12-06-2011, 03:27 PM | #141 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
"वह मेरी बीवी थी, मैं कैसे बर्दाश्त कर सकता हूँ?" मिर्जा बिगड गए. "तो क्या हुआ, अब तो नहीं बीवी! और सच पूछो तो वह तुम्हारी थी ही नहीं." "और निकाह जो हुआ था." "कतई नाजायज." "यानी कि...." "हुआ ही नहीं बिरादर, न जाने वह किसकी नाजायज औलाद होगी! नाजायज से निकाह हराम." मीरन मियां ने फतवा जड़ा. "तो निकाह हुआ ही नहीं?" "कतई नहीं"
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12-06-2011, 03:30 PM | #142 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
बाद में मुल्ला जी ने भी साद (प्रमाणित) कर दिया कि हरामी औलाद से निकाह जायज नहीं.
"तो गोया हमारी नाक भी नहीं कटी." मिर्जा मुस्कराए! चलो सर से बोझ हट गया. "बिलकुल नहीं." मीरन मियां ने रोका. "भाई कमाल है; तो फिर तलाक भी नहीं हुयी?" "भाई मेरे, निकाह ही नहीं हुआ तो फिर तलाक कैसे हो सकती है." "मुब्लिग़ बत्तीस रूपये महर के मुफ्त में गए." मिर्जा को अफ़सोस होने लगा. फ़ौरन यह खबर सारे मोहल्ले में छलांगे मारने लगी कि मिर्जा का उनकी घरवाली से निकाह ही नहीं हुआ, न तलाक हुई. मुब्लिग़ बत्तीस रूपये बेशक डूब गए. लाजो ने जब यह खुशखबरी सुनी तो नाच उठी. सीने पर से बोझ फिसल गया कि निकाह और तलाक एक डरावना ख्वाब था, जो खत्म हो गया और जान छूटी. सबसे ज्यादा खुशी तो इस बात की थी कि मियां की नाक नहीं कटी. उसे मियां की इज्जत जाने का बड़ा दुःख होता. हरामी होना कैसा वक्त पर काम आया. खुदा-न-ख्वास्ता इस वक्त किसी की जायज औलाद होती तो छुट्टी हो जाती.
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12-06-2011, 03:32 PM | #143 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
रामू की दादी के घर में उसका दम घुट रहा था. जिंदगी में कभी यों घर की मालकिन बनकर बैठने का मौका नहीं मिला था. उसे घर की फिकर लगी हुयी थी. चोरी-चकारी के डर से मियां ने इतने दिन से झाडू भी नहीं दिलवाई थी. कूड़े के अम्बार लग रहे होंगे. वह स्टोर जा रहे थे. लाजो ने रास्ता रोक लिया.
"फिर मियां, कल से काम पर आ जाऊं?" वह इठलाई. "लाहौल विला कूव्वत!" मिर्जा सर न्योढ़आये लंबे-लंबे डग मारते निकल गए. दिल में सोचा, कोई मामा तो रखनी ही होगी, यह बदजात ही सही. बात साफ़ हो गयी. लाजो ने कल-वाल का इंतज़ार नहीं किया, छतों-छतों घर में कूद गयी. लहंगे का लंगोट किया और जुट गयी.
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12-06-2011, 03:36 PM | #144 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
शाम को मिर्जा लौटे तो ऐसा लगा कि मरहूमा बी-अम्मा आ गयी हों. घर साफ़, चन्दन व लोबान की भीनी-भीनी खुशबू, कोरे मटके पर झिलमिलाता मंजा हुआ कटोरा...जी भर आया. चुपचाप भुना हुआ सालन और रोटी खाते रहे. लाजो अपनी हैसियत के मुताबिक दहलीज पर बैठी पंखा करती रही.
रात को दो टाट के परदे मिलाकर जब बावर्चीखाने में लेटी तो मिर्जा पर फिर शिद्दत की प्यास का दौरा पड़ा. जी मारे लेटे उसके कड़ों की झंकार सुनते रहे; करवटें बदलते रहे. जी कह रहा था कि बड़ी बेकदरी की थी उन्होंने उसकी! "लाहौल विला कूव्वत..." यकायक वह भन्नाए हुए उठे और टाट पर से घरवाली को समेट लिया. -------------------------xxxxxxxxxxxxxxxx------------------------
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04-11-2011, 12:12 AM | #145 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
आज मैंने अपने आप पर ढेरों लानत भेजीं ! इस्मत आपा का मैं एक बड़ा प्रशंसक हूं और उन पर चल रहे सूत्र को इतने दिन बाद आज देखा, धिक्कार है ! उनकी 'लिहाफ' मेरी पसंदीदा कहानी है ! क्या कहूं, आपकी शान में कहने के लिए मेरे पास अलफ़ाज़ का अकाल है ! फिर भी कहना तो पडेगा ही - इसलिए आभार ... कोटिशः आभार !
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04-11-2011, 01:02 AM | #146 | |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
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04-11-2011, 04:17 AM | #147 | |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
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मेरे विचार से 'लिहाफ' में अश्लीलता नाम की कोई चिड़िया नहीं है ! यह उर्दू की एक बोल्ड कहानी है, बस ! उस ज़माने के हिसाब से, जो इस्मतजी ने जिया है, यह एक क्रांतिकारी रचना कही जा सकती है ! इस कहानी में जो लोग अश्लीलता देखते हैं, उनके दिमाग में भूसे के सिवा कुछ नहीं है ! एक किस्सा याद आता है मुझे ! बरसों पुरानी बात है ! जयपुर में जेएमए (जयपुर मेडिकल एसोसिएशन) के कॉन्फ्रेंस हॉल में उर्दू लिटरेचर पर एक सेमिनार चल रही थी ! इस्मत चुगताई के अलावा असगर अली इंजीनियर, शीन. काफ. निजाम जैसे अनेक दिग्गज साहित्यकार उसमें शिरकत कर रहे थे ! लोग बड़ी शान्ति से सुन रहे थे ! इस्मत आपा का नंबर आया, तो उपस्थित लोगों में कुछ हलचल नज़र आने लगी ! इस्मत आपा उस समय भी काफी बुजुर्ग थीं ! स्टेज तक वे व्हील चेयर पर आई थीं और वहां से उन्हें सहारा देकर मंच पर ले जाया गया था ! इस हलचल को हम जैसे मित्रों ने समझा कि ये इस्मतजी के कद्रदान हैं, जो उन्हें ठीक से देखने के लिए जद्दो-जहद कर रहे हैं, लेकिन माजरा कुछ और ही था ! ये शराफत की नकाब ओढ़े कुछ कठमुल्ले थे, जो किसी न किसी बहाने इस्मत आपा पर हल्ला बोलने आए थे ! आखिरकार, उन्हें मौका मिल ही गया, जब इस्मत आपा ने उर्दू दुनिया में कठमुल्लापन और स्त्री की दुर्दशा पर बोलना शुरू किया ! अनेक हुडदंगी मंच पर चढ़ आए और गालियां बकते हुए इस्मतजी पर हमला करने ही वाले थे कि निजाम साहब हाथ फैला कर उनके ठीक सामने आकर डट गए ! बस, इतना काफी था ! पलक झपकते हम जैसे कई मित्र मंच पर चढ़ कर निजाम साहब के आजू-बाजू आ डटे ! इंजीनियर साहब और निजाम साहब चाहते थे कि आपा का वक्तव्य यहीं ख़त्म करा कर उन्हें उनके होटल पहुंचा दिया जाए, लेकिन हमने कहा कि जयपुर यह गुनाह अपने सर नहीं लेगा ! आज इस्मतजी, जो बोलना चाहती हैं, वह सब हम सुनकर रहेंगे ! मैं और मेरे साथियों ने मंच पर एक घेरा बना लिया, यह देख निजाम साहब मुस्कराए और हमें हौसला मिल गया ! इसके बाद इस्मत आपा उस रोज़ पूरे डेढ़ घंटे तक बोलीं और कुछ शोरोगुल के बावजूद ज्यादातर लोगों ने उन्हें पूरे मनोयोग से सुना ! बाद में जब हम उन्हें उनके होटल पहुंचाने गए, तब बिस्तर पर बैठ कर विदाई देते वक्त जिस स्नेह से उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर दुलराया था, वह ममत्व भरा अनुपम स्पर्श मैं जीवन भर नहीं भूल सकता !
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04-11-2011, 06:57 PM | #148 | |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
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ये जान कर सुखद आश्चर्य हुआ कि आप इस्मत जी से खुद निजी तौर पर मिल चुके हैं.
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04-11-2011, 07:38 PM | #149 |
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
आपने शायद मेरा सूत्र 'हिन्दी की श्रेष्ठ ग़ज़लें' नहीं देखा ! इसमें मैंने जिक्र किया है कि अनेक भाषाओं के अनेक साहित्यकारों से मेरा निजी सम्बन्ध है ! मुझे रूसी साहित्य से बहुत लगाव है और उसी की एक कहावत ने मेरा नज़रिया बदल दिया ! कहावत कुछ यूं कहती है - घर की शान इससे नहीं बढ़ती कि वह कितना सुन्दर बना है, बल्कि इससे बढ़ती है कि उसकी देहली कितने लोग लांघते हैं ! अर्थात आप कैसे इंसान हैं यह आपके घर आने वाले मित्रों की संख्या ही उजागर करती है ! धन्यवाद !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु Last edited by Dark Saint Alaick; 09-11-2011 at 08:07 PM. |
04-11-2011, 07:54 PM | #150 | ||
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Re: इस्मत चुगताई की कहानियाँ
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इस्मतजी ने सबसे पहले 'जिद्दी' (1948) की कहानी लिखी थी ! इसके बाद आरजू' (1950) की पटकथा और संवाद लिखे ! उन्होंने 'फरेब' (1953) और 'जवाब आएगा' (1968) का निर्देशन किया ! 'सोने की चिड़िया' (1958) की प्रोड्यूसर वही थीं और इसकी पटकथा भी उनकी ही लिखी थी ! 'गरम हवा' (1973) उनकी लिखी कहानी पर बनी थी और उन्होंने ही 'जूनून' (1978) के संवाद लिखे थे ! 1975 में उन्होंने एक वृत्त चित्र का भी निर्देशन किया था, जिसका शीर्षक था - 'माइ ड्रीम्स' !
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