10-11-2012, 11:02 PM | #1 |
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हर शख्स के सीने में हैं बुतखाने बहुत से
बिखरे हैं यहाँ टूट के पैमाने बहुत से. किसी ग़रीब की आहों का ये असर होगा, मुसाफिरों को मिल गये वीराने बहुत से. आती हैं बहारें हर दौरे खिज़ां के बाद, बचपन में सुने हमने अफ़साने बहुत से. रौशनी भी, रंग भी, साकी भी, जाम भी, मिलने चले खुदा से लो दीवाने बहुत से. तेरे शहर ने हमको तो काफिर बना दिया, हर शख्स के सीने में हैं बुतखाने बहुत से. Last edited by rajnish manga; 18-09-2013 at 12:40 AM. |
12-11-2012, 01:13 AM | #2 |
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Re: ग़ ज़ ल
समझ गया कि अच्छा लिखते हैं आप रजनीश मंगा जी किन्तु यदि आप चाह लें तो और भी अच्छा लिख सकते हैं . कोशिश रहे कि हर पंक्ति पाठक को झंकझोर दे .ऐसी मेरी व्यक्तिगत सोच है .
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12-11-2012, 10:41 PM | #3 |
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Re: ग़ ज़ ल
डॉ. राकेश श्रीवास्तव जी, आपकी लेखनी तो सशक्त है ही, आपकी आत्मीयता भी कम हृदयस्पर्शी नहीं है. आपका संदेश प्रेरणा देने वाला है जो भविष्य में मेरा मार्ग प्रशस्त करेगा. हार्दिक धन्यवाद.
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12-11-2012, 10:53 PM | #4 |
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Re: ग़ ज़ ल
सेंट अलैक जी, अरविन्द जी, डॉ. राकेश श्रीवास्तव जी, रणवीर जी व इनके साथ चालीस अन्य सुधि पाठकों के प्रति हार्दिक धन्यवाद व्यक्त करता हूँ.
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बुतखाने बहुत से, रजनीश मंगा ग़ज़ल, सीने में हैं, ग़ज़ल रजनीश, ghazal, har shakhs ke seene me, poetry of rajnish manga |
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