22-09-2011, 10:27 AM | #11 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
गैर कि गलियों में अब जाना भी नहीं है। ऐसे एक इन्सान समझना बड़ा मोहाल वैसे हमसे तेज़ ज़माना भी नहीं है। वो हमारा गम समझ जाये भी तो क्या जिसको ये दर्द मिटाना भी नहीं है। अपनों को तो कुछ भी कहना नहीं होता गैरों से कुछ हमको बताना भी नहीं है। सब कुछ सहा हमने और जब्त कर गए होठो पे आज कोई फ़साना भी नहीं है। क्याअफ़सोसजताएंदिल्लीकीहवापे जब मासूमशहर,अपनापुरानाभीनहींहै। ज़मानेकीकरवटनेरंगसबकेबदले आसाँमगरहमकोबदलपानाभीनहींहै। न मिलने का वादा न बिछड़ने का इरादा शहर में कोई हमसा दीवाना भी नहीं है। हम भी इस क़दर तनहा हैं आजकल इन हाथो में अब तो पैमाना भी नहीं है। हमकहेंगेहरदम "मिजाज़अच्छेहैं" ज़ख्मकोईअपनादिखानाभीनहींहै। मुस्कराहटों के बीच आंसू छुपा जाए, "भूषण" अभी इतना सयाना भी नहीं है॥
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जो सत्य विषय हैं वे तो सबमें एक से हैं झगड़ा झूठे विषयों में होता है। -------------------------------------------------------------------------- जिनके घर शीशो के होते हे वो दूसरों के घर पर पत्थर फेकने से पहले क्यू नहीं सोचते की उनके घर पर भी कोई फेक सकता हे -------------------------------------------- Gaurav Soni
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22-09-2011, 10:28 AM | #12 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
नयी-नयी आँखें / निदा फ़ाज़ली
नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है । मिलने-जुलनेवालों में तो सारे अपने जैसे हैं जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है । मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे सन्नाटों में बोलनेवाला पत्थर अच्छा लगता है । चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है । हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है ।
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22-09-2011, 10:28 AM | #13 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
बदला न अपने आपको जो थे वही रहे /निदा फ़ाज़ली
बदला न अपने आपको जो थे वही रहे मिलते रहे सभी से अजनबी रहे. अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे. दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम थोड़ी बहुत तो जे़हन में नाराज़गी रहे. गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे. हर वक़्त हर मकाम पे हँसना मुहाल है रोने के वास्ते भी कोई बेकली रहे.
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22-09-2011, 10:28 AM | #14 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
दिल का दर्द ज़बाँ पे लाना मुश्किल है / अज़ीज़ आज़ाद
दिल का दर्द ज़बाँ पे लाना मुश्किल है अपनों पे इल्ज़ाम लगाना मुश्किल है बार-बार जो ठोकर खाकर हँसता है उस पागल को अब समझाना मुश्किल है दुनिया से तो झूठ बोल कर बच जाएँ लेकिन ख़ुद से ख़ुद को बचाना मुश्किल है पत्थर चाहे ताज़महल की सूरत हो पत्थर से तो सर टकराना मुश्किल है जिन अपनों का दुश्मन से समझौता है उन अपनों से घर को बचाना मुश्किल है जिसने अपनी रूह का सौदा कर डाला सिर उसका ‘आज़ाद’ उठाना मुश्किल है
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22-09-2011, 10:29 AM | #15 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
तुमसे मिलने को चेहरे बनाना पड़े/ वसीम बरेलवी
तुमसे मिलने को चेहरे बनाना पड़े, क्या दिखाएँ जो दिल भी दिखाना पड़े। ग़म के घर तक न जाने कि कोशिश करो, जाने किस मोड़ पर मुस्कुराना पड़े। आग ऐसी लगाने से क्या फायदा, जिसके शोलों को खुद ही बुझाना पड़े। कल का वादा न लो कौन जाने कि कल, किस को चाहूं, किसे भूल जाना पड़े। खो न देना कहीं ठोकरों का हिसाब, जाने किस-किस को रस्ता बताना पड़े। ऐसे बाज़ार में आये ही क्यों 'वसीम', अपनी बोली जहाँ खुद लगाना पड़े॥
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22-09-2011, 10:29 AM | #16 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
क्या हुआ, लबों तक जाम न आने पाया / विश्व भूषण
क्या हुआ, लबों तक जाम न आने पाया, हम तक तेरी वफ़ा का पैगाम न आने पाया। बहुत ज़ब्त करने की रही कोशिश तो हमारी, पर हौसला ये भी मेरे काम न आने पाया। रो रो के, हंस हंस के, किस्से तेरे बता डाले, एहतियात रखी मगर, तेरा नाम न आने पाया। तू भटका, कोई बात नहीं, सुबह का भटका, ग़म है, ये भटका, घर शाम न आने पाया। मेरी नियत तो साफ़ थी, तेरा ज़मीर कैसा था, मोहब्बत में जो चाहा वही अंजाम न आने पाया.....
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22-09-2011, 10:29 AM | #17 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है / दुष्यंत कुमार
इसनदीकीधारमेंठंडीहवाआतीतोहै, नावजर्जरहीसही, लहरोंसेटकरातीतोहै। एकचिनगारीकहीसेढूँढलाओदोस्तों, इसदिएमेंतेलसेभीगीहुईबातीतोहै। एकखंडहरकेहृदय-सी, एकजंगलीफूल-सी, आदमीकीपीरगूंगीहीसही, गातीतोहै। एकचादरसाँझनेसारेनगरपरडालदी, यहअंधेरेकीसड़कउसभोरतकजातीतोहै। निर्वचनमैदानमेंलेटीहुईहैजोनदी, पत्थरोंसे, ओटमेंजा-जाकेबतियातीतोहै। दुखनहींकोईकिअबउपलब्धियोंकेनामपर, औरकुछहोयानहो, आकाश-सीछातीतोहै।
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22-09-2011, 10:30 AM | #18 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
कुछ अहसास कुछ इलज़ाम लेकर चले आये,
जिसे जिसकी तमन्ना थी, देकर चले आये॥ यहाँ जब, दिल में भी दुकानें सजने लगीं, कुछ यादें समेट, हम बेघर चले आये॥ वो मयकश निगाहें, जो देखीं फिसलती, अकेले पीने वाले हम, उठकर चले आये॥ अलविदा कहने का हमको हौसला न था, इसलिए जो भी हुआ, सुनकर चले आये॥ ना आते भी अगर, क्या हो गया होता? और बहकते कदम, कि सम्हलकर चले आये॥
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22-09-2011, 10:30 AM | #19 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
मैं पूछता हूँ / पाश
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से क्या वक्त इसी का नाम है कि घटनाए कुचलती चली जाए मस्त हाथी की तरह एक पुरे मनुष्य की चेतना? कि हर प्रश्न काम में लगे जिस्म की गलती ही हो? क्यूं सुना दिया जाता है हर बार पुराना चुटकूला क्यूं कहा जाता है कि हम जिन्दा है जरा सोचो - कि हममे से कितनो का नाता है जींदगी जैसी किसी वस्तु के साथ! रब की वो कैसी रहमत है जो कनक बोते फटे हुए हाथो- और मंडी बिच के तख्तपोश पर फैली हुई मास की उस पिलपली ढेरी पर, एक ही समय होती है? आखिर क्यों बैलो की घंटियाँ और पानी निकालते ईजंन के शोर अंदर घिरे हुए चेहरो पर जम गई है एक चीखतीं ख़ामोशी? कोन खा जाता है तल कर मशीन मे चारा डाल रहे कुतरे हुए अरमानो वाले डोलो की मछलिया? क्यों गीड़गड़ाता है मेरे गाव का किसान एक मामूली से पुलिसऐ के आगे? कियो किसी दरड़े जाते आदमी के चीकने को हर वार कवीता कह दिया जाता है? मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
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22-09-2011, 10:31 AM | #20 |
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Re: डॉ कुमार विश्वास
बड़े शहरो की ऐसी शराफत से तौबा / विश्व भूषण
बड़े शहरों की ऐसी शराफत से तौबा, नकली वादों औ झूठी नजाकत से तौबा। ना सच का पता, न गुमान-ऐ-ज़मीर, उनकी मोहब्बत-अदावत से तौबा। सहूलियत के मुताबिक अहसास बदलें, रिश्तों की ऐसी मिलावट से तौबा। दिल से बड़ी देह दिल्ली के लोगों, तुम्हारी बेहूदी तिजारत से तौबा। फिर चलो आशियाना समेटें यहाँ से, इस बेदिल बेगैरत विलायत से तौबा। फिर आना "भूषण" तो दिल से ना आना, इन शहरों की गन्दी शरारत से तौबा।।
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