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Old 24-07-2014, 11:56 PM   #61
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Default Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम

बाबा बुल्ले शाह की काफ़ियाँ (1)
बुल्ल्हिआ, की जाणां मैं कौन


ना मैं मोमिन विच्च मसीतां,
ना मैं विच्च कुफ़र दियां रीतां,
ना मैं पाक आं विच पलीतां,
ना मैं मूसा ना फिरऔन|

ना मैं विच्च पलीती पाकी,
ना विच शादी, ना ग़मना की,
ना मैं आबी ना मैं ख़ाकी,
ना मैं आतिश ना मैं पौन|

ना मैं भेत मज़ब दा पाया,
ना मैं आदम-हव्वा जाया,
ना कुछ अपणा नाम धराया,
ना विच बैठण ना विच भौण|

अव्वल आख़र आप नूं जाणां,
ना कोई दूजा आप सिआणा,
बुल्ल्हिआ औह खड़ा है कौन?


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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
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Old 24-07-2014, 11:58 PM   #62
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Default Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम

ऐ बुल्ले शाह! मैं क्या जानूं मैं कौन हूं?

साधना की एक ऐसी अवस्था आती है, जिसे सन्त बेखुदी कह लेते हैं, जिसमें उसका अपना आपा अपनी ही पहचान से परे हो जाता है| इसीलिए बुल्लेशाह कहते हैं कि मैं क्या जानूं कि मैं कौन हूं?

मैं मोमिन नहीं कि मस्जिद में मिल सकूं, मैं कुफ़्र के मार्ग पर चलने वाला भी नहीं हूं, न मैं पलीत (अपवित्र) लोगों के बीच पवित्र व्यक्ति हूं और न ही पवित्र लोगों के बीच अपवित्र हूं| मैं न मूसा हूं और फ़िरऔन भी नहीं हूं| इस प्रकार मेरी अवस्था कुछ अजीब है, मेरी मनोदशा न प्रसन्नता की है, न उदासी की है| मैं जल अथवा स्थल में रहने वाला भी नहीं हूं, ना मैं आग हूं और पवन भी नहीं| मज़हब का भेद भी मैं नहीं पा सका| मैं आदम और हव्वा की सन्तान नहीं हूं, इसलिए मैंने अपना कोई नाम भी नहीं रखा है| न मैं जड़ हूं और जंगम भी नहीं हूं|

कुल मिलाकर कहूं तो मैं किसी को नहीं जानता| मैं बस अपने-आप को ही जानता हूं, अपने से भिन्न किसी दूसरे को मैं नहीं पहचानता| बेख़ुदी अपना लेने के बाद मुझसे बढ़कर सयाना और कौन होगा? बुल्लेशाह कहते हैं कि मैं तो यह भी नहीं जानता कि भला वह कौन खड़ा है|

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Old 25-07-2014, 12:00 AM   #63
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Default Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम

बाबा बुल्ले शाह की काफ़ियाँ (2)
तेरे इश्क़ नचाईआं कर थईया थईया

तेरे इश्क़ ने डेरा मेरे अन्दर कीता,
भर के ज़हर पिआला मैं तां आपे पीता,
झबदे वहुड़ी वे तबीबा नहीं ते मैं मर गईआं|

छुप गिआ वे सूरज बाहर रह गई लाली,
वे मैं सदके होवां मुड़ देवें जे विरवाली,
पीरा मैं बुल गईआं तेरे नाल न गईआं|

एस इश्क़ दे कोलों मैंनूं हटक न माए,
लाहू जांदड़े बेड़े कोह्ड़ा मोड़ लिआए,
मेरी अकल जुं भुल्ली नाल म्हाणिआं गईआं|

एस इश्क़ दी झंगी विच मोर बुलेंदा,
सानूं क़िबला तो काबा सौह्ना यार दिसेंदा,
सानूं घायल करके फेर ख़बर न लईआं|

बुल्ल्हा, शौह न आंदा मैंनूं इनायत दे बूहे,
जिसने मैंनूं पुआए चोले सावे ते सूहे,
जां मैं मारी ए अड्डी मिल पिआ ए वहीआ|

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Old 25-07-2014, 12:03 AM   #64
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Default Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम

तेरे इश्क़ ने नचाया मुझे थैया थैया

अध्यात्म प्रेम के अनूठे रंगों का इस काफ़ी में वर्णन किया गया है| बुल्लेशाह कहते हैं, तेरे इश्क़ ने मुझे उन्मत्त की भांति नचाया है| सच्ची हालत तो यह है कि हे प्रियतम, तेरे इश्क़ ने मेरे अन्तर में डेरा जमा लिया है| अब मैं करूं भी तो क्या ? क्योंकि तेरे प्रेम का प्याला, जो अब वियोग में ज़हर का प्याला बन गया है, मैंने ख़ुद ही तो भरकर पिया था| इसलिए मेरे मुर्शिद, फ़ौरन चले आओ वरना मैं मर जाऊंगी|

सूर्य अस्त हो गया है, केवल दिवस-लालिमा ही शेष रह गई, यदि तुम पुन: दिखाई दे दो, तो मैं तुम्हारी ख़ातिर प्राण न्यौछावर करने को तैयार हूं| मुझसे भूल हो गई, मेरे मुर्शिद, क्योंकि मैं तुम्हारे साथ न जा सकी|

ए मेरी मां, मुझे इश्क़ की इस राह से मत रोको| मैं रुकूंगी नहीं| प्रेम के इस तेज़ तूफ़ान में उतरकर जा रही नाव को कौन वापस ला सका है| मेरी मत मारी गई, जो मैं प्रेम नदी के किनारे मल्ल्हों के साथ चली गई|

यह प्रभु-प्रेम कितना आकर्षक और उन्मादपूर्ण है| देखो तो इस प्रेम-वाटिका में मोर बोल रहा है| क़िबला और काबा का दर्शन मुझे अपने यार में ही होता है| मुझे घायल करके वह चला गया और मुझ बीमार का हाल-चाल लेने के लिए भी न आया|

बुल्लेशाह को कृपापूर्वक पति-परमेश्वर मुर्शिद शाह इनायत के द्वार पर ले आया| उसी ने मुझे यह हरा और पीला लिबास पहना दिया| जब मैं एड़ी मारकर नाचने लगी तो मुझे वही मिल गया| तेरे प्रेम ने न जाने मुझे कैसे नाच नचा दिये हैं|
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Old 26-07-2014, 10:41 PM   #65
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Default Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया
(ख्वाजा गरीबनवाज़)


दिल्ली तेज रफ्तार दौड़ती जिंदगी का शहर है।बदलते भारत की राजधानी, जहां कहा जाता है कि जिंदगी कभी नहीं रुकती। लक्ष्मी की विशेष कृपा रही है इस शहर पर। पर इसी दिल्ली का एक चेहरा रुमानियत का है, सूफियत का है। अदब, इंसानियत, इबादत और संगीत का है। ये शहर दरगाहों का भी शहर है। चिश्तियों, औलियाओं की दरगाहें...जहां सुलगते लोबान और महकते केवड़े के बीच इतिहास एक-दूसरे ही दौर की कहानी कहता नजर आता है। आधुनिक दिल्ली से जरा हटकर जब हम संकरी-तंग गलियों वाले निजामुद्दीन इलाके में पहुंचते हैं तो माहौल बदल जाता है। अगरबत्तियों, इत्रों, फूलों और मुगलई खाने की खुशबू से तबीयत खुश हो जाती है।

यहीं इन्हीं तंग गलियों से गुजरते हुए एक रास्ता हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह की ओर भी जाता है। हजरत निजामुद्दीन, सूफी परंपरा के एक महान संत थे। जिनकी दरगाह पर हजारों लोग रोज देश और दुनिया से मत्था टेकने आते हैं।

सूफी परंपरा की शुरुआत होती है सूफ़ी संत मोइनुद्दीन चिश्ती से। मोइनुद्दीन चिश्ती मध्य एशिया से लंबा सफर तय कर इस इलाके में पहुचे थे। उन्होंने ही दक्षिण एशिया में सूफी परंपरा की नींव रखी। इसे आगे बढ़ाने का काम किया बाबा कुतबदीन औलिया ने। कुतबदीन औलिया से यह परंपरा पहुंची हजरत फरीदुद्दीन मसऊद रहमतुल्ला के पास। गंजशकर वाले बाबा फरीद का दरबार आज के पाकिस्तान में है। इन्हीं के शिष्य और भारत में सूफी परंपरा के चौथे सोपान यानी चौथी पीढ़ी के सूफी हैं हजरत निजामुद्दीन औलिया साहब। यह बात तब की है जब 12वीं सदी खत्म हो रही थी और 13वीं शताब्दी में इतिहास दाखिल हो रहा था। यहीं, इसी आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायुं इलाके में अब से 794 बरस पहले हजरत निजामुद्दीन औलिया का जन्म हुआ।
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Old 26-07-2014, 11:04 PM   #66
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Default Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम

हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया
(ख्वाजा गरीबनवाज़)



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दिल्ली स्थित हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह और
अकीदतमंद

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Old 26-07-2014, 11:09 PM   #67
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Default Re: प्राचीन सूफ़ी संत और उनका मानव प्रेम

निजामुद्दीन औलिया की अपनी कोई संतान नहीं थी, पर उनकी बहनों और उस वक्त के स्थापित सूफि यों की पीढ़ियां पिछले लगभग आठ सौ बरसों से इस दरगाह का कामकाज देखती, संभालती आई हैं। इनकी आज की पीढ़ियों में से एक गद्दीनशीन फिदा निजामी साहब से लोग अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाते हैं। सवाल बहुतेरे होते हैं मसलन सुल्तानों, राजाओं के दौर से लेकर आज तक यहां इतनी रौनक कैसे कायम है, लोग यहां क्यों कर आते हैं। क्या दौर था वो...आज के माहौल में भी हजारों, लाखों लोग यहां रोज आते हैं। उन्हें कुछ मिलता है तभी आते हैं। वरना बिना कुछ हासिल हुए लोग अपने पुरखों की मजारों पर भी नहीं जाते। जो लोग अपने लिए जीते हैं, वो खत्म हो जाते हैं। बाबर, हुमांयू, अकबर, शाहजहां...कितने ही बादशाह, राजा आए पर इनकी मजारों पर आज जाइए तो एक तरह का डर भी लगता है। यहां आने वालों को डर नहीं, सहारा मिलता है। इन्होंने भाईचारे, प्रेम और इंसानियत का संदेश लोगों को दिया। भेदभाव, जाति-मजहब का फर्क इनके दरबार में नहीं होता था। क्या राजा और क्या फकीर सभी इस दरबार के मुरीद थे। बल्कि इस मामले में फकीर और गरीब उनके दिल और दरबार में ज्यादा जगह पाते थे।

संगीत के जरिए मन की शुद्धता और प्यार का पैगाम, साथ साथ सुरों की सीढ़ी चढ़कर अपने आराध्य तक पहुंचने की कोशिश...दरगाह पर पीढ़ियों से गाते आए परिवारों की आज की कड़ी हैं गुलाम हुसैन नियाजी ...फिल्मों में गाने के बाद भी गुलाम हुसैन को सुकून तभी मिलता है जब सामने हजरत निजामुद्दीन हों और वो गा रहे हों...गुलाम नियाजी कहते हैं, हमारे पूर्वज हजरत निजामुद्दीन के जमाने से इस दरबार में गाते आ रहे हैं। ये आज के समय की हाथों में रुमाल बांधकर और चमकीली टोपियां पहनकर गाई जाने वाली कव्वाली नहीं रही यहां। यहां कव्वाली इबादत का एक जरिया है।
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Old 26-07-2014, 11:13 PM   #68
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हजरत निजामुद्दीन का जिक्र हो और हम हजरत खुसरो की बात न करें तो पूरा किया-धरा मिट्टी में मिल जाएगा। यह कोई मान्यता का मसला नहीं है बल्कि दोनों नाम एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए हैं कि एक के बिना दूसरा अधूरा ही रहेगा। हजरत निजामुद्दीन के सबसे करीब थे हजरत अमीर खुसरो। कई भाषाओं के जानकार, फारसी और हिंदी के महान शायर, कवि, लेखक, विचारक। निजामुद्दीन औलिया और सूफी संतों की बातों को शब्दों में खूबसूरती से बांधकर खुसरो ने इनके फलसफे को दूर-दूर तक पहुंचाया। सैय्यद फिदा निजामी बताते हैं कि दोनों का लगाव इस कदर था कि निजामुद्दीन औलिया साहब ने एक बार यह तक कह दिया था कि अगर शरीयत की इजाजत होती तो दोनों साथ होते।

बताया जाता है कि निजामुद्दीन औलिया का जब अंतिम वक्त आया तो उन्होंने जानबूझकर खुसरो को खुद से दूर किसी काम पर भेज दिया। काम भी ऐसा बताया कि जब खुसरो लौटे तो लगभग छह महीने बीत चुके थे। तब उनके मजार के पास बैठकर खुसरो ने अपना आखिरी शेर लिखा:

गोरी सौवै सेज पर, मुख पर डारै केस,
चल ख़ुसरो घर आपने, सांझ भई चहुंदेस

इसी शेर को लिखकर खुसरो ने भी यह संसार छोड़ दिया।
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Old 26-07-2014, 11:17 PM   #69
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इन दोनों की दोस्ती की चर्चा आज भी फिजाओं में चारों तरफ गुंजती है। आज ख़ुसरो की मज़ार भी हजरत निजामुद्दीन औलिया के दरबार परिसर में ही मौजूद है और मान्यता है कि हजरत खुसरो को सलाम किए बिना हजरत निजामुद्दीन के दरबार में माथा टेकना अधूरा है। तो क्या सूफी संतों की महान परंपरा आज भी उतनी ही मजबूती और गहराई से कायम है। क्या सूफियों का संदेश और विचारधारा को आगे ले जाने वाली पीढ़ी अभी भी हैं। हैं, तो किस तरह आगे जा रहा है सिलसिला ... और इस पूरे संदर्भ में कहां है वो आम आदमी जिसकी बात सूफियों ने सबसे ज्यादा और पुरजोर तरीके से कही। गौहर निजामी बताते हैं कि कट्टरपंथियों का दायरा कभी भी हमारे से बड़ा नहीं हो सकता। वो केवल अधकचरेपन के साथ इस्लाम को खींचकर आगे चलने की कोशिश कर रहे हैं। दरगाहों पर तो सारे मजहब, मान्यता के लोग आते हैं। यहां सभी धर्मों के लोग झोलियां फैलाए आते हैं और राजी-खुशी होकर जाते हैं।

हजरत निजामुद्दीन अपने जमाने के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे लोगों में थे। उन्होंने इस्लाम और कई और मसलों पर पढ़ा, समझा और फिर लोगों को सही रास्ता दिखाया। आज के धर्मगुरुओं की तरह नहीं कि कहा कुछ और जीया कुछ। भले ही दौर बदले, माहौल बदले, राजा बदले, सियासत बदली...पर इन सबके बीच इंसान इंसान तो बना ही रहे। मोहब्बत और भाईचारा किसी भी मजहब या पंथ की आत्मा बने ताकि दुआ के लिए उठने वाले हाथ कभी किसी को नुकसान न पहुंचा पाएं। सूफी रहे न रहे, उसके काम और कहे के जरिएकोशिश तो कायम रहे जिसके दम पर विश्वास स्वार्थ और सीमाओं से जीता जाता है। सूफियों कीइसी सोच के कारण लोग इनकी ओर आंख मूंदकर खींचे चले आते हैं।मन्नतों की चाह पूरी होती है और लोगों के चेहरे की रौनक खिल उठती है। फिर अगली बार दरगाह में मत्था टेकने की ख्वाहिश को लेकर। एक ऐसी जगह जहां धर्म की कोई बंधन नहीं,जाति का कोई झगडा नहीं, ऊंच-नीच,अपना-पराया का कोई दुराव नहीं। तो ऐसे हैं हमारे निजामुद्दीन औलिया।

(आलेख आभार: आमिर शेख)
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ज़ियारत क्षेत्र: एक परिचय
शेख निजामुद्दीन उत्तर प्रदेश के बदायूं में पैदा हुए थे। अपने वालिद के इंतकाल के बाद वह पांच साल की उम्र में 1241 में अपनी मां के साथ गियासपुर में आकर बस गए थे। वह शेख फरीद के मुरीद बन गए जिन्होंने बाद में उन्हें अपना वारिस बना दिया। शेख निजामुद्दीन का खानकाह जिस जगह था वह अब हुमायूं के मकबरे के अहाते में है और उसे चिल्ला शरीफ के नाम से जानते हैं।

हजरत निजामुद्दीन का इंतकाल 1325 में हुआ और उनके वास्तविक मकबरे का अब नामोनिशान नहीं है। बादशाह फीरोज शाह तुगलक ने बाद में उनका आलीशान मकबरा बनवाया। उनकी मौजूदा दरगाह को 1562-63 में बादशाह अकबर के वजीर फरीदुन खान ने बनवाया था जिसकी कई बार मरम्मत की जा चुकी है। दरगाह एक चौकोर इमारत है जिसके चारों तरफ बरामदे हैं। इसके अंदर जाने के लिए मेहराबदार दरवाजे से होकर गुजरना होता है। छत पर गुंबद आठ कोनों वाले ड्रम के ऊपर टिका है। गुंबद पर काले संगमरमर की पट्टियां हैं और सबसे ऊपर उल्टा कमल।शेख निजामुद्दीन के मुरीद और हिंदवी और फारसी के जानेमाने शायर अमीर खुसरो का मकबरा नजदीक में ही है। अमीर खुसरो कई बादशाहों के दरबारी रहे और शेख निजामुद्दीन के इंतकाल के कुछ ही दिन बाद वह भी इस जहान से जुदा हो गए।

दरगाह के आसपास दफन जानीमानी हस्तियों में बादशाह शाहजहां की बेटी जहांआरा बेगम, बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला और बादशाह अकबर द्वितीय का बड़ा बेटा मिर्जा जहांगीर शामिल हैं। जहांआरा बेगम की ख्वाहिश थी कि उसे आम आदमी की तरह खुले आसमान के नीचे दफनाया जाए। इसलिए संगमरमर की जालियों से घिरी उसकी कब्र पर छत नहीं है। मोहम्मद शाह रंगीला और मिर्जा जहांगीर की कब्रें भी जहांआरा बेगम की तरह ही बिना छत की हैं।
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