19-02-2013, 07:46 AM | #1 |
अति विशिष्ट कवि
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ग़ज़ल सबके सरोकार की
आओ मिल जुल के इक मशाल जलाई जाये ;
गन्दगी जितनी दिखे , आग लगाई जाये . ख़्वाब जिसके दिखाये थे , वो तो बन के न मिली ; अब तो ख़ुद ही नई तस्वीर बनाई जाये . रास्ता बेहतरी का ताकते जो पथराईं ; फिर से उम्मीद उन आँखों में जगाई जाये . जो अन्धेरों को मान बैठे मुकद्दर अपना ; रौशनी उनके निशाने पे भी लाई जाये . चन्द जिन लोगों ने हथिया लिया सूरज सारा ; नक़ाब ऐसे शरीफ़ों की हटाई जाये . झोपड़े रौंद के जितने भी बने ताज महल ; वक़्त की माँग है , बुनियाद हिलाई जाये . अवाम गूँगी हो तो तख़्त भी बहरा बनता ; मिल के आवाज़ तबीयत से उठाई जाये . खेल जज़्बात से , पत्थर जो ख़ुदा बन बैठे ; या तो पसीजें , या फिर उनकी ख़ुदाई जाये . रहनुमा जिनको बनाया था , बन गये रहजन ; इनकी हद फिर से इन्हें याद दिलाई जाये . हमने ख़ुद के ही मसअलों के गीत गाये बहुत ; अब ग़ज़ल सबके सरोकार की गाई जाये . रचयिता ~~ डॉ .राकेश श्रीवास्तव विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ . ( शब्दार्थ > अवाम = जनता , तख़्त = शासक , खुदाई = ईश्वरीय भाव / देवतापना , रहनुमा= लीडर / गाइड , रहजन = लुटेरा , हद = सीमा , मसअलों = समस्याओं , सरोकार = सम्बन्ध / वास्ता )
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