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Old 05-08-2013, 07:28 PM   #1
jai_bhardwaj
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम ।
पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।।

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Old 05-08-2013, 07:29 PM   #2
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Old 05-08-2013, 07:29 PM   #3
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तुमने पूछा है - मैं क्या करती हूं! बहुत कुछ है कहने को मगर अब जबकि कहने बैठी हूं कि तो कोई बात बताने लायक लग नहीं रही। दिलचस्प तो नहीं होगा मैं फिर भी कोशिश करती हूं, बीच-बीच में ध्यान दे दिया करना।

आर्चीज की गैलरी अब नहीं जाती। इमोशंस से सूखे फूल खरीदने होते हैं ना ही अब दिल के बैकग्राउंड में इश्क विश्क का गाना बजता है। ना ही तुम्हारी गिफ्ट की हुई डायरी में (जो डायरी कम दिखने में खूबसूरत ज्यादा है, गो कि ताला भी लगाने का सिस्टम है) लिखने का कुछ दिल करता है। आईएससी (इंटरमीडिएट) का प्यार तो है नहीं कि तुम भी फरवरी में जहान भर के मालियों से दोस्ती गांठ कर मेरे लिए लाल, पीले और काले गुलाब ले आओगे। मैं भी कहां अब सजती हूं। थोड़ा बहुत भी बनाव श्रृंगार करने पर लगता है कब्रिस्तान जा रही हूं किसी की आत्मा शांति की प्रार्थना करने। ये बी.ए. तीसरे साल का प्यार है जहां तुम जानते हो कि मेरे बाद दो बहनें और हैं, मेरी घर की माली हालत भी तुमसे छुपी नहीं है। अब तुम नहीं चिढाते कि पड़ोस का लड़का मेरे खातिर एकतरफा प्यार में जहर पी कर मर गया।
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Old 05-08-2013, 07:30 PM   #4
jai_bhardwaj
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तुम्हारे जिंदगी में में इस कदर घुल-मिल गई हूं कि तुम्हारे दोस्तों में भी काबिले जिक्र कोई बात नहीं। दोपहर थका सा लगता है जैसे हमारी जिंदगी में हम दोनों थके हुए लगते हैं। समाज हमारे लिए थका हुआ लगता है और दोस्तों के बीच हम भी थके हुए हैं। तुम्हारे दोस्त अब मुझे भाभी नहीं चाची की तरह ट्रीट करते हैं।

चैदह साल की थी तो सोचती थी प्यार में कैसा थ्रिल होता होता है ! अब सोचती हूं ऐसा क्या होना बाकी रह गया है ? अठ्ठाइस से मौत तक हम ऐसे ही घसीटे जाएंगे। कोई सपने बाकी नहीं लगते। ना अब शादी का सोच कर कोई रोमांच होता है, ना बच्चों का, ना ही उनको पालने में कुछ महसूस होगा। मैं जानती हूं वो मैं नहीं बल्कि एक मां होगी। अपने सपनों का हवन कर, अपने बच्चों को कुछ बरस की छवाला राजगद्दी देती हुई। सच है, हम लोग जीवन में नाटक ही तो करते हैं उम्र भर और जब ये समझ जाते हैं तो...
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भरी दोपहरी में रेल की पटरी के साथ चलती हूं। अब पटरी पर चलने का दिल भी नहीं होता। पहले कदम ताल बिठाना होता था। कमर में एक लोच थी। पटरी पर डगमगाते हुए भी टिके रहने की कोशिश होठों पर हलचल पैदा कर जाती थी। कई बार तो गिरते गिरते भी वापस अपने जगह पर बन आती थी। तब लड़ना आता था। अब अभ्यस्त हो गई हूं। अब पैर नहीं डगमगाते। लड़ने से क्या होगा या क्या हासिल कर लूंगी ऐसे ख्याल आते हैं।

तेज धूप में बिना कारण घूमती हूं। दौड़ती हूं फिर जमा हुआ ठंडा पानी पी लेती हूं। बचपने में नहीं। बस ऐसे ही। खुद को तकलीफ देना अब कहीं से अच्छा लगता है। यकीन करोगे इससे भी कुछ नहीं होता। जैसे मैं दिनों भूखी रह जाती हूं लेकिन ना कुछ खाने का मन होता है ना ही मुझ पर कुछ असर पड़ता है। कोई दो थप्पड़ लगा दे, शरीर को चोट भी लगती और मन पर असर होता है। यही लगता है हां उसने हाथ उठाया है, बस। इससे क्या हो गया, क्या हो जाता है इससे। मार ही लिया तो क्या हो गया।
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मुझे ऐसा लगता है मैंने अपने और अपनी आत्मा के बीच एक दीवार खड़ी कर ली है। या फिर मैं भी अब तपस्या कर सकती हूं। आग, पानी, भूख, प्यास, सर्द गर्म सब बर्दाश्त कर सकती हूं। मेरी जुबान पर अब कोई जायका नहीं रहता। मैं इन सब से ऊपर उठ चुकी हूं। प्यार में पड़ी सहेलियां हंसती हैं, उनको हंसते देख खो जाती हूं। सोचती हूं जब वो सच से रू-ब-रू होगी उसे कैसा लगेगा ? क्या वो भी मेरे जैसी ही हो जाएगी।

दिन खुलता है, रात बंध जाती है। साल बीत जाते हैं। हम किसी नदी की राह में भारी पत्थर से बैठे हैं। न नदी को मुझे बहा कर ले जाने में कोई रूचि है न ही मैं गल कर मिट्टी होती हूं। जानती हूं जब तक जान नहीं दूंगी लोग नाटक ही समझेंगे। मरना सही होगा अपनी जगह लेकिन वो भी सही इलाज नहीं है। सही इलाज जीते जी कुछ हो जाना है। होश रहते बदल जाना है। समाज ढोंगी है मरने पर पुण्य कमाने आएगी।

पुर्नजन्म में मेरा यकीन नहीं। मैंने उंगलियां काट कर उसी शिद्दत से नमकीन खून बहाने का सच्चा सुख भोगा और चखा है। वो भी झूठ नहीं है। उसमें भी शुद्धता है, सात्विकता है। उस जन्म वहां वैसे एहसास नहीं होंगे जैसा जीते हुए हुआ था। तब यह सब स्मृतियां धूमिल हो जाएंगी। स्वाद का मज़ा नहीं रहेगा। वो नया जीवन होगा। यादाश्त खो चुकी होगी। सुख होगा पर दुख इस तरह याद नहीं होगा। सिर्फ सुख ही सुख होगा। ऐसे में सुख अच्छा नहीं लगेगा। प्यार ही प्यार होगा। वहां तुम्हारे धोखे का डर नहीं होगा तब मेरे सही रहने की संभावना कम हो सकती है। सुनते हो ? हे प्रेम के भगवन् ! बचा लो न कृष्ण !
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पांव तो पार्क से ही कांप रहे थे। ज़मीन समतल थी लेकिन चार कदम आगे पर उठी हुई लगती मानो किसी और का चश्मा लगा कर आसपास का जायजा ले रहे हों। कहीं ढ़लान भी लगता तो लेकिन ज़मीन तो समतल थी तो पूरे बदन में एक चोट सी लगती। सब झूठा पड़ रहा था अपने अंदर भी और सामने से देख रही होती दुनिया के सामने मैं भी। यकायक उसे देखा तो एक तेज़ प्यास लगी। बस गुदाज़ बाहों वाली लड़की को थाम लेना चाहता था। विकल्प बस दो ही थे या तो अपने बाजू में उसे तौल लूं या कि खुद बुरादा बन बिखर जाऊं। खत सामने आया तो यही लगा कि सामने रखा वो चेहरा मंजिल को सामने पा कर रो रहा है पर कागज़ों को हथेली से रगड़ने भर से कब प्यास बुझती है ? शिद्दत में गालों के मसाम खड़े हो गए।

हर्फ महके तो लगा कत्ल-ओ-गारत की ज़मीन पर खड़े हैं। यहीं कहीं खुदा भी रहता होगा। वैसे खतों में हमने कई खुदाओं को छोटा होते देखा है। अपना वजूद खोते आशिक देखे हैं और अदृश्य सीढ़ी के आखिरी पायदान पर लटके रिश्ते देखे हैं। कुछ और भी देखा है जो हाशिए पर पर था मगर अब वो वहां भी रहा रही। पता नहीं मुंह के बल किसी पठार पर गिरा होगा या किसी दलदल वाली खाई में।
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गर खतों में नाम नहीं लिखे जाते हैं तो वो यूनिवर्सल हो जाता है। तो मानो कभी मैंने तुम्हें भी कुछ लिखा हो। उसमें जो लिखा था उसका कोई मुकम्मल जवाब तो तुम्हारी जानिब से नहीं आया। मैं उम्मीद करूं अबकी इस सवाल का जवाब दोगी। तमाशाबीन दुनिया ने जब देखा कि कुंए में पानी की चिकनी सतह पर एक सांप फिसल रहा था तो उसे पत्थर मारा गया (गौर करो यहां सांप सामने नहीं है जो यह तरकीब अपनाई जाए कि पहले उसकी रीढ़ तोड़ी जाए) क्या वो सांप किसी दो ईंट के बीच जगह खोज पाया जो अंतिम दूरी तक रेंग कर खुद को बचा सके? जहां डर विहीन माहौल हो?

मजमून को परे रखो और बताओ कि कभी रोते हुए संभोग किया है? और किया है तो फिर उसके बाद क्या किया ? क्या खलास होने के बाद तुमने कमरे की छत देखते हुए उसके बालों में कुछ खोजने की कोशिश की थी और उसने क्या इतने के बाद भी तुम्हारे ही गर्भ में छुपने की कोशिश की थी कि रोज़ का ये टंटा खत्म हो ?
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तुम्हारे आगोश में है क्या ऐसी तरावट
डूबे जाते हैं, उबरे जाते हैं और
मुसलसल ये दोनों वहम भी काबिज रहता है।
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लड़का दुनिया भर की बातें किया करता। कहता - तुम्हें सांवला होना चाहिए था ताकि तुम्हारे पैर की चांदी की पायल ज्यादा चमकती। यूं गोरे पैरों में उजला रंग ज्यादा नहीं जंचता। कभी मोटे मोटे मासूम गालों में चिकोटी काट कर बच्चों को दुलराती हुई आवाज़ में कहता - थोड़ा और खूबसूरत नहीं होना था। और जब यह कहकर अपना मुंह उसके गाल के पास ले जाता तो जीभ पर थोड़ा सा नमकीन पानी आ जाता। यह कहां संभव था उसका खूबसूरत दिल दुनिया को दिखाया जाता लेकिन लोग थे कि हैरान थे कि साले को उसमें आखिर ऐसा क्या दिखा जो उससे जी लगाए बैठा है!

अक्सर दोनों दूर तक घूम आते। ज्यादातर पहाडि़यों पर जाना होता। मुंह से भाप निकलते हुए एक दूसरे को देखना एक अजब सा सकून देता। अकेलापन पूरा भी था और अधुरा भी। प्रेमी प्यार करने के बाद वैसे भी अपना अधूरापन हर जगह साथ लिए चलते हैं। पहाड़ पर ही क्यों? तो इसका बड़ा साहित्यिक सा जवाब है कि वहां सदाएं गूंजती हैं और इश्क में गहरे उतरे हुए पर दूर-दूर रहते हुए जैसे प्रेमी नदी, झरना, परबत, फूल, तितली, जूगनू, रंग, मौसम, समंदर आदि से भी दिल लगा बैठते हैं कुछ उसी एहसास लिए पहाड़ पर जाते।
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