24-09-2011, 06:28 PM | #21 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
बहुत से इस उपन्यास में इस तरह के शब्द भी आये हैं जो शायद कुछ समय बाद बिल्कुल विलुप्त हो जायेंगे या हो चुके हैं | जैसे मंझोली ..यह शब्द बैलगाडी और बैल टाँगे के मध्य की चीज के लिए उस वक्त इस्तेमाल किया जाता था | मांदी शब्द का इस्तेमाल लम्बी बीमारी के लिए हुआ है किंतु अब मेरठ क्षेत्र से यह शब्द पुरानी पीढी के साथ गायब होता जा रहा है | नौमी को आज भी कौरवी जन भाषा में नौमी ही कहा जाता है नवमी नहीं | उस वक्त के जन्म मरण .विवाह गौना ,आदि के समस्त लोकाचार का बहुत ही रसपूर्ण वर्णन है इस उपन्यास में | इस तरह यह उपन्यास हमारी हिन्दी भाषा के लिए एक अनमोल धरोहर है | जिसको पढ़ कर उस वक्त के समय को समझा जा सकता है | अपने कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से देवरानी जेठानी की कहानी हिन्दी का प्रथम गौरव पूर्ण कृति ही नहीं है वरन यह हिन्दी उपन्यास के इतिहास में अपना दुबारा मूल्यांकन भी मांगती है |
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जो सत्य विषय हैं वे तो सबमें एक से हैं झगड़ा झूठे विषयों में होता है। -------------------------------------------------------------------------- जिनके घर शीशो के होते हे वो दूसरों के घर पर पत्थर फेकने से पहले क्यू नहीं सोचते की उनके घर पर भी कोई फेक सकता हे -------------------------------------------- Gaurav Soni
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24-09-2011, 06:28 PM | #22 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
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24-09-2011, 06:30 PM | #23 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
देवरानी जेठानी की कहानी - प. गौरीदत्*त शर्मा हिन्*दी उपन्*यास कोश (1870 – 1980) के कोशकारों संतोष गोयल, उषा कस्*तूरिया और उमेश माथुर ने भी ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ को हिन्*दी का पहला उपन्*यास मानते हुए अपने कोश की शुरुआत ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ के प्रकाशन वर्ष सन् 1870 ई से ही की है। हम हिन्*दी समय डॉट कॉम पर लाला श्रीनिवासदास लिखित ‘परीक्षागुरु’ भी शीघ्र ही प्रस्*तुत करेंगे, जिसका उल्*लेख आचार्य रामचन्*द्र शुक्*ल ने अपने महत्*वपूर्ण ग्रंथ ‘हिन्*दी साहित्*य का इतिहास’ में किया है। )
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24-09-2011, 06:31 PM | #24 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
भूमिका जब मुझको यह निश्*चय हुआ कि स्*त्री, स्त्रियों की बोली, और पुरुष, पुरुषों की बोली पसन्*द करते हैं जो कोई स्*त्री पुरुषों की बोली, वा पुरुष स्त्रियों की बोली बोलता है उसको नाम धरते हैं। इस कारण मैंने पुस्*तक में स्त्रियों ही की बोल-चाल और वही शब्*द जहॉं जैसा आशय है, लिखे हैं और यह वह बोली है जो इस जिले के बनियों के कुटुम्*ब में स्*त्री-पुरुष वा लड़के-बाले बोलते-चालते हैं। संस्*कृत के बहुत शब्*द और पुस्*तकों- जैसे इसलिए नहीं लिखे कि न कोई चित से पढ़ता है, और न सुनता है। इस पुस्*तक में यह भी दर्शा दिया है कि इस देश के बनिये जन्*म-मरण विवाहादि में क्*या-क्*या करते हैं, पढ़ी और बेपढ़ी स्त्रियों में क्*या-क्*या अन्*तर है, बालकों का पालन और पोषण किस प्रकार होता है, और किस प्रकार होना चाहिए, स्त्रियों का समय किस-किस काम में व्*यतीत होता है, और क्*यों कर होना उचित है। बेपढ़ी स्*त्री जब एक काम को करती है, उसमें क्*या-क्*या हानि होती है। पढ़ी हुई जब उसी काम को करती है उससे क्*या-क्*या लाभ होता है। स्त्रियों की वह बातें जो आजतक नहीं लिखी गयीं मैंने खोज कर सब लिख दी हैं और इस पुस्*तक में ठीक-ठीक वही लिखा है जैसा आजकल बनियों के घरों में हो रहा है। बाल बराबर भी अंतर नहीं है। प्रकट हो कि यह रोचक और मनोहर कहानी श्रीयुत एम.केमसन साहिब, डैरेक्*टर आफ पब्लिक इन्*सट्रक्*शन बहादुर को ऐसी पसन्*द आयी, मन को भायी और चित्*त को लुभायी कि शुद्ध करके इसके छपने की आज्ञा दी और दो सौ पुस्*तक मोल लीं और श्रीमन्*महाराजाधिराज पश्चिम देशाधिकारी श्रीयुत लेफ्टिनेण्*ट गवर्नर बहादुर के यहॉं से चिट्ठी नम्*बर 2672 लिखी हुई 24 जून सन् 1870 के अनुसार, इस पुस्*तक के कर्त्*ता पंडित गौरीदत्*त को 100 रुपये इनाम मिले।। दया उनकी मुझ पर अधिक वित्*त से जो मेरी कहानी पढ़ें चित्*त से। रही भूल मुझसे जो इसमें कहीं, बना अपनी पुस्*तक में लेबें वहीं। दया से, कृपा से, क्षमा रीति से, छिपावें बुरों को भले, प्रीति से।। - प. गौरीदत्*त शर्मा
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24-09-2011, 06:31 PM | #25 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
देवरानी जेठानी की कहानी भाग - 1 मेरठ में सर्वसुख नाम का एक अग्रवाल बनिया था। मंडी में आड़त की दूकान थी। आसपास के गॉंवों से लोग सौदा लाते। इसकी दुकान पर बेच जाते। पैसा-रुपया तुलाई का इसके हाथ भी लग जाता। और कभी भाव चढ़ा देखता तो हजार का नाज-पात लेकर दूकान में डाल देता और फ़ायदा देख उसे बेच डालता। ब्*याज-बट्टे और गिर्वी-पाते की भी उसे बहुतेरी आमदनी थी। हाट-हवेली, धन-दौलत, दूध-पूत परमेश्*वर का दिया उसके सबकुछ था। और यह इसने अपने ही पुरुषार्थ से किया था। मॉं-बाप तो पिछले हैजे में पॉंच वर्ष का छोड़कर मर गये थे। चाचा ने पाला था। थोड़े ही दिन हुए होंगे जब तो कूकडि़यॉं बेचा करे था। चना-चबेना करता। खॉंचा सिर पै लिये गलियों में फिरा करे था। फिर इसने परचून की दुकान कर ली। मुंशी टिकत नारायण और हरसहाय काबली शहर के अमीरों की इसके यहॉं उचापत उठने लगी। इसमें परमेश्*वर ने ऐसी की सुनी कि आड़त की दूकान हो गई। जहॉं-तहॉं से माल आने लगा। बढ़ी इज्*जत बढ़ गई। लोग पचास हज़ार रुपये का भरम करने लगे। सच्*च है जिसे परमेश्*वर देता है छप्*पर फाड़ के ऐसे ही देता है। बड़ा भला मानस था। अड़ौसी-पड़ौसी सब इससे राजी थे। पुन्*न-दान में बहुत तो नहीं परंतु छठे-छमाहे कुछ-न-कुछ करता रहे था। बड़ी अवस्*था में आप ही अपना बिवाह किया था। पहिले दो लड़कियॉं हुईं, बड़ी का नाम पार्वती छोटी का प्*यार का नाम सुखदेई रक्*खा। फिर ईश्*वर ने उपरातली दो लड़के दिये। बड़े का नाम दौलत राम छोटे का नाम छोटे-छोटे पुकारने लगे। इन सब बहिन भाइयों की कोई दो-दो तीन-तीन वर्ष की छुटाई-बड़ाई होगी। बड़ी लड़की दिल्*ली बिवाही गयी। छोटी लड़की की मंगनी बंशीधर कबाड़ी के यहॉं हापुड़ हुई।
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24-09-2011, 06:32 PM | #26 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
एक दिन रात को अपने घर में कहने लगा कि सुखदेई की मॉं, लाला बुलाकी दास हमारी बिरादरी में जो मदर्से में नौकर है यों कहते थे कि अपने छोटे बेटे को तुम अंग्रेजी पढ़ाओ। इसमें तेरी क्*या सलाह है और दौलत राम को तो मै अपने कार में गेरूंगा।
उसने कहा अच्*छा तो है। सारे दिन गलियों में कूदता फिरे है। परसों किसी लौंडे के कुछ मार आया था। उसकी मॉं लड़ती हुई यहॉं आई। और मैं तुमसे कहना भूल गई। आज चौथा दिन है कि दिल्*ला पॉंडे हमारे पुरोहित की बहू मिसरानी आई थी और कहे थी कि सुखदेई को मेरे साथ नागरी पढ़ने भेज दिया करो और भी मुहल्*ले की पॉंच-सात लौंडियें उसके घर जाया करे हैं और वह सीना-पिरोना भी सिखलाया करे है। और वह बड़ी-बड़ी बात कहै थी कि जब सुखदेई पढ़ जायगी चिट्ठी-पत्री लिखनी आ जायगी। घर का हिसाब लिख लिया करेगी। और उसके घर कभी-कभी एक मेम आया करे है। लौंडियों को देख हरी हो जा है और उनका पढ़ना सुनकर किसी को छल्*ला और किसी को अंगूठी दे जा है। सो छोटेलाल तो मदर्से में बिठाये गये। दौलत राम लाला के साथ दूकान जाने लगे। और सुखदेई मिसरानी से नागरी पढ़ने लगी। एक दिन कोई चार घड़ी दिन होगा। छोटे लाल बाहर खेल रहा था। घर में भाग गया और कहने लगा कि मॉं लाला आवे हैं। यह अपने मन में डर गई और कहने लगी कि आज दिन से क्*यों आये। इतने में वह भी आन पहुँचे और खाट पर बैठ गये। इसने छोटे लाल को पंखा दिया और कहा लाला को हवा कर।
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24-09-2011, 06:32 PM | #27 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
यह बोले सुखदेई की मॉं, ले बोल क्*या करें? जहॉं दौलत राम को टेवा गया था, तनी गॉंठ करने को नाई आया है। और झल्*लामल जो कल खुरजे से आये थे यों कहें थे कि लड़की का बाप डूँगर बिचारा गरीब बनियॉं है। सरा के नुक्*कड़ पर परचून की दूकान खोल रक्*खी है। पर लड़की की मॉं बड़ी लड़ाका है। तुम्*हारे समधी के पास ही हमारा घर है और छोटेलाल की पीठ ठोक कर कहने लगा कि भाई छोटे लाल हमारा नसीबेवर है। गुड़गॉंवें के तहसीलदार ने इसका टेवा मॉंगा है। अभी तो रास्*ते में लाला दीनदयाल, किरपी के ताऊ, गाड़ी में बैठे आवे थे। मुझे पुकार कर कहने लगे कि मैं मामाजी से मिलने गुड़गॉंवें गया था सो वह पूछें थे कि सर्बसुख आड़ती का छोटा बेटा क्*या किया करे हैं? मैंने कहा साहब, मदर्से में अंग्रेजी पढ़े है और होशियार है। सो उन्*होंने उसका टेवा मागा है। तुम मुझे दे देना मैं भेज दूँगा। लाला साहब, लड़की बड़ी सुघड़ है। वह अपनी लड़की को आप नागरी पढ़ाया करे हैं।
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24-09-2011, 06:32 PM | #28 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
सुखदेई की मॉं बोली कि तुम दौलत राम की सगाई रख लो। आई हुई लक्ष्*मी घर से कोई नहीं फेरता। और रुपया-पैसा हाथ-पैरों का मैल है। आगे लौंडिया लौंडे का भाग है।
सो नाई तनी गॉंठ करके चला गया। और उसी साल में विवाह की चिट्ठी ले के आया। इन्*होंने कहला भेजा कि अब के वर्ष तो हमारी लड़की विवाह की ठहर गयी है। अगले वर्ष विवाह रख लेंगे। छोटेलाल की पत्री गुड़गॉंवे मिल ही गयी थी। लाला दीनदयाल के मारफत वहॉं से कहलावत आई कि सर्वसुख जी से कहना कि मरती जीती दुनिया है। आगे मैं सरकारी नौकर हूँ। आज यहॉं, कल जाने कहॉं को बदली हो जाय। सो लड़की का विवाह हम इसी साल में करेंगे। इन्*होंने यहॉं से कहला भेजा कि हमारी इज्*जत उनके हाथ है। अभी तो दो विवाहों से निपटे हैं और इस साल में न केवल सूझता भी नहीं है। अगले साल जैसा मुन्*शी जी कहेंगे वैसा करेंगे।
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24-09-2011, 06:32 PM | #29 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
अगले साल बिवाह की तैयारी हो गई और बड़ी धूम-धाम से लाला जी बेटे का बिवाह कर लाये। दोनों तर्फ की वाह-वाह रही। जब बहु घर आयी बगड़-पड़ौसन सब इकट्ठी हो गयी और सुखदेई की मॉं से कहने लगीं ले बहिन, बहुडि़या तो भली-सुन्*दर है। तेरी बड़ी बहू का रंग तो सॉवला है। जो कोई बड़ी-बूढ़ी आती है बहु कहती पॉंव पडूँ जी। वह कहती बहुत शीली सपूती हो। बूढ़ सुहागन रह।
जब कोई इसके बाप के घर की बात पूछती वह ऐसी मीठी बातों से जवाब देती कि सब प्रसन्*न हो जाती। बिना बातों नहीं बोलती, चुपकी बैठी रहती। वा जब अवसर पाती अपनी पोथी ले बैठती। मुहल्*ले और बिरादरी की बैअर-बानियों में धूम पड़ गई कि फलाने की बहु बड़ी चतुर है। कोई कहती बड़े घर की बेटी है। इसका बाप तहसीलदार है। अंग्रेजी पढ़ा हुआ है। अपनी बेटी को आप पढ़ाया है। कोई कहती जी इसके साथ जो नायन है, वह कहे थी, इसपैं सीनी-पिरोना भी आवे है और भली अच्*छी फुलकारी भी काढ़े है। सुखदेई का अभी गौना नहीं हुआ था। बाप ही के घर थी। ननद-भावजों का बड़ा प्*यार हो गया। दोनों पढ़ी-पढ़ी मिल गयीं। सुखदेई इतनी पढ़ी हुई न थी परन्*तु चिट्ठी-पत्री तो अच्*छी तरह से लिख लिया करे थी। इसने अपनी सब पढ़ी हुई भनेलियों को बुलाया और उनका लिखना-पढ़ना अपनी भावज को दिखलाया। जब दौलतराम बिवाह के लाये थे तो पट्टा फेर करते लाये थे। इसका कारण यह था कि लड़की के बाप घर में पहिले ही कुछ नहीं था। विवाह ही में उघड़ गया। गौना क्*या करेगा? सो तबसे दौलत राम की बहु ज्ञानो ससुराल ही में थी। जब कोई बैअर-बानी बाहर की आती, न तो बैठने को पीढ़ा देती और न उसकी बात पूछती। और जो कुछ कहती भी, तो ऐसी बोलती जैसे कोई लड़े है। सास से तो रात दिन खटपट रक्*खे थी और जब कोई देवरानी को इसके सामने सराहती तो कहती हॉं जी, वह तो अमीर की बेटी है। मैं तो गरीब बनिये की बेटी हूँ। मुँह से कुछ नहीं कहती पर देवरानी को देख-देख फुँकी जाती। और जभी से छोटी ननद से भी जलने लगी। बड़ी ननद पारबती से बड़ा प्*यार था। (और वह विवाह में बुलाई हुई आयी थी) और प्*यार होने का कारण यह था कि वह भी लगावा-बझावा थी। उधर की इधर और इधर की उधर। अब बहु को आये आठ-दस दिन हुए होंगे कि उसका भाई रामप्रसाद मझोली लेके विदा कराने को आया। लाल सर्वसुख जी ने भी जैसे बनियों में रस्*म होती है, दे-ले कर बहु को बिदा कर दिया और बहु के भाई से चलते-चलते यह कह दिया कि भाई, पहुँचते ही राजी-खुशी की चिट्ठी लिख भेजना। जब सुखदेई के विवाह को तीन वर्ष हो चुके, हापुड़ से गौने की चिट्ठी आयी। लाला ने घर में आके सलाह की। सुखदेई की मॉं ने कहा मैं तो पॉंचवें वर्ष करूँगी। लाला ने समझा दिया कि जिस काम से निबटे, उससे निबटे। यह काम भी तो करना ही है और यह भी कहा है कि धी-बेटी अपने घर ही रहना अच्*छा है। अर्थात् सुखदेई भी अपने घर गई और वहॉं अपने कुनबे की लौंडियों को नागरी पढ़ाने लगी। लाला सर्वसुख का माल रेल पै लदने जाया करे था। वहॉं के बाबू से इसकी जान पहिचान हो गई थी। एक दिन कहने लगा कि बाबू जी हमारा छोटा लड़का मदर्से में अंग्रेजी पढ़ने जाया करे है। वह कहे था जो तुम कहो तो तुम्*हारे पास काम सीखने आ जाया करे। बाबू ने कहा कल तुम उसे हमारे पास दफ्तर में भेजना। छोटे लाल अगले दिन वहॉं गया। बाबू को अपना लिखना दिखलाया। उसकी पसंद आया। इससे कहा तुम रोज-रोज आया करो। यह जाने लगा। थोड़े दिन पीछे उसी दफ्तर में पंदरह रुपये महीने का नौकर भी हो गया। इसे नौकर हुए कोई एक वर्ष बीता होगा कि बाबू की बदली अम्*बाले की हो गयी। यह बाबू का काम किया ही करे था। और साहब भी रोज देखा करे था। बाबू की जगह इसे कर दिया, और यह कह दिया कि अब तो तुमको चालीस रुपये महीना मिलेगा फिर काम देख के साठ रुपये महीना कर देंगे।
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24-09-2011, 06:33 PM | #30 |
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Re: हिंदी का पहला उपन्यास
जब छोटे लाल पंदरह ही रुपये का नौकर था कि इसके लाला गौना कर लाये थे और अब गौनयायी अपने घर ही थी। छोटे लाल इस बात से अपने मन में बड़ा मगन था कि मेरी बहु पढ़ी हुई है और बड़ी चतुर है। इधर इसकी घरवाली इससे खूब राजी थी। और यह बात परमेश्*वर की दया से होती है कि दोनों स्*त्री-पुरुष के चित्*त इस तरह से मिल जायें। यह कुछ अचंभे की बात भी नहीं है। दिल तो वहॉं नहीं मिलता जहॉं मर्द पढ़ा हो, और स्*त्री बेपढ़ी। जब यह दोनों मिलते, एक-दूसरे को देख बड़े प्रसन्*न होते। इधर वह उसके मन की बात पूछती और अपनी कहती। इधर उसकू इस बात का बड़ा ही ध्*यान रहता कि कोई बात ऐसी न हो कि जिससे इसका मन दुखे। उसकी बेसलाह कोई काम न करता। उसके लिए एक नागरी का अखबार लिया। रात को उर्दू और अंग्रेजी अखबारों की खबरें उसे सुनाता और जब आप थक जाता उससे कहता लो अब तुम हमें अपने अखबार की खबरें सुनाओ। इस बात से इसको बड़ा ही आनन्*द होता।
उनका घर तो ऐसा ही था जैसा और बनियों का हुआ करता है। पर इसने अपना चौबारा सोने और उठने-बैठने को सजा रक्*खा था। चादर लग रही थी। कलई की जगह नीला रंग फिरवा रक्*खा था। बोरियों के फर्श पर दरी बिछा रक्*खी थी। तसबीर और फानूस भी लग रहे थे। दो कुर्सी बड़ी और दो कुर्सी छोटी जिनको आरामकुर्सी कहते हैं, एक तर्फ पड़ी हुई थीं। किताबों की एक आलमारी मेज के पास लगी हुई थी। दो पलंगों पर रेशम की डोरियों से चिही चादर खिंची हुई थी। अपना सादा कमरा अच्*छा बना रक्*खा था। जो कोई बाहर की लुगाई आती, छोटेलाल की बहु अपना चौबारा दिखाने ले जाती। एक दिन अपनी जेठानी से बोली कि आओ जी, तुम भी आओ। उसने कहा अब ले मैं ना आती। और लुगाइयों ने कहा निगोड़ी अपने देवर का चौबारा देख ले ना। शर्मा-शर्मी उठी चली गयी। और चौबारे को देख अक्*क-धक्*क रह गयी। इसकी अटारी में दो पुरानी-धुरानी खाट पड़ी हुई थीं। पिंडोल का पोता और गोबर का चौका भी न था। एक कोने में उपलों का ढेर। दूसरे में कुछ चीथड़े। और एक तर्फ नाज के मटके लग रहे थे। इसका कारण यह था कि बिचारा दौलत राम तो निरा बनियॉं ही था। पढ़ा-लिखा कुछ था ही नहीं। आगे उसकी बहु गॉंव की बेटी थी और उसने देखा ही क्*या था? छोटेलाल की बहु की सी सुथराई और सफाई और कहॉं? आटा पीसना और गोबर पाथना इसकू खूब आवे था। वाये दिन भर लड़ा लो। छोटेलाल की बहु सारे दिन कुछ न कुछ करती रहे थी। सबेरे उठते ही बुहारी देती। चौका-बासन करके दूध बिलोती। फिर न्*हा-धोके दो घड़ी भगवान का नाम लेती। रोटी चढ़ाती। जब लाला छोटेलाल रोटी खा के दफ्तर चले जाते, थोड़ी देर पीछे दौलतराम और उसका बाप दूकान से रोटी खाने को आते। जब वह खा लेता और सास-जिठानी भी खा चुकतीं तब सबसे पीछे आप रोटी खाती। और जिस दिन दौलत राम की बहु रोटी करती, दाल में पानी बहुत डाल देती। और कभी नून जियादह कर देती और कभी डालना भूल जाती। गॉंव के सी मोटी-मोटी रोटियें करती। किसी को बहुत सेक देती और कोई कच्*ची रह जाती। इसलिये बेचारी देवरानी को दोनों वक्*त चूला फूँकना पड़े था। रात को पूरी-परॉंवठा और तरकारी कर लिया करे थी। दो पहर को रोटी खाने से पीछे घण्*टा डेढ़ घण्*टा आराम करती। फिर सीना-पिरोना, मोजे बुनना, फुलकारी काढ़ना, टोपियों पै कलाबत्*तू की बेल लगाना आदि में जिस काम को जी चाहता, ले बैठती।
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