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Old 05-10-2014, 11:36 PM   #141
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

सुबह बाबू जी कराह रहे थे। मां उदास, खाना बना रही थी। बड़की चाची मुझे बुलाकर अपने घर ले गई। समझाने। शायद मां ने कहा होगा। समझाने लगी। -

‘‘बेटा, सहबा सब दिन ऐसने नै हलै। जब तों पैदा होलहीं तब उहे पार्टी में पहला बार दारू पिलकै और साश्रंग खराब हो गेलै। इहे साहबा हलई जे तोरा चाचा के दारू पीला पर मारो हलै और आज अपने पीये लगलै।’’

समझाते हुए चाची अपने घर और पुर्वज की कई सारी बातें बताने लगी। कैसे बाबू जी गांव के गिने चुने उन लोगों में थे जिसने अपने समय में ग्रेजुएट किया। कैसे बाबू जी बेल-बटम शर्ट और फुलपैंट के शौकीन थे। और कई तरह का रोजगार करते हुए काफी कुछ कमाया पर समय ने साथ नहीं दिया और आज यहां पहूंच गए। चाची ने पहली बार यह भी बताया कि हमारा परिवर और पुर्वज काफी सुखी सम्पन्न थे और गांव में प्रमुख और प्रतिष्ठित भी। पंद्रह एकड़ खेत थी और आज गांव के कई संपन्न लोगों के पुर्वज मेरे यहां आकर नौकर का काम करते थे। पर आज यह हालत हुई कैसे। दो दिन पीढ़ीयों के नाकारापन इसका प्रमुख कारण के रूप में सामने आया। देवा...


दर्द, फांकाकशी और बेवशी ने सीने के अंदर आकर घर बसा लिया, जिसका परिणाम हीनता की भावना के रूप में सामने आया। अपने आज तक के कामों पर अफसोस के सिवा अब मेरे पास कुछ नहीं रह गया था। प्यार के लिए सोंचने का वक्त जिंदगी नहीं दे रही थी और जिंदगी के लिए सोंचने भर से काम नहीं चलने वाला, सो कुछ काम करने की ठानी। हलांकि मैं अक्सर ही यही सोंचा करता ‘‘जो तुध भावे नानका, सोई भली तू कर।’’ ईश्वर को जो अच्छा लगे वही होना चाहिए। इस समय ओशो की पुस्तकों ने बड़ा सहारा दिया जिसमें कर्ता भाव से जीवन को जीने का सबक दिया। जिंदगी जीने का नाम है और जीना ही जिंदादिली है। कई तरह के नाकारात्मक भाव घर कर गए और मैं खामोश रहने लगा। हलंाकि जब फूआ के घर था तब भी गरीबी का साथ था पर वहां उससे लड़ने का हौसला भी था और हल बैल और कलम औजार थे पर यहां पिताजी ने इस हौसले को तोड़ दिया।
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
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Old 05-10-2014, 11:37 PM   #142
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

आज भी याद है मुझे, वह कोई अस्सी का दशक था। ईलाके में अकाल पड़ गया था और जो किसान महज खेती पर ही निर्भर थे उनकी कोठी खाली हो गई थी और घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था। इस सब के बाबजूद आमदनी का कोई जरिया भी नहीं था। पर हां एक भैंस थी जिसने उस अकाल में भी अपने दूध से पूरे परिवार का पेट पाल दिया। बाजार में दूध बेचने मैं ही जाता था और फिर बाजार से खाने के लिए बाजरे का आटा लेकर आता था। गेंहूं का आटा मंहगा था और बाजरे का आटा सस्ता। आकाल से पहले बाजरे का आटा बाजार में नहीं मिलता था पर इस साल अकाल पड़ा था सो बनिये की दुकान में बाजरे का आटा जमकर बिक रहा था। बाजरे का आंटा पांच रूपये पसेरी था तो गेंहूं का आटा पन्द्रह रूपये पसेरी। पर हां बाजरे के आंटे से गेंहूं की रोटी की तरह रोटी नहीं बनती थी, पतली पतली और नरम। बाजरे के आंटे से मोटी रोटी बनती थी जिसे हमलोग मोटकी रोटी कहते थे। फूआ दस बारह इंच गोलाई मे और आधा से पौन इंच मोटी रोटी पका देती सुबह और वही हमलोगों का भोजन होता। दूध के साथ बाजरे की रोटी गूर कर खाते। पर कभी उस हालात में भी गरीबी का मलाल नहीं रहा। संतोष के साथ ही जी रहे थे। बल्कि बाजरे की रोटी और दूध का वह स्वाद आज तक याद है।
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Old 05-10-2014, 11:38 PM   #143
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

दूध रोटी के साथ चीनी मिलने की जरूरत नहीं होती थी और वह यूं ही मीठी लगती या शायद यह मन का संतोष था जो मिठास बन कर मुंह के स्वाद में धुल मिठास बन जाती। उसी क्रम में एक वाकया फूफा बारबार सुनाया करते है। ‘‘कैसे हमर बुतरू गरीबी के हालत में भी हमर साथ रहल।’’- मै एक दिन बाजरे के आंटे का बोरा बाजार से लेकर आ रहा था। जाड़े का मौसम था और बीच रास्ते में बरसात होने लगी। पूरा भींग गया और उसी तरह कंपकपंतें हुए आंटा लेकर घर आया। आंटा का बोरा प्लास्टिक का था सो उसको ज्यादा क्षति नहीं पहूंची।

खैर
, गरीबी की भी अपनी यादें होती है पर यदि उस गरीबी में भी गरीबी के होने का एहसास न हो तो गरीबी नहीं होती थी। तो इस तरह के हालत को बचपन से झेतले हुए किशोर हुआ और आज परिस्थितियां सामने और भी विकट थी।

इन्हीं सब चीजों से जुझता जी रहा था कि आज सुबह फूआ आ कर धमक गई। वह मुझे अपने गांव ले जाना चाहती थी। बहुत समझाने बुझाने के बाद जब मैं नहीं माना तो वह गुस्सा भी हो गई।

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Old 05-10-2014, 11:39 PM   #144
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

‘‘हां रे हम निरवंश ही तब ने तो ऐसे करो हीं, हमर बाल बच्चा रहतै हल त कि करथी हल।’’

अक्सर जब फूआ मुझे अपने बश में करना चाहती थी तो यह उसका अंतिम ब्रहम्सत्र था। वह अपने बांझ होने का दर्द जब उगल देती तो मैं विवश हो जाता पर इस बार मैं ज्यादा ही गुस्से में और निराश था। खास कर घर की परिस्थिति को लेकर। इस बीच मां ने भी बहुत समझाया।

‘‘की करमहीं बेटा, बाप जब ऐसन हो गेलै तब कौन उपाय, तो जाके वहीं रह, यहां तो हम सब झेल रहबे कैलिए हें तो काहे ले परेशान ही।’’

मतलब साफ था, मां नहीं चाहती थी की घर के परिस्थिति का मैं शिकार बनू और इस लिए वह मुझे घर से जाने के लिए कह रही थी।

खैर एक हफते तक बाबूजी बाजार नहीं गए और परिस्थिति सामान्य थी। शाम को उन्होंने ने मुझे बुलाया और पैर दबाने के लिए कहा। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। और इसी क्रम में बातों ही बातों में उन्होंने अपने शराब पीने और उसकी लत की विवशता पर गंभीरता से बातें करने लगे। उनके अंदर भी एक टीस थी जो आज शब्दों के रूप में सामने आ रही थी।
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Old 09-10-2014, 01:32 PM   #145
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

‘‘अहो की करीऐ, बहुत छोड़े ले चाहो ही पर छुटबे नै करो है।’’

‘‘कोशीश करला से कौन काम नै होबो है’’

‘‘हां से तो है मुदा कैसे छुटतै भगवान जाने।’’

अंदर से निकली यह आवाज उनकी विवशत को दर्शा रही थी। कितने ही देर बातचीत चलती रही और बाबूजी के इस आत्मीय लगाव ने मुझे अंदर तक द्रवित कर दिया।

खैर जिंदगी है चलती रहेगी। मेरे लिए रोजगार की तलाश पहली और अंतिम तलाश वर्तमान में थी। इसी कड़ी में आर्मी की बहाली निकली और मैं दौड़ में भाग लेने के लिए कटिहार के लिए चल दिया। महज पच्चास रूपये का जुगाड़ करके मां ने दिया। शेखपुरा रेलबे स्टेशन पर कई दोस्त मिल गए और बिना टिकट रेलवे की सवारी परीक्षार्थियों का जन्म सिद्व अधिकार की तरह कटिहार चला गया। शाम को चला और सुबह दस बजे कटिहार पहूंचा। रेलवे स्टेशन से लेकर मैदान तक हजारांे युवाओं की भीड़। देवा। इस युवा-शैलाव में मेरी कहां जगह? फिर भी आए है तो दौड़ जाते है। दौड़ के लिए मैदान मे गया तो पहले ही चक्कर में हिम्मत पस्त हो गई। कभी दौड़ का अभ्यास नहीं किया था और मैदान में दौड़ने वाले सभी अभ्यस्त थे। दूसरे चक्कर में धड़ाम से गिर पड़ा। किसी ने लंधी मार दी और फिर निराश होकर घर लौट आया। घर आया तो देखा की दोस्त मनोज मेरा इंतजार कर अब लौटने बाला था। मुलाकात हो गई। कई सारी बातें हुई। अन्त में रास्ते में जाते हूए उसने रीना का प्रेम पत्र थमा दिया।
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Old 09-10-2014, 01:33 PM   #146
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जान से भी प्यारे बब्लू।

प्यार क्या होता है शायद तुमसे जुदाई के एहसास से पहले तक नहीं जान सकी थी। शायद शरीर से प्राण के अलग होने पर भी इतनी तकलीफ नहीं होती होगी। होगी भी तो कैसे जब तकलीफ को महसूस करने वाली आत्मा ही नहीं रहेगी तब। पर आज मैं उस तकलीफ को महसूस कर रहीं हूं जो शरीर से आत्मा के जुदा होने पर भी शरीर के तकलीफ को आत्मा भोग रही है। कहतें है प्यार एक पागलपन है फिर इसमें समझदारी की बातें कैसी? धर-परिवार, रिश्ते-नाते और सबसे बढ़कर जिम्मेदारी। मैं सारी चीजों को समझती हूं पर नहीं समझती तो इस बात को कि क्या मैं तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं? कहतें हैं प्यार की परीक्षा मुश्किल वक्त में ही होती है। तो क्या हम इस परीक्षा में असफल हो जाएगें? जिस प्यार के दंभ पर मैं अपने परिवार से सर उठा कर बात करती थी आज वही लोग जब मेरी ओर देखते हैं तो मैं नजर नहीं मिला पाती। क्यों?

कैसी भी परिस्थिति हो, कैसा भी समय हो, साथ जियेगें साथ मरेगे।

तुम साथ नहीं हो तो जिंदगी क्या है?
तुम साथ यदि हो तो जिंदगी क्या है!...

तुम पहलू में हो तो मौत भी मुझे प्यारी है,
तुम पहलु में नही हो तो मौत से ही यारी है।

जानती हूं मैं, बिना प्यार, शरीर आत्मा बिहीन है,
फिर अपनी ही लाश ढोना भला कैसी समझदारी है?

तुम यदि एक सप्ताह के अंदर अंदर नहीं आये तो फिर मेरा मरा हुआ मुंह देखोगे...

तुम्हारी प्यारी .... रीना
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Last edited by rajnish manga; 09-10-2014 at 01:40 PM.
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Old 09-10-2014, 01:36 PM   #147
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प्रेम-शायद भाव-संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। कभी अभिव्यक्ति का माध्यम जुबां होती है तो कभी आंखें और कभी कभी इसकी अभिव्यक्ति मौन होती है। पर मौन अभिव्यक्ति की इस भाषा को पढ़ना ही शायद प्यार है।

आज ऐसा ही कुछ हुआ। वह मेरे घर आ कर धमक गई। शायद वह समझती थी कि पत्र में दिये गए अल्टीमेटम के अनुसार मैं कुछ नहीं सुनूंगा। यह कोई दोपहर का समय था। मैं ओसारे पर बैठा था कि एक खनकती हुई आवाज सुनाई दी।
‘‘की शेरपरवली यहीं रहे के मन करो हो।’’

यह खनकती हुई आवाज चिरपरिचत थी। रीना की आवाज। उसने कुछ अधिक जोर देकर आवाज लगाई ताकि मैं इधर उधर भी होंउ तो सुन सकूं। फूआ और मां डेउढी में हुई थी और रीना अपनी एक सहेली के साथ आकर धमक गई। मेरा गांव चुंकी बाजार से कुछ ही फासले पर था सो बाजार के बहाने यहां आना मुश्किल नहीं थी।


‘‘नैहरा है न रीना बउआ, केकरा मन नै करो हई। कहां आइलहो हें।’’ फूआ ने कहा।
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Old 14-10-2014, 03:42 PM   #148
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‘‘बाजार आइलीओं हल, सोचलिओं तोरा से मिलते चलो हिओं।’’

‘‘बढ़िया कइलहो बउआ, आबों।

मैं लपक कर दरवाजे तक गया। मुझे भरोसा ही नहीं हो रहा था। लगा जैसे दिन में जागते हुए सपना तो नही देख रहा। पर नहीं यह सच था। रीना मेरी मां के पैर पर छुकी हुई थी।


‘‘तोरी, ई रास्ता कैसे भुला गेलही।’’ मेरे मुंह से बरबस निकल गया पर वह कुछ नहीं बोली। यह उसकी नाराजगी जाहिर करने का अपना तरीका था।

फिर रीना और उसकी सहेली को मां ने धर के अंदर बुलाया। उसे ओसारे पर बिछी खटिया पर बैठाया गया। मां ने उसके लिए शरबत बनाने की बात कहते हुए मुझे मोदी जी की दुकान से चीनी लाने के लिए भेज दिया। चीनी लेकर आया तो देखा रीना मां और फूआ के साथ धुलमिल कर बातें कर रही थी। फिर मां ने मुझे शरबत बनाने के लिए कहा और मैं उसी काम में लग गया। और फिर वह लग गई अपने चिर परिचित अंदाज में।


‘‘तेरी, बबलुआ के शरबत बनाबे ले आबो हई शेरपर बली। ऐकरा तो खली लड़े और रूस के भागे ले आबो हई।’’ वह मुखर हो गई।

‘‘जादे मामा नै बन।तोरा से पूछ के सब काम नै करे के है।’’

‘‘तोरी घर आल मेहमान से ऐसे बोलो हई।’’

चलता रहा।
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Old 14-10-2014, 03:49 PM   #149
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मां, फूआ और रीना, सभी इस सच्चाई को जानते थे। पर सभी औपचारिक रूप से यह जता रहे थे जैसे वह एक मेहमान है, बस। मैं भी उसी अभिनय में लगा रहा। थोड़ी देर में गिलास में शरबत भरने लगा तो रीना उठ कर गिलास मेरे हाथ से छीन लिया।

‘‘चल हट हमरा नै आबो है की, अपने घर ने हई।’’

यह सारा अभिनय चल रहा था और दोनो समझ रहे थे
, एक दूसरे के दिल की हालत। दोनों के अंदर दर्द थे पर जुबां पर हंसी। इसी बीच उसके जाने की बात आ गई और मैं उसको थोड़ी दूर छोड़ने के लिए जाने लगा, तभी दरबाजे पर जैसे ही वह एक क्षण के लिए सभी के आंख से ओछल हुई, फफक कर रो पड़ी।

‘‘जब परबाह नै त प्रेम कैसन, इहे ले हमरा प्यार कलहीं हल, छोड़ देबे ले। इहे यदि प्रेम के परीक्षा है त हम भी इकरा मे फेल नै होबै।’’

‘‘देख अभी हम बड़ी दुख में हिऔ, हमरा माफ कर दे।’’

‘‘इहे से तो, दुख के घड़ी है त हमरा अलग काहे समझो ही, अगर भोला हमरा दुख में तोरा साथ रहेले बदलखीन हें त तो बंचित करे बाला तों के।’’

और उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और उसके आंसू की एक बूंद हाथों पर आकर गिर पड़ी। भोला। फिर वह जाने लगी। थोड़ी दूर तक उसे छोड़ कर आ गया। वह खामोश थी। पर उसकी यह खामोशी दर्द बुझी थी। इसे मैं समझ सकता था। उसने अपनी तरफ से अंतिम कोशिश के तौर पर यह कदम उठाया था।

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Old 14-10-2014, 03:56 PM   #150
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अगले रोज मैं फूआ के साथ उसके गांव में था। मेरे गांव पहूंचते ही जैसे हवाओं ने जाकर उसे संदेशा दे दिया हो। न मैं उसे देख सका और न उसने मुझे। कम से कम मैं तो उसे भी देखते हुए नहीं ही देख सका। पर मुझे भी भरोसा था कि उसे मेरे आने की खबर मिल गई होगी। अमूमन कई लोग ऐसे वक्त में साथ भी दे देते है। न कहते हुए जानबुझ कर कह देतें है। जैसे की सुनाते हुए कहा दे-बबलुआ आ गेलै।

कुछ दिन शांति से बीत गया। शायद एक पखबारा। दोनों एक दूसरे से दूर दूर रहने का प्रयास करने लगे ताकि लोगों को लगे कि हमारा बिलगाव हो चुका है। यह कदम दोनों ने उठाया और कहा इसके बारे में किसी ने किसी से नहीं था। यही होता है प्यार। मौन की भाषा। अदृश्य का दृश्य। न देखते हुए भी मैं उसे देख रहा था और वह मुझे महसूस कर रही थी।

आज सावन की पूर्णिमा थी। आज के दिन बिना किसी के कहे दोनांे को पता था कि मिलना था। मैं चुपचाप बूढ़ा बरगद की गोद मे जाकर बैठ गया। हल्कि बूंदा बांदी शाम में हो चुकी थी और रात में झिंगुर की आवाज आज एक बार फिर से चिर परिचित सी अपना लगने लगा। कोई और हो तो शायद ही इस रात में यहां बैठे पर मैं
, एक अजीब सा शकुन। लगे जैसे कोई साथ हो मेरे हमेशा। एक अदृश्य। मुझे हौसला देता हुआ। डरो मत। जो होना है होगा। रात के ग्यारह बजे के बाद मैं घर से निकला। ग्यारह बजे तक रेडियो पर विविध भारती पर पुराने गीतों का कार्यक्रम सुन रहा था। भुले बिसरे गीत। जान बुझ कर डांट सुन कर भी रेडीयों की आवाज मैं तेज रखता था ताकि वह समझ सके।
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