06-11-2011, 06:45 PM | #21 |
Administrator
|
Re: विद्यापति की कवितायें
जनम होअए जनु, जओं पुनि होइ। जुबती भए जनमए जनु कोइ ।। होइए जुबति जनु हो रसमंति। रसओ बुझए जनु हो कुलमंति।। निधन मांगओं बिहि एक पए तोहि। थिरता दिहह अबसानहु मोहि।। मिलओ सामि नागर रसधार। परबस जन होअ हमर पिआर।। परबस होइए बुझिह बिचारि। पाए बिचार हार कओन नारि।। भनइ विद्यापति अछ परकार। दंद-समुद होअ जिब दए पार।।
__________________
अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
06-11-2011, 06:46 PM | #22 |
Administrator
|
Re: विद्यापति की कवितायें
जय- जय भैरवि असुर भयाउनि
जय-जय भैरवि असुर भयाउनि पशुपति भामिनी माया सहज सुमति कर दियउ गोसाउनि अनुगति गति तुअ पाया वासर रैनि सबासन शोभित चरण चन्द्रमणि चूड़ा कतओक दैत्य मारि मुख मेलल कतओ उगिलि कएल कूड़ा सामर बरन नयन अनुरंजित जलद जोग फुलकोका कट-कट विकट ओठ पुट पांडरि लिधुर फेन उठ फोंका घन-घन-घनय घुंघरू कत बाजय हन-हन कर तुअ काता विद्यापति कवि तुअ पद सेवक पुत्र बिसरू जनि माता
__________________
अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
06-11-2011, 06:46 PM | #23 |
Administrator
|
Re: विद्यापति की कवितायें
जाइत देखलि पथ नागरि सजनि गे
जाइत देखलि पथ नागरि सजनि गे, आगरि सुबुधि सेगानि। कनकलता सनि सुनदरि सजनि में, विहि निरमाओलि आनि।। हस्ति-गमन जकां चलइत सजनिगे, देखइत राजकुमारि। जनिकर एहनि सोहागिनि सजनि में, पाओल पदरथ वारि।। नील वसन तन घरेल सजनिगे, सिरलेल चिकुर सम्हारि। तापर भमरा पिबय रस सजनिगे, बइसल आंखि पसारि।। केहरि सम कटि गुन अछि सजनि में, लोचन अम्बुज धारि।। विद्यापति कवि गाओलसजनि में, गुन पाओल अवधारि।। भावार्थ :- आज सुन्दरि को राह चलते देखा। वो बुद्धिमती थी, चालाक थी, साथ ही साथ कलकलता के समान सुन्दर भी। विधाता ने काफी सोच-विचार करने के बाद उसका निर्माण (सृजन) किया है। हथिली के चाल में चलती ह किसी वैभवपूर्ण राजकुमारी जैसी लगती है। जिसे इस तरह की सुहागिन (पत्नी) मिलेगी उसे तो मानो चारों पदार्थ मिल जाएगा। वह अपने शरीर को नीले रंग के परिधान से ढ़क रखी थी। माथ के केस का भव्य एवं कलात्मक विन्यास बनाई थी। परन्तु उस पर भी भँवर निश्चिन्त होकर अपने पंख फैलाकर बैठकर उसका रसपान कर रहा था। शेरनी के समान पतलू कमर, कमल के समान नेत्र, आह! महाकवि विद्यापति उस सुन्दरि को गुण का सागर के रुप में देखे, अत: उन्होंने इस गीत का निर्माण किया।
__________________
अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
06-11-2011, 06:55 PM | #24 |
Administrator
|
Re: विद्यापति की कवितायें
जाइत पेखलि नहायलि गोरी
जाइत पेखलि नहायलि गोरी। कल सएँ रुप धनि आनल चोरी।। केस निगारहत बह जल धारा। चमर गरय जनि मोतिम-हारा।। तीतल अलक-बदन अति शोभा। अलि कुल कमल बेढल मधुलोभा।। नीर निरंजन लोचन राता। सिंदुर मंडित जनि पंकज-पाता।। सजल चीर रह पयोधर-सीमा। कनक-बेल जनि पडि गेल हीमा।। ओ नुकि करतहिं जाहि किय देहा। अबहि छोडब मोहि तेजब नेहा।। एसन रस नहि होसब आरा। इहे लागि रोइ गरम जलधारा।। विद्यापति कह सुनहु मुरारि। वसन लागल भाव रुप निहारि।। भावार्थ :- रास्ते में चलते-चलते एक सद्य: स्नाता सुन्दरि को देखा। न जाने इस नायिका ने कहाँ से यह रुप (विलक्षण) चुराकर लाई है? गीले केस (बाल) को निचोड़ते ही जल का धार टपकने लगा। चँवर से मानो मोती का हार चू रहा हो। भीगे हुए अलक के कारण मुखमण्डल अति सुन्दर (भव्य) लग रहा था, जैसे रस का लोभी भ्रमर मानो कमल को चारों ओर से घेर लिया है। काजल सही ढ़ंग से साफ हो गया था। आंखें एकदम लाल थी। ऐसा लग रहा था जैसे कमल के पत्ते पर किसी ने मिन्दुर घोल दिया है। भीगा वस्र स्तन के किनारे में था। लग रहा था कि जैसे सोने के बेल को पाल (सर्दी) मार दिया हो। वह (वस्र) छिपा-छिपा कर अपने शरीर को देख रही थी, जैसे अभी-अभी यह स्तन मुझे अलग कर देगा, मेरा स्नेह छोड़ देगा। अब मुझे ऐसा रस नहीं मिलेगा, इसीलिए शायद शरीर पर के बहते जल के धार रो रहा था। महाकवि विद्यापति कहते हैं कि हे कृष्ण, सौन्दर्य को देखकर वस्र को नायिका से स्नेह हो गया था।
__________________
अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
06-11-2011, 06:55 PM | #25 |
Administrator
|
Re: विद्यापति की कवितायें
जौवन रतन अछल दिन चारि
जौवन रतन अछल दिन चारि। से देखि आदर कमल मुरारि।। आवे भेल झाल कुसुम रस छूछ। बारि बिहून सर केओ नहि पूछ।। हमर ए विनीत कहब सखि राम। सुपुरुष नेह अनत नहि होय।। जावे से धन रह अपना हाथ। ताबे से आदर कर संग-साथ।। धनिकक आदर सबतह होय। निरधन बापुर पूछ नहि कोय।। भनइ विद्यापति राखब सील। जओ जग जिबिए नब ओनिधि भील।।
__________________
अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
Bookmarks |
|
|