ली तक अपने खौफ को बरकरार रखा। महिला डकैत के रूप में खूबसूरत नृत्यांगना गौहर बानो जब वर्ष 1950 में बीहड़ में उतरी तो पुतलीबाई बन गई, जिसे सुल्ताना डाकू के द्वारा उठा कर बीहड़ में पहुंचाया गया था। तीन वर्ष बीहड़ में बिताने के बाद 1953 में पुतलीबाई ने न्यायालय में समर्पण कर दिया, लेकिन किन्हीं कारणों के चलते उसने दो वर्ष बाद फिर बीहड़ का रास्ता अपनाया और 23 जनवरी 1956 को पुतलीबाई एक पुलिस मुठभेड़ में मारी गई। इतने वर्ष बीहड़ में बिताने के बाद भी पुतली मां नहीं बन सकी। पुतलीबाई के साथ शुरू हुआ दस्यु सुन्दरियों का सफर आगे भी जारी रहा, परन्तु बीहड़ में मां बनने का गौरव सबसे पहले सीमा परिहार को ही मिला। सीमा परिहार व फूलन देवी यह दो ऐसी दस्यु सुन्दरियों के नाम हैं, जिन्होंने डकैती जीवन के अलावा भी नाम कमाया। सीमा ने जहां बीहड़ को अलविदा कह बॉलीवुड की ओर रुख किया, तो फूलन देवी ने बीहड़ छोड़ देश की सांसद बनने का गौरव प्राप्त किया। चम्बल के इतिहास में सबसे पहली फिरौती सन 1960 में डाकू दराब सिंह ने फर्रुखाबाद के एक व्यवसायी का अपहरण कर वसूली थी। तब से आज तक चम्बल एक अपहरण उद्योग नगरी के नाम से जानी जाती है। सन 1996 से 2006 के बीच पिछले दस सालों में चम्बल के किनारे बसे इटावा, औरैया, जालौन, भिण्ड, मुरैना, ग्वालियर, आगरा तथा कानपुर देहात से 2142 अपहरण हुए जिनमें 165 बच्चे थे। उनमें से 112 को फिरौती लेकर छोड़ दिया गया, लेकिन 43 का आज तक कोई पता नहीं चला। चम्बल के डकैतों के खौफ से आसपास के सैकड़ों गांव हमेशा खौफजदा रहते थे। समय-समय पर जारी किए गए फरमानों के गुलाम बने रहे ज्यादातर डकैत इसे अपने फायदे के लिए नहीं, बल्कि अपने शरणदाताओं के फायदे के लिए जारी करते। ग्रामसभा के चुनाव से लेकर संसदीय चुनावों में मतदान के लिए गांव वालों को डकैतों की मर्जी के मुताबिक चलना पड़ता था। फरमान की अवहेलना करने वालों को नाक-कान तथा जुबान कटने की सजा से गुजरना पड़ता था। नामचीन डकैतों के सफाए में लगी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान की पुलिस को 2005-06 के दौरान सफलता तो हाथ लगी, लेकिन बीहड के डकैतों की समस्या का समूल नाश नहीं हो सका।
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14-08-2012, 11:51 PM | #9 |
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Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
स्वतंत्रता दिवस के इस मौके पर आपने आजादी से जुड़े कुछ रोचक तथ्योँ को उजागर किया है ! आपकी इस मेहनत को मेरा सलाम |
देश की आजादी के लिए अपने प्राणोँ की आहूति देने वाले उन वीरोँ को मेरा शत् शत् नमन .......... :selut::selut:
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15-08-2012, 12:48 AM | #10 |
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Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
राष्ट्रीय पर्व नहीं हैं स्वतंत्रता दिवस, गांधी जयन्ती और गणतंत्र दिवस
देश में हर वर्ष सरकारी स्तर पर भव्य पैमाने पर मनाए जाने वाले स्वतंत्रता दिवस, गांधी जयन्ती और गणतंत्र दिवस आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय पर्व नहीं हैं। खुद सरकार ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत मांगी गई जानकारी में यह बात कही है। लखनऊ की एक छात्रा ऐश्वर्या पाराशर ने गत 25 अप्रेल को आरटीआई अर्जी भेजकर प्रधानमंत्री कार्यालय से 15 अगस्त, दो अक्टूबर और 26 जनवरी को राष्ट्रीय पर्व घोषित किए जाने सम्बन्धी आदेश की सत्यापित प्रति मांगी थी। प्राप्त प्रति के मुताबिक गत 17 मई को गृह मंत्रालय द्वारा भेजे गए जवाब में 15 अगस्त, दो अक्टूबर और 26 जनवरी को राष्ट्रीय पर्व घोषित किए जाने सम्बन्धी आदेश के बारे में स्पष्ट कहा गया कि इस तरह का कोई आदेश जारी नहीं किया गया है। ऐश्वर्या के मुताबिक उसने गत 31 जुलाई को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को लिखे पत्र में कहा कि उसने 28 मई को गृह मंत्रालय को भेजी गई अपील में कहा था कि उससे सम्भवत: आरटीआई अर्जी का जवाब देने में कुछ गलती हो गई है। हालांकि 21 जून को उसे फिर पुराना जवाब मिला और उसके पत्र को राष्ट्रीय अभिलेखागार के पास भेज दिया गया। छात्रा ने बताया कि उसने मुखर्जी को लिखे पत्र में कहा है कि राष्ट्रीय अभिलेखागार ने गत 23 जुलाई को भेजे गए जवाब में जानकारी दी है कि उसके पास 15 अगस्त, दो अक्टूबर और 26 जनवरी को राष्ट्रीय पर्व घोषित किए जाने सम्बन्धी कुछ फाइलें तो हैं, लेकिन कोई सरकारी आदेश उसके पास भी नहीं है।
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