01-07-2011, 07:12 PM | #21 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
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02-07-2011, 05:29 PM | #22 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
विश्व सिनेमा के इतिहास में सर्वकालीन महानायकों का चुनाव करें, तो टॉम क्रूज का नाम आना ही हैं।
हालीवुड में एक कहावत हैं। प्रश्न – कौन बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ सफलता दिला सकता है। उतर - 1 . टॉम क्रूज 2. टॉम क्रूज 3. टॉम क्रूज. उनकी फिल्मे अरबों का व्यवसाय करती रही हैं। ऑस्कर व अन्य पुरस्कार बरसते रहे हैं। मध्यवर्गीय घरों में यह आम शिकायत रहती हैं कि बच्चे का पढ़ाई में मन नहीं लगता। पहले साइंस पढ़ता था, अब आर्ट्स में है। किताब की नहीं, कम्प्युटर की मांग। उस पर फिल्म देखते आंखो में रात काटना। दिन–ब–दिन अंतर्मुखी होना। गुमसुम। टॉम क्रूज भी गुमसुम रहा करते थे। उनके माँ बाप अमेरिकी ख़ानाबदोश थे। आज यहाँ, कल वहाँ। क्रूज को 14 साल की उम्र में 15 स्कूल बदलने पड़े। सौतेले पिता बात–बात पर फूटबाल की तरह मारते थे। क्रूज को लगा कि उनमें स्कूली पढ़ाई करने कि क्षमता नही है। फिर पादरी बनने के लिए पढ़ाई शुरू की। फिर स्पोर्टसमैन बनने की कोशिश। मुक्केबाज़ी में हाथ आजमाया। आइस हॉकी खेली। रेक्वेट्बौल खेली। घुटने में चोट के बाद एक्टिंग कि ट्रेनिंग शुरू की। न्यूयार्क पहुंचे, तो एक्टिंग के बजाय खलासी का काम करना पड़ा। होटल में पोंछा लगाया। कुली का काम किया। साथ ही वे फिल्मों में औडिसन देते रहे। लंबे संघर्ष के बाद उन्हें फिल्मे मिलने लगीं। फिर 1986 में टॉप गन आयी। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रही। क्रूज व सफलता पर्याय बन गये। जीवन कि थोड़ी–सी कठिनाई से विचलित होने, आत्महत्या का विचार मन में आनेवाले क्रूज के संघर्ष से बहुत कुछ सीख सकते हैं। आदमी का संकल्प मजबूत हो, तो कुछ भी असंभव नहीं। सफलता आपके कदमों में होगी। |
02-07-2011, 05:38 PM | #23 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
किसी भी परीक्षा में किसी को कम नंबर आ सकते हैं या कोई फेल हो सकता है। इनमें कुछ सोचने लगते हैं कि उनके लिए अब दुनिया में कुछ नहीं बचा। ऐसे छात्र चर्चिल को जरूर पढ़ें। दो बार ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे चर्चिल दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर को हराने वाले तीन महानायकों में एक थे। उन्हे नोबेल पुरस्कार मिला। 43 किताबें लिखीं। बचपन में वे मम्मी – पापा से मिलने को तरसते थे। हॉस्टल से लिखे उनके पत्र गवाह हैं। पढ़ने में साधारण। वे हकलाया करते थे। पिता की असमय मौत हो गयी। उन्होने खुद की तुलना ‘ब्लैक डॉग’ से की। आक्सफोर्ड डिक्सनरी के अनुसार 19 वीं शताब्दी में इसका मतलब उस मनहूस बच्चे से था, जो दूसरे की पीठ पर सवार हो। युवावस्था में सेना में भरती हुए। ट्रेनिंग के बाद घर लौटने के बजाय युद्धरत देशों में निकाल पड़े। ब्रिटिश अखबारों के लिए रिपोर्टिंग की। पहले विश्वयुद्ध में उनके मोरचे पर हार हुई, जिसके लिए उन्हे हीं दोषी माना गया। वे भारी तनाव में रहने लगे। इसका अंदाजा साधारण लोग नहीं लगा सकते, कोई सैनिक समझ सकता है। उनकी पत्नी ने लिखा है, मुझे लगता था वो आत्महत्या कर लेंगे, लेकिन उन्होने संकल्पशक्ति के बल पर जोरदार वापसी की। वे ब्रिटेन के उस समय प्रधानमंत्री बने, जब जनता में घोर निराशा थी। बचपन में हकलाने वाले चर्चिल इस समय ओजस्वी वक्ता के रूप में उभरे। राष्ट्रीय स्वाभिमान जगाया व चतुर रणनीति से हिटलर को मात दी। अगर चर्चिल हार के बाद वार हीरो बन सकते हैं, तो आप भी अपनी संकल्पशक्ति से अपना रास्ता खुद बना सकते हैं।
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02-07-2011, 05:54 PM | #24 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
किसी भी परीक्षा में कामयाबी पानेवाले को लगातार बधाइयाँ मिल रही हैं। जो जीता, वही सिकंदर के तर्ज पर समाज सफल लोगो के गुणगान में व्यस्त हो जाता है। जो सफल नहीं हुए, उनके लिए आसानी से हम कह देते हैं कि उसने मन से पढ़ा ही नहीं या पढ़ता तो है, पर दिमाग तेज नहीं हैं। समाज की उपेक्षा के साथ ही कई असफल छात्र भी खुद को ही दोषी मानने लगते हैं। यह प्रक्रिया तेज होने पर निराशा व तनाव बढ़ने लगता है। आईआईटी में फेल तो वेंकटरमण रामाकृष्णन भी हुए थे। उनके दोस्त उन्हे वेंकी कहते हैं। तमिलनाडु में जन्मे वेंकी स्कूल कॉलेज की पढ़ाई में असाधारण नहीं थे। बस, औसत से कुछ बेहतर। बड़ौदा में रहते हुए फिजिक्स से स्नातक किया। आईआईटी के अलावा उन्होने मेडिकल के लिए भी ट्राइ किया, पर दोनों में नाकाम रहे। नौकरी के लिए 50 से अधिक आवेदन दिये। कहीं नौकरी नहीं मिली। वे अमेरिका गये। वहां ओहियो विवि से फिजिक्स में ही पीएचडी किया, पर इसके बाद वे बायलाजी में काम करने लगे। फिर उन्होने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वे फेलो ऑफ रॉयल सोसाइटी हैं। उन्हें 2009 में रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला। वेंकी आईआईटी में असफल रहे, पर संकल्पशक्ति के कारण विज्ञान का सबसे बड़ा सम्मान मिला। सीबीएसइ या आईआईटी की परीक्षा कोई अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकती कि यहां असफल होने के बाद हम यह मान बैठें कि हमारी हिस्से केवल नाकामी व अंधेरा है. आत्मघाती बातें दिमाग में लाने वाले वेंकी को देखें। जिंदगी ब्लाइंड लेन नहीं, बल्कि खुला आसमान है, जहां आगे बढ़ने के हजार रास्ते हैं।
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02-07-2011, 11:15 PM | #25 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
बिन हाथों के लिखी कामयाबी की दास्तान
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02-07-2011, 11:16 PM | #26 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
दोस्तों यह बिनोद कुमार सिंह की तस्वीर है, आइये सुनिए उनकी कहानी उन्ही की जबानी
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02-07-2011, 11:17 PM | #27 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
मेरा नाम बिनोद कुमार सिंह है और मैं कोललकाता में रहता हूं. मैंने जब होश संभाला तो देखा कि मुश्किलें ज़िंदगी का दूसरा नाम हैं. जन्म से ही दोनों हाथ न होने के बावजूद मैंने अपने पैरों से लिखना सीखा, नौकरी न मिलने पर रोज़ी-रोटी के लिए सिलाई-कढ़ाई सीखी और मां-बाप का सपना पूरा करने के लिए तैरना सीखा.
मेरे पिताजी ने जब मुझे पहली बार देखा तब से आज तक वो हमेशा ये कहते हैं कि मैं दूसरे लड़कों से अलग हूं और ज़रूर उनका नाम रोशन करूंगा. आठवीं में पहुंचने के बाद खेल-कूद में मेरी रूचि बढ़ने लगी. शुरुआत हुई दौड़ से, जिसके बाद मैंने फ़ुटबॉल खेलना शुरु किया और जल्द ही मैं स्कूल और कॉलेज स्तर का चैंपियन बन गए. इसके बाद मैंने हाई-जंप में अपना लोहा मनवाया लेकिन इस कड़वी सच्चाई से भी रूबरु हुआ कि विकलांग खिलाड़ी भले ही बेहतर खेलें लेकिन वो उन्हीं प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले सकते हैं जो खासतौर पर विकलांगों के लिए हों. आख़िरकार मैंने स्विमिंग में अपना हुनर पहचाना और ठान लिया कि जैसे भी हो स्वमिंग चैंपियन बनूंगा. |
02-07-2011, 11:17 PM | #28 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
जब मैं पहली बार अपने कोच के पास प्रशिक्षण के लिए गया तो वे मुझे देखकर हैरान हो गए. उन्हें लगा कि बिन हाथों के मेरे लिए तैरना असंभव होगा. उन्होंने कहा कि मुझे तीन दिन में तैरकर दिखाना होगा और तभी वो मुझे प्रशिक्षण देंगे.
लेकिन मैं उनकी चुनौती पर ख़रा उतरा और तीन ही दिन में मैंने पानी में खड़े होना, चलना और सोना सीख लिया. कुछ महीनों के प्रशिक्षण के बाद आखिरकार आठ अप्रैल 2005 को मैं पहली बार पानी में उतरा. मैंने राज्य स्तर पर तैराकी प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए ट्रायल दिया और मुझे चुन लिया गया. इसके बाद मुझे ऑल इंडिया स्तर पर खेलने का मौका मिला जिसमें मैंने चार स्वर्ण पदक जीते. जुलाई 2006 में मैंने पहली बार ब्रिटेन में हुई एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में हिस्सा लिया जिसके बाद 'वर्ल्ड गेम्स' में मैंने एक स्वर्ण एक रजत पदक जीते. |
02-07-2011, 11:18 PM | #29 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
इसके बाद मैं लगातार प्रतियोगिताएं जीतता रहा और कई बार अंतरराष्ट्रीय आयोजकों ने अपने ख़र्च पर मुझे प्रतियोगिताओं के लिए आमंत्रित किया.
लेकिन मुझे अपनी ज़िंदगी से सबसे बड़ी शिकायत है कि मैंने एक ऐसी व्यवस्था में जन्म लिया है जिसने जी तोड़ मेहनत के बावजूद क़दम-क़दम पर मुझे धोखा दिया. 2009 में हुए वर्ल्ड गेम्स के लिए मेरा चयन हुआ और मुझे अगस्त महीने में जाना था लेकिन दो अगस्त को मुझसे कहा गया कि मुझे जाने के लिए पैसों का इंतज़ाम ख़ुद करना होगा. मुझे और मुझ जैसे दूसरे विकलांग खिलाड़ियों को अगर यह बात समय रहते बताई गई होती तो हम इस प्रतियोगिता में शामिल हो पाते. भारत में चयन प्रक्रिया का आकलन किया जाए तो पता लगेगा कि सामान्य खिलाड़ियों की श्रेणी में जहां ऐसे खिलाड़ी चुन लिए जाते हैं जो कुछ भी जीतकर नहीं ला पाते वहीं विकलांग खिलाड़ियों को काबिल होने के बावजूद देश के लिए खेलने का ही मौका नहीं मिल पाता. बावजूद इसके कि वो साल दर साल ज़्यादा से ज़्यादा मेडल जीतकर ला रहे हैं. सरकार भले ही पैरा-ओलंपिक कमेटियों के ज़रिए विकलांग खिलाड़ियों की आर्थिक मदद का दावा करती हो लेकिन आर्थिंक तंगी के चलते विकलांग खिलाड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा नहीं ले पाते. 2008 में मैं अपने पिता की ग्रेच्यूटी के पैसे से वर्ल्ड गेम्स में हिस्सा लेने जा सका. मेरे साथी ने इसके लिए अपनी मां के गहने बेचे. फिर भी मैंने हार नहीं मानी है और मैं जी-तोड़ कोशिश करूंगा कि पैरा-ओलंपिक में हिस्सा लूं और देश के लिए मेडल लाऊं. हम सरकार को दिखाना चाहते हैं कि विकलांग देश पर बोझ नहीं और वो सभी कुछ कर सकते हैं, अगर उन्हें मौका दिया जाए. |
05-07-2011, 04:02 PM | #30 |
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Re: जीवन चलने का नाम।
आम दिनों में हम प्रायः कहते –सुनते हैं कि कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं होता या गलतियाँ सबसे होती हैं, पर परीक्षा परिणाम आते ही इन्हें भूल जाते हैं। मैट्रिक में अच्छा रिजल्ट नहीं आया, तो घर में ‘ब्लेम गेम’ शुरू हो जाता हैं। पति पत्नी को डांटता हैं कि तुमने बच्चे को बिगाड़ा हैं। पत्नी पति पर आरोप लगती है कि आप बच्चे के साथ बैठते नहीं। उधर, परीक्षा में फैल किशोर खुद को जज कि भूमिका में खड़ा कर लेता हैं। खुद को दोषी मानता है व खुद ही खुद को सजा देने का फैसला भी सुना देता है। ऐसे ही ‘ब्लेम गेम’ के शिकार चार्ली चैपलिन भी हुए थे। उन पर गंभीर आरोप लगे थे। आरोप लगाने वाले भी साधारण लोग नहीं थे, दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका कि खुफिया एजेंसी एफबीआई के चीफ एडगर होवर ने कहा चैपलिन का संबंध खतरनाक लोगों से है। अखबार मरीन छ्पा कि चैपलिन ने स्तालिन को 25 हजार डॉलर दिये हैं। पूरे अमेरिका में हंगामा हो गया। उनकी फिल्म का बायकाट होने लगा। सिनेमा हॉलों के सामने धरने दिये गये। उन्हें अपमानित होकर अमेरिका छोडना पड़ा। वे भारी तनाव में रहने लगे। एफबीआई ने उनके बैंक खातों कि जांच की, पर उसमें ऐसा कुछ नहीं मिला, जिससे साबित हो कि उनका संबंध खतरनाक लोगों से है। बाद में खुद होवर ने प्राव्दा में चैपलिन के सम्मान में लेख लिखा। परीक्षा में कम नंबर आने पर बहुत लोग बहुत कुछ कहेंगे। आप निराश न हों। आपमें बहुत कुछ है। आप तो बस नये जोश के साथ नयी पारी खेलने को तैयार हो जायें।
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