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Old 13-09-2014, 09:33 PM   #101
rajnish manga
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

बहस चल रही थी, मतलब की कुछ लोग मेरे समर्थन में तो कुछ विरोध में थे। खैर, जिंदगी चलने लगी थी अपने रफ्तार से। पटना जाने का कार्यक्रम स्थागित हो गया था। दो विकल्पों में प्यार या कैरियर को चुनने की जद्दोजहद चल रही थी।

आज गांव मे प्रचार वाहन आया हुआ था। लाउडीस्पीकर पर जोर जोर से आवाज गूंज रही थी-आज ही संध्या चार बाजे, कॉलेज के मैदान में, विश्व हिंदू परिषद के नेता सिंधल जी पधार रहें हैं। अतः आप तमाम लोगों से अनुरोध है कि लाखों लाख की संख्या में जुट कर आबें और उनका भाषण सुन कर लाभ उठावें।’’ बचपन से ही नेताओ का भाषण देखने सुनने का बड़ा शौक था। मन भी उदास था और समय भी काटना था।

कुछ साल पूर्व जब होस्पील के मैदान में मजदूरों के नेता जार्ज फर्नाडीस आऐ थे तो उनका भोषण सुनकर बड़ा अच्छा लगा था। गरीब किसान
, मजदूर की बात करते थे तो लगता था मेरे हक की बात कह रहें हो। उस सभा में ही लोगो से आर्थिक सहयोग देने की बात कही गई थी तो मेरे जेब मे रखी एक मात्र एक रूपया का सिक्का मैंने निकाल कर दे दिया था और उस दिन से समाजवाद का मतलब जार्ज साहब को जानता था और आज हिन्दु नेता आ रहे है। गांव से एक टोली बना कर सभी निकल गए।

कल की घटना ताजी थी और रास्ते में पड़ने वाली मिंया साहब के मजार से होकर ही लोग पैदल गुजरते थे। मिंया साहब का मजार क्या था। एक नीम का पेंड
, तीन-चार फिट लंबा और एक फिट चौड़ मिट्टी का एक टीला, उसके उपर लाल रंग की एक चादर और आस पास बिखरे अगरबत्ती। कुल मिलाकर किसी देव स्थल का प्रमाण। गांव के लोग गाहे-बेगाहे यहां आकर मन्नत मांग जाते और पूरा होने पर पुजारी झपसू मिंया के साथ वहां पूजा करने आते, चादर चढ़ाते और पेडों का प्रसाद बंटता।
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Old 13-09-2014, 09:37 PM   #102
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

गांव में जब भी इस पूजा की खबर लगती दोस्तों के साथ मैं भी चला आता। आज उसी मजार के पास से होकर गुजरते वक्त मन में उनके प्रति एक अजीब सी श्रद्धा जगी। वहां पूजा करते हुए झपसू मिंया को कई बार देखा भी था। ठेहूने के बल पर बैठकर हाथ पसार दिया। फिर सर झुका कर खड़ा हो गया। उसके बाद मन ही मन रीना को पाने की मन्नत मांग ली। जेब में रखी एक रूप्ये का सिक्का भी वहीं चढ़ा दिया और जाते जाते प्रणाम कर लिया। और फिर मजार को पक्का बनाने का बादा भी कर दिया।

सभा में पहूंचा। भाषण चल रही थी। किसी मस्जीद को मंदिर बताया जा रहा था और लोग जयकारा लगा रहे थे। जय श्रीराम। जय श्रीराम। किशोर मन था मेरा पर भाषण देने वाले की भाषा मुझे अच्छी नहीं लग रही थी
, उसी तरह जैसे गांव का चुगुलबा मुझे अच्छा नहीं लगता है। चुगुलबा के बारे में प्रचलित है कि वह घर फोरबा है और चुगली कर कर के भाई भाई को लड़ा देता है इसलिए ही उसका नाम चुगुलबा पड़ गया है।

मैं सभा स्थल के पीछे चला गया। वहीं दो तीन लोगों की टोली में भाषण पर ही बहस हो रही थी तभी माउर गांव के एक व्यक्ति हमलोगों की टोली में शामिल हो गया और भाषणकर्ता बंधु को जोर जोर से गलियाने लगे। सभा स्थल के पीछे हमलोगो की सभा लग गई। बहस होने लगी और महोदयजी
, जी हां, उनका नाम महोदय जी ही था, ने एक कथा हमलोगो को सुनाई जो मेरे जीवन पर गहरा असर छोड़ गया। उन्होंने कहा-

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Old 13-09-2014, 09:40 PM   #103
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

‘‘देखो बउआ इ जे समाज है वह किसी भी सुरत में सिर्फ निंदा ही करता है और उन्होंने सुनाया कि एक आदमी जब बुढ़ा हो गया तो उसने अपने बेटा को बुला कर कहा कि बेटा अब तुम बड़े हो गए हो अतः चलो तुम्हें दुनियादारी समझा देता हूं और उसने एक घोड़ा लिया तथा उसे पैदल ही लेकर चल पड़ा, बाप बेटा साथ साथ। कुछ दूर जाने के बाद लोगों ने कहना शुरू कर दिया- अरे यह क्या करते हो, घोड़ा के रहते पैदल चलते हो? फिर बाप घोड़ पर बैठ गया और बेटा लगाम पकड़ कर चलने लगा। रास्ते में मिलने वाले लोगों ने फिर निंदा की, सठीया गया है बुढ़ा, बुढापे में धोड़ा चढ़ता है और बेटा को पैदल चला रहा है? फिर बेटा को घोड़ा पर बैठा दिया और खुद लगाम पकड़ कर चलने लगा और तब लोगों ने कहना प्रारंभ कर दिया-अरे घोर कलयुग आ गया। बेटा घोड़ा पर बैठ कर जा रहा है और बाप से लगाम खिंचबा रहा है? अब अंतिम बिकल्प के रूप में दोनों बाप-बेटा घोड़ा पर चढ़ गए तो लोगो ंने फिर कहना प्रारंभ कर दिया। देखो देखो कितने पागल लोग है, एक घोड़ा पर दो-दो आदमी सवार हो गये। जरा भी दया-मया नहीं है।.....

‘‘खाली अपने अपने मस्ती मारमहीं हो, हमरो हिस्सा है।’’

रजनीश सिंह ने मेरी ओर इशारा करके जब यह कहा तो मेरे देह में आग लग गई
, फिर क्या था अपने से दुगुनी उम्र के रजनीश सिंह के साथ भिड़ गया। पता नहीं कहां से शक्ति आ गई और उसे पटक भी दिया। रजनीश सिंह नशे में भी था जिससे मुझे बल मिल गया। गुथ्म-गुथ्थी हुई और उसके चेहरे पर दे दना-दन, कई घूंसे धर दिए। यह सब कुछ, कुछ ही क्षण में हो गया और तब तक अलग-बलग के लोग दौड़ कर आए और दोनों को अलग किया। सभी लड़ाई की वजह जानना चाहते थे पर दोनों में से कोई भी वजह नहीं बताना चाहता। फिर रजनीश सिंह बाद में देख लेने की धमकी देकर वहां से चला गया।
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Old 13-09-2014, 09:41 PM   #104
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

शाम को तन्हा, उदास टहलते हुए अपने को इस स्थिति के लिए तैयार कर रहा था। मन का एक कोना यह कह रहा कि यह सब तो होना ही है। गांव में प्रेम का मतलब ही अलग होता है और दर्जनों किस्से इसको लेकर चलती रहती है। लोगों की नजर में प्रेम, प्रेम नहीं, एक दूसरे से फंसा होना है, बस। शरीर से इतर प्रेम की कोई परिभाषा आज तक नहीं गढ़ी गई थी। कुछ लोगों ने हिमाकत की भी थी पर गांव और समाज से लड़कर वह हार गया। पर अब मेरी हालत मेरे बस में नहीं रह गई थी और लगता था जैसे सबकुछ किसी से प्रेरित होकर हो रहा है।

भले ही मेरा प्रतिरोध बढ़ रहा था पर इस सबसे मेरी प्रतिबद्धता भी बढ़ती जा रही थी। एक जिद्द और जुनून अंदर घर बना चुका था। अब सोंचने समझने की क्षमता जैसे विलुप्त होती जा रही हो और कोई हो जो हाथ पकड़ किसी ओर ले जा रहा हो। ऐसा ही कुछ सोंचता हुआ अर्न्तद्वंद में जा रहा था कि रास्ते में सहपाठी राम मिल गया। कुछ दिन पहले भी उसने मुझे मेरे कैरियर को लेकर बहुत समझाया था और दिल की बात उससे कर भी लेता था। आज फिर वह मिल गया था पर उससे कन्नी काट कर मैं निकलना चाहता था कि उसने टोक दिया।

‘‘काहे, लगो है हमरो से गोसाल हो की, कन्नी काट के निकल रहलो हें।’’

‘‘नै ऐसन कोई बात नै है भाई, तोरा से कैसन गोस्सा, गोस्सा तो अपन तकदीर से है। साला बनल बनाबल खेल बिगड़ जा हे।’’

‘‘कौची बन बनाबल, भाई साहब इ दुनिया है, यहां ऐसने चलो है, काहे कि चिंता।’’
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Old 13-09-2014, 09:43 PM   #105
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Default Re: एक लम्बी प्रेम कहानी

‘‘चिंता तो होगेलई राम भाई, अब दिल काबू में नै है और साला करे ले चाहो हिए कुछ तो कोई न कोई आ के अड़ंगा लगा दे हो।’’

बात चल रही थी और फिर दिल की बात होने लगी तथा राम से कह दिया सारी घटना, कैसे कुरौनी में मेरी पिटाई हुई और फिर रजनीश सिंह से क्यों लड़ाई हुई।

‘‘अब बताहो, हमतो सोंचलिए हल कि पढ़ लिख के कुछ बन जइबै तब शादी ब्याह कंे बारे में सोंचबै, पर लगो है सोचल बात नै होबो है।’’

‘‘से तो है, मुदा समाज भी तो कुछ होबो हई।’’ रहना तो हमरा यहीं है और इ कभी ऐसन होबे ले नै देतो।’’

‘‘पर राम बाबू अब रीना के बिना लगो है नै जियल जाइतै।’’

‘‘सब ठीक बबलू भाई, पर मुर्गी खाइला से मतलब होबे के चाही, पांख काहे ले माथा पर बांधे के फेरा में लग हो।’’ राम ने एक बार फिर से यही तर्क दिया। मैं तिलमिला गया। मुर्गी के खाने और पांख को सर नहीं टांगने का मतलब मैं समझ रहा था। मैं जानता था कि राम क्यों ऐसा कह रहा है। सच तो यह है कि उसके मुर्गी खाने की चर्चा जोरों पर थी। अपने बहनोई कें घर रह कर उसके बहन से उसके चक्कर की चर्चा महिलाओं की बैठकी में होने लगी थी।

मैं थोड़ा गुस्से में आ गया-‘‘ राम बाबू मुर्गी खाने के लिए मांसाहारी होबे ले पड़तइ पर सब आदमी मांसाहारी तो नै होबो हई। शकाहारी आदमिया की करतइ। और कुछ कंे बिना मुर्गी खइले पांख टांगे के शौक होबो हई, ओकरा की करभो।’’
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Last edited by rajnish manga; 13-09-2014 at 09:46 PM.
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Old 13-09-2014, 09:47 PM   #106
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इतना कह कर मैं चला गया। अंदर जोर का संधर्ष हो रहा था। एक मन यह भी कह रहा था कि मेरी पिटाई की चर्चा रीना तो जरूर सुनी होगी फिर क्यों उसने कुछ खास नहीं किया। बगैर बगैर कई ख्याल मन को मथ रहे थे। देर शाम लौटा तो फूआ ने खाने की जिदद की तो मैं झुंझला गया और पेट दर्द होने की बात कह लालटेन लेकर एक किताब उलट दिया। रीना के ख्यालो में खोया, परेशां सा।

अब मन एक बात का निर्णय लेने के लिए द्वंद कर रहा था कि आखिर जब प्रेम पवित्र है तो छुपाना कैसा
? क्यों गांव वाले और मित्र लोग भी अन्य फंसने की कहानियों की तरह मुझे भी देखते है? अब इसे जगजाहिर होना ही चाहिए।

फिर पता नहीं क्या हुआ! एक लोहे का पेचकस ढूढ़ कर उसे गर्म करने लगा और फिर छन्न से आकर वह मेरे हाथ से सट गया। वांये हाथ पर कलाई से उपर अंग्रेजी में रीना लिखने लगा। धीरे धीरे पेचकस को गर्म करता और फिर उसे हाथ पर सटा देता। असाह्य दर्द और पीड़ा
, पर प्रेम की पीड़ा से कम ही। मुंह से उफ तक नहीं निकली।

‘‘ लगो है चमड़ा जरो है रे छौंड़ा, की करो हीं रे।’’ फुआ ने जब यह आवाज दी तो मैंने इसका प्रतिकार कर दिया और फिर उस रात नींद आंखों से रूठ कर रीना के पास चली गई। सुबह देखा तो हाथ पर फफोले निकले हुए थे। जलन असहनीय होने लगी और तब मैंने मिटृटी का एक लेप उसके उपर लगा दिया तथा पूरज्ञ बांह का एक शर्ट पहन कर घर से निकल गया।
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एक अजीब सा उन्माद छा गया। जाकर उसी बूढ़ा बरगद के नीचे बैठ गया जहां रीना को बांहो में लिया था। मन ही मन उससे बातें करने लगा। लगा जैसे वह सबकुछ सुन समझ रहा हो। अब मन ने विद्रोह कर दिया था और सोंच लिया की पढ़ने के लिए पटना नहीं जाना। जो होना होगा, सो होगा।

शाम में यूं ही टहलता हुआ जा रहा था कि रामदुलारी भौजी ने आवाज दी-बबलू बौउआ, कने भटक रहला हें, आबो, बैठो।’’

इससे पहले भी भौजी से बात चित के क्रम में एकाध बार रीना का जिक्र आ गया था तो उन्होंने हौसला ही दिया था, सो आज कदम उनके घर की ओर चला गया।

‘‘बैठो बउआ, काहे ले इ सब करो हो, सुनोहिओ रजनीश सिंह से लड़लहो हें, जानो हो नै, उ निरबंशा कैसन है।’’

‘‘छोड़ो भौजी बहुत दिन सीघा बनके रहलिए अब परिणाम देख लेलिए, साला कोई जीएले नै देतै।’’

‘‘हां बउआ से तो है, पर रीना बउआ भी तोरा पर जान दे हखुन, गरीब अमीर तो दुनिया मे होबे करो है। बेटिया के बियाह देला के बाद जब दमदा गरीब हो जा हई तब अदमिया की करो है। नसीबा केकरो हाथ में होबो हई।’’

भौजी मेरे मन की बात कह रही थी। हौसला दे रही थी। बहुत कम लोग थे जो मेरे साथ थे उसमें से भौजी एक थी। भौजी का नैहर रीना के ननीहाल में था सो उनसे मेरा विशेष लगाव था।
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‘‘कुरौनी गेलहो हल बउआ, हमरा सब पता हो। रीना तोरा वहां से आइला के बाद से भुखल प्यास हखुन। जिद्द पकड़ले हखुन की घर जइबै। उनकर नानी भी उनकरा के घर भेजे के लिए कह रहो हखीन।’’

तसल्ली हुई। शायद रीना अब अपने गांव वापस आ जाए। मन के किसी कोने में यह आश्वासन मिलने लगा और मैं जानता था कि रीना मेरे लिए किसी हद तक जा सकती है.


प्रेम एक महायज्ञ है जिसमें समर्पण की आहुति होती है और अपना सबकुछ समर्पित कर प्रेमी आत्मिक ईश्वर का आह्वान करतें है और जिसका फलाफल कामनाहीन होता है। प्रेम समर्पण का एक अंतहीन सिलसिला है जो जात-परजात, धर्म-अधर्म, मान-सम्मान, कर्म-कुकर्म की परीधि से परे समर्पण के सिद्वांत पर पलता है और अपना सबकुछ समर्पिम कर प्रेमी को वह सुख मिलता है जिससे वह स्वर्ग पाने के प्रलोभन का भी तिरस्कार कर दे।

मन के अन्दर उमड़ते-घुमड़ते अर्न्तद्वंद का बादल अब समर्पण की मुसलाधार बारिस की तैयारी में था। रह रह कर एक टीस उठती और प्रेम में आहुति को कोई ललकारता। निसंदेह रीना का प्रेम समर्पण की सारी परीधियों के परे जा सकता था पर मैं दो राहे पर खड़ा था। दोराहा इस मायने में की
, अपने घर की आर्थिक विपन्नता और उज्जवल भविष्य की कामना रह रह कर प्रेम डगर पर बढ़े पांव को अंदर की ओर खींच लेता। बाबूजी ने अपना जीवन शराब को समर्पित कर दिया है और घर में खाने का ठौर तक नहीं। छोटे चाचा की अभी एक साल पहले ही शादी हुई है, किसी तरह।
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शादी में सारा परिवार खुश था, खास कर बाबा पर शादी के कुछ माह बाद ही जब दोसूतबली चाची घर आई तो चाचा के पान की दुकान से होने वाली थोड़ी बहुत कमाई का हिस्सा जो घर खर्चे में लगता था वह भी चूकता रहा। चाची ने बाबा से साफ कह दिया कि-‘‘खाय बला सब बड़का बेटबा के हो तो कमाई बला हमर सैंया काहे, हमरा बांट के अलग कर दा।’’ उस रोज सात दशक पार कर चुके, लाठी टेक कर चलने वाले बाबा ने मर्यादा की सारी सीमाओं को पार कर सहारे की लाठी को छीनता देख चाची को लाठी लेकर मारने के लिए दौड़ पड़े। जिन बुढ़ी आंखों में अभी अभी बेटे का घर बसने की खुशी थी उनमें आज आश्रु के धार थे। छोटा भाई, जिसको कभी भी स्कूल जाने का सुअवसर नहीं मिला और पान की दुकान पर बैठना घर खर्चे की जिम्मेवारी में उसकी अपनी भागीदारी थी।

खैर
, जब इन सब बातों को याद करता तो कहीं दूर से जैसे कोई आवाज आती कि जिस प्रेम को पाने का तुम आकांक्षी हो उसी प्रेम के दुख का कारक भी क्या तुम्हीं बनोगे?

किशोरपन के इस दोराहे पर उपन्यास पढ़ने की लत लग गई थी जिसमें गुलशन नन्दा की लवस्टोरी तथा सुरेन्द्र मोहन पाठक की उपन्यास का मैं दिवाना हो गया था। पाठक जी के उपन्यास का कई डायलॉग जीवन को दोराहे से उबारने वाला साबित होता। उन्हीं में से
‘‘जो तुघ भाये नानका सोई भली तुम कर’’ संवाद के सहारे जीवन की नाव को ईश्वर के हवाले कर दिया।

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इन्हीं द्वंदो-प्रतिद्वंदो के बीच दो दिन गुजर गए। इस बीच फुआ से कोचिंग के लिए पटना नहीं जाने को लेकर वाकयुद्ध भी हो गया और मैंने सोचे गए अर्थाभाव का बहाना ही वहां आजमा कर मामले को इतिश्री कर दी। भला इतने कम खर्च पर पटना में पढ़ाई कैसे होगी, खर्च को दुगना करना पड़ेगा। तीसरे दिन दीया-बत्ती के बेला में मैं पोखर पर चहलकदमी कर रहा था की रीना के घर के आगे रिक्सा आकर रूका और दो आदमी के उससे उतरने का आभास भी हो गया। किसी ने जैसे कहा हो की रीना आ गई। चूकती हुई सांस जैसे वापस आ गई हो। धन्य भोला। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया।

अब
, जबकि हाथ पर रीना का नाम लिखे जाने का चर्चा गांव में नमक मिर्च के साथ साथ अचार मिलाकर चटखारे के साथ हो रही है तो मुझे सावधान रहकर योजना बनाने की जरूरत है। सो कुछ दिन एक दूसरे से मिलने या आंख मिचौली करने की लालसा को दफन कर दिया ताकि खामोशी रहे। पर यह खामोशी तूफान से पहले की खामोशी थी और तूफान के आने का आभास मुझे था। आठ से दस दिन गुजर गए, रीना घर से नहीं निकली थी और छत पर भी नहीं आ रही थी। शायद यही करार हुआ होगा उसके गांव वापसी का या फिर बाजी पलट गई है। मन ही मन सशंकित मैने पहले वाली शर्त को ही माना और अपनी ओर से भी किसी तरह की हलचल नहीं की।

आभासी दुनिया में दो दिलों का मिलन हो रहा था। शायद यह प्रेम के संवेदनाओं की पराकाष्ठा ही थी कि अपने अपने घरों में होने के बाद भी मिलन की तृप्ति से मन प्रफुल्लित हो उठा जैसे कई दिनों से सूखे धान की खेत को भादो के हथिया नक्षत्र ने सूढ़ लटका पर पानी से तर-बतर कर दिया हो। आभासी दुनिया में मिलन के इस नैसर्गिक सुख को सिर्फ जिया जा सकता है
, जाना नहीं जा सकता।
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