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aspundir
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Default Re: संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण - (Valmiki Ramayan in Hindi)

वाल्मीकि रामायण और श्री तुलसीदास जी के रामचरितमानस में अहल्या की कथा मे बहुत सारे अन्तर हैं। जहाँ आदिकवि श्री वाल्मीकि ने अहल्या का शापवश राख में पड़ी रहना बताया है वहीं श्री तुलसीदास जी ने अहल्या का शापवश शिला बन जाना लिखा है।

पाठकों को कुछ और भी सन्देह हो सकते हैं इसलिए मैं निम्न उद्धरण भी देना उचित समझता हूँ

आदिकवि श्री वाल्मीकि रचित रामायण के अष्टचत्वरिंशः सर्गः (48वे सर्ग) के श्*लोक क्रमांक 17-19 के अनुसार स्पष्ट है कि अहल्या ने इन्द्र को पहचानने के पश्*चात् ही अपनी स्वीकृति दी थी। देखियेः

तस्यान्तरं विदित्वा च सहस्त्राक्षः शचीपतिः।
मुनिवेषधरो भूत्वा अहल्यामिदमब्रवीत्॥17॥

एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रम में नहीं थे तब उपयुक्*त अवसर जानकर शचीपति इन्द्र मुनिवेष धारण कर वहाँ आये और अहल्या से बोले -

ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिनः सुसमाहिते।
संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे॥18॥

“रति की कामना रखने वाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते। हे सुन्दर कटिप्रदेश वाली (सुन्दरी)! मैं तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ।”

मुनिवेषं सहस्त्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतुहलात्॥19॥

(इस प्रकार रामचन्द्र जी को कथा सुनाते हुये ऋषि विश्*वामित्र ने कहा,) “हे रघुनन्दन! मुनिवेष धारण कर आये हुये इन्द्र को पहचान कर भी उस मतिभ्रष्ट दुर्बुद्धि नारी ने कौतूहलवश (कि देवराज इन्द्र मुझसे प्रणययाचना कर रहे हैं) समागम का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

संत श्री तुलसीदास जी के रामचरितमानस के अनुसार अहल्या का उद्धार श्री रामचन्द्र जी के चरणधूलि प्राप्त करने से हुई। देखिये (रामचरितमानस बालकाण्ड दोहा क्रमांक 210 के पूर्व की चौपाई से उसके बाद का छंद):

आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।

मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा। वहाँ पशु-पक्षी, कोई भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही।

दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥

गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किया बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिये।

छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।

श्रीराम के पवित्र और शोक को नाश करनेवाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्*तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथ जी को देख कर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई।

जबकि वाल्मीकि रामायण के इंकावनवें सर्ग के श्*लोक क्रंमाक 16 के अनुसारः

सा हि गौतमवाक्येन दुनिरीक्ष्या बभूव ह।
त्रयाणामपि लोकानां यावद् रामस्य दर्शनम्।
शापस्यान्तमुपागम्य तेषां दर्शनमागता॥

रामचन्द्र के द्वारा देखे जाने के पूर्व, गौतम के शाप के कारण अहल्या का दर्शन तीनों लोकों के किसी भी प्राणी को होना दुर्लभ था। राम का दर्शन मिल जाने से जब उनके शाप का अन्त हो गया, तब वे उन सबको दिखाई देने लगीं।
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