04-12-2010, 08:38 AM | #1 |
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!! गीत सुधियोँ के !!
पल्लवोँ को , सुधि की सुधा से सरसा लिया मैँने । राग अतीत मे खो गए जो , उन रागोँ को राग से गा लिया मैँने । स्वप्न असत्य के भासित सत्य से , सत्य को भी - झुठला लिया मैँने । कैसे कहूँ तुम्हेँ पाया नही बिना पाए हुए तुम्हे पा लिया मैँने ।
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04-12-2010, 08:50 AM | #2 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
जाने किस उधेड़बुन मेँ हैँ
सुधि के गीतोँ के बंजारे । चलते चलते ठहर ठहर कर ठहर ठहर कर चल पड़ते हैँ अनुमानोँ ने हार मान ली जाने किस पथ पर बढ़ते हैँ मझधारोँ मे खोज रहे हैँ कब से खोए हुए किनारे । जाने किस उधेड़बुन मेँ हैँ सुधि के गीतोँ के बंजारे । जाने क्या ये सोच रहे हैँ जाने क्या करने वाले हैँ तैर रही चेहरे पर हलचल अधरोँ पर लटके ताले हैँ , अगरू धूम मेँ आँखे मीचे क्योँ बैठे हैँ योँ मन मारे । जाने किस उधेड़बुन मेँ हैँ सुधि के गीतोँ के बंजारे । पंखो मेँ आकाश समाया फिर भी क्योँ हारे हारे हैँ , स्वामी हैँ शाश्वत प्रकाश के दिखने मेँ क्योँ अधियारे हैँ देखो , कब खोलेँ ये लोचन कब दमकेँ नयनोँ के तारे । जाने किस उधेड़बुन मेँ हैँ सुधि के गीतोँ के बंजारे ।
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04-12-2010, 09:08 AM | #3 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
बेबस तुम रोए ही होगे
मैँ भी बहुत बहुत रोया हूँ । पल, छिन, कल्प और कल्पान्तर अतिशय विशद , विशाल हुए हैँ , अन्तर से उमड़े घन , नभ पर छाए, छाकर क्षितिज छुए है सांसेँ कुछ डूबती हुई सी संध्याओँ की हुई कहानी । कभी सपन ही सपन आंख मे और कभी पानी ही पानी , रात कटी होगी पलकोँ मेँ मैँ भी आज नही सोया हूँ बेबस तुम रोए ही होगे मै भी बहुत बहुत रोया हूँ जैसे अपने से ही अपनी अब पहचान नहीँ बाकी है मन, जैसे सुरहीन बंसरी कोई तान नहीँ बाकी है , वीरानोँ मेँ भटक रही है सुधियोँ की संदली हवाएं मायूसी की चादर आढ़े बैठी हैँ सुधि की कन्याएं तुम भी खोए खोए होगे मैँ भी आज बहुत खोया हूँ बेबस तुम रोए ही होगे मैँ भी बहुत बहुत रोया हूँ
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04-12-2010, 10:14 AM | #4 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
आगे और पोस्ट का
इंतेजार रहेगा
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दोस्ती करना तो ऐसे करना जैसे इबादत करना वर्ना बेकार हैँ रिश्तोँ का तिजारत करना |
04-12-2010, 03:17 PM | #5 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
साहित्य की इस विधा के शिखर पुरुष आदरणीय नीरज जी की रचनाएँ भी कृपया पोस्ट करेँ ।
Last edited by Kumar Anil; 04-12-2010 at 03:29 PM. |
04-12-2010, 03:23 PM | #6 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
शब्द शरीर काव्य के , प्राण तो तुम हो ।
गाँऊ कोई गीत , राग तो तुम हो ।। जिन्दा लाश सा जीवन मेरा शुष्क एकाकी । नहीँ थी कोई साध न थी कोई आस ही बाकी । मिला तेरा अनुराग प्यार नवजीवन पाया । मरुभूमि हूँ मैँ बहार तो तुम हो ।। गाऊँ कोई गीत राग तो तुम हो । प्रेरक प्यार तुम्हारा है गिरिराज सरीखा । भाव विभोर समर्पण है सरिता सागर सा । प्रेम पयोधि को बाँध सकी कब कोई वर्जना । मैँ सीपी अति क्षुद्र स्वाति जल तो तुम हो । गाऊँ कोई गीत राग तो तुम हो ।। मेरे ह्रदय सरोवर की तुम नील कमल । अन्तः का सौन्दर्य तेरा रजत धवल ।। प्यार तेरा विस्तृत , ऊँचा ज्योँ नील गगन । मैँ हूँ प्रेम पखेरू पँख तो तुम हो ।। |
04-12-2010, 08:43 PM | #7 | |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
Quote:
अभी हमारे पास तो उपलब्ध नही है । मिलने पर अवश्य प्रस्तुत करूँगा
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04-12-2010, 08:57 PM | #8 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
सुधियाँ मधुर मधुर
ही होती हैँ यह कहना बहुत सरल है । खुशियोँ की बस्ती मे किलकारी है दुख के गलियारे हैँ दुख के गलियारोँ मेँ उलझे बड़े बड़े हिम्मत हारे हैँ सुख मेँ जितना सुख का सम्बल उससे ज्यादा दुख का छल है । सुधियाँ मधूर मधूर ही होती हैँ यह कहना बहुत सरल है। डूब डूब कर उभर उभर जाना ही जीवन की परिभाषा अभिलाषा के बीच हताशा और हताशा मेँ प्रत्याशा लहरोँ के ऊपर अनन्त नभ आंचल मे अज्ञात अतल है। सुधियाँ मधुर मधुर ही होती हैँ यह कहना बहुत सरल है। अपने मे खो जाना ही तो कभी किसी का हो जाना है सब कुछ पा लेने की धुन मेँ अपना सब कुछ खो जाना है कैसे कहेँ कि पाना खोना यह अमृत है या कि गरल है । सुधियाँ मधुर मधुर ही होती हैँ यह कहना बहुत सरल है।
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06-12-2010, 10:24 AM | #9 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
यह क्या किया अचानक तुमने सुधियोँ की सांकल खटका कर ।
विरहाकुल प्राणोँ मे आ कर फिर से मिलन गीत गा गा कर । नदी जो कि उफना कर तटबंधोँ से नाता तोड़ रही थी , और क्षितिज को छू लेने का स्वप्न सुनहरा जोड़ रही थी उसमे अनगिन दीप विसर्जित किए छुए लहरोँ के कम्पन , फिर क्या हुआ कि तुमने अपने से ही खुद ही कर डाली अनबन , अब यह कौन राग फिर गाया प्राणोँ की वर्तिका जगाकर । यह क्या किया अचानक तुमने सुधियोँ की सांकल खटका कर । प्रतिपल मधुर मधुर था मधु सा थे प्रतिपल जीवन के दर्शन अब तक वे प्राणोँ की निधि हैँ युगोँ युगोँ पहले गूँजे स्वन, भोर हुई पर भोर न थी वह किसके सिर यह दोष मढ़ेँ अब किरनोँ के भ्रम की पांखोँ पर अपना क्योँ संसार गढ़ेँ अब , किसे भला मिल पाई खुशबू सूखी कलियोँ को चटका कर । यह क्या किया अचानक तुमने सुधियोँ की सांकल खटका कर ।
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06-12-2010, 01:45 PM | #10 |
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Re: !! गीत सुधियोँ के !!
जीने को तो जीता ही हूँ खंडित सुरभि कथाएं सुधि के आवरणों में लिपटीं अनगिन मूक व्यथाएं यदि वह पल फिर जी सकता तो कितना अच्छा होता ! समय खींचता आगे पर मन पीछे -पीछे खींचे कोई कोमल भाव प्राण -बिरवा मधु रस से सींचे यदि वह मधु रस पी सकता तो कितना अच्छा होता !यदि वह पल फिर जी सकता तो कितना अच्छा होता ! बाहर-बाहर कुछ दिखता पर भीतर -भीतर कुछ है, जो सचमुच -सचमुच लगता है वही नहीं सचमुच है , यदि सचमुच को सी सकता तो कितना अच्छा होता ! यदि वह पल फिर जी सकता तो कितना अच्छा होता
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