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18-04-2015, 11:14 PM | #1 |
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मेरी कलम से.....
कभी-कभी सोचती हूँ कि क्यों चाहती हूँ तुम्हें?
तुम मेरे "हमसफर" हो इसलिये या मेरे हमसफर "तुम" हो इसलिये.....
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It's Nice to be Important but It's more Important to be Nice Last edited by Pavitra; 18-04-2015 at 11:43 PM. |
20-04-2015, 06:24 PM | #2 |
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Re: मेरी कलम से.....
Jabardast hai.
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20-04-2015, 11:07 PM | #3 |
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Re: मेरी कलम से.....
खुद जल के कर सकूँ तुम्हें रौशन
तुम्हारे दिये की बाती होना चाहती हूँ तुम्हारी सुगन्ध के झोखों में बह सकूँ पेड से टूटी वो पाती होना चाहती हूँ तुम्हारे साँचे में ढल कर बन जाऊँ तुम्हारे जैसी बढा सकूँ तुम्हारी वो ख्याति होना चाहती हूँ तुम्हारे दिये की बाती होना चाहती हूँ
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21-04-2015, 05:24 PM | #4 | ||
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Re: मेरी कलम से.....
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21-04-2015, 08:35 PM | #5 |
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Re: मेरी कलम से.....
मुझे पता था कि आपकी वापसी ज़रूर होगी और आप निःसन्देह रूप से कविता लिखना सीखने का ही प्रयत्न कर रही होंगी, क्योंकि आपको पता ही है कि आपको कविता लिखना न आने के कारण मुझे बहुत सदमा पहुँचा था! किन्तु अफ़सोस, आपको कविता लिखना अब आ गया है, किन्तु मेरा सदमा कम होने की जगह अब दोगुना हो गया है. कारण- आपकी कविता वर्ष १९५९ में लोकार्पित हिन्दी फ़ीचर फिल्म 'धूल का फूल' के गीत 'तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ... वफ़ा कर रहा हूँ, वफ़ा चाहता हूँ...' की धुन पर है. दिया और बाती वाला कॉन्सेप्ट मुझे पसन्द है, मगर बाती बनने से क्या होगा? दीपक में रौशनी ही कितनी होती है? पेट्रोमैक्स का फिलामेंट बनने का उदाहरण कविता में दिया जाता तो कितना अच्छा लगता? कितनी रोशनी होती और सारे संसार में प्रकाश छा जाता। चलिए कोई बात नहीं, आपकी कोशिश अच्छी है, प्रसंशनीय है. अब इस गीत के धुन पर कोई कविता लिखने का प्रयत्न करिए- 'हँस-हँस कर सहेंगे गम, ये प्यार न होगा कम, सनम तेरी क़सम.'
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30-11-2015, 05:05 PM | #6 | |
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Re: मेरी कलम से.....
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07-02-2017, 09:11 AM | #7 | |
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Re: मेरी कलम से.....
Bohot he achchi rachna.. loved it..
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08-02-2017, 10:35 PM | #8 |
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Re: मेरी कलम से.....
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02-03-2017, 01:25 PM | #9 |
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Re: मेरी कलम से.....
जो तू किस्मत में होती... सितारे ही क्या, आसमां हमारा होता ...
जो तू किस्मत में होती, तो क्या नजारा होता... तेरे दीदार से ही, मेरी आँख खुलती ... तेरे साथ ही ,मेरी हर शाम ढलती ... दिल की कश्ती के पास कोई किनारा होता... जो तू किस्मत में होती, तो क्या नजारा होता... तेरी ही खुशी की ,खातिर मैं जीता... दोहराता हसीं ,हर पल जो बीता ... दूर तुझसे जाना नहीं गवारा होता... जो तू किस्मत में होती, तो क्या नजारा होता... तू कहती तो मैं ,दुनिया जीत लाता... काबिल हूँ तेरे ,तुझे मैं बताता... दुनिया के लिये मैं ,नहीं बेचारा होता... जो तू किस्मत में होती, तो क्या नजारा होता... बेरंग जिन्दगी में ,रंग भर पाता... जीने का मक्सद ,मुझे मिल जाता ... डूबते हुए को ,तिनके का सहारा होता ... जो तू किस्मत में होती, तो क्या नजारा होता... दवा हो इश्क की कोई, तो ला दे मुझे ... तू है क्या मेरे लिये ,आ बता दूँ तुझे ... काश ! तेरे लिये दिल ,नहीं आवारा होता ... जो तू किस्मत में होती, तो क्या नजारा होता...
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29-07-2017, 09:07 PM | #10 |
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Re: मेरी कलम से.....
ये कैसा इश्क़ तुम्हारा है? ये कैसा इश्क़ तुम्हारा है जो,
अखबारों सा बदलता है ? वही एक जज़्बात कैसे नए चेहरों में ढलता है? हर बार वही दोहराने पर क्या लफ्जों की कशिश नहीं जाती? रोज़ नए प्यार के दावों पर क्या शर्म तुम्हें नहीं आती? तुम्हारा दिल सराय सा हर रात मुसाफ़िर बदलता है, रोज़ ही किसी नए चेहरे को दिल तुम्हारा मचलता है..... जिन एहसासों को प्यार समझ तुम, दिल बहलाते रहते हो.... वो कुछ पल की दिलकशी से ज़्यादा नहीं ठहरता है जब पाक इश्क की बारिश में दिल तुम्हारा भीगेगा चाहे कितने आएँ जाएँ पर चेहरा वो ही दीखेगा जब जिस्मानी बन्धन को तोड़, रूहें आपस में बतियाएंगी तब इश्क़ की सारी बातें तुम्हें , खुद ब खुद समझ आजाएंगी
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