08-11-2010, 11:06 PM | #21 |
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 |
09-11-2010, 10:53 PM | #22 |
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भोर की प्रथम किरण और तुम्हारी याद !!
क्यों आती है साथ साथ !! तुम्हारे माथे की बिंदी की भाँति उगता हुआ सूरज ना जाने क्यों मैं देखता रहता हूँ उसे तब तक ..... एक टक ! तुम्हारे मधुर चुम्बनों का आभास दिलाती हुई सुबह की कोमल किरणे जब तक सहला ना दें मेरा माथा और मेरे हाथ !! भोर की प्रथम किरण और तुम्हारी याद !! क्यों आती है साथ साथ !! इन्ही मादक स्मृतियों में निकल जाता है दिन और आ जाती है रात ! तब घनी हो चुकी तुम्हारी यादों के बीच डसने लगता है एकाकीपन का नाग !! बिस्तर में बैठा हुआ मैं भागता हूँ पूरे कमरे में और चीखता हूँ चिल्लाता हूँ निःशब्द ... बिना आवाज !! तुम बहुत दूर चली गयी हो 'जय' कभी वापस ना आने के लिए प्रिये! अब बुला लो मुझे भी अपने पास !! भोर की प्रथम किरण और तुम्हारी याद !! क्यों आती है साथ साथ !!
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 Last edited by jai_bhardwaj; 09-11-2010 at 11:00 PM. |
11-11-2010, 07:56 AM | #23 |
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युग बीते सुदिनो की बाट ही निहारते
युग बीते सुदिनोँ की बाट
ही निहारते सारे शुभत्व पर ग्रहण की छाया तभी तभी पड़ी जब मनका कुछ पाया दिनोँ के फेर देख मन को पुचकारते प्रतिबिम्बोँ मे भासित मर्म को परखते मरूथली मरीचिकायेँ भ्रमित हो विखरते बचपन सा भोरा विश्वास सतत हारते जाने क्या क्या करना चाहा आरक्षित अवनी से अम्बर तक कितना कुछ इच्छित अंजुरी भर धूप से अंधेरे बुहारते
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15-11-2010, 02:25 PM | #24 | |
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Re: कामना की पलक हिलते
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सुन्दर अति सुन्दर सुन्दर सूत्र बनाने के लिए कोटि कोटि बधाई
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तोडना टूटे दिलों का बुरा होता है जिसका कोई नहीं उस का तो खुदा होता है |
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15-11-2010, 02:33 PM | #25 |
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Re: कामना की पलक हिलते
जाने ये कौन सा मौसम है
न सर्दियों की धुप है न दिन यहाँ पर कम हँi न ठण्ड का कोई भी रूप है न मिटटी की खुशबु है न भीगे यौवन में हलचल न बादलों में गुफ्तगू है न चाय पकोड़ी का ही कोई पल धुप भी चिलचिलाती नहीं न चांदनी का कोई आलम न झरनों की आरज़ू कहीं न ये छुट्टियों का मौसम सरसों भी नहीं दीखते हैं पतंग अस्मा में अब तक न नाचा है नए पत्ते भी कहीं न उगते हैं न मुस्कराता कोई भी रास्ता है जाने ये कौन सा मौसम है तुम पास होकर भी इतने दूर हो हर बात शुरू होने से पहले ख़त्म है काम हो न हो , मसरूफ हो …
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17-11-2010, 05:20 AM | #26 |
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Re: प्रणय रस
वो सुरूर मोहब्बत का, वो आँखों की प्यास
वो बेताब धड़कने, वो मिलने की आस वो तन्हाईयों में अक्सर उनकी तस्वीर से बातें, उनसे आँखे टकराने पर वो अजीब सा एहसास उनके खयालो से मेरा दिल महकता था हर पल उनके दिखने से मेरे खुशियों में होती थी हलचल एक झलक के लिए पागल "निशान्त" अकेले नहीं थे
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
20-11-2010, 10:37 AM | #27 |
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Re: प्रणय रस
तुम नहीँ हो साथ लेकिन याद से संत्रास तो है
हूँ अकेला पर नही कोई गिला है इस सफर मे बोध ही मन का सिला है सिलसिले टूटे सही लेकिन तुम्हारी प्यास तो है क्या हुआ है दृगोँ को इनको न कोई और भाता और मन तो हर प्रहर बस नाम तेरा गुनगुनाता साथ छूटा क्या हुआ लेकिन कसकती फांस तो है आ गया है समझ मे यह जगत संयोग भर है कठपुतलियां लेख की हैँ सांस इनकी डोर पर है भले क्षण भंगुर सभी कुछ मन खुला आकाश तो है ।
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21-11-2010, 09:12 AM | #28 |
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Re: प्रणय रस
बीज अंखुवाया
सृष्टि का हर भेद मुस्काया किरण बोती ज्योत्सना और प्रीति बोती बीज है सृष्टि का यह भेद अनुपम वेद कहते नेति है सत्य अंखुवाया सृष्टि का हर भेद मुस्काया ज्योति देती अर्ध्य किसको प्रीतिका है अर्ध्य क्या ? जनम कया है मरण क्या है सृष्टि का है अर्थ क्या ? शब्द अंखुवाया सृष्टि का हर भेद मुस्काया महामाया जाल मे हर सत्य है उलझा अद्यतन संशोध से भी कुछ नही सुलझा भास अंखुवाया सृष्टि का हर भेद मुस्काया
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22-11-2010, 04:21 PM | #29 |
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Re: प्रणय रस
आज शाम से मन उदास है
कोई न कोई बात खाश है तुम नहीं हो मगर ये अहसाश है की तुम नहीं आवोगी मगर इस पागल दिल को कोंन समझाए हर पल मानता तुम्हे आस पास है तोड़ के सारे बंधन प्रेम के चली गयी तुम दूर निस्तब्ध हमें कर मन में बस यह चाहत है तुम आवो गी जरुर मगर इतना भी न तद्पवो की दम निकल जाये तड़प कर
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26-01-2011, 10:58 AM | #30 |
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Re: प्रणय रस
युग बीते सुदियोँ की बाट ही निहारते
सारे शुभत्व पर, ग्रहण की छाया तभी-तभी पड़ी, जब मनका कुछ पाया दिनोँ के फेर देख मन को पुचकारते प्रतिबिम्बोँ मे भासित मर्म को परखते मरुथाली मरीचिकायेँ भ्रमित हो विखरते बचपन सा भोरा विश्वास सतत हारते जाने क्या क्या करना चाहा आरक्षित अवनी से अम्बर तक कितना कुछ इच्छित अंजुरी भर धूप से अंधेरे बुहारते
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