18-10-2011, 07:07 PM | #1 |
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एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 18-10-2011 at 08:51 PM. |
18-10-2011, 07:09 PM | #2 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
मीर तक़ी 'मीर'
शायर को खुदा का शिष्य भी कहा गया है और शायरी को पैगम्बरी का हिस्सा, लेकिन 'मीर' अकेले शायर हैं, जिन्हें खुदा-ए-सुखन कहा जाता है ! वर्तमान उत्तर प्रदेश के आगरा ( तत्कालीन अकबराबाद ) में 1722 के किसी रोज़ जन्मे 'मीर' हिन्दुस्तानी काव्य-जगत के उन चन्द नामों में शुमार हैं, जिन्होंने सदियों बाद भी लोगों के दिल-ओ-दिमाग में स्थान बनाया हुआ है ! उनकी शायरी उर्दू-हिंदी की साझा सांस्कृतिक विरासत का ऐसा विरल उदाहरण है, जिसे लोकोन्मुख कथ्य और गंगा-जमुनी अंदाज़ के साथ पूरी कलात्मक ऊंचाई का आईना भी कहा जा सकता है ! 'मुझे गुफ्तगू अवाम से है' - कहते हैं 'मीर' और यही है वह सचाई, जिसकी बदौलत उनका कलाम दरियाओं में जाने कितना पानी बह जाने के बावजूद आज भी वही असर रखता है ! लुत्फ़ लें उनकी एक बेइंतहा पुरअसर ग़ज़ल का- देख तो दिल कि जां से उठता है ये धुंआ सा कहां से उठता है गोर किस दिलजले की है ये फलक शोला इक सुब्ह यां से उठता है खानः-ए-दिल से जीनहार न जा कोई ऐसे मकां से उठता है बैठने कौन दे है फिर उन को जो तिरे आस्तां से उठता है यूं उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहां से उठता है ____________________ गोर - कब्र, फलक - आकाश, खानः-ए-दिल - ह्रदय का घर, जीनहार - हरगिज़, कतई; आस्तां - चौखट, दरवाज़ा !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 16-11-2011 at 02:24 AM. |
18-10-2011, 08:50 PM | #3 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
मिर्ज़ा ग़ालिब
'हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे / कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां और' - मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस शे'र में कोई अतिशयोक्ति नहीं की, बल्कि हकीकत बयान की है ! उर्दू काव्य-गगन में छोटे-बड़े लाखों सितारे चमक बिखेर रहे हैं, लेकिन इनमें से अक्सर की रौशनी को मंद कर देने वाला माहताब सिर्फ एक है और वह हैं 'ग़ालिब' ! मिर्ज़ा का जन्म 1796 में आगरा में हुआ ! मिर्ज़ा असदुल्लाह खां से 'असद' और फिर 'ग़ालिब' बनने तक मिर्ज़ा नौशा ने तमाम उतार-चढाव देखे थे और वही सब उनकी शायरी का असल रंग है ! देखिए उनके कलाम का एक अनूठा रंग - आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकाम-ए-नहंग देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक हमने माना कि तगाफ़ुल न करोगे, लेकिन खाक़ हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक परतव-ए-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम मैं भी हूं एक इनायत की नज़र होने तक यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सत-ए-हस्ती गाफ़िल गर्मी-ए-बज़्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक गम-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज़ शमअ हर रंग में जलती है सहर होने तक _________________________________ माहताब : चन्द्रमा, दाम हर मौज : प्रत्येक तरंग का जाल, हल्क़ा-ए-सदकाम-ए-नहंग : सौ जबड़ों वाले मगरमच्छ का घेरा, क़तरे : बूँद, आशिक़ी : प्रेम, सब्र-तलब : जिसके लिए धैर्य आवश्यक हो, तगाफ़ुल : उपेक्षा, परतव-ए-खुर : सूर्य का प्रतिबिम्ब, बेश : अधिक, फुर्सत-ए-हस्ती : जीने की अवधि, रक्स-ए-शरर : चिनगारी का नृत्य, गम-ए-हस्ती : जीवन के दुःख, जुज़ : सिवाय, मर्ग : मृत्यु, सहर : भोर
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19-10-2011, 03:36 PM | #4 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
मोमिन खां 'मोमिन'
मुग़ल साम्राज्य के आखिरी दिनों में कश्मीर से दिल्ली आकर शाही हकीम बने नामदार खां के पौत्र 'मोमिन' (पिता का नाम हकीम गुलाम नबी) स्वयं एक कुशल चिकित्सक और मशहूर ज्योतिषी भी थे ! दिल्ली में 1800 में जन्मे मोमिन का उर्दू काव्य जगत में विशेष महत्त्व है ! उनका क्षेत्र मुख्यतः प्रेम-वर्णन होते हुए भी, इसमें जो तड़प उन्होंने पैदा की, वह सिर्फ उन्हीं का हिस्सा है ! अभिव्यक्ति की मौलिकता और भाव पक्ष की प्रबलता की वज़ह से उर्दू अदब की तबारीख (इतिहास) में वे एक अमर शायर के रूप में दर्ज हैं ! वो जो हममें तुममें करार था, तुम्हें याद हो कि न याद हो वही यानी वादा निबाह का, तुम्हें याद हो कि न याद हो वो जो लुत्फ़ मुझपे थे पेश्तर, वो करम जो था मेरे हाल पर मुझे याद सब है ज़रा-ज़रा, तुम्हें याद हो कि न याद हो वो नए गिले वो शिकायतें, वो मज़े-मज़े की हिकायतें वो हरेक बात पे रूठना, तुम्हें याद हो कि न याद हो कोई बात ऐसी अगर हुई, कि तुम्हारे जी को बुरी लगी तो बयां से पहले ही भूलना, तुम्हें याद हो कि न याद हो जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा मैं वही हूं 'मोमिन'-ए-मुब्तिला, तुम्हें याद हो कि न याद हो _____________________________________________ पेश्तर : पूर्व में, पहले; हिकायतें : कहानियां, आशना : परिचित, बावफा : निष्ठावान, मुब्तिला : डूबा हुआ
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19-10-2011, 03:37 PM | #5 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
'जोश' मलीहाबादी
'शायर-ए-इंक़लाब' कहलाने वाले 'जोश' 1894 में मलीहाबाद के एक जागीरदार घराने में पैदा हुए ! शबीर हसन खां से 'जोश' बनने का उनका सफ़र सिर्फ नौ बरस की उम्र में शुरू हो गया था ! 'अर्श-ओ-फर्श', 'शोला-ओ-शबनम', 'सुम्बल-ओ-सलासिल' आदि अनेक दीवान (काव्य संकलन) से उर्दू अदब को मालामाल (समृद्ध) करने वाले 'जोश' अपनी जीवनी 'यादों की बरात' की साफगोई के लिए पाकिस्तान में 'भारत का एजेंट' जैसे अनेक आक्षेपों का शिकार हुए ! लेफ्टिस्ट-तरक्कीपसंद (वामपंथी-प्रगतिशील) उर्दू शायरी के प्रवर्तकों में उनका इस्म-ए-शरीफ (नाम) और कलाम (सृजन) बहुत ऊंचा दर्ज़ा रखते हैं ! लुत्फ़ लीजिए उनकी एक ग़ज़ल का - बला से कोई हाथ मलता रहे तिरा हुस्न सांचे में ढलता रहे हर इक दिल में चमके मोहब्बत का राग ये सिक्का ज़माने में चलता रहे वो हमदर्द क्या जिसकी हर बात में शिकायत का पहलू निकलता रहे बदल जाए खुद भी तो हैरत है क्या जो हर रोज़ वादे बदलता रहे ये तूल-ए-सफ़र, ये नशेब-ओ-फ़राज़ मुसाफिर कहां तक संभलता रहे कोई जौहरी 'जोश' हो या न हो सुखनवर जवाहर उगलता रहे __________________________________ हैरत : आश्चर्य, तूल-ए-सफ़र : लंबा सफ़र, नशेब-ओ-फ़राज़ : ऊंच-नीच, खाइयां और घाटियां, सुखनवर : कवि, जवाहर : जवाहरात
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19-10-2011, 07:26 PM | #6 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
'फ़िराक' गोरखपुरी
गोरखपुर में 1896 के अगस्त की 28वीं तारीख को जन्मे रघुपति सहाय को उर्दू अदब में 'फ़िराक' गोरखपुरी के रूप में एक आला मुकाम (उच्च स्थान) हासिल है ! 'शायर-ए-जमाल' (सौन्दर्य का कवि) कहलाने वाले 'फ़िराक' ने 1918 से शायरी शुरू की ! उनके अनेक दीवान शाया (काव्य संकलन प्रकाशित) हुए, जिनमें तकरीबन बीस हज़ार अशआर शामिल हैं ! बहुत ज्यादा अशआर में ग़ज़ल कहने के लिए नामवर (विख्यात) 'फ़िराक' ने तकरीबन सात सौ गज़लें, एक हज़ार रुबाइयां और अस्सी से ज्यादा नज्में कही हैं ! अपने दीवान 'गुल-ए-नग्मा' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया और बाद में ज्ञानपीठ सम्मान से भी ! लुत्फ़ उठाइए 'फ़िराक' की एक रसभीनी ग़ज़ल का - शाम-ए-गम कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो बेखुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो नकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशां, दास्तान-ए-शाम-ए-गम सुब्ह होने तक इसी अंदाज़ की बातें करो ये सुकूत-ए-यास, ये दिल की रगों का टूटना खामशी में कुछ शिकस्त-ए-साज़ की बातें करो हर रग-ए-दिल वज्द में आती रहे, दुखती रहे यूं ही उसके जा-ओ-बेजा नाज़ की बातें करो कुछ कफस की तीलियों से छन रहा है नूर सा कुछ फ़ज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो जिसकी फुरकत ने पलट दी इश्क की काया 'फ़िराक' आज उसी ईसा-नफस दमसाज़ की बातें करो _______________________________________________ शाम-ए-गम : शोकपूर्ण संध्या, निगाह-ए-नाज़ : भंगिमायुक्त दृष्टि, बेखुदी : आत्म-विस्मृति, नकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशां : उलझे हुए सुगन्धित केश, दास्तान-ए-शाम-ए-गम : शोकपूर्ण संध्या (यहाँ अर्थ रात से है) की कहानी,सुकूत-ए-यास : नैराश्य की चुप्पी, खामशी : खामोशी, शिकस्त-ए-साज़ : साज़ का टूटना, रग-ए-दिल : दिल की रग, वज्द : उन्माद, जा-ओ-बेजा : उचित और अनुचित, नाज़ : भंगिमा, अदा, कफस : पिंजरा, नूर : प्रकाश,हसरत-ए-परवाज़ : उड़ने की अभिलाषा, फुरकत : बिछोह, ईसा-नफस : पवित्र हृदय, दमसाज़ : मित्र
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19-10-2011, 09:19 PM | #7 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
सच में आह निकाल देने वाली पंक्तिया है
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
19-10-2011, 10:28 PM | #8 | |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
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20-10-2011, 07:51 PM | #9 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
सियालकोट में 1911 में जन्मे फ़ैज़ ने 1928 में पहली ग़ज़ल और 1929 में पहली नज़्म कही ! यह थी उपलब्धियों भरी उस दास्तान की शुरुआत, जो आज 'नक्श-फरियादी', 'दस्ते-सबा', 'जिन्दांनामा', 'सरे-वादिए-सीना', 'शामे-शहरे-यारां', 'मेरे दिल मेरे मुसाफिर' आदि अनेक किताबों के रूप में हमारे सामने है ! उर्दू की प्रगतिशील धारा के आधार स्तंभों में से एक फ़ैज़ की खासियत है 'रोमानी तेवर में भी खालिस इन्किलाबी बात' कह जाना ! लीजिए फ़ैज़ की एक ऐसी ही ग़ज़ल का आनंद - रंग पैराहन का, खुशबू जुल्फ़ लहराने का नाम मौसमे-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम फिर नज़र में फूल महके, दिल में फिर शमएं जलीं फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम अब किसी लैला को भी इकरारे-महबूबी नहीं इन दिनों बदनाम है हर एक दीवाने का नाम हम से कहते हैं चमन वाले गरीबाने-वतन तुम कोई अच्छा सा रख लो अपने वीराने का नाम 'फ़ैज़' उनको है तक़ाज़ा-ए-वफ़ा हम से जिन्हें आशना के नाम से प्यारा है बेगाने का नाम _______________________________________ पैराहन : वस्त्र, मौसमे-गुल : बहार का मौसम, बाम : छत, अटारी; शमएं : दीपक, तसव्वुर : कल्पना, बज़्म : महफ़िल, सभा; इकरारे-महबूबी : प्रेम की स्वीकृति, गरीबाने-वतन : बाग़ से बाहर रहने वाले, तक़ाज़ा-ए-वफ़ा : निष्ठा की आकांक्षा, आशना : पहचाना हुआ, अपना; बेगाने : गैर, अन्य !
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20-10-2011, 07:52 PM | #10 |
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Re: एक सफ़र ग़ज़ल के साए में
गुलाम जीलानी 'असगर'
अटक के छोटे से स्थान तगानक में 1918 में जन्मे गुलाम जीलानी उर्दू अदब में 'असगर' तखल्लुस (उपनाम) से पहचाने जाते हैं ! उनका ज्यादातर कलाम पढ़ कर इस कथन पर सहज विश्वास कर लेने को जी चाहता है कि 'शायरी पैगम्बरी का हिस्सा होती है' ! 'असगर' की शायरी में आने वाले कल की आहटें साफ़ सुनाई देती हैं ! दरअस्ल वे अपने समय की बात करते हुए भी अपनी नज़र बहुत आगे तक रखते हैं, इसीलिए वे अब भी प्रासंगिक हैं और हमेशा रहेंगे ! लुत्फ़ उठाइए उनकी एक नायाब ग़ज़ल का - कितने दरिया इस नगर से बह गए दिल के सहरा खुश्क फिर भी रह गए आज तक गुमसुम खड़ी हैं शहर में जाने दीवारों से तुम क्या कह गए एक तू है, बात भी सहता नहीं एक हम हैं तेरा गम भी सह गए तुझसे जगबीती की सब बातें कहीं कुछ सुखन नागुफ्तनी भी रह गए तेरी मेरी चाहतों के नाम पर लोग कहने को बहुत कुछ कह गए _____________________________________ सहरा : मरुस्थल, सुखन : बातें, बोल; नागुफ्तनी : अनकहा !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 16-11-2011 at 02:39 AM. |
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